मंगलवार, 9 अगस्त 2022

भारतेन्दुकालीन साहित्यकार मेदिनी प्रसाद पाण्डेय

 08 अगस्त को पुन्यतिथि के अवसर पर

भारतेन्दुकालीन साहित्यकार मेदिनी प्रसाद पाण्डेय

   प्रो. अश्विनी केशरवानी

    छत्तीसगढ़ प्रदेश में ऐसे अन्यान्य सपूत हुए हैं जो साहित्य, कला, नृत्य, संगीत में निष्णात् थे। उनकी साधना किसी न किसी राजा, जमींदार और मालगुजार के आश्रय में फलती-फूलती रही है। राजा-महाराजा भी किसी न किसी साहित्य मनीषी को अपने राज्य में आश्रय देते रहे हैं। ऐसे ही सर्वगुणी रायगढ़ के राजा थे जिनके राज्य में साहित्य, कला, नृत्य और संगीत सभी को समान सम्मान और प्रश्रय मिलता था। पंडित शुकलाल पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में लिखा है:-

महाराज हैं देव चक्रधर सिंह बड़भागी।

नृत्य वाद्य संगीत ग्रंथ रचना अनुरागी।

केलो सरितापुरी रायगढ़ की बन पायल।

बजती है अति मधुर मंद स्वर से प्रतिपल पल।

जल कल है, सुन्दर महल है निशि में विपुल द्युतिधवल।

है ग्राम रायगढ़ राज्य के, सुखी संपदा युत सकल ।।

रायगढ़ के राजा कला पारखी तो थे ही उनके सम्पोषक भी थे। कलाकारों, संगीतकारों और साहित्यकारों के भरण-पोषण के प्रति समर्पित थे। उनकी नजर से कोई प्रतिभा उपेक्षित नहीं होती थी। बात तब की है जब रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। शिक्षा के क्षेत्र में यह नगर समुन्नत था। अनेक विद्वानों, कलाकारों, संगीतकारों और साहित्यकारों का नगर आगमन होता था। यहां एक संस्कृत विद्यालय था जहां शिक्षा ग्रहण करने सक्ती से पंडित मेदिनी प्रसाद पाण्डेय और बलौदा से श्री वेदनाथ शर्मा आये थे। यहां उनको पंडित अनंतराम पाण्डेय और पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पाण्डेय का साथ मिला। उनके सत्संग में उनकी काव्य धारा प्रवाहित होने लगी। उनकी प्रतिभा से राजा भूपदेवसिंह भी प्रभावित हुए और उन्हें जीवन यापन के लिए दो गांव क्रमशः परसापाली और टांडापुर जो सक्ती रियासत की सीमा से लगा हुआ था, की मालगुजारी दे दी। पंडित मेदिनी प्रसाद पाण्डेय आगे चलकर उच्चकोटि के साहित्यकार हुए और अनेक गं्रथों की रचना की। उन्होंने अपने एक ग्रंथ में रायगढ़ राजा के द्वारा गांव दान करने का उल्लेख किया है:-

मध्यप्रदेश सुमधि यह देश ललाम

रायगढ़ सुराजधानी विदित सुनाम।

इहां अधिप श्री नृपसुरसिंह सुजान

दान मान विधि जानत अति गुणमान।

नारायण लिखि सिंह मिलावहु आनि

तो नृप भ्राता नाम सुलीजै जानि।

इनके गुण गण हौं कस करौं बखान

विद्यमान सुपूरो तेज निधान।

श्री नृपवर सिंह मुहिं दीन्हें यह दुदू ग्राम

टांडापुर इक परसापाली नाम।।

नृपजय नितहिं मनावत रहि निज ग्राम

हरि चरचा कछु कीजत गृह ग्राम।।

मेदिनी प्रसाद पाण्डेय वास्तव में प्रचार-प्रसार से बहुत दूर थे। सादगी उनका व्यक्तित्व था और निश्छल उनका मन। अपने विचारों की श्रृंखला को वे कोरे कागज में रंगने में प्रवीण थे। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के सबसे छोटे रियासत सक्ती में कार्तिक  कृष्ण 10 संवत् 1926 को पंडित सुखदेवराम के कुल दीपक के रूप में हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा सक्ती में ही हुई लेकिन संस्कृत शिक्षा के लिए वे रायगढ़ आ गए और तब से वे यहीं के होकर रह गए। सक्ती में उनके पूर्वज कब और कहां से आये, इसकी जानकारी नहीं मिलती। वे एक जगह अपने पूर्वजों के नामों का उल्लेख किये हैं:-

