बुधवार, 28 सितंबर 2022

छायावाद और पंडित मुकुटधर पांडेय

 छायावाद और पंडित मुकुटधर पांडेय 

प्रो. अश्विनी केशरवानी

महानदी के तट पर रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग के चंद्रपुर से 7 कि.मी. की दूरी पर जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत बालपुर ग्राम स्थित है। यह ग्राम पूर्व चंद्रपुर जमींदारी के अंतर्गत पंडित शालिगराम, पंडित चिंतामणि और पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय की मालगुजारी में खूब पनपा। पांडेय कुल का घर महानदी के तट पर धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से युक्त था। यहां का एक मात्र निजी पाठशाला पांडेय कुल की देन थी। इस पाठशाला में पांडेय कुल के बच्चों के अतिरिक्त साहित्यकार पंडित अनंतराम पांडेय ने भी शिक्षा ग्रहण की। धार्मिक ग्रंथों के पठन पाठन और महानदी के प्रकृतिजन्य तट पर इनके साहित्यिक मन को केवल जगाया ही नहीं बल्कि साहित्याकाश की ऊँचाईयों तक पहुंचाया...और आठ भाईयों और चार बहनों का भरापूरा परिवार साहित्य को समर्पित हो गया। पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद, पंडित लोचनप्रसाद, बंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर सभी उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। साहित्य की सभी विधाओं में इन्होंने रचना की। पंडित लोचनप्रसाद जहां इतिहास, पुरातत्व और साहित्य के ज्ञाता थे वहां पंडित मुकुटधर जी पांडेय साहित्य जगत के मुकुट थे। छायावाद के वे प्रवर्तक माने गये हैं। वे छत्तीसगढ़ के प्रथम साहित्यकार हैं जिन्हें भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्मश्री‘‘ अलंकरण प्रदान किया गया है। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रांत के गौरव हैं। धीरे धीरे पांडेय कुल का घर महानदी में समाता गया और उनका परिवार रायगढ़ में बसता गया। इस प्रकार रायगढ़ नगर साहित्य कुल से जगमगाने लगा।

सन् 1982 में जब मेरी नियुक्ति रायगढ़ के किरोड़ीमल शासकीय कला और विज्ञान महाविद्यालय में हुई थी तब रायगढ़ जाने की इच्छा नहीं हुई थी। लेकिन ‘‘नौकरी करनी है तो कहीं भी जाना है‘‘ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मैंने रायगढ़ ज्वाइन कर लिया। कुछ दिन तो भागमभाग में गुजर गये। जब मन स्थिर हुआ और सपरिवार रायगढ़ में रहने लगा तब मेरा साहित्यिक मन जागृत हआ। दैनिक समाचार पत्रों में मेरी रचनाएं नियमित रूप से छपने लगी। नये नये विषयों पर लिखने की मेरी लाालसा ने मुझे रायगढ़ की साहित्यिक और संगीत परंपरा की पृष्ठभूमि को जानने समझने के लिए प्रेरित किया। यहां के राजा चक्रधरसिंह संगीत और साहित्य को समर्पित थे। उनके दरबार में साहित्यिक पुरूषों का आगमन होते रहता था। पंडित अनंतराम पांडेय और पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय उनके दरबार के जगमगाते नक्षत्र थे।  डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र जैसे साहित्यकार उनके दीवान और पंडित मुकुटधर पांडेय जैसे साहित्यकार दंडाधिकारी थे। ऐसे साहित्यिक पृष्ठभूमि में मेरी लेखनी फली फूली। हमारे स्टाॅफ के प्रो. अम्बिका वर्मा,  डाॅ. जी. सी. अग्रवाल, डाॅ. बिहारीलाल साहू, पं्रो. मेदिनीप्रसाद नायक, कु. शिखा नंदे, प्रो. दिनेशकुमार पांडेय डाॅ. मिनकेतन प्रधान से मेरा न केवल सामान्य परिचय हुआ बल्कि मैं उनके स्नेह का भागीदार बना। प्रो. दिनेशकुमार पांडेय साहित्यिक पितृ पुरूष पं. मुकुटधर पांडेय के चिरंजीव हैं। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया....और मेरी लेखनी सतत् चलने लगी।

मेरे लिए एक सुखद संयोग बना और एक दिन मुझे श्रद्धेय मुकुटधर जी के चरण वंदन करने का सौभाग्य मिला। मेरे मन में इस साहित्यिक पितृ पुरूष से इस तरह से कभी भेंट होगी, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। उन्हें जानकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि मैं शिवरीनारायण का रहने वाला हूँ। थोड़े समय के लिए वे कहीं खो गये। फिर कहने लगे-‘शिवरीनारायण तो एक साहित्यिक तीर्थ है, मैं वहां की भूमि को सादर प्रणाम करता हंू जहां पंडित मालिकराम भोगहा और पंडित शुकलाल पांडेय जैसे प्रभृति साहित्यिक पुरूषों ने जन्म लिया और जो ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित हीराराम त्रिपाठी, नरसिंहदास वैष्णव और बटुकसिंह चैहान जैसे साहित्यिक महापुरूषों की कार्य स्थली है। मेरे पुज्याग्रज पंडित पुरूषोŸाम प्रसाद और पंडित लोचनप्रसाद नाव से अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। उस समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी ठाकुर जगमोहनसिंह वहां के तहसीलदार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सुषमा से प्रेरित होकर अनेक ग्रंथों की रचना ही नहीं की बल्कि यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की नई दिशा प्रदान की। उन्होंने काशी के ‘‘भारतेन्दु मंडल‘‘ की तर्ज पर शिवरीनारायण में ‘‘जगमोहन मंडल‘‘ की स्थापना की थी। उस काल के साहित्यकारों में पंडित अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, पं. हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, बटुकसिंह चैहान, आदि प्रमुख थे। मेरे अग्रज पंडित लोचनप्रसाद भी शिवरीनारायण जाने लगे थे और उन्होंने मालिकराम भोगहा जी की अलंकारिक शैली को अपनाया भी था। मैं भी उनके साथ शिवरीनारानायण गया तो भगवान जगन्नाथ के नारायणी रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वहां के साहित्यिक परिवेश ने मुझे भी प्रेरित किया..।‘

बालपुर और शिवरीनारायण सहोदर की भांति महानदी के तट पर साहित्यिक तीर्थ कहलाने का गौरव हासिल किया है। यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में जन्म लेकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। महानदी का संस्कार मुझे भी मिला। जब मैं लेखन की ओर उद्यत हुआ तब मुझे महानदी का कलकल निनाद प्रफुल्लित कर देता था। महानदी का सुन्दर वर्णन पांडेय जी के शब्दों में:-

कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।

कल कलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप।।

इसके बाद श्रद्धेय पांडेय जी से मैं जितने बार भी मिला, मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उन्होंने भी मुझे बड़ी आत्मीयता से सामीप्य प्रदान किया। संभव है मुझमें उन्हें शिवरीनारयण के साहित्यिक पुरूषों की झलक दिखाई दी हो ? रायगढ़ में ऐसे कई अवसर आये जब मुझे उनका स्नेह भरा सानिघ्य मिला। 01 और 02 मार्च 1986 को पंडित मुकुटधर जी पांडेय के सम्मान में रायगढ़ में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा छायावाद पुनर्मूल्यांकन गोष्ठी में डाॅ. विनयमोहन शर्मा, डाॅ. शिवमंगलसिंह सुमन, श्री शरदचंद्र बेहार आदि अन्यान्य साहित्यकारों का मुझे सानिघ्य लाभ मिला। इस अवसर पर विश्वविद्यालय द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी को डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक प्रकार से साहित्यिक उत्सव था।

