बुधवार, 18 जनवरी 2012

संस्कृतनिष्ठ कवि चिरंजीवदास

       सभ्यता के विकास में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। गिरि-कंदराओं से निकलकर धरती के गर्भ को पवित्र करती ये नदियां क्षेत्रों और प्रदेशों को सिंचित ही नहीं करती बल्कि दो या दो से अधिक प्रदेशों की सभ्यता और वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ने का कार्य करती है। रायगढ़, छत्तीसगढ़ प्रांत का एक प्रमुख सीमावर्ती जिला मुख्यालय है। इस जिले की सीमाएं बिहार, उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जुड़ती है। अत: स्वाभाविक रूप से यहां उन प्रदेशों को प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां की सभ्यता, रहन सहन, और सांस्कृतिक परम्पराओं का सामीप्य उड़ीसा से अधिक है। पूर्ववर्ती प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत छत्तीसगढ़ का पूर्वी भाग उिड़या भाषी सम्बलपुर से जुड़ा था। यहां मिश्रित परम्पराएं देखने को मिलती हैं।
केलो नदी के तट पर बसा रायगढ़ पूर्व में छत्तीसगढ़ का एक ``फ्यूडेटरी स्टे्टस`` था। यहां के राजा कला पारखी, संगीत प्रेमी और साहिित्यक प्रतिभा के धनी थे। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यहां का गणेश मेला एक उत्सव हुआ करता थाण्ण्ण्और इस उत्सव में हर प्रकार के कलाकार, नर्तक, नाटक मंडली और साहित्यकार आपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके यथोचित पुरस्कार और सम्मान पाता था। इस प्रकार रायगढ़ सांस्कृतिक और साहिित्यक तीर्थ के रूप में ख्याति प्राप्त किया। संगीत और नृत्य के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में यहां अनेक मूर्धन्य साहित्यकार पुरस्कृत हुए। यहां के राजा चक्रधरसिंह स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार और कला पारखी थे। उनकी सभा में साहित्यकारों की भी उतनी ही कद्र होती थी जितनी अन्य कलाकारों की होती थी। उनके राज्य के अनेक अधिकारी और कर्मचारी भी साहिित्यक अभिरूचि के थे। ऐसे साहित्यकारों की लंबी श्रृंखला है। उन्हीं में से एक कड़ी के रूप में श्री चिरंजीवदास भी थे। श्री चिरंजीवदास रायगढ़ के सीमावर्ती ग्राम कांदागढ़ में श्री बासुदेव दास के पुत्ररत्न के रूप में पौष शुक्ल त्रयोदशी संवत् 1977, तद्नुसार 21 जनवरी 1920 ईण् को हुआ। उनका बचपन गांव की वादियों में गुजरा। उनकी शिक्षा दीक्षा रायगढ़ में ही हुई। वे सन् 1938 में नटवर हाई स्कूल से मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास करके 06 अप्रेल 1942 को तत्कालीन रायगढ़ रियासत में लिपिक पद पर नियुक्त हुये। इस पद पर कार्य करते हुए स्वाध्यायी होकर अध्ययन किये। उिड़या उनकी मातृभाषा थी। अत: स्वाभाविक रूप से उिड़या साहित्य में उनकी रूचि थी। इसके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। यहां की प्राकृतिक सुषमा, केलो नदी का झर झर करता प्रवाह, पहािड़यों और वनों की हरियाली उनके कवि मन को जागृत किया और वे काव्य रचना करने लगे। उन्होंने हिन्दी और उिड़या दोनों भाषा में काव्य रचना की है।
      10 मार्च सन् 1994 को भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर के खरौद ग्रामीण शिविर में मेरा उनका साहिित्यक परिचय हुआ। इस शिविर में मैंने अपना आलेख ``खरौद और शिवरीनारायण का पुराताित्वक महत्व`` पढ़ा था। मेरे इस आलेख से अनेक साहित्यकार प्रभावित होकर प्रसन्नता व्यक्त किये थे। तब मैं श्री चिरंजीवदास की सादगीपूर्ण व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुआ था। श्री स्वराज्य करूण ने उनके व्यक्तित्व को बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया है-``आडंबर और आत्म प्रचार के अंधे युग में पहुंच के जरिये अपनी पहचान बनाने वालों की भीड़ समाज के लगभग सभी क्षेत्र में हावी है। लेकिन श्री चिरंजीवदास का व्यक्तित्व और कृतित्व इस तरह की भीड़ से एकदम अलग है। अनेक वर्षो से सरस्वती की मौन साधना में लगे श्री चिरंजीवदास अपनी पहचान के संकट से बिल्कुल निश्चिंत नजर आते हैं। दरअसल उनकी तमाम चिंताएं तो विश्व की उस प्राचीनतम भाषा के साथ जुड़ गई है जो सभी भारतीय भाषाओं की जननी होकर भी अपने ही देश में अल्प मत में है।`` डॉण् प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं-``संस्कृत साहित्य के रस मर्मज्ञ चिरंजीवदास का सृजनशील व्यक्तित्व अनेकायामी है। हिन्दी के अधिकांश पाठक उन्हें अनुवादक के रूप में जानते हैं। श्री दास के द्वारा किये गये अनुवाद वस्तुत: उनके सृजनात्मक कल्पना के ही प्रतीक हैं। इन अनुवादों के कारण उन्हें सृजन का एक ऐसा संस्कार प्राप्त हुआ है जिसके कारण उन्होंने साहित्य के सौंदर्य और मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्नों को कभी अखबारी जल्दबाजी में नहीं देखा। अगर प्रसिद्ध कवि और आलोचक श्री अशोक बाजपेयी का शब्द उधार लेकर कहें तो श्री चिरंजीवदास समकालीनता से मुक्त हैं। उनकी कविता मुख्य रूप से संस्कारधमीZ ललित कल्पना से ही निर्मित है। छायावादोत्तर युग की काव्य भाषा में पौराणिक कल्पनाओं के सजग प्रयोग के साथ उन्होंने इस यंग की असीम सभ्यता को भी गहराई से मूर्त करने की कोशिश की है। उनकी अपनी कविता प्रेम और प्रगति के सबल आधारों पर टिकी है। उसमें परंपरागत प्रबंधात्मकता और प्रासंगिक आधुनिकता के अतिरिक्त निजी अनुभूति का खरापन भी सक्रिय है।``