श्री युक्त विश्वेश्वरराम पंडितः तस्यात्मजः श्री उजियाररामः।

तत्सूनु श्री यच्छु सुखदेवरामः तस्यात्मजोऽहं पृथिवीप्रसादः।।

संभवतः उजियार सिंह उनके पूर्वज थे जो सबसे पहले सक्ती आये। सक्ती रियासत में वे किसी बड़े पद पर नियुक्त थे। उनके पुत्र विश्वेश्वर राम हुए। उनके भतीजे सुखदेवराम हुए और उनके पुत्र पृथ्वीप्रसाद जिसे मेदिनी प्रसाद भी कहा जाता था, हुए। एक स्थान पर वे अपनी जन्म कुंडली का उल्लेख इस प्रकार किये हैं:-

रितु दृग नन्द चन्द्र सम्बत 1926 है कारतिक कृष्ण दसमीं सुशनिवार अभिराम है।

बसु ।।8 दंड।। रूद्रपल ।। 11 पल त्र इष्टकाल।। लग्न धन तामें शुक्र दूजे केतु जीवसुत

।।पंचम स्थान।। धाम है। राहु मृत्यु ।।अष्टम स्थान।। नवम् मयंक है दसम बुध लाभ

।।एकादश स्थान।। भौन भानु व्यय ।।द्वादश स्थान।। मंद कुजठाम है। जन्म मघा के चारि

चरण प्रमान माहि मेदिनी प्रसाद कवि कुंडली ललाम है।

‘‘गणेश उत्सव दर्पण‘‘ में एक जगह वे अपने परिवार के बारे में पुनः लिखते हैं:-

जाति विप्र मम जानहु वत्स सुगीत परसीहा पांडे घर तेरह होत।

पंच प्रवर उप बीतहिं लसत हमार माध्यन्दि नी सुसाखा तेहु विचार।

कात्यायनी सुसुत्र हमारे जान यजुर्वेद पढ़ि जानत यह पहिचान।

तात नाम ममहो सुखदेव सुराम परसुराम हैं तिनके भ्राता ललाम।

सुखदेवराम बुध बड़े जान लघु परसुराम पंडित महान्।

हौं बड़े भ्रात सुत एक आद मम नाम कहैं मेदिनी प्रसाद।

लघु भ्राता पुत्र जुग है ललाम नरसिंह दत्त बड़ पुत्र नाम।

चातुर्य भूषणहिं लघु जान दोऊ पढ़त अबै कछु है अजान।

रायगढ़ में जब उनकी भेंट पंडित अनंतराम पांडेय से हुई तब उनके सानिघ्य में इनका कवि हृदय भी जाग उठा और वे काव्य रचना करने लगे। अनंतराम जी स्वजातीय के साथ सम वय भी थे। अतः दोनों में अच्छी निभने लगी। लेकिन वे अपनी काव्य साधना को भगवान भरोसे मानते रहे। देखिये उनकी कविता की एक बानगी:-

मैं न कवि कोविद न जाहिर जगत बीच,

बुद्धि के न आगर न चतुर सरोसे हौं।

मैं न काहू राजन के आसरे में वास करूं,

न कोई पंडित के निकट परोसे हौं।

मेदिनी प्रसाद मैं न मंत्र यंत्र तंत्र जानौ,

सुंदर न साहसी सहस सरोसे हौं।

बंसी के बजैया उर प्रेम उपजैया बल भैया,

एक कुंवर कन्हैया के भरोसे हौं।

पांडेय जी छत्तीसगढ़ के सच्चे सपूत थे। वे यहां जन्में, पले-बढ़े और यही उनकी कार्य स्थली भी है। उनके काव्य में छत्तीसगढ़ की सोंधी महक स्पष्ट देखी जा सकती है:-

देशों में अति ही सुदेश यह छत्तीसगढ़ है इसका नाम

यहां के वासी सब सुखरासी, थे आगे गुण धन का धाम।

सद्विचार आधार आदि में, इनकी कोई नहीं पाय

घर से निकल अजर में ओत, जाते तुरंत छुवाय।।

उनके काव्यों में पावस गीत की एक झलक देखिये:-

सीतल मंद समीर लगी द्विज मेदिनीजू तन मैं जगावन।

कुंजन कुंजन गंुजन भृग रहै पपिहा पिय पीय सुहावन।।

कैसे के धरा धरौं सजनी बरही धुनि लागी है पीर बढ़ावन।

हाय सुहावन सावन जात कहां तुम छाय रहे मन भावन।।

उनके काव्यों में वसंत वर्णन को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रकृति ने चारों ओर हरियाली बिखेर दी हो और भौंरों का स्वच्छंद विचरण उनके सौंदर्य में चार चाद लगा रहा हो ? कवि तो इसे देखकर अपना सुध बुध खो बैठता है। देखिये उनकी एक बानगी:-

बन घन बागन में बौरन लगे हैं आम झौंरन लगे हैं भोर माते मदमंत की।

मेदिनीप्रसाद मन मथ को दुहाई फिरी चारों ओर छाई छबि और ही दिगंत की।

सीतल समीर बीर तीर सो लगत मोहिं हो न लागी छन छन सुधि प्यारे कंत की।

आयु विरहीन की सिरानी अब जानी परै आये चहै रातें फेरि दुखद वसंत की।

    वसंत से मन जब चुक जाता है तब कवि हृदय बौराने लगता है और ऐसा प्रतीत होता है जैसे होली का मौसम आ गया हो ? होली के रंग में वे ऐसे रंगते हैं कि उन्हें अपना चेहरा भी पहचानना मुश्किल होता है, तब श्रीकृष्ण और ब्रज बालाओं की होली याद आने लगती है:-