पांडेय जी के सुपुत्र प्रो. दिनेशप्रसाद पांडेय के परिवार का मैं एक सदस्य हो गया। उनके घर अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों के पत्र पं. मुकुटधर पांडेय के नाम देखने को मिला जिसमें साहित्य के अनेक बिंदुओं पर चर्चा की गई थी। डाॅ. बल्देवसाव, डाॅ. बिहारीलाल, ठाकुर जीवनसिंह, प्रो. जी.सी. अग्रवाल आदि के पास श्रद्धेय पांडेय जी की रचनाओं को पढ़ने का सुअवसर मिला। पांडेय जी की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह ‘‘विश्वबोध‘‘ और ‘‘छायावाद एवं श्रेष्ठ निबंध‘‘ का संपादन डाॅ. बल्देव साव ने किया है और    श्री शारदा साहित्य सदन रायगढ़ ने इसे प्रकाशित किया है। इसी प्रकार उनकी कालिदास कृत मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद छत्तीसगढ़ लेखक संघ रायगढ़ द्वारा प्रकाशित की गई है। पांडेय जी की ‘‘छायावाद एवं अन्य निबंध‘‘ शीर्षक से म. प्र. हिन्दी साहित्य समेलन भोपाल द्वारा श्री सतीश चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित कर स्तुत्य कार्य किया है। इसी कड़ी में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी के जन्म शताब्दी वर्ष 1995 के अवसर पर प्रभृति साहित्यकारों की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कर एक अच्छी परम्परा की शुरूवात की है।

मुझे हाई स्कूल में मधुसंचय में पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविता ‘‘विश्वबोध‘‘ पढ़ने को मिली थी। इस कविता में ईश्वर का दर्शन और शास्त्रों के अध्ययन का बहुत अच्छा चित्रण मिलता है:-

खोज में हुआ वृथा हैरान।

यहां भी था तू हे भगवान।।

गीता ने गुरू ज्ञान बखाना।

वेद पुराण जनम भर छाना।।

दर्शन पढ़े, हुआ दीवाना।

मिटा  न  पर  अज्ञान ।।

जोगी बन सिर जटा बढ़ाया।

द्वार द्वार जा अलख जगाया।।

जंगल में बहु काल बिताया।

हुआ  न  तो  भी  ज्ञान ।।

ईश्वर को कहां नहीं ढूंढ़ा, मिला तो वे कृषकों और श्रमिकों के श्रम में, दीन दुखियों के श्रम में, परोपकारियों के सात्विक जीवन में और सच्चे हृदय की आराधना में..। कवि की एक बानगी पेश है:-

दीन-हीन के अश्रु नीर में।

पतितो की परिताप पीर में।।

संध्या की चंचल समीर में।

करता था तू गान।।

सरल स्वभाव कृषक के हल में।

पतिव्रता रमणी के बल में।।

श्रम सीकर से सिंचित धन में।

विषय मुक्त हरिजन के मन में।।

कवि के सत्य पवित्र वचन में।

तेरा मिला प्रणाम ।।

ईश्वर दर्शन पाकर कवि का मन प्रफुल्लित हो उठता है। तब उनके मुख से अनायास निकल पड़ता हैः-

देखा मैंने यही मुक्ति थी।

यही भोग था, यही भुक्ति थी।।

घर में ही सब योग युक्ति थी।

घर  ही  था  निर्वाण ।।

शिवरीनारायण की पावन धरा पर जन्म लेकर मेरा जीवन धन्य हो गया। मेरा यह भी सौभाग्य है कि मैं स्व. गोविंदसाव जैसे साहित्यकार का छोटा पौध हूँ। महानदी का स्नेह संस्कार, महेश्वर महादेव की कुलछाया और भगवान नारायण की प्रेरणा से ही मेरी लेखनी आज तक प्रवाहित है। मुझे ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और पं. शुकलाल पांडेय का साहित्य अगर पढ़ने को नहीं मिला होता तो शायद मैं लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता। पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में मेरे पितृ पुरूष गोविंदसाव का उल्लेख किया है:-

नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।

बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन ।

हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति भोरा रघुवर।

विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।

विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट छवि।

हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।

इसी प्रकार उन्होंने पंडित मुकुटधर पांडेय जी के बारे में भी छत्तीसगढ़ गौरव में उल्लेख किया है -

जगन्नाथ है भानु चंद्र बल्देव यशोधर।

प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।

पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक। 

परमकृति शिवदास आशुकवि बुध उर शासक।

ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर।

श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता वर।।

आज जब मैं पंडित मुकुटधर जी पांडेय के बारे में लिखने बैठा हूँ तो अनेक विचार-संस्मरण मेरे मन मस्तिष्क में उभर रहे हैं।...फिर वह दिन भी आया जब जीवन के शाश्वत सत्य के सामने सबको हार माननी पड़ती है। 06 नवंबर 1989 को प्रातः 6.20 बजे 95 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया। यह मानते हुये भी कि जीवन नश्वर है, मन अतीव वेदना से भर उठा। विगत अनेक वर्षो से रूग्णता और वृद्धावस्था ने उनकी अविराम लेखनी को यद्यपि विराम दे दिया था। फिर भी उनकी सकाय उपस्थिति से साहित्य जगत अपनी सार्थकता देखता था। एक काया के नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु साहित्य मनीषी पंडित मुकुटधर पांडेय किसी भी मायने में एक सामान्य व्यक्ति नहीं थे। पुराना दरख्त किसी को कुछ नहीं देता परन्तु उनकी उपस्थिति मात्र का एहसास मन को सांत्वना का बोध अवश्य करा देता है। साहित्य जगत में श्रद्धेय पांडेय जी की मौजूदगी प्रेरणा का अलख जगाने जैसी निःशब्द सेवा का विधान किया था। कोई भी यहां अमरत्व का वरदान लेकर नहीं आया है लेकिन केवल देह त्याग ही अमरत्व का अवसान नहीं होता। श्रद्धेय पांडेय जी के महाप्रयाण के संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं होता। शोकातुर करती है तो यह बात कि हिन्दी काव्य में इस मायने मंे समस्त भारतीय भाषाओं के काव्य में छायावाद की ओजस्वी धारा को सर्जक जनक के नाते पांडेय जी के चिर मौन होने के साथ ही हमारे बीच से छायावाद का अंतिम प्रकाश सदैव के लिए बुझ गया। उन्हीं के शब्दों में:-

जीवन की संध्या में अब तो है केवल इतना मन काम

अपनी ममतामयी गोद में, दे मुझको अंतिम विश्राम

चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर

प्राण प्रतीक्षारत् लूटेंगे, मृत्यु पर्व को सुख भरपूर।

मैं सोचने लगा -

जिसे हो गया आत्म तत्व का ज्ञान

जीवन मरण उसे है एक समान।

पांडेय जी ने तो एक एक को जीया है, भोगा है। देखिये उनकी कुछ मुक्तक:-

जीवन के पल पल का रखे ख्याल,

कोई पल कर सकता हमें निहाल।

चलने वाली सांसे है अनमोल,

काश समझ सकते हम इनके बोल।

माना नश्वर है सारा संसार,

पर अविनश्वर का ही यह विस्तार।

इसी प्रकार उनसे पूर्व छायावाद की अप्रतिम कवियत्री महादेवी वर्मा हमसे छिन जाने वाली इस कड़ी की अंतिम से पहले की कड़ी थी। पहले होने का गौरव तो केवल पांडेय जी का ही था। लेकिन वही अंतिम कड़ी होंगे किसने सोचा और जाना था ? निश्चय ही पांडेय जी ने भी कभी इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। छत्तीसगढ़ की माटी से उन्हें अगाध प्रेम था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नदी-पहाड़, पशु-पक्षी सबसे लगाव था। देखिये छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी की एक बानगी:-

कितना सुंदर और मनोहर महानदी यह तेरा रूप

कलकल मय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप

तुझे देखकर शैशव की है स्मृतियां उर में उठती जाग

लेता है कैशोर काल का, अंगड़ाई अल्हड़ अनुराग

सिकता मय आंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद

मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीडा कौतुक विविध विनोद।

इसीलिए अपना ऋण उन्होंने काव्य साधना की दिव्य विधा का संस्थापक बनकर उतारा था। इस धरती ने उन्हें जो कुछ भी दिया उसे उन्होंने साहित्य जगत को लौटाया है। प्रणय की यही संवेदना उनकी कविता का सम्पुट वरदान बनी थी, जिसने भी उसे पढ़ा-सुना उसने दिल से सराहा और स्वीकार किया।

‘‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः‘‘ कवि का स्थान बहुत ऊँचा है, ऐसा स्वीकारने वाले इस साहित्य वाचस्पति का कहना है-‘‘ कविता तो हृदय का सहज उद्गार है। वाद तो बदलते रहते हैं पर कविता में एक हृदयवाद होता है जो कभी नहीं बदलता।‘‘ मानव मन में जो भावानुभूति होती है, वही सार्वजनीन है, सर्वकालिक है। ऐसे मानने वाले इस साहित्यानुरागी का जन्म नवगठित जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर चंद्रपुर से मात्र 07 कि.मी. दूर बालपुर में 30 सितंबर 1895 ईसवीं को पंडित चिंतामणी पांडेय के आठवें पुत्र के रूप में हुआ। अन्य भाईयों में क्रमशः पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोेेेेचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे। अतः माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा...?