        पूर्वी मध्यप्रदेश में रायगढ़ शहर के वाशिदें चिरंजीवदास उसी संस्कृत भाषा के एकांत साधक और हिन्दी अनुवादक हैं, जो सभी भाषाओं की जननी है। उनके द्वारा किये गये अनुवाद का यदि सम्पूर्ण प्रकाशन हो तो प्राचीनतम संस्कृत भाषा और हिन्दी जगत के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क सेतु बन सकता है। सन 1960 में महाकवि कालिदास के मेघदूत ने उन्हें अनुवाद करने की प्रेरणा दी। हिन्दी और उिड़या भाषा में कविताएं तो वे सन् 1936 से लिखते आ रहे हैं। लेकिन पिछले 34 वर्षो में उन्होंने मेघदूत के अलावा कालिदास के ऋतुसंहार, कुमारसंभव और रघुवंश जैसे सुप्रसिद्ध महाकाव्यों के साथ साथ जयदेव, भतृZहरि, अमरूक और बिल्हण जैसे महाकवियों की संस्कृत रचनाओं का सुन्दर, सरल और सरस पद्यानुवाद भी किया है। उमर खैय्याम की रूबाईयों के फिट्जलैंड द्वारा किये गये अंग्रेजी रूपांतरण का दास जी ने सन् 1981 में उिड़या पद्यानुवाद किया है। प्रकाशन की जल्दबाजी उन्हें कभी नहीं रही। शायद इसीकारण उनके द्वारा 1964 में किया गया ऋतुसंहार का हिन्दी पद्यानुवाद अभी प्रकाशित हुआ है। सिर्फ ऋतुसंहार ही क्यों, सन् 1962 में जयदेव कृत गीतगोविंद, सन् 1972 में महाकवि अमरूक उचित शतक और सन् 1978 में महाकवि बिल्हण कृत वीर पंचाशिका के हिन्दी पद्यानुवाद अभी अभी प्रकाशित हुआ है। इसे दुभाZग्य ही कहा जाना चाहिए कि ऐसे उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक हमारे यहां नहीं हैं। इन पुस्तकों को श्री दास ने स्वयं प्रकाशित कराया है। इसी प्रकार सन् 1979 में उन्होंने महाकवि हाल की प्राकृत रचना गाथा सप्तशती का हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसके पूर्व कालिदास के मेघदूत का सन् 1960 में, कुमारसंभव का 1970 में और रघुवंश का 1974 में पद्यानुवाद वे कर चुके थे। उनकी अधिकांश पुस्तकें अभी तक अप्रकाशित हैं। आधी शताब्दी से भी अधिक से सतत जारी अपनी इस साहिित्यक यात्रा में श्री चिरंजीवदास एक सफल आध्याित्मक साहित्यकार और अनुवादक के रूप में रेखांकित होते हैं। अपनी साहिित्यक यात्रा के प्रारंभिक दिनों का स्मरण करते हुये वे बताते हैं-`` जब मैं 15-16 वर्ष का था, तभी से मेरे मन में काव्य के प्रति मेरी अभिरूचि जागृत हो चुकी थी। मैं हिन्दी में कविताएं लिखता था। सन् 1960 में महाकवि कालिदास का मेघदूत को पढ़कर लगा कि संस्कृत के इतने सुंदर काव्य का यदि हिन्दी में सरस पद्यानुवाद होता तो कितना अच्छा होता ? और तभी मैंने उसका पद्यानुवाद करने का निश्चय कर लिया।`` श्री दास ने मुझे बताया कि अनुवाद कर्म में मुझे हिन्दी और उिड़या भाषा ने हमेशा प्रेरित किया। क्योंकि ये दोनों भाषा संस्कृत के बहुत नजदीक हैं। संस्कृत के कवियों में महाकवि कालिदास की रचनाओं ने चिरंजीवदास को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि कालिदास के काव्य का आयाम बहुत विस्तुत है, विशेषकर रघुवंश में उनकी सम्पूर्ण विचारधारा भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अदम्य प्रेम, आर्य परंपरा के प्रति अत्यंत आदर और लगाव स्पष्ट है।
         उनकी आरंभिक रचनाओं में छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविताओं में शिल्प के पुरानेपन के बावजूद कुछ ऐसे अछूते विषय भी हैं जिन पर कविता लिखने की कोशिश ही उनके अंतिर्नहित नैतिक साहस को प्रदर्शित करता है। ऋग्वेद के यम और यमी पर लिखित उनकी सुदीघZ कविता इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कथात्मक आधार पर लिखी गयी ``रति का शाप`` और उड़ीसा की लोकगाथा पर आधारित ``केदार गौरी`` जैसे प्रबंध कविताओं में भी हम स्त्री-पुरूष के अनुराग की ओर उनके गहन संपर्क की रंगारंग अभिव्यक्ति देखते हैं। मुक्त छेद में लिखी गई उनकी अनेक कविताएं इसके प्रमाण हैं। आज से 50 वर्ष पूर्व उनकी कविताओं में प्रगतिशील दृष्टि मौजूद थी। आदिवासी लड़की पर लिखी ``मुंडा बाला`` कविता उनके सौंदर्य बोध और उनकी करूणा को मूर्त करने वाली कविता है। मैं डॉण् प्रभात त्रिपाठी के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूं कि ``आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में