शनिवार, 20 अगस्त 2022

बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव

 21 अगस्त को पुण्यतिथि के अवसर पर

बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव

प्रो. अश्विनी केशरवानी

बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव छत्तीसगढ़ के उन साहित्यकारों में से थे जिन्होंने गद्य और पद्य दोनों में रचनाएं लिखे हैं। उनका जन्म फिंगेश्वर में श्री बनमाली लाल जी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 02 फरवरी सन् 1894 को हुआ। माता-पिता को उन्होंने आर्थिक रूप से संघर्ष करते देख बालपन से ही निश्चय कर लिया था कि उन्हें भी अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार जीवन जीना है। घर में बड़़े होने के कारण उन्होंने किशोरावस्था से ही अर्थोपार्जन में लग गये थे जिसके कारण 16-17 वर्ष के बजाय 21-22 वर्ष की आयु में मेट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही श्री माधवराव सप्रे का स्नेह और सानिघ्य उन्हें मिला और उनकी काव्यधारा का आरंभ हो गया। सप्रे जी जैसे गुरू ने उनकी काव्यधारा को देखा परखा और महसूस किया कि उनमें एक अच्छे साहित्यकार की संभावनाएं हैं लेकिन वे कहीं गद्य से दूर न हो जाये इसलिए उन्हें गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त किया। मेट्रिक करने के बाद श्रीवास्तव जी को सन् 1915 में रायपुर और 1916 में बिलासपुर के शासकीय स्कूल में मास्टरी की नौकरी मिली। लेकिन उन्होंने नौकरी ज्यादा दिन नहीं की और सप्रे जी के पास लौट आये और उन्हीं के पास 25 रूपये मासिक पर कार्य करने लगे। इसके साथ ही उनका लेखन जारी रहा। सप्रे जी के मार्गदर्शन में उन्होंने लोकमान्य तिलक के मराठी गीता रहस्य का हिन्दी अनुवाद किया। इसीप्रकार पं. हृदयनाथ द्वारा लिखित Public Services in India का ‘‘भारत में सरकारी नौकरियां‘‘ शीर्षक से, चिंतामणि विनायक बैद्य की महाभारत मीमांसा, दत्त भार्गव संवाद का मराठी से हिन्दी अनुवाद किया। सन् 1916 से 1917 के बीच सप्रे जी के सुझाये शीर्षक से 20 निबंधों का लेखन किया। 1919 से 1954 के बीच वे जबलपुर के ‘‘श्री शारदा‘‘ मासिक पत्रिका के उप संपादक, राष्ट्रीय विद्यालय रायपुर के मैनेजर रहे। आजादी मिलने के बाद सत्ती बाजार रायपुर के सहकारी बुनकर संघ के जुड़े बाद में 1952 से श्री किशोर पुस्तकालय पुरानी बस्ती रायपुर के पुस्तकालयाध्यक्ष रहे। लगभग साठ वर्षो तक उन्होंने साहित्य की सेवा की। उन्होंने प्रेरक कविताएं लिखीं, मराठी और अंगे्रजी के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया, निबंध, संस्मरण, नाटक और कहानियां लिखीं। सभा, सम्मेलनों, अधिवेशनों की रिपोर्ट तैयार की और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। उन्होंने पं. माधवप्रसाद सप्रे जी की जीवनी लिखी मगर अधूरी और अप्रकाशित रह गई थी जिसे जबलपुर के श्री गोविंद नारायण हार्डीकर ने पूरा किया और मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के द्वारा प्रकाशित की गई। 

मावलीप्रसाद जी द्विवेदी युग के ऐसे समर्थ कवि थे जिन्होंने रस, छंद और अलंकार से अपनी कविताओं का न केवल श्रृंगार किया बल्कि रीतिकालीन कवियों की भांति अपने विचारों को पिरोकर हिन्दी के उल्लेखनीय कवियों की श्रेणी में अपने को स्थापित किया। प्रो. बालचन्द कछवाहा ने ‘संस्कृति के उद्गाता मावली बाबू‘ में लिखा है-‘‘कविता के बहिरंग की भव्यता, अर्थ गांभीर्य तथा अर्थ के उत्कर्ष के साथ कवि की रस दृष्टि भी व्यापक है। वस्तुतः मावली बाबू रस को ही काव्य की आत्मा मानते थे। सहृदय पाठकों के हृदय को आल्हादित कर उन्हें ब्रह्मानंद की उच्च स्थिति में प्रतिष्ठित करने हेतु कवि बहुत सावधान है। ईश्वर स्वयं ही रस रूप है, आनंद स्वरूप है। सृष्टि का आरंभ, विकास और लय मानो प्रभु की आनंद केलि ही है।‘‘ देखिये उनकी कविता की एक बानगी:-