पांडेय जी की पहनी कविता ‘‘प्रार्थना पंचक‘‘ 14 वर्ष की आयु में स्वदेश बांधव नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। फिर ढेर सारी कविताओं का सृजन हुआ। यहीं से उनकी काव्य यात्रा निर्बाध गति से चलने लगी और उनकी कविताएं हितकारणी, इंदु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत और सरस्वती जैसे श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई। सन् 1909 से 1915 तक की उनकी कविताएं ‘‘मुरली-मुकुटधर पांडेय‘‘ के नाम से प्रकाशित होती थी। उनकी पहली कविता संग्रह ‘‘पूजाफूल‘‘ सन् 1916 में इटावा के ब्रह्यप्रेस से प्रकाशित हुई। तत्कालीन साहित्य मनीषियों-आचार्य महाबीर प्रसादद्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी की प्रशंसा से उन्हें संबल मिला और उनकी काव्यधारा बहने लगी। इसी वर्ष पांडेय जी प्रयाग विश्वविद्यालय की प्रवेशिका में उŸाीर्ण होकर इलाहाबाद चले गये। कवि का किशोर मन बाल्यकाल के छूट जाने से अधीर हो उठता है:-

बाल्यकाल तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है,

मेरे इस सुखमय जीवन को दुखमय से भर देता है।

तीन माह के अल्प प्रवास के बाद पांडेय जी अस्वस्थ होकर बालपुर लौट आते हैं और यहीं स्वाध्याय से अंग्रेजी, बंगला और उड़िया भाषा पढ़ना और लिखना सीखा। गांव में रहकर उन्होंने सादगी भरा जीवन अपनाया

छोड़ जन संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम गेह, 

नहीं प्रसादों की कुछ चाह, कुटीरों से क्यों इतना नेह।

उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम सहज रूप में दर्शनीय है। ‘‘किंशुक कुसुम‘‘ में प्रकृति से उनके अंतरंग लगाव की पद्यबद्धता ने कविता में एक अनोखे भावलोक की सर्जना की है। किंशुक कुसुम से उनकी बातचीत ने प्रकृति का जैसे मानवीकरण ही कर दिया। पांडेय जी महानदी से सीधे बात करते लगते हैं:-

शीतल स्वच्छ नीर ले सुंदर बता कहां से आती है, 

इस जल में महानदी तू कहां घूमने जाती है।

‘‘कुररी के प्रति‘‘ में एक विदेशी पक्षी से अपनत्व भाव जगाने उनसे वार्तालाप करने लगते हैं। देखिये उनकी एक कविता:-

अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप

ऐसी दारूण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप

शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप

बता तुझे कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप।

सामाजिक मूल्यों के उत्थान पतन को भी उन्होंने निकट से देखा और जाना है। ग्रामीण जीवन की झांकी उनकी कविताओं में दृष्टव्य है। उनके मुथ्तकों में दार्शनिकता का बोध होता है। त्योहारों को सामान्य लोगों के बीच आकर्षक बनाने का भी उन्होंने प्रयास किया है:-

कपट द्वेष का घट फोड़ेंगे, होली के संग आज

बड़े प्रेम से नित्य रहेंगे हिन्द हिन्द समाज

फूट को लूट भगावेंगे, ऐता का सुख पावेंगे..।

इस प्रकार मुकुटधर जी का समूचा लेखन जनभावना और काव्य धारा से जुड़ा है। छायावादी कवि होने के साथ साथ उन्होंने छायावादी काव्यधारा से जुड़कर अपनी लेखनी में नयापन लाने की साधना जारी रखी और सतत् लेखन के लिए संकल्पित रहे। यही कारण है कि मृत्युपर्यन्त वे चुके नहीं। उन्होंने सात दशक से भी अधिक समय तक मां सरस्वती की साधना की है। इस अंतराल में पांडेय जी ने जीवन की गति को काफी नजदीक से देखा और भोगा है। उनकी रचनाओं में पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छŸाीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है।

अनेक दृष्टांत हैं जो मुकुटधर जी को बेहतर साहित्यकार और कवि के साथ साथ मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं। उनका समग्र जीवन उपलब्धियों की बहुमूल्य धरोहर है जिससे नवागंतुक पीढ़ी नवोन्मेष प्राप्त करती रही है। उनकी प्रदीर्घ साधना ने उन्हें ‘‘पद्म श्री‘‘ से  ‘‘भवभूति अलंकरण‘‘ तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया है। सन् 1956-57 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ‘‘साहित्य वाचस्पति‘‘ से विभूषित किया गया। सन् 1974 में पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और सन् 1986 में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया है। 26 जनवरी सन् 1976 को भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्म श्री‘‘ का अलंकरण प्रदान किया गया। सन् 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘‘भवभूति अलंकरण‘‘ प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अंचल के अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया गया है। वास्तव में ये पुरस्कार और सम्मान उनके साहित्य के प्रति अवदान को है, छŸाीसगढ़ की माटी को है जिन्होंने हमें मुकुटधर जी जैसे माटी पुत्र को जन्म दिया है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन....

काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य,

जीवन जिसका एक काव्य, वह धन्य।



सोमवार, 26 सितंबर 2022

छत्तीसगढ़ में शाक्त परंपरा

 

 छत्तीसगढ़ में शाक्त परंपरा

प्रो. अश्विनी केशरवानी

नवरात्रि पर्व- नौ दिन तक देवियों की पूजा-अर्चना का सात्विक पर्व, ग्रामदेवी, ईष्टदेवी और कुलदेवी को प्रसन्न करने का पर्व। शक्ति साधक जगत की उत्पत्ति के पीछे ‘‘शक्ति’’ को ही मूल तत्व मानते हैं और माता के रूप में उनकी पूजा करते हैं। समस्त देव मंडल शक्ति के कारण ही बलवान है, उसके बिना वे शक्तिहीन हो जाते हैं। यहां तक कि सृष्टि के निर्माण में शक्ति ईश्वर की प्रमुख सहायिका होती हैं। शक्ति ही समस्त तत्वों का मूल आधार है। शक्ति को समस्त लोक की पालिका-पोषिता माना गया है। वह प्रकृति का स्वरूप है। इस प्रकार शाक्तों अथवा शक्ति पूजकों ने प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति को पारलौकिक पवित्रता और ब्रह्मवादिता प्रदान की है। अतः शक्ति सृजन और नियंत्रण की पारलौकिक शक्ति है। वह समस्त विश्व का संचालन भी करती है। इसीकारण वह जगदंबा और जगन्माता है। छत्तीसगढ़ में शिवोपासना के साथ शक्ति उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है। मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिषासुर मर्दिनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र शक्ति की प्ररणास्रोत बनीं। शैव धर्म के प्रभाव में वृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय समय पर अलग अलग रूप ग्रहण करती हैं। शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके हाथों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमर्दिनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या शव (चामुण्डा) गर्दभ (शीतला) होते हैं। 

महामाया मंदिर , रतनपुर 

देवी की मूर्तियों को मुख्यतः सौम्य तथा उग्र या संहारक रूपों में बांटा जा सकता है। संहारक रूपों में देवी के हाथों में त्रिशूल, धनुष, बाण, पाश, अंकुश, शंख, चक्र, खड्ग और कपाल जैसे आयुध होते हैं। उनका दूसरा हाथ अभय या वरद मुद्रा में होता है। इसी प्रकार संहारक रूपों में अभय या वरद मुद्रा देवी के सर्वकल्याण और असुरों एवं दुष्टात्माओं के संहार द्वारा भक्तों को अभयदान और इच्छित वरदान देने का भाव व्यक्त होता है। उग्र रूपों में महिषमर्दिनी, दुर्गा, काली, चामुण्डा, भूतमाता, कालरात्रि, रौद्री, शिवदूती, भैरवी, मनसा एवं चैसठ योगिनी मुख्य हैं। देवी के सौम्य रूपों में लक्ष्मी एवं क्षमा (पद्मधारिणी), सरस्वती (वीणाधारिणी), गौर, पार्वती और गंगा-यमुना (कलश और पद्मधारिणी) तथा अन्नपूर्णा प्रमुख हैं। भारतीय शिल्प में लगभग सातवीं शताब्दी के बाद से शक्ति के विविध रूपों का शिल्पांकन मिलता है। इसके उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, भेड़ाघाट, हिंगलाजगढ़, हीरापुर, एलोरा, कांचीपुरम्, महाबलीपुरम्, तंजौर, बेलूर, सोमनाथ आदि जगहों में मिलता है। हमारे देश में गंगा, यमुना, नवदुर्गा, द्वादश गौरी, पार्वती, महिषमर्दिनी, सप्तमातृका, सरस्वती एवं लक्ष्मी की मर्तियों की पूजा अर्चना प्रचलित है।