उनकी कविता को पढ़ना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है कि उनकी कविताओं में विस्तृत कर दी गयी शब्दावली के पुनर्वास का सार्थक प्रयास है। संस्कृत के वर्णवृथी के अतिरिक्त उिड़या एवं बंगला के लयात्मक संस्कारों को धारण करने वाली उनकी कविता हमारी जातीय स्मृतियों की जीवंतता को उजागर करती है। केवल शािब्दक चमत्कार के स्तर से गहरे उतरकर वे इस शब्दावली में अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा एक नई अर्थवत्ता रचते हैं। अपने व्यक्त रूप में उनकी कविता का आकार पुरातनपंथी सा लग सकता है किंतु यह अनेक आवाजों से बनी कविता है। एक गंभीर हृदय के लिए यह कविता आ अजस्र अवकाश है। काल और कालातीत इतिहास और पुराण लोक और लोाकोत्तर को एक दूसरे से मिलाने की कोशिश करती श्री चिरंजीवदास की कविताएं इन्ही काव्य परंपरा की सार्थक और गंभीर रचना है।``
      देशी रियासतों के मध्यप्रदेश में विलीनीकरण हो जाने पर श्री चिरंजीवदास की सेवाएं मण्प्रण्शासन द्वारा गृहित कर ली गई। शासकीय सेवा में कार्य करते हुए उन्होंने अपनी साहिित्यक यात्रा जारी रखी। इस बीच वे संस्कृत साहित्य की ओर उन्मुख हुए। इसी का परिणाम है कि वे सेस्कृत भाषा में लिखित पुस्तकों का हिन्दी पद्यों में अनुवाद किये। इसीलिए उनके काव्यों में संस्कृत शब्दों का पुट मिलता है। 31 जनवरी सन् 1979 को लेखाधिकारी (राजस्व) के पद से सेवानिवृत्त होकर केलो नदी के तट पर स्थित अपने निवास में साहिित्यक साधना में रत रहे। ऐसा कोई साहिित्यक व्यक्ति रायगढ़ में नहीं हैं जो उनसे किसी न किसी रूप में जुड़े हों ? जब भी आप उनके निवास में जाते तो उन्हें अध्ययनरत ही पातेण्ण्ण्समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे। उनकी मौन साधना का ही परिणाम है कि अब तक वे दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखी और अनुवाद किया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में रघुवंश, ऋतुसंहार, गीतगोविंद, अमरूक शतक, चौर पंचाशिका और संचारिणी प्रमुख है। उनकी अप्रकाशित कृतियों में कुमारसंभव, मेघदूत, रास पंचाध्यायी, श्रीकृष्ण कर्णमृत, किशोर चंदानंदचंपू, भतृZहरि, शतकत्रय रसमंजरी और आर्य सप्रशनी प्रमुख है। उन्होंने फिट्जलैंड की अंग्रेजी रचना का उिड़या में ``उमर खैय्याम`` शीर्षक से पद्यानुवाद किया है।
       उनकी रचनाओं में उत्कृष्ट रचनाकार कालिदास की रचनाओं का अनुवाद प्रमुख है। उन्होंने कालिदास को परिभाषित करते हुए लिखा है:- ``कीर्तिरक्षारसंबद्धा स्थिराभवति भूतले`` अथाZत् कालिदास निश्चय ही अक्षरकीर्ति है।
     धार्मिक ग्रंथों को छोड़ दे और केवल कला साहित्य की बात करें तो भास आदि नाटककार अवश्य ही कालिदास के पूर्व हुए किंतु काव्य के क्षेत्र में कालिदास अवश्य ही अग्रगण्य हैं और न केवल अग्रगण्य बल्कि आज तक हुए कवियों में सर्वश्रेष्ठ भी। ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि जब तक पृथ्वी में साहित्य के प्रति आदर रहेगा तब तक कालिदास को स्मरण किया जाता रहेगा। वे वाग्देवी के अमर पुत्र हैं-शब्द ब्रह्य के सर्वाधिक लाड़लेण्ण्। वे शब्दों से खेले किंतु मानो शब्द ही उनके हाथों पड़ने के लिए तरसते थे। कालिदास ऐसे समय में हुए जब भारत की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक जीवन में ह्रास और अवमूल्यन के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे थे। क्रांतिदशीZ कालिदास ने देश की इस दुराव्यवस्था को देखा और उस पर मनन किया। उनके पास राजनीतिक शक्ति नहीं थी, वे धार्मिक नेता भी नहीं थे और न ही सामाजिक ह्रास को रोकने में सक्षम। वे एक कवि थे और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वे केवल अपने काव्य पर अवलंबित थे। अत: वे माध्यम से भारतीय जनता को जागृत करने करने का बीड़ा उठाया और इसमें वे पूरी तरह सफल भी हुए। श्री चिरंजीवदास का ऐसा मानना है कि कालिदास ने काव्य नहीं लिखा बल्कि उसका दर्शन किया है- ``पश्य देवस्य काव्यं न ऋषेति न विभेति`` प्रसिद्ध टीकाकार मिल्लनाथ लिखते हैं कि उनकी वाणी के सार को स्वयं कालिदास, मां सरस्वती और सृष्टिकत्ताZ ब्रह्या जी ही समझ सके हैं। तब मैं उनकी रचना को समझकर उसका अनुवाद करने वाला कौन होता हूं ? मैंने यह अनुवाद अपनी विद्वता दिखाने के लिए नहीं बल्कि उनकी कृतियों को जन साधारण तक पहुंचाने के लिए किया है। उनका ऐसा करना कितना सार्थक है, इसका निर्णय पाठक करेंगे, ऐसा उन्हें विश्वास है। तब मुझे उनकी ``मुरली बजरी`` कविता की ये पंक्तियां याद आ रही है :-
          इन प्राणों की प्यास जता दे,
          इन सांसों का अर्थ बता दे,
          स्वर में मेरे स्पंदन सुलगा,
          आहों का प्रज्वलित पता दे।