खेलत होरी किसोरी सबै जुरि सोर करै पकरोरी घरोरी।

ताहि समैं करि भोरि सी भाव गुपालै गह्यो वृषभान किसोरी।

बांसुरिया हंसि छीन तहां द्विज मेदिनी लै पुनि पीत बिछौरी।

रोरी मली मुख देखि चली कहीं काल्हि ते आइयो खेलन होरी।

हिन्डोला वर्णन की एक बानगी पेश है:-

फूलन की चांदनी चंदोवा चारू फूलन की,

फूलई के फरस फबे हैं कुंज कोरे में।

मेदिनीप्रसाद पटुरी औ खंभ फूलन के फूलन की,

झालर्रे झुकी हैं लाल डोरे में।

फूलन की हार औ सिंगार सब फूलन की,

सजि सखि गावतीं झुलावती झकोरे में।

ने के उमंग में सुझूलति पिया के संग,

फूलति कली सी बाल फूल के हिंडोरे में।

    पांडेय जी अपनी पढ़ाई पूरी करके राजा भूपदेवसिंह की सेवा में उपस्थित हुए। उनके कार्यो से प्रसन्न होकर राजा साहब बहादुर ने उन्हें दो गांव की मालगुजारी दी। ये दोनों गांव उनके सामंत रियासत सक्ती के अंतर्गत आता था। पांडेय जी ने रायगढ़ में प्रतिवर्ष होने वाले गणेश मेला का बड़ा ही सजीव चित्रण अपनी पुस्तक ‘गणपति उत्सव दर्पण‘ में किया है। देखिये एक बानगी:-

        उमंग रंगते सबै नटें सु नृत्य को ठनै

        प्रकाशमान होत आसमान वान छूटते।

चटाक चट्ट पट्ट फट्ट फट्ट फूटते

भई सुमीर लोग के जु होत रेल पेल है।

मिलै न गैल एक पै सु एक देत ढेल है

नरेश मौनते गनेस बंद लौ अडोल है।

कितेक नृत्य भूमि पै कितेक रत्थ पै चढ़े

बजात गात जात हैं उमंग रंग में मढ़े।

कहूं सु उत्कलीन के अनुप राग टेर है

कंहू प्रभात के अलाप होत बेर बेर है।

कहंू मंजीर धीर से छनं छनं छमं कहीं

झपाट झांझहंू कहंू झनं झनं झमकहीं।

कहंू चिकारियान की चिकार चांय चांय है

कहंू जु सारंगीन की सुराग रांय रांय है।

कहंू मृदंग टंगते ठमं ठमं ठमं कहीं

कहंू धमाक धम्म धम्म मादरै धमं कहीं।

अनेक बाजने बजै अनेक गीत गात है

उछलते सब मस्त लोग मंद मंद जात है।

पंडित मेदिनी प्रसाद बाद में परसापाली में रहने लगे थे। यहीं उन्होंने काव्य साधना करने लगे। उनकी श्रृंगार सुधा, गणपति उत्सव दर्पण, पद्य प्रसून और गद्य पद्य मंजूषा प्रकाशित ग्रंथ है। सत्संग विलास, कंवर चरित्र आदि अनेक ग्रंथ अप्रकाशित हैं और उनकी पांडुलिपि उनके प्रपौत्र पुरंजय कुमार पांडेय के पास सुरक्षित है। उनकी कुछ रचनाओं को संकलित करके उनके सहपाठी और मित्र बलौदा ग्राम के श्री वेदनाथ शर्मा ने ‘‘पद्म मंजूषा‘‘ (दो भागों में) प्रकाशित कराया है। उनका संपर्क साहित्यिक तीर्थ शिवरीनारायण और बालपुर से था। निश्चित ही वे महानदी की अजस्र धारा से सिंचित ही नहीं बल्कि फलित भी थे। अनेक राजाओं से उनका मधुर संबंध था कदाचित् इसी कारण उन्होंने उनके बारे में पद्यबद्ध रचना की है। चैत कृष्ण 4 संवत् 2004 तद्नुसार 08 अगस्त 1907 को उनका देहांत हो गया। उनके निधन से छत्तीसगढ़ का भारतेन्दुकालीन साहित्याकाश सूना हो गया। लेकिन वे तो गनराज की आराधना में लीन हो गये थे...।

गनराज कुपा करि ऐसहिं सुख दिखरावै

चिरकाल रहै नृपराज जगत जस छावै

द्विज मेदिनी देत आसीस चित्त हुलसाये

श्री गनपति जी के दरस करन सब आये।।


      


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