समलेश्वरी देवी , सारंगढ़ 

दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डी, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धदात्री का उल्लेख मिलता है। भारतीय शिल्प में सभी नौ दुर्गा के अलग अलग उदाहरण नहीं मिलते लेकिन चतुर्भुजा या अधिक भुजाओं वाली सिंहवाहिनी की मूर्ति खजुराहो के लक्ष्मण और विश्वनाथ मंदिर में, एलोरा, हिंगलाजगढ़, महाबलीपुरम् एवं ओसियां में मिले हैं। दुर्गा का एक विशेष रूप चित्तौड़गढ़ में मिला है जो क्षेमकरी के रूप में भारतीय शिल्प में लोकप्रिय था। दक्षिण भारत के मंदिरों में द्वादश गौरी की मूर्ति मिलती है जिनमें प्रमुख रूप से उमा, पार्वती, रम्भा, तोतला और त्रिपुरा उल्लेखनीय है। द्वादश गौरी के नाम और उनके आयुध निम्नानुसार है:-

1. उमा:- अक्षसूत्र, पद्म, दर्पण, कमंडलु।

2. पार्वती:- वाहन सिंह और दोनों पाश्र्वो में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु।

3. गौरी:- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु।

4. ललिता:- शूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु।

5. श्रिया:- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा।

6. कृष्णा:- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड।

7. महेश्वरी:- पद्म और दर्पण।

8. रम्भा:- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश।

9. सावित्री:- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु।

10. त्रिषण्डा या श्रीखण्डा:- अक्षसूत्र, वज्र, शक्ति और कमण्डलु।

11. तोतला:- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर।

12. त्रिपुरा:- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।

    द्वादश गौरी के सामूहिक उत्कीर्णन का उदाहरण मोढेरा के सूर्य मंदिर की वाह्यभित्ति की रथिकाओं में देखा जा सकता है। अभी केवल दस आकृतियां ही सुरक्षित हैं। इसी प्रकार हिंगलाजगढ़ में द्वादश रूपों में केवल नौ रूप की दृष्टब्य है। परमार कालीन ये मूर्तियां वर्तमान में इंदौर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ऐलोरा से पार्वती की 14 मूर्तियां मिली हैं जिनमें रावणनुग्रह, शिव के साथ चैपड़ खेलती पार्वती और स्वतंत्र मूर्तियां मिली हैं। इसीप्रकार भुवनेश्वर में महिषमर्दिनी की 21, ऐलोरा में 10, खजुराहो, वाराणसी और छत्तीसगढ़ के चैतुरगढ़ और मदनपुरगढ़ में मूर्तियां हैं।

    देवी पूजन की परंपरा मुख्यतः दो रूपों में मिलती है- एक मातृदेवी के रूप में और दूसरी शक्ति के रूप में। प्रारंभ में देवी की उपासना माता के रूप में अधिक लोकप्रिय थी। पुराणों में दुर्गा स्तुतियों में जगन्माता या जगदम्बा स्वरूप की अवधारणा में देवी के माता स्वरूप का स्पष्ट संकेत मिलता है। भारत, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में धर्म की अवधारणा के साथ ही मातृपूजन की परंपरा आरंभ हुई। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने में योगदान के कारण ही मातृ देवियों का पूजन प्रारंभ हुआ। माता की प्रजनन शक्ति जो सभ्यता की निरंतरता का मूलाधार है, मातृदेवी के रूप में उनके पूजन का मुख्य कारण रही है। सिंधु सभ्यता के समय से मातृदेवियों की पूजा प्रचलित थी। शक्ति वस्तुतः क्रियाशीलता का परिचायक और उसी का मूर्तरूप है। शक्ति पूजन के अंतर्गत विभिन्न देवताओं की क्रियाशीलता उनकी शक्तियों में निहित मायी गयी। तद्नुरूप सभी प्रमुख देवताओं की शक्तियों की कल्पना की गयी। देवताओं की शक्तियों की कलपना सांख्यदर्शन की प्रकृति और पुरूष तथा दोनों के अंतरावलंबन के भाव से संबंधित है। इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनिपट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की परिकल्पना वस्तुतः शिवशक्ति या प्रकृति पुरूष की समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने की अनंत इच्छा ने शक्ति की उपासना को व्यापक आयाम दिया है।

 
 छत्तीसगढ़ में देवियां ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। विभिन्न स्थानों में देवियां या तो समलेश्वरी या महामाया देवी के रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित हो रही हैं। राजा-महाराजाओं, जमींदारों और मालगुजार भी शक्ति उपासक हुआ करते थे। वे अपनी राजधानी में देवियों को ‘‘कुलदेवी’’ के रूप में स्थापित 

महामाया मंदिर ,अंबिकापुर 

किये हैं। देवियों को अन्य राजाओं से मित्रता के प्रतीक के रूप में भी अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। यहां देवियों की अनेक चमत्कारी किंवदंतियां प्रचलित हैं। ..चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है। नवरात्रि में देवियों की कृपा प्राप्त करने के लिए देवि दर्शन की जाती हैं। ग्रामीणजनों में देवियों की प्रसन्न करने के लिए ‘‘बलि’’’ दिये जाने और मातासेवा गीत गाकर किये जाने की परंपरा है। उड़ियान राज से जुड़े चंद्रपुर में चंद्रसेनी माता के दरबार में ग्रामीणजनों द्वारा बलि देकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। देवी मंदिरों में श्रद्धालुओं की बढ़ती भीढ़ बढ़ती जा रही है और देवी स्थल शक्तिपीठ के रूप में विकसित होते जा रहे हैं।

रतनपुर की महामाया:-

दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन और जिला मुख्यालय से लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर महामाया की नगरी रतनपुर स्थित है। यह हैहहवंशी कलचुरी राजाओं की विख्यात् राजधानी रही है। इस वंश के राजा रत्नदेव ने महामाया के निर्देश पर ही रत्नपुर नगर बसाकर महामाया देवी की कृपा से दक्षिण कोसल पर निष्कंटक राज किया। उनके अधीन जितने राजा, जमींदार और मालगुजार रहे, सबने अपनी राजधानी में महामाया देवी की स्थापना की और उन्हें अपनी कुलदेवी मानकर उनकी अधीनता स्वीकार की। उनकी कृपा से अपने कुल-परिवार, राज्य में सुख शांति और वैभव की वृद्धि कर सके। पौराणिक काल से लेकर आज तक रतनपुर में महामाया देवी की सत्ता स्वीकार की जाती रही है। राजा रत्नदेव भटकते हुए जब यहां के घनघोर वन में आये और सांझ होनें के कारण एक पेड़ पर चढ़कर रात्रि गुजारी। पेड़ की डगाल को पकड़कर सोते रहे। अचानक अर्द्धरात्रि में पेड़ के नीचे देवी महामाया की सभा लगी दिखाई दी। उनके निर्देश पर ही उन्होंने यहां अपनी राजधानी स्थापित थी। यही देवी आज जन आस्था का केंद्र बनी हुई है। मंत्र शक्ति से परिपूर्ण दैवीय कण यहां के वायुमंडल में बिखरे हैं जो किसी भी उद्दीग्न व्यक्ति को शांत करने के लिए पर्याप्त हैं। यहां के भग्नावशेष हैहहवंशी कलचुरी राजवंश की गाथा सुनाने के लिए पर्याप्त है। महामाया देवी और बूढ़ेश्वर महादेव की कृपा यहां के लिए कवच बना हुआ है। पंडित गोपालचंद्र ब्रह्मचारी भी यही गाते हैं:-