शनिवार, 14 जनवरी 2012

तिलगुजिया का पर्व संक्रांति



सूर्य का मकर राशि में प्रवेश ‘संक्रांति‘ कहलाता है। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। इस समय शीत पर धूप की विजय प्राप्त करने की यात्रा शुरू हो जाती है। उत्तरायण से दक्षिणायन के समय में ठीक इसके विपरीत होता है। वैदिक काल में उत्तरायण को ‘देवयान‘ तथा दक्षिणायन को ‘पितृयान‘ कहा जाता था। मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिये गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएं शरीर छोड़कर स्वार्गादि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसीलिए यह आलोक का पर्व माना गया है।

धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए लोग गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चांवल आदि का दान करते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष महत्व होता है। विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शांति, अपने स्वास्थ्यवर्द्धन और सर्व कल्याण के लिए तिल के छः प्रकार के प्रयोग पुण्यदायक व फलदायक होते हैं-तिल जल स्नान, तिल दान, तिल भोजन, तिल जल अर्पण, तिल आहुति और तिल उबटन मर्दन। कदाचित् यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में इस दिन तिल उबटन के रूप में लगाकर नदियों में स्नान करते हैं, तिल का दान करते हैं, तिलगुजिया, तिल से बने गजक, रेवड़ी और खिचड़ी खाने-खिलाने का रिवाज है।

इस पर्व में शीत के प्रकोप से छुटकारा पाने के लिए तिल को शरीर में मलकर नदी में स्नान करने का विशष महत्व बताया गया है। तिल उबटन, तिल हवन, तिल का व्यंजन और तिल का दान, सभी पाप नाशक है। इसलिए इस दिन तिल, गुड़ और चीनी मिले लड्डु खाने और दान करने का विशष महत्व होता है। यह पुनीत पर्व परस्पर स्नेह और मधुरता को बढ़ाता है। धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए लोग गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चांवल आदि का दान करते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष महत्व होता है।

विभिन्न राज्यों में संक्रांति:-

इलाहाबाद में माघ मास में गंगा-यमुना के रेत में पंडाल बनाकर कल्पवास करते हैं और नित्य गंगा स्नान करके दान आदि करके किला में स्थित अक्षयवट की पूजा करते हैं। प्रलय काल में भी नष्ट न होने वाले अक्षयवट की अत्यंत महिमा होती है। इस अवसर पर उसकी पूजा-अर्चना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा सागर में भी बड़ा मेला लगता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत की थी। इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीढ़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-‘सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।‘

हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चांवल और भूने हुए मक्का की आहूति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियां आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मनाते हैं। नई बहू और नवजात बच्चांे के लिए लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है। महाराष्ट्र प्रांत में इस दिन ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं:- ‘लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला‘ अर्थात् तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं। बंगाल में भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है। असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। तामिलनाडु में मकर संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल सामान्यतः तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

पतंग उढ़ाने की विशिष्ट परंपरा:-

मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की विशेष परंपरा है। देशभर में पतंग उड़ाकर मनोरंजन करने का रिवाज है। पतंग उड़ाने की परंपरा का उल्लेख श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है। बाल कांड में उल्लेख है- ‘राम इक दिन चंग उड़ाई, इंद्रलोक में पहुंची गई।‘ त्रेतायुग में ऐसे कई प्रसंग हैं जब श्रीराम ने अपने भाईयों और हनुमान के साथ पतंग उड़ाई थी। एक बार तो श्रीराम की पतंग इंद्रलोक में पहुंच गई जिसे देखकर देवराज इंद्र की बहू और जयंत की पत्नी उस पतंग को पकड़ ली। वह सोचने लगी-‘जासु चंग अस सुन्दरताई। सो पुरूष जग में अधिकाई।।‘ पतंग उड़ाने वाला इसे लेने अवश्य आयेगा। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी पतंग वापस नहीं आया तब श्रीराम ने हनुमान को पतंग लाने भेजा। जयंत की पत्नी ने पतंग उड़ाने वाले के दर्शन करने के बाद ही पतंग देने की बात कही और श्रीराम के चित्रकूट में दर्शन देने के आश्वासन के बाद ही पतंग लौटायी। ‘तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग। खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।।‘ इससे पतंग उड़ाने की प्राचीनता का पता चलता है। भारत में तो पतंग उड़ाया ही जाता है, मलेशिया, जापान, चीन, वियतनाम और थाईलैंड आदि देशों में पतंग उड़ाकर भगवान भास्कर का स्वागत किया जाता है।