ब्रह्म की उपासना है, साहित्य उपासना भी

हृदय कमल जहां नित्य खिल जाता है।

आतम का प्रकाश होता भ्रम का विनाश होता

चंचल, चपल मन अनुभूति पाता है।

सत्य, शिव, सुन्दर स्वरूपता का होता जन्म

मलिन विरूपता का ह्रास होता जाता है।

सारे कुप्रभाव तजि करे जो साहित्य सेवा

वह व्रतधारी वीर ब्रह्मानंद पाता है।।

‘‘नैया है‘‘ पर उनका एक समस्या पूर्ति छंद की बानगी पेश है:-

तू है करूणा निधान, त्रिभुवन वीर राम

तेरो नाम द्वंदहीन, फंद सुलझैया है।

रमापति, क्षमा पति,संस पति, माया पति

पतित जनों की लाज, पत रखवैया है। 

राजिव नयन राम, लोचनाभिराम राम,

मातु कौशल्या का प्यारा तू कन्हैया है।

हित परखैया, जन दुख दलवैया राम

तू ही है खेवैया मोरी डगमग नैया है।।

भुजंगप्रयात छंद में मात्र चार छंदों में उन्होंने सरस्वती की वंदना की है:-

नमौ ईश्वरी शारदा, बुद्धिदा को।

जपै देव दवेी कवि वृंद जाको।।

कृपाकारिणी, मंगलानन्ददा को।  

सुवीणाधृता ब्रह्म पुत्री गिरा को।।

वे अक्सर बिलासपुर में पंडित सरयूप्रसाद त्रिपजी ‘मधुकर‘, द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘, प्यारेलाल गुप्त, बाबू यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव आदि से मिलने और भारतेन्दु साहित्य समिति के वार्षिक अधिवेशन में आया करते थे। उनके बारे में डाॅ. विमलकुमार पाठक लिखते हैं:- ‘गौर वर्णीय, लंबा चेहरा, बारीक घनी मूंछें, पतला कद काठी और थोड़ी झुकी हुई कमर, धोती-कमीज, पीला गमछा, सिर में गोल टोली और हाथ में छाता हाथ में लिए लंबे लंबे डग भरते रायपुर के सड़क में अक्सर देखा जाता था। गर्मी में माथे पर चुहचुहा आये पसीने को रूमाल या गमछे से पोंछते, पानी पीते, डकार लेते और थोड़ी देर तक रूमाल से हवा झेलते हुए स्वस्थ होकर रूकी बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते थे।‘

पंडित मुकुधर पाण्डेय जी अपने एक संस्मरण में बाबू मावली प्रसाद के बारे में लिखते हैं-‘‘मावलीप्रसाद हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध लेखक थे। उनके निबंध उच्च कोटि के होते थे। उन्होंने मौलिक लेख लिखकर जहां हिन्दी के निबंध साहित्य को समृद्ध बनाया, वहीं अनुवाद भी प्रस्तुत किया। श्रीवास्तव जी को स्वयं सप्रे जी से यह अनुवाद कला सीखने का सौभाग्य मिल था। उनका हिन्दी को प्रदेय सराहनीय है।‘‘ 

उनकी एक कविता का भाव देखिये:-

विजय वन का मैं सुमन हूँ। 

वास मुझमें जिस सगुण का,

उस सनातन का सदन हूँ।

झूमता हूँ कंटकों में,

विपिन में विकसित आशंकित।

तन समर्पिण की दिशा में,

मैं अकिंचन सी लगन हूँ। 

साथ जब तारन तरन है,

जो सदा आशरण शरण है।

चरण मंगल करण जिसका,

मैं अभय उसकी शरण है।।

उनके प्रशंसको में सेठ गोविंद दास, डाॅ. रामकुमार वर्मा, डाॅ. विनय मोहन शर्मा, हनुमान प्रसाद पोद्दार, डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र, पदुनपतल पुन्नालाल बख्शी, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. मुकुटधर पाडेय, प्यारेलाल गुप्त, द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘ रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल‘ नर्मदाप्रसाद खरे और प्रयागदत्त शुक्ल आदि प्रमुख थे। वास्तव में बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव मौन साधक और साहित्यिक संत थे। हिन्दी साहित्य में उनके अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे प्रभृत साहित्यकार का 21 अगस्त सन् 1974 को रायपुर में देहावसान हो गया।



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