रक्षको भैरवो याम्यां देवो भीषण शासनः

तत्वार्थिभिःसमासेव्यः पूर्वे बृद्धेश्वरः शिवः।।

नराणां ज्ञान जननी महामाया तु नैर्ऋतै

पुरतो भ्रातृ संयुक्तो राम सीता समन्वितः।।

देवी महामाया मंदिर ट्रस्ट बनाकर अराधकों द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया है। दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए धर्मशाला, यज्ञशाला, भोगशाला और अस्पताल आदि की व्यवस्था की गयी है। नवरात्र में श्रद्धालुओं की भीड़ ‘‘ चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है...’’ का गायन करती चली आती है।

सरगुजा की महामाया और समलेश्वरी देवी:-

वनांचल प्रांत झारखंड की सीमा से लगा छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य वनाच्छादित जिला मुख्यालय अम्बिकापुर चारों ओर से सड़क मार्ग और अनुपपुर से विश्रामपुर तक रेल्वे लाईन से जुड़ा पूर्व फ्यूडेटरी स्टेट्स है। यहां की पवित्र पहाड़ी पर महाकवि कालिदास का आश्रम था। विश्व की प्राचीनतम् नाट्यशाला भी यहां की रामगढ़ पहाड़ी में स्थित है। त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण लंका जाते देवियों की इस भूमि को प्रणाम करने यहां आये थे। यहां आज भी महामाया और समलेश्वरी देवी एक साथ विराजित हैं। तभी तो छत्तीसगढ़ गौरव के कवि पंडित शुकलाल पांडेय गाते हैं:-

यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को

समलेश्वरी देवी , सम्बलपुर 

क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?

काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा

चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा

दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये

लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।

कवि की बातों में सच्चाई है तभी तो सरगुजा आज अद्वितीय शक्ति उपासना का केंद्र है। छŸाीसगढ़ ही नहीं बल्कि सुदूर उड़ीसा के संबलपुर तक समलेश्वरी देवी, रतनपुर में महामाया देवी और चंद्रपुर में चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि से ही ले जायी गयी। मराठा शासकों के सैनिक और सामंतों द्वारा महामाया को नहीं ले सकने पर उसके सिर को काटकर रतनपुर ले आये लेकिन आगे नहीं ले जा सके और रतनपुर में ही प्रतिष्ठित कर दिये। 

चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी:-

 

महानदी और मांड नदी से घिरा चंद्रपुर, जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत रायगढ़ से लगभग 32 कि.मी., सारंगढ़ से 22 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां चंद्रसेनी देवी का वास है। किंवदंति है कि चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ होते हुये चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ जाती हैं। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर यहां पर वह विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहां से गुजरी और अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और उनकी नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहां मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। देवी की आकृति चंद्रहास जैसे होने के कारण उन्हें ‘‘चंद्रहासिनी देवी’’ भी कहा जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था का भार उन्होंने यहां के जमींदार को सौंप दिया। यहां के जमींदार ने उन्हें अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना करने लगा। आज पहाड़ी के चारों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों, देवी-देवताओं, वीर बजरंग बली और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा, सर्वधर्म सभा और चारों धाम की आकर्षक झांकी लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कवि तुलाराम गाोपाल की एक बानगी पेश है:-

खड़ी पहाड़ी की सर्वोच्च शिला आसन पर

तुम्हें देख बराह रूप में चंद्राकृति पर

जब मन ही में प्रश्न किया सरगुजहीन बाली

महानदी की बीच धार की धरती डोली।

बस्तर की दंतेश्वरी देवी:- 

    

 विशाल भूभाग में फैले बस्तर को यदि देवी-देवताओं की भूमि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां के हर गांव के अपने देवी-देवता हैं। हर गोव में ‘‘देव गुड़ी’’ होती है, जहां किसी न किसी देवी-देवता का निवास होता है। लकड़ी की पालकी में सिंदूर से सने और रंग बिरंगी फूलों की माला से सजे विभिन्न आकृतियों वाली आकर्षक मूर्तियां प्रत्येक देव गुड़ी में देखने को मिल जायेगी। ये यहां के गांवों के आस्था के केंद्र हैं। सम्पूर्ण बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी हैं जो यहां के काकतीय वंशीय राजाओं की कुलदेवी है। इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में दंतेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। भारत के शक्तिपीठों में एक दंतेवाड़ा में शक्ति का दांत गिरने के कारण यहां की देवी दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रतिष्ठित हुई, ऐसा विश्वास किया जाता है। देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी गयी जो आज दंतेवाड़ा जिला का मुख्यालय है। 

बस्तर के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टिपात करने से पता चलता है कि राजा प्रताप रूद्रदेव के साथ दंतेश्वरी देवी आंध्र प्रदेश के वारंगल राज्य से यहां आयी। मुगलों से परास्त होकर राजा प्रताप रूद्रदेव वारंगल को छोड़कर इधर उधर भटकने लगे। देवी अराधक तो वे थे ही, वे उन्हीं के शरण में गये। तब देवी मां का निर्देश हुआ कि ‘‘ मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन घोड़े पर सवार होकर तुम अपनी विजय यात्रा आरंभ करो, जहां तक तुम्हारी विजय यात्रा होगी वहां तक तुम्हारा एकछत्र राज्य होगा...।’’ राजा के निवेदन पर देवी मां उनके साथ चलना स्वीकार कर ली। लेकिन शर्त थी कि राजा पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। अगर राजा पीछे मुड़कर देखेंगे, तब देवी मां आगे नहीं बढ़ेंगी। राजा को उनके पैर की घुंघरूओं की आवाज से उनके साथ चलने का आभास होता रहेगा। राजा प्रताप रूद्र्र्रदेव ने विजय यात्रा आरंभ की और देवी मां उनकी विजय यात्रा के साथ चलने लगी। जब राजा की सवारी शंखिनी डंकनी नदी को पार करने लगी तब देवी मां के पैर की घुंघरू सुनायी नहीं देता है तब राजा पीछे मुड़कर देखने लगे जिससे देवी आगे बढ़ने से इंकार कर दी और वहीं प्रतिष्ठित हुई। बाद में राजा ने उनके लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और उनके नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी। बस्तर में कोई भी पूजा-अर्चना और त्योहार दंतेश्वरी देवी की पूजा के बिना पूरा नहीं होता। दशहरा के दिन यहां रावण नहीं मरता बल्कि दंतेश्वरी देवी की भव्य शोभायात्रा निकलती है जिसमें बस्तर के सभी देवी-देवता शामिल होते हैं। नवरात्र में बस्तर का राजा दंतेश्वरी देवी के प्रथम पुजारी के रूप में नौ दिन मंदिर में निवास करके पूजा-अर्चना करते थे। इसी प्रकार खैरागढ़ में दंतेश्वरी देवी की काष्ठ प्रतिमा स्थापित है जो खैरागढ़ राज परिवार की कुलदेवी है।

डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी:-

    

राजनांदगांव जिलान्तर्गत 25 कि.मी पर स्थित दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के डोंगरगढ़ स्टेशन में ट्रेन से उतरते ही सुन्दर पहाड़ी उसमें छोटी छोटी सीढ़ियां और उसके उपर बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर का दर्शन कर मन प्रफुल्लित हो श्रद्धा से भर उठता है। प्राचीन काल में यह कामावती नगर के नाम से विख्यात् था। यहां के राजा कामसेन बड़े प्रतापी और संगीत कला के प्रेमी थे। राजा कामसेन के उपर बमलेश्वरी माता की विशेष कृपा थी। उन्हीं की कृपा से वे सवा मन सोना प्रतिदिन दान किया करते थे। उनके राज दरबार में कामकंदला नाम की अति सुन्दर राज नर्तकी थी। कामकंदला वास्तव में एक अप्सरा थी जो शाप के कारण पृथ्वी में अवतरित हुई थी। राजनर्तकी को यहां कुंवारी रहना पड़ता था। इस राज दरबार में माधवानल जैसे कला और संगीतकार भी थे। एक बार राजदरबार में दोनों का अनोखा समन्वय देखने को मिला और राजा कामसेन उनकी संगीत साधना से इतने प्रभावित हुए कि वे माधवानल को अपने गले का हार दे दिये। मगर माधवानल ने इसका श्रेय कामकंदला को देते हुए उस हार को उसे पहना देता है। इससे राजा अपने को अपमानित महसूस किये और गुस्से में आकर माधवानल को देश निकाला दे दिया। इधर कामकंदला उनसे छिप छिपकर मिलती रही। दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे लेकिन राजा के भय से सामने नहीं आ सकते थे। फिर उन्होंने उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की शरण में गया और उनका मन जीतकर उनसे पुरस्कार में कामकंदला को राजा कामसेन से मुक्त कराने की बात कही। राजा विक्रमादित्य ने दोनों के प्रेम की परीक्षा ली और दोनों को खरा पाकर कामकंदला की मुक्ति के लिए पहले राजा कामसेन के पास संदेश भिजवाया। उसने कामकंदला को मुक्त करने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप दोनों के बीच घमासान युद्ध होने लगा। दोनों वीर योद्धा थे और एक महाकाल के भक्त थे तो दूसरा विमला माता के भक्त। दोनों अपने अपने इष्टदेव का आव्हान करते हैं। तब एक तरफ महाकाल और दूसरी ओर भगवती विमला मां अपने अपने भक्त को सहायता करने पहुंचे। फिर महाकाल विमला माता से राजा विक्रमादित्य को क्षमा करने की बात कहकर कामकंदला और माधवानल को मिला देते हैं और दोनों अंतध्र्यान हो जाते हैं। बाद में राजा कामसेन की नगरी काल के गर्त में समा जाती है। वही आज बमलेश्वरी देवी के रूप में छŸाीसगढ़ वासियों की अधिष्ठात्री है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे बमलेश्वरी पहाड़ी अविचल खड़ा है। यह अनादिकाल से जग जननी मां बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी है। लगभग एक हजार सीढ़ियों को चढ़कर माता के दरबार में पहुंचने पर जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रद्धा से भर उठकर गा उठता है:-