मांगलिक कार्यो की शुरूवात:-

पौष मास में देवगण सो जाते हैं और इस मास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होते। लेकिन माघ मास में मकर संक्रांति के दिन से देवगण जाग जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इस दिन से मांगलिक कार्य-उपनयन संस्कार, नामकरण, अन्नप्राशन, गृह प्रवेश और विवाह आदि सम्पन्न होने लगते हैं।

संक्रांति श्राद्ध-तर्पण:-

राजा भगीरथ ने अपने पितरों का गंगाजल, अक्षत और तिल से श्राद्ध-तर्पण किया था जिससे उनके पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिली थी। तब से मकर संक्रांति स्नान, मकर संक्रांति श्राद्ध-तर्पण और दान आदि की परंपरा प्रचलित है।

मकर संक्रांति का महत्व:-

शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक और उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, स्नान, दान, श्राद्ध और तर्पण आदि धार्मिक क्रिया का विशेष महत्व होता है। इस दिन ऐसा करने से सौ गुना पुण्य मिलता है। इस दिन शुद्ध घी और कंबल दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहा भी गया हैः-

माघे मासि महादेव यो दान घृत कंबलम्।
सभुक्तवा सकलान मो गान अंते मोक्ष च विदंति।।

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा स्नान और दान को अत्यंत शुभकारी और पुण्यदायी माना गया है। इस दिन प्रयागराज और गंगा सागर में स्नान करने को महास्नान कहा गया है। सामान्यतया सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करता है, किंतु कर्क और मकर राशि में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रक्रिया छः छः माह के अंतराल में होता है। भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित होता है। मकर संक्रांति के पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है। इसीलिए यहां रातें बड़ी और दिन छोटा होता है। किंतु मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उक्रारी गोलार्द्ध की ओर आने लगता है जिससे यहां रातें छोटी और दिन बड़ा होने लगता है। इस दिन से गर्मी बढ़ने लगती है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा और रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा। इसलिए मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को ‘अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर‘ होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से जीवों की चेतन एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होती है। इसी मान्यता के कारणलोगों के द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की आराधना, उपासना और पूजा आदि करके कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

सामान्यतया भारतीय पंचांग की समस्त तिथियां चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती है, किंतु मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित की जाती है। इसी कारणयह पर्व हमेशा 14 जनवरी को ही पड़ता है।

ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनिदेव से मिलने उनके घर जाते हैं। चंूकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपने देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति के दिन का ही चयन किया था। इसी दिन गंगा जी भगीरथ के पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम होते समुद्र में जा मिली थी। इसीलिए गंगा सागर में गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है।

मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक वातावरण में अधिक मात्रा में चैतन्य होता है। साधना करने वाले लोगों को इसका सर्वाधिक लाभ होता है। इस चैतन्य के कारण जीवन में विद्यमान तेज तत्व के बढ़ने में सहायता मिलती है। इस दिन रज, तम की अपेक्षा सात्विकता बढ़ाने एवं उसका लाभ लेने का प्रयत्न करना चाहिए। यह दिन साधना के लिए अनुकूल होता है। ऐसी मान्यता है कि सूर्यदेव पुत्र शनिदेव और पत्नी छाया के शाप से कोढ़ी हो गये थे लेकिन दूसरे पुत्र यमराज के प्रयत्न से उन्हें कोढ़ से मुक्ति मिली और वरदान भी मिला कि जो कोई सूर्य के चेहरे की पूजा करेगा उसे कोढ़ से मुक्ति मिल जायेगा। बाद में सूर्यदेव के कोप से शनि और पत्नी छाया का वैभव समाप्त हो गया। कालान्तर में शनिदेव और पत्नी छाया के तिल से समर्यदेव की पूजा करने पर उन्हें पुनः वैभव प्राप्त हुआ। तब सूर्यदेव ने वरदान दिया कि मकर संक्रांति को जो कोई उनकी तिल से पूजा करेगा उसे दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मुक्ति मिल जायेगा, कष्ट और विपत्ति का नाश हो जावेगा। कदाचित् इसीकारण इस दिन तिल का उपयोग विविध रूपों में किया जाता है।