तेरी होवे जै जैकार, नमन करूं मां करो स्वीकार।

तेरी महिमा अनुपम न्यारी जग में सबसे बलिहारी है।

तू ही अम्बे, तू ही दुर्गा, बमलेश्वरी तेरी सिंह की सवारी।

नैया सबकी पार लगे मां तरी जै जैकार.....।

इसी प्रकार रायगढ़, सारंगढ़, उदयपुर, चांपा में समलेश्वरी देवी, कोरबा जमींदारी में सर्वमंगला देवी, जशपुर रियासत में चतुर्भुजी काली माता, अड़भार में अष्टभुजी देवी, झलमला में गंगामैया, केरा, पामगढ़ और दुर्ग और कुरूद में चंडी दाई, खरौद में सौराईन दाई, शिवरीनारायण में अन्नपूर्णा माता, मल्हार में डिडनेश्वरी देवी, रायपुर में बिलासपुर रोड में तथा पंडित रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय के पीछे बंजारी देवी का भव्य मंदिर है। छुरी की पहाड़ी में कोसगई देवी, बलौदा के पास खम्भेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा पहाड़ी में स्थित हैं। नवरात्र में यहां दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।


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गुरुवार, 1 सितंबर 2022

रायगढ़ और बल्देव प्रसाद मिश्र

 रायगढ़ और बल्देव प्रसाद मिश्र 

   

राजा चक्रधर सिंह 
छत्तीसगढ़ का पूर्वी सीमान्त आदिवासी बाहुल्य जिला रायगढ़ केवल सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी सम्पनन रहा है। रियासत काल में यहां के गुणग्राही राजा चक्रधरसिंह के दीवान, सुप्रसिद्ध साहित्यकार और तुलसी दर्शन के रचनाकार डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र थे। उन्हीं की सलाह पर प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला रायगढ़ का गणेश मेला का स्वरूप केवल सांस्कृतिक न होकर साहित्यमय हो गया था। अखिल भारतीय स्तर के साहित्यकारों और कवियों को भी आमंत्रित किया जाने लगा और उन्हें भी पुरस्कृत करने की योजना बनायी गयी। उस काल के आमंत्रित साहित्यकारों में सर्वश्री आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्री भगवती चरण वर्मा, डाॅ. रामकुमार वर्मा, डाॅ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और श्री अनंतगोपाल शेवड़े प्रमुख हैं। रायगढ़ के सांस्कृतिक पृष्टभूमि की एक झांकी पं. शुकलाल पांडेय अपने छत्तीसगढ़ गौरव में इस प्रकार करते हैं:-

महाराज हैं देव चक्रधरसिंह बड़भागी।

नृत्य वाद्य संगीत ग्रंथ रचना अनुरागी।

                                                          केलो सरिता पुरी रायगढ़ की बन पायल।चक्रधरसिंह 

                                                           बजती हैं अति मधुर मंद स्वर से प्रतिपल पल।

                                                           जलकल है, सुन्दर महल है निशि में विद्युत धवल।

                                                           है ग्राम रायगढ़ राज्य के, सुखी सम्पदा युत सकल।।

राजा चक्रधरसिंह के पिता राजा भूपदेवसिंह भी साहित्यानुरागी थे। उनके शासनकाल में पं. अनंतराम पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय आदि प्रमुख साहित्यकार थे, जिन्हें रायगढ़ रियासत का संरक्षण मिला था। यही नहीं बल्कि वे साहित्यकारों को जमीन जायजाद देकर अपने राज्य में बसाते भी थे। पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय ऐसे ही एक साहित्यकार थे। राजा भूपदेवसिंह उन्हें परसापाली और टांडापुर की मालगुजारी देकर बसाये थे। पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय लिखते हैं:- 

रायगढ़ का मोती महल 

मध्य प्रदेश सुमधि यह देश ललाम

रायगढ़ सुराजधानी विदित सुनाम।

इहां अधिप श्री नृपसुरसिंह सुजान

दान मान विधि जानत अति गुणमान।

नारायण लिखि सिंह मिलावहु आनि

सो नृप भ्राता सुलीजै जानि ।

इनके गुण गण हो क करौं बखान

विद्यमान सुपूरो तेज  निधान ।

श्री नृपवर मुहिं दीने यह दुदू ग्राम

टांडापुर इक परसापाली  नाम।

नृपजय नितहिं मनावत रहि निज ग्राम

हरि चरचा कछु कीजत कछु गृह काम।। 

इस पद्य में पांडेय जी राजा भूपदेवसिंह को नृपसुरसिंह और नृपवर शब्द से संबोधित किया है। इस प्रकार रायगढ़ के साहित्यिक परिवेश में डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र लगातार सन् 1923 से 1940 तक पहले न्यायधीश, नायब दीवान और फिर दीवान रहे। यह 17 वर्ष उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ काल रहा है। अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में मिश्र जी ईमानदारी, निष्पक्षता, चारित्रिक दृढ़ता और अपूर्व कार्य क्षमता के लिए प्रसिद्ध रहे। जन कल्याण के लिए उन्होंने यहां अनेक स्थायी महत्व के कार्य सम्पन्न कराये थे जिसके लिए यहां की जनता उनका ऋणी है। उनकी प्रेरणा और निर्देशन में रायगढ़ में एक अनाथालय बनवाया गया जो प्रदेश में अकेला है। यहां रहने वाले बालकों को ‘‘अर्न एंड लर्न‘‘ के सिद्धांत पर शिक्षा के साथ साथ औद्यौगिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। उन्होंने चक्रधर गौशाला के निर्माण और विकास में भी अपूर्व योगदान देकर उसे एक व्यवस्थित और आदर्श संस्थान बना दिया। यहां का संस्कृत पाठशाला, वाणिज्य महाविद्यालय और आंख का अस्पताल उनके ही सद्प्रयास से खुले हैं।

रायगढ़ का एक अविस्मरणीय पहलू यह भी है कि यहां रहकर श्री बल्देवप्राद मिश्र ने ‘‘तुलसी दर्शन‘‘ जैसे महाकाव्य और शोध प्रबंध का लेखन पूरा किया। इसी शोध प्रबंध के उपर नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा सन् 1936 में उन्हें डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि प्रदान किया गया। यह शोध प्रबंध परम्परागत अंग्रेजी भाषा के बजाय हिन्दी भाषा में लिखी जाने वाली प्रथम कृति है। इस ग्रंथ में मिश्र जी ने गीता से लेकर गांधीवाद तक सभी दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार धाराओं में सन्निहित मूल तत्वों का शोध करके गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व को अखिल जगत के मानव धर्म का आश्रय स्थल निरूपित किया है। यह ग्रंथ उनके प्रकांड अध्ययन, सूक्ष्म चिंतन मनन, तत्वपूर्ण शोध दृष्टि और व्याख्या विश्लेषण की अपूर्व क्षमता का प्रतीक है।

डाॅ. मिश्र के प्रशासनिक व्यक्तित्व की एक अपूर्व विशेषता यह भी रही है कि जनता उनके शासन को ‘‘होमरूल‘‘ समझती थी। अपने सहयोगियों पर विश्वास, उनके विचारधाराओं का सम्मान, उनसे कार्य लेने की क्षमता, उन्हें प्रोत्साहन देते रहने की शक्ति और समदृष्टि-ये कुछ ऐसे गुण हैं जो उनकी प्रशासनिक सफलता के रहस्य माने जा सकते हैं। मिश्र जी के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष लोक सेवक का है। यह उनके भारत सेवक समाज की महती सेवाओं, रायगढ़, खरसिया, रायपुर और राजनांदगांव की नगर पालिकाओं के अध्यक्ष और अन्य पदों को सुशोभित और खुज्जी विधान सभा क्षेत्र से विधायक के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होता है। भारत सेवक समाज जैसी लोक सेवी संस्थाओं से उनका प्रगाढ़ सम्बंध सन् 1952 से 1959 तक सात वर्षो तक रहा है। प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने उनकी विद्वता, कार्य क्षमता, राष्ट्रीयता और ईमानदारी को देखते हुए मिश्र जी को मध्य प्रदेश भारत लोक सेवक समाज का संयोजक नियुक्त किया था। राष्ट्रीय चेतना और देश भक्ति की भावनाएं मिश्र जी के व्यक्तित्व में शुरू से ही रही है। अपने छात्र जीवन में उन्होंने राजनांदगांव में सरस्वती पुस्तकालय, बाल विनोदनी समिति और मारवाड़ी सेवा समाज की स्थापना की थी। सन् 1917-18 की महामारी के समय मारवाड़ी सेवा समाज के सदस्यों ने जन सेवा के बहुत कार्य किये। इसी प्रकार यहां ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सहयोग से एक ‘‘राष्ट्रीय माध्यमिक शाला‘‘ खोली थी और इस संस्था के वे पहले हेड मास्टर थे।

इस अंचल में उच्च शिक्षा के विकास में भी डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र का उल्लेखनीय योगदान रहा है। वे सन् 1944 से 47 तक एस. बी. आर. कालेज बिलासपुर, सन् 1948 में दुर्गा महाविद्यालय रायपुर, दो वर्षो तक कल्याण महाविद्यालय भिलाई और कमलादेवी महिला महाविद्यालय राजनांदगांव के वे संस्थापक प्राचार्य रहे। इंदिरा संगीत विश्वपिद्यालय खैरागढ़ के वे कुलपति रहे। लगभग दस वर्षो तक नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के वे मानसेवी अध्यक्ष रहे। यहां के किनखेड़े व्याख्याता और बड़ौदा विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर रहे। भारत सरकार उन्हें मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक प्रांत) में हिन्दी विषय के विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त कई विश्वविद्यालयों में वे शोध निर्देशक, विषय विशेषज्ञ और परीक्षक आदि थे।

डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र ने प्रायः साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएं लिखी हैं। महाकाव्यकार के साथ साथ वे कुशल नाटककार, ललित निबंधकार, तत्वपूर्ण शोधकर्ता, समीक्षक, हास्य व्यंग्यकार और यशस्वी संपादक भी थे। साहित्य रचना के लिए बह्म साधना का ही दूसरा रूप था। इसे भी वे शिक्षकीय जीवन की तरह एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक कार्य मानते थे। उनका सारा साहित्य लोकधर्म की भूमिका पर आधारित है। लोकधर्म के प्रतिष्ठित नेता मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम उनके जीवन के साथ ही साहित्य के भी आराध्य थे। वे मानस प्रसंग के एक यशस्वी प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन हर जगह श्रव्य और सराहनीय था। देशरत्न डाॅ. राजेन्द्रपसाद उनके प्रवचन से कई बार मुग्ध हुए थे।

मिश्र जी की प्रकाशित और अप्रकाशित कृतियों की संख्या 85 से भी अधिक है। इनमें तुलसी दर्शन, जीवविज्ञान, साकेत संत, उदात्त संगीत और शंकर दिग्विजय महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। जीवविज्ञान (सन् 1928) को मिश्र जी ने जीवन दर्शन का नाम भी दिया है। यह एक दार्शनिक ग्रंथ है। इसमें ब्रह्म जिज्ञासा और धर्म जिज्ञासा का महत्वपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसमें जीव से सम्बंधित 25 सूत्र संस्कृत भाषा में दिये गये हैं। इसमें जीव बुद्धि, मन, चित्त रस आदि के संदर्भ में अन्य विषयों को स्पष्ट किया गया है। निःसंदेह दार्र्शिनक ग्रंथों में यह एक अनूठा ग्रंथ है। ‘‘साकेत संत‘‘ (सन् 1946) इनका महाकाव्य है। इसमें धर्म की धूरी को धारण करने वाले भरत के व्यक्तित्व को पहली बार विस्तार और काव्यात्मक उदात्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है। राम काव्य परंपरा में आदि काल से ही भरत एक महिमा मंडित पात्र रहे हैं किंतु अभी तक उनके साथ न्याय नहीं हो सका है। मिश्र जी का यह ग्रंथ राम काव्य परंपरा की ऐतिहासिक कमी को पूरा है। ‘‘कौशल किशोर‘‘ मिश्र जी की किशोर कल्पना तथा ‘‘राम राज्य‘‘ प्रज्ञा का काव्य है। किंतु साकेत संत उनके उर्मिल मानस की भावनात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें भरत मनुष्यता के ज्वलंत आदर्श के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं और कैकयी को भी उसकी चारित्रिक गरिमा के अनुकूल सर्वथा नया परिवेश प्रदान किया गया है। ‘‘उदाŸा संगीत‘‘ में मिश्र जी के उदाŸा रस से सम्बंधित आत्म स्फूर्तिपूर्ण प्रगीतों का संकलन है। संस्कृत के काव्य शास्त्रीय ग्रंथों में उदात्त रस का संकेत तो मिलता है, किंतु उसका परिपाक नहीं मिलता। मिश्र जी ने पहली बार इसका शास्त्रीय रूप प्रस्तुत किया है। इस रस का स्थायी भाव आनंद, उल्लास, मस्ती या जीवन की समदर्शी मनःस्थिति को माना है। देखिये इसका एक भाव:-

कांटे दिखते हैं जबकि फूल से हटता मन

अवगुण दिखते हैं जबकि गुणों से आंख हटे

उस मन के कमरे में दुःख क्यों आ पायेगा

जिस कमरे में आनंद और उल्लास डटे।

‘‘शंकर दिग्विजय‘‘ (सन् 1922), मिश्र जी की पहली प्रकाशित कृति है। इसमें उन्होंने युगीन समस्याओं जैसे देश व्यापी उच्छृंखलाओं, स्वार्थान्दता, अकर्मण्यता और धार्मिक संकीर्णता का चित्रण किया किया है। इसे हम हिन्दी का प्रथम दार्शनिक नाटक कह सकते हैं।

ऐसे महान् साहित्यकार और लोक सेवक का जन्म श्री शिवरतन मिश्र के पौत्र और श्री नारायणप्रसाद मिश्र के पुत्र रत्न के रूप में 12 सिंतंबर सन् 1898 में राजनांदगांव में हुआ था। बचपन से ही वे प्रतिभाशाली थे। उनकी रूचि साहित्य में शुरू से ही थी। एक जगह उन्होंने लिखा है:-‘‘मेरे पिताश्री में साहित्य प्रेम था। उन्होंने ब्रजभाषा के कुछ कवि भी अपने घर रख छोड़े थे। मुझे अपनी पाठशाला में भी कुछ साहित्य प्रेमी शिक्षकों और सहपाठियों का साथ मिला, पर साहित्य रचना की प्रवृत्ति मुझमें कालेज जाने पर ही जगी। सम्मेलन की विशारद की परीक्षा में ब्रजभाषा के अनेक उत्कृष्ट काव्य पढ़ने को मिले और खड़ी बोली के जयद्रथ वध, भारत भारती, प्रिय प्रवास आदि रचनाएं भी देखने और पढ़ने को मिली। अतः मैंने भी ब्रजभाषा के अनेक छंद लिख डालेऔर खड़ी बोली में एक महाकाव्य लिख डाला जो बाद में ‘‘कौशल किशोर‘‘ के नाम से प्रकाशित हुआ। बी. ए. एल. एल-बी. तथा एम. ए. दर्शनशास्त्र की परीक्षा मारिस कालेज नागपुर से पास करने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की मगर उसमें वे सफल नहीं हुये और सन् 1923 में राजा चक्रधरसिंह के बुलावे पर रायगढ़ आ गये। यहां वे 17 वर्षो तक न्यायधीश, नायब दीवान और दीवान रहे और अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिसके लिये वे हमेशा याद किये जायेंगे। 11-12 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली कविता लिखी। देखिये उसका एक भाव:-