बुधवार, 4 जनवरी 2012

छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय

   छत्तीसगढ़ के गौरव पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय 

 छत्तीसगढ़ जैसे वनांचल के किसी ग्रामीण कवि को साहित्य का सर्वोच्च सम्मान “साहित्य वाचस्पति” दिया जाये तो उसकी ख्याति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। बात तब की है जब इस सम्मान के हकदार गिने चुने लोग थे। छत्तीसगढ़ की भूमि को गौरवान्वित करने वाले महापुरूष बालपुर के प्रतिष्ठित पाण्डेय कुल के जगमगाते नक्षत्र पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय थे। उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् 1948 में मेरठ अधिवेशन में साहित्य वाचस्पति से सम्मानित किया गया था। वे इस सम्मान से विभूषित होने वाले छत्तीसगढ़ के पहले व्यक्ति थे। इस सम्मान को पाले वाले व्यक्तियों को पाण्डेय जी ने इस प्रकार रेखांकित किया है :-
          गर्व गुजरात को है जिनकी सुयोग्यता का,
          मुंशीजी कन्हैयालाल भारत के प्यारे हैं
          विश्वभारती है गुरूदेव का प्रसिद्ध जहॉ
          उस बंगभूमि के सुनीति जी दुलारे हैं
          ब्रज माधुरी के सुधा सिंधु के सुधाकर में
          विदित वियोगी हरि कवि उजियारे हैं
          मंडित “साहित्य वाचस्पति” पदवी से हुए
          लोचन प्रसाद भला कौन सुनवारे हैं।
     बाद में इस अलंकरण से छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकार विभूषित किये गये। कहना अनुचित नहीं होगा कि छत्तीसगढ़ में अन्यान्य उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। पंडित शुकलाल पाण्डेय की एक कविता देखिये:-
          यही हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवर
          उत्तर राम चरित्र ग्रंथ है जिसका सुन्दर
          वोपदेव से यही हुए हेैं वैयाकरणी
          है जिसका व्याकरण देवभाषा निधितरणी
          नागर्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान से
          कोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से ।
     छत्तीसगढ़ की माटी को हम प्रणाम करते हैं जिन्होंने ऐसे महान् सपूतों को जन्म दिया है। छत्तीसगढ़ वंदना की एक बानगी स्वयं पाण्डेय जी के मुख से सुनिए:-
          जयति जय जय छत्तीसगढ़ देस
          जनम भूमि, सुखर सुख खान ।
          जयति जय महानदी परसिद्ध
          सोना-हीरा के जहॉ खदान ॥
          जहॉ के मोरध्वज महाराज
          दान दे राखिन जुग जुग नाम ।
          कृष्ण जी जहॉ विप्र के रूप
          धरे देखिन श्री मनिपुर धाम ॥
          जहॉ है राजिवलोचन तिरिथ
          अउ, सबरीनारायण के क्षेत्र ।
          अमरकंटक के दरसन जहॉ
          पवित्तर होथे मन अउ नेत्र ॥
          जहॉ हे ऋषभतीर्थ द्विजभूमि
          महाभारत के दिन ले ख्यात् ।
          आज ले जग जाहिर ऐ अमिट
          जहॉ के गाउ दान के बात ॥
     मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। मुझे यह विधा विरासत में मिली है। क्योंकि प्राचीन काल में महानदी का तटवर्ती क्षेत्र बालपुर, राजिम और शिवरीनारायण सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ थे। उस काल के केंद्र बिंदु थे- शिवरीनारायण के तहसीलदार और सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह जिन्होंने छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को केवल समेटा ही नहीं बल्कि उन्हें एक दिशा भी दी है। उस काल की रचनाधर्मिता पर पाण्डेय जी के अनुज पंडित मुकुटधर पाण्डेय के विचार दृष्टव्य है- “मुझे स्मरण होता है कि भाई साहब ने जब लिखना शुरू किया तब छत्तीसगढ़ में हिन्दी लिखने वालों की संख्या उंगली में गिनने लायक थीं। जिनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पाण्डेय, परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पाण्डेय, शिवरीनारायण के ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. मालिक राम भोगहा, हीराराम त्रिपाठी, धमतरी के कृष्णा नयनार, कवि बिसाहूराम आदि प्रमुख थे। छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखने वाले काव्योपाध्याय हीरालाल दिवंगत हो चुके थे। राजिम के पं. सुंदरलाल शर्मा की छत्तीसगढ़ी दानलीला नहीं लिखी गई थी। माधवराव सप्रे का पेंड्र्ा से निकलने वाला 'छत्तीसगढ़ मित्र' नामक मासिक पत्र बंद हो चुका था और वे नागपुर से 'हिन्द केसरी' नामक साप्ताहिक पत्र निकालने लगे थे। भाई साहब सप्रेजी को गुरूवत मानते थे। मालिक राम भोगहा से हमारे ज्येष्ठ भ््रा्राता पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय की मित्रता थी और वे नाव की सवारी से बालपुर आया करते थे। वे ठा. जगमोहन सिंह के शिष्य थे। उनकी भाषा अनुप्रासालंकारी होती थी। भाई साहब उन्हें अग्रज तुल्य मानते थे। प्रारंभ में भाई साहब की लेख्न शेैली उनसे प्रभावित थी, उनका गद्य भी अनुप्रास से अलंकृत रहता था।”
     “मैं कवि कैसा हुआ” शीर्षक से लिखे लेख के प्रारंभ में लोचन प्रसाद जी लिखते हैं :-”एक दिन शाम को मैं काम से आकर आराम से अपने धाम में बैठकर मन रूपी घोड़े की लगाम को थाम उसे दौड़ाता फिरता तथा मौज से हौज में गोता लगाता था कि मेरी कल्पना की दृष्टि में एकाएक कवि की छवि चमक उठी।“ यही उनकी लेखनी के प्रेरणास्रोत थे। हालांकि उन्होंने लेखन की शुरूवात काव्य से किया मगर बाद में वे इतिहास और पुरातत्व में भी लिखने लगे।
     उनकी पहली रचना सन् 1904 में बालकृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित हुई। फिर उनकी रचनाएं सन् 1920 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही। इस बीच उनके करीब 48 पुस्तकें विभिन्न प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित हुईं उनकी प्रथम काव्य संग्रह “प्रवासी” सन् 1907 में राजपूत एंग्लो इंडियन प्रेस आगरा से प्रकाशित हुई। यह पाण्डेय कुल से प्रकाशित होने वाला पहला काव्य संग्रह था। इसके पूर्व 1906 में उनका पहला हिन्दी उपन्यास “दो मित्र” लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद से प्रकाशित हो चुका था। इसी प्रकार खड़ी बोली में लिखी गई लघु कविताओं का संग्रह “नीति कविता” 1909 में मड़वाड़ी प्रेस नागपुर से प्रकाशित हुआ। नागरी प्रचारणी सभा बनारस ने इसे “उत्तम प्रकाशित उपयोगी पुस्तक” निरूपित किया। सन् 1910 में पांडेय जी ने ब्रज और खड़ी बोली के नये पुराने कवियों की रचनाओं का संकलन-संपादन करके “कविता कुसुम माला” शीर्षक से प्रकाशित कराया। इससे उन्हें साहित्यिक प्रतिष्ठा मिली और उनकी गणना द्विवेदी युग के शीर्षस्थ रचनाकारों में होने लगी। तब वे 24-25 वर्ष के नवयुवक थे। फिर उनकी भक्ति उपहार, भक्ति पुष्पांजलि और बाल विनोद जैसी शिक्षाप्रद रचनाएँ छपीं। फिर उनके रचनाकाल का उत्कर्ष आया। सन् 1914 में माधव मंजरी, मेवाड गाथा, चरित माला और 1915 में पुष्पांजलि, पद्य पुष्पांजलि जैसी महत्वपूर्ण कृतियॉ प्रकाशित हुई।

     20 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षो में जब श्रीधर पाठक ने गोल्ड स्मिथ के “डेजर्टेेड विलेज” का “उजाड़ गॉव” के नाम से अनुवाद किया था। उसी तर्ज में पाण्डेय जी ने भी “ट्रेव्हलर” की शैली में “प्रवासी” लिखा है। जो अनुवाद नहीं बल्कि मौलिक रचना है। इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन की झांकी देखने को मिलता है। “कविता कुसुम माला” में ब्रज भाषा में पाण्डेय जी की कविताएं संग्रहित हैं।
     हिन्दी नाटक के विकास में पाण्डेय जी का अभूतपूर्व योगदान है। उन्होंने प्रेम प्रशंसा या गृहस्थ दशा दर्पण, साहित्य सेवा, छात्र दुर्दशा, ग्राम विवाह, विधान और उन्नति कहॉ से होगी, आदि नाटकों की रचना की है। उन्होंने सन् 1905 में “कलिकाल” नामक नाटक लिखकर छत्तीसगढ़ी भाषा में नाटय लेखन की शुरूवात की। आचार्य रामेश्वर शुक्ल अंचल ने पाण्डे जी की गणना हिन्दी के मूर्धन्य निबंधकारों में की है। लेकिन आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने पाण्डेय जी को स्वच्छदंतावादी काव्य की पुरोधा मानते हुए लिखा है - “लोचन प्रसाद पाण्डेय के काव्य में संस्कृत छंद और भाषा का अधिक स्पष्ट निदर्शन है। उनके काव्य में पौराणिकता की छाप भी है। इसमें संदेह नहीं कि उनकी कविता पर उड़िया और बांगला भाषा का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी सारी रचनाएँ उपदेशोन्मुखी है”
     महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “कविता कलाप” में पं. लोचन प्रसाद जी की रचनाओं को स्थान दिया है और      श्री नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पाण्डेय, रामचरित उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त और कामता प्रसाद गुरू को “कवि श्रेष्ठ” घोषित किया है।
     पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, उड़िया, बंग्ला, पाली, संस्कृत आदि अनेक भाषाओं का ज्ञान था। इन भाषाओं में उन्होंने रचनाएं की है। उनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर बामुण्डा; उड़िसा के नरेश द्वारा उन्हें “काव्य विनोद” की उपाधि सन् 1912 में प्रदान किया गया। प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन गोंदिया में उन्हें “रजत मंजूषा” की उपाधि और मान पत्र प्रदान किया गया। पं. शुकलाल पाण्डेय “छत्तीसगढ़ गौरव” में उनके बारे में लिखते हैं -
          यही पुरातत्वज्ञ-सुकवि तम मोचन लोचन
          राघवेन्द्र से बसे यहीं इतिहास विलोचन ।
     ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. लोचन प्रसाद पांण्डेय जी का जन्म जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर के सुपरिचित पाण्डेय कुल में पौष शुक्ल दशमी विक्रम संवत 1943 तदनुसाद 4 जनवरी सन् 1887 को पं. चिंतामणी पांडेय के चतुर्थ पुत्र रत्न के रूप में हुआ। वे आठ भाई सर्व श्री पुरूषोत्तम प्रसाद, पदमलोचन, चन्द्रशेखर, लोचन प्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा चार बहन चंदन कुमारी, यज्ञ कुमारी, सूर्य कुमारी, और आनंद कुमारी थीं। उनकी माता देवहुति ममता की प्रतिमूर्ति थी। पितामह पंडित शालिगराम पांडेय धार्मिक अभिरूचि और साहित्य प्रेमी थे। उनके निजी संग्रह में अनेक धर्मिक और साहित्यिक पुस्तकें थी। आगे चलकर साहित्यिक पौत्रों ने प्रपितामही श्रीमती पार्वती देवी की स्मृति में “पार्वती पुस्तकालय” का रूप दिया। ऐसे धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में वे पले-बढ़े। प्रारंभिक शिक्षा बालपुर के निजी पाठशाला में हुई। सन् 1902 में मिडिल स्कूल संबलपुर से पास किये और सन् 1905 में कलकत्ता वि0 वि0 से इंटर की परीक्षा पास करके बनारस गये जहॉ अनेक साहित्य मनीषियों से संपर्क हुआ। अपने जीवन काल में अनेक जगहों का भ्रमण किया। साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों, कांग्रेस अधिवेशन, इतिहास-पुरातत्व खोजी अभियान में सदा तत्पर रहें। उनके खोज के कारण अनेक गढ, शिलालेख, ताम्रपत्र, गुफा प्रकाश में आ सके। सन् 1923 में उन्होंने “छत्तीसगढ़ गौरव प्रचारक मंडली” बनायी जो बाद में “महाकौशल इतिहास परिषद” कहलाया। उनका साहित्य इतिहास और पुरातत्व में समान अधिकार था। 8 नवम्बर सन् 1959 को वे स्वर्गारोहण किये। उन्हें हमारा शत् शत् नमन..
“कमला” के संपादक पं. जीवानन्द शर्मा के शब्दों में -
लोचन पथ में आय, भयो सुलोचन प्राण धम
अब लोचन अकुलाय, लखिबों लोचन लाल को।
प्रोफ़ेसर अश्विनी केशरवानी 
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पंडित लोचनप्रसाद पांडेय की रचनाएं :

1. कलिकाल (छत्तीसगढ़ी नाटक, 1905)
2. प्रवासी (काव्य संग्रह, 1906)
3. दो मित्र (उपन्यास, 1906)
4. बालिका विनोद (1909)
5. नीति कविता, 1909
6. हिन्दू विवाह और उसके प्रचलित दूषण, 1909
7. कविता कुसुममाला, 1909
8. कविता कुसुम (उड़िया काव्य संग्रह, 1909)
9. रोगी रोगन (उड़िया काव्य संग्रह, 1909)
10. भुतहा मंडल, 1910
11. महानदी (उड़िया काव्य संग्रह, 1910)
12. दिल बहलाने की दवा, 1910
13. शोकोच्छवास, 1910
14. लेटर्स टू माई ब्रदर्स, 1911
15. रघुवंश सार (अनुवाद, 1911)
16. भक्ति उपहार (उड़िया रचना, 1911)
17. सम्राट स्वागत, 1911
18. राधानाथ राय : द नेशनल पोएट ऑफ ओरिसा, 1911
19. द वे टू बी हैप्पी एंड गे, 1912
20. भक्ति पुप्पांजलि, 1912
21. त्यागवीर भ्राता लक्ष्मण, 1912
22. हमारे पूज्यपाद पिता, 1913
23. बाल विनोद, 1913
24. साहित्य सेवा, 1914
25. प्रेम प्रशंसा (नाटक, 1914)
26. माधव मंजरी (नाटक, 1914)
27. आनंद की टोकरी (नाटक, 1914)
28. मेवाड़गाथा (नाटक, 1914)
29. चरित माला (जीवनी, 1914)
30. पद्य पुष्पांजलि, 1915
31. माहो कीड़ा (कृषि, 1915)
32. छात्र दुर्दशा (नाटक, 1915)
33. क्षयरोगी सेवा, 1915
34. उन्नति कहां से होगी (नाटक, 1915)
35. ग्राम्य विवाह विधान (नाटक, 1915)
36. पुष्पांजलि (संस्कृत, 1915)
37. भर्तृहरि नीति शतक (पद्यानुवाद, 1916)
38. छत्तीसगढ़ भूषण काव्योपाध्याय हीरालाल (जीवनी, 1917)
39. रायबहादुर हीरालाल, 1920
40. महाकोशल हिस्टारिकल सोसायटी पेपर्स भाग 1 एवं 2
41. जीवन ज्योति, 1920
42. महाकोसल प्रशस्ति रत्नमाला, 1956
43- कौसल कौमुदी, पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. रायपुर से प्रकाशित
44- समय की शिला पर, गुरू घासीदास वि.वि. बिलासपुर द्वारा प्रकाशित
अप्रकाशित रचनाएं :-
45- मनोरंजन
46- युद्ध संगीत
47- स्वदेशी पुकार
48- सोहराब वध (उड़िया)
49- कविता कुसुम (छत्तीसगढ़ी)
50- कालिदास कृत मेघदूत का अनुवाद
51- आटोबायोग्राफी (अंग्रेजी)
52- फोकटेल्स ऑफ बेंगाल (अंग्रेजी)
53- केदार गौरी, राधानाथ राय के उड़िया काव्य का पद्यानुवाद