बन्दौ चरण कमल रघुराई

दशरथ घर में पैदा है कै

यज्ञ दियो मुनि की करवाई।

इसी प्रकार जबलपुर के मदन महल पर भी उन्होंने कविता लिखी। मिश्र जी आस्तिकता के परम्परावादी कवि थे। वे मानते थे:-

माना कि विषमताएं दुनियां को घेरे हैं

इस घेरे को भी घेर धैर्य से बढ़े चलो

उल्लास भरा है तो मंजिल तय ही होगी

मंजिल को भी सोपान बनाकर चले चलो।

मुक्त शैली में लिखे गये जीवन संगीत में जीवन के अनेक मनोवैज्ञानिक शब्द चित्र हैं जो उल्लासमय दार्शनिकता से ओतप्रोत है। जीवन का दार्शनिक रहस्य मिश्र जी के शब्दों में:-

जीवन क्या जिसमें तिरकर, सौ सौ ज्योति बुझ जायें।

जीवन वह जिस पर तिरकर, लाखों दीप लहरायें।।

गांधीवादी अहिंसा का रूप काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हुये मिश्र जी लिखते हें:-

जीवन की शांति न खोना, खोकर भी सर्व प्रशंसी।

सुलझाओ केस समस्या, पर रहत हाथ में बंशी।।

डाॅ. रामकुमार वर्मा कहते हैं-‘‘पंडित बल्देवप्रसाद मिश्र हिन्दी के उन विभूतियों में से हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रकाश अज्ञात रूप से विकीर्ण किया है। वे एक दार्शनिक थे और दर्शन के कठिन तर्को को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते थे।‘‘

मिश्र जी की जैसी विनम्रता बहुत कम देखने को मिलती है। ऐसे विनम्र महापुरूष के हाथों मुझे भी सम्मानित होने का सौभाग्य एक निबंध प्रतियोगिता में मिला था। 04 सितंबर सन् 1975 को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे सदा कि छिन लिया। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि उन्हीं के शब्दों में अर्पित है:-

बूंदों पर ही क्यों अटके, मदिरा अनंत है छवि की।

नश्वर किरणों तक ही क्यों, उज्जवलता देखो रवि की।।

बल्देवप्रसाद मिश्र की रचनाएं :-

काव्य ग्रंथ:-

1. श्रृंगार शतक (ब्रजभाषा मुक्तक)  1928

2. वैराग्य शतक (ब्रजभाषा मुक्तक)  1928

3. छाया कुंडल (मुक्तक लेखमाला) 1932

4. कौशल किशोर (महाकाव्य) 1934

5. कौशल किशोर संशोधित         1955

6. जीवन संगीत (मुक्तक) 1940

7. साकेत सन्त (मुक्तक) 1946

8. साकेत सन्त (मुक्तक) संशोधित 1955

9. हमारी राष्ट्रीयता (अनुष्टुप छंद) 1948

10. स्वग्राम गौरव         1951

11. अंतः स्फूर्ति (मुक्तक)          1954

12. मानस के चार प्रसंग          1955

13. श्याम शतक (ब्रजभाषा) पुरस्कृत 1958

14. व्यंग्य विनोद 1961

15. उदात्त संगीत, पुरस्कृत 1965

16. गांधी गाथा 1969

समीक्षात्मक ग्रंथ:-

1. जीव विज्ञान (मानव शास्त्र पर गणवेषात्मक निबंध) 1928

2. साहित्य लहरी

 (हिन्दी साहित्य के इतिहास का सिंहावलोकन) पुरस्कृत 1934

3. तुलसी दर्शन डी. लिट् प्रबंध एम.ए. पाठ्य ग्रंथ 1938

4. मानस मंथन 1939

5. भारतीय संस्कृति 1952

6. मानस में रामकथा 1952

7. भारतीय संस्कृति की रूपरेखा 1952

8. छत्तीसगढ़ परिचय 1955

9. मानस माधुरी, पुरस्कृत 1958

10. भगवद्गीता (गद्यात्मक विवेचन) 1958

11. सुराज्य और रामराज्य 

(मानस माधुरी का अंश) 1958

12. मानस की सुक्तियां

(मानस माधुरी का अंश) 1958

13. रघुनाथ गीता 

(मानस माधुरी का अंश) 1958

14. राम का व्यवहार

(मानस माधुरी का अंश) 1958

15. मानस में उक्ति सौष्ठव

(मानस माधुरी का अंश) 1958

17. मानस रामायण 

(रामकथा का आध्यात्मिक विवेचन) 1959

18. सुंदर सोपान- सुंदर कांड की टीका, लेखमाला के रूप में 1957-59 तक प्रकाशित

19. बिखरे विचार 1950-60 तक

20. भारत की एक झलक 1972

21. तुलसी की रामकथा 1974

नाटक:-

1. शंकर दिग्विजय (एम.ए. की पाठ्य पुस्तक) 1922

2. असत्य संकल्प (स्कूली पाठ्य पुस्तक) 1928

3. वासना वैभव (स्कूली पाठ्य पुस्तक) 1928

4. समाज सेवक (स्कूली पाठ्य पुस्तक) 1928

5. मृणालिनी परिचय (स्कूली पाठ्य पुस्तक) 1928

6. क्रांति (शंकर दिग्विजय का रूपांतरण) 1939

अन्य:-

1. काव्य कलाप  एम.ए. की पाठ्य पुस्तक

(आलोचनात्मक संकलन) 1942

2. सरल पाठ माला भाग 1-5 

(रियासती प्रायमरी स्कूलों की पाठ्य पुस्तकें) 1942

3. सुमन (निबंध संकलन) मेट्रिक की पाठ्य पुस्तक 1944

3. काव्य कल्लोल भाग 1 एवं 2 बी.ए. की पाठ्य पुस्तक 

(प्राचीन तथा अर्वाचीन कवियों का आलोचनात्मक संकलन) 1955

4. साहित्य संचय (निबंध) 1955

5. भारतीय संस्कृति को गो. जी. का योगदान 1955

6. संक्षिप्त अयोध्याकांड (मेट्रिक की पाठ्य पुस्तक) 1957

7. उत्तम निबंध 1962

8. तुलसी शब्द सागर

अनुवाद:-

1. मादक प्याला 

(खैय्याम का पद्यानुवाद) 1932

2. गीत सार (गद्य) 1934

3. ईश्वर निष्ठा (अंग्रेजी का भावानुवाद लेखमाला) 1950

4. उमर खैय्याम की रूबाइयां 1951

5. ज्योतिष प्रवेशिका 1952

अप्रकाशित ग्रंथ:- 

1. अमर सुक्तियां

 (अमरूक शतक का पद्यानुवाद)

2. सांख्य तत्व (सांख्यिकारिका का पद्यानुवाद)

3. मेरे संस्मरण

4. सरोज शतक (अन्योक्ति परक ब्रज पद्य मुक्तक)

5. नरेश शतक (वीर रसात्मक ब्रज पद्य मुक्तक)

6. प्रचार गीत (भारत सेवक समाज)

7. छत्तीसगढ़ का जनपदीय साहित्य

8. संस्कृत साहित्य सौरभ

9. मानस मुक्ता

10. विनोदी लेख

11. रोचक यात्राएं

12. हिन्दी भाषा और साहित्य

13. कथा संग्रह

14. पुराण विज्ञान

15. काव्य संग्रह

अधूरी कृतियां:-

1. मन्मथ मंथन (ब्रजभाषा)

2. श्रृंगार सार (गणवेशात्मक सार)

3. संसार सागर (व्यंग्यात्मक उपन्यास)

4. विमला देवी (ऐतिहासिक उपन्यास)

5. बिखरे समीक्षात्मक निबंध

स्रोत: डाॅ. बल्देव प्रसाद मिश्र अभिनंदन ग्रंथ से सामार।

प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी