उत्कृष्ट शिक्षाशास्त्री, कुशल प्रशासक और सफल संगठक
प्रो. रामनारायण शुक्ल
प्रो. अश्विनी केशरवानी
प्रो. रामनारायण शुक्ल का बहुआयामी व्यक्तित्व था। वे उत्कृष्ट शिक्षाविद्, कुशल प्रशासक और सफल संगठक थे। वे कर्मठता, सहिष्णुता और सहृदयता के जीवुत प्रतीक थे। विद्वानों और साहित्यकारों का सम्मान करना वे अपना धर्म समझते थे। वे हमशा कहते थे -”व्यक्ति पूजा में मेरा विश्वास नहीं है, परन्तु विद्वानों के व्यक्तित्व पूजन, मनन और अराधन में मुझे विशेष सुख मिलता है।” इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने “स्वान्तः सुखाय” लिखा जो उनका प्रथम निबंध संग्रह है। इसमें उनके 32 निबंध और चरित्र चित्रण सम्बंधी लेख संग्रहीत है। यह संग्रह तीन खंडों में विभक्त है। प्रथम खंड में ऐसे निबंध जिनसे वे अत्यंत प्रभावित थे जो देश के लब्ध प्रतिष्ठ महापुरूषों के आदर्शों और जीवन दर्शन पर आधारित है। दूसरे खंड में ऐसे निबंध जिनसे उनकी निकटता थी और जिनके आदर्शों को उन्होंने अपनाया और तीसरे खंड में समाचार पत्रों और आकाशवाणी से प्रसारित उनके लेख संग्रहीत हैं।
अपने प्राचार्यत्व काल के बारे में
वे हमेशा कहते थे -”निजी महाविद्यालय के
प्राचार्य
के
सिर
का
ताज
फूलों
का
नहीं,
कांटों
का
हुआ
करता
है।
वह
महाविद्यालय
के
हित
एवं
उन्नयन
के
लिए
दिन
रात
एक
क्यों
न
कर
दे,
शिक्षकों,
कर्मचारियों
और
छात्रों
को
प्रसन्न
करने
के
लिए
वह
कितनी
ही
समर्पित
भावना
से
कार्य
क्यों
न
करें,
धमकियां,
विद्रोह
तथा
कड़वे
शब्द
तो
जैसे
मानो
उसके
जन्म
सिद्ध
पुरस्कार
होते
हैं।
एक
प्राचार्य
का
उद्धरण
देते
हुए
वे
कहते
हैं
कि
प्राचार्य
की
स्थिति
द्रौपति
जैसी
होती
है।
जो
अपने
पांच
पतियों-छात्र,
शिक्षक,
प्रबंध
समिति
के
पदाधिकारी,
सरकारी
एवं
विश्वविधालय
के
अधिकारी
तथा
अभिभावकों
को
प्रसन्न
करके
रखता
है,
वही
सफल
प्राचार्य
माना
जाता
है।”
इस बात को
कहते वे अघाते नहीं
थे कि कुछ बातें
महाविद्यालय के लिये इतिहास
बन जाती है। ऐसे अनेक प्रभृति लोग जिनमें स्व. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, डाॅ. विनयमोहन शर्मा, डाॅ. कामिल बुल्के, श्री विमल मित्र, डाॅ. नामवर सिंह, डाॅ. सुधाकर पाण्डेय प्रधानमंत्री, नागरी प्रचारिणी सभा के साथ पंडित
रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और गुरूघासीदास विश्वविद्यालय
बिलासपुर के कुलपति आदि
इस महाविद्यालय के अन्यान्य कार्यक्रमों
में उपस्थित रहकर कार्यक्रम को सफल बनाये
हैं। छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग द्वारा बिलासपुर जिले के साहित्यकारों के
सम्मान समारोह कार्यक्रम में एक कुशल संयोजक
की भूमिका निभाने वाले प्रो. रामनारायण शुक्ल जी ने मुझे
भी सम्मान के लायक समझा
और आमंत्रित करके छत्तीसगढ़ के उत्कृष्ट साहित्यकारों
के बीच सम्मान दिया। इसके पूर्व और बाद में
भी मैं डी. पी. विप्र महाविद्यालय बिलासपुर के अनेक गोष्ठियों
में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त
कर चुका हंू। इसके अलावा भारतेन्दु साहित्य समिति के वार्षिक अधिवेशन
और ग्रामीण शिविर में आलेख पठन के साथ शुक्ल
जी के कर कमलों
से सम्मानित होने का अवसर मुझे
शिवरीनारायण ग्रामीण शिविर में मिला था। मुझ जैसे न जाने कितने
छोटे बड़े साहित्यकार, कवि आदि को उन्होंने भारतेन्दु
साहित्य समिति से जोड़ा है।
जांजगीर चांपा जिलान्तर्गत छोटे से ग्राम तुलसी
के मालगुजार परिवार में पंडित द्वारिकाप्रसाद और जानकी देवी
शुक्ल के ज्येष्ठ पुत्र
के रूप में श्री रामनारायण शुक्ल का जन्म 30 मई
1928 को ननिहाल ग्राम नारायणपुर, जिला दुर्ग में हुआ। संभवतः उनका नामकरण भी नारायणपुर के
नाम पर रामनारायण रखा
गया। शुक्ल कुल के ज्येष्ठ पुत्र
होने के कारण वे
सबके प्रिय और स्नह पात्र
रहे। वे छः भाई
और एक बहन थे
जिनमें चार भाई श्यामनारायण, हरनारायण, आदित्यनारायण ‘विनय’ और देवेन्द्र नारायण
अमरीका में तथा डाॅ. प्रकाश नारायण शुक्ल रायपुर में सफल मनोरोग चिकित्सक हैं। एक मात्र बहन
रमादेवी समाज सेविका है और रायपुर
में निवास करती हैं। पितामह पंडित रामलाल शुक्ल बड़े सत्यवादी, धार्मिक और कर्मनिष्ठ थे।
वे साधु संतों की सेवा सुश्रुषा
और पूजा पाठ में लगे रहते थे। उनके छोटे भाई पंडित रामरतन शुक्ल ही कृषि कार्य
और घर की व्यवस्था
सम्हालते थे। यही कारण है कि दूर
दूर से साधु संत
और विद्वान ब्राह्मण घर में आते
रहते थे और धामिक
अनुष्ठान आदि होते रहता था। उनके पिता पंडित द्वारिकाप्रसाद शुक्ल भी अत्यंत सरल,
निष्कपट, निश्छल स्वभाव के थे जिनका
संस्कार उन्हें विरासत में मिला था। शुक्ल परिवार का आसपास के
मालगुजार, गौंटिया लोगों से मधुर सम्बंध
थे। एक मालगुजार परिवार
का मैं भी बहुत छोटा
पौध हंू। शुक्ल परिवार का मेरे परिवार
के साथ भी मधुर सम्बंध
था। शिवरीनारायण के प्रसिद्ध माध
मेले में उनका परिवार आता था और कृषि
उपकरण के साथ गाय,
बैल, घोड़े और वैवाहिक सामग्री
की खरीददारी किया करते थे। उनके छोटे भाई श्री श्यामनारायण शुक्ल जो इन दिनों
अमरीका में हैं, मेरे ताऊ श्री पराऊराम केशरवानी के सहपाठी थे।
शुक्ल जी की प्रारंभिक
शिक्षा ग्राम उदयभाठा में हुई। माध्यमिक, हाई स्कूल और कालेज की
शिक्षा बिलासपुर में हुई। उन्होंने बिलासपुर के ण्स. बी.
आर. कालेज से स्नातक और
नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य
में सन् 1957 में एम. ए. किया। श्री
आनंदीलाल पाण्डेय एस. बी. आर. कालेज में उनके गुरू व प्राचार्य थे।
उनके निरंतर प्रोत्साहन और प्रेरणा से
शुक्ल जी को सीख
मिली। पाण्डेय जी की प्रेरणा
से ही वे एस.
बी. आर. कालेज में व्याख्याता बने। सन् 1962 में एस. एन. जी. कालेज मुंगेली के संथापक प्राचार्य
बने। पाण्डेय जी की कार्यप्रणाली,
कर्मठता, किसी भी कार्य को
छोटा और निम्न न
समझने का भाव, कठोर
परिश्रम और नियमितता से
प्रभावित हुए और शुक्ल जी
ने भी उसे अपनाया
जो उनकी कुशल प्रशासक होने का राज है।
इसी बीच श्री रामेश्वरप्रसाद शर्मा सूचीपत्र के सहयोग से
खरौद में लक्ष्मणेश्वर महाविद्यालय की स्थापना हुई
और श्री रामनारायण शुक्ल सितंबर 1965 से 28 जून 1970 तक वहां के
संस्थापक प्राचार्य रहे। बाद में वे द्वारिकाप्रसाद तिवारी
विप्र महाविद्यालय बिलासपुर के 29 जून 1970 से 25 जनवरी 1990 तक संस्थापक प्राचार्य
और तत्पश्चात प्रशासनिक समिति के अध्यक्ष बने।
बिलासपुर में सरकंडा के एक छोटे
से मकान में रात्रिकालीन महाविद्यालय से शुरू कर
उसे स्नातक महाविद्यालय और सम्प्रति पंडित
द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र महाविद्यालय बनाने में शुक्ल जी की लगन
और मेहनत की लगी है।
वे इस सम्बंध में
कहते थे-”एक नन्हे पौधे
को
जब
माली
प्यार
और
दुलार
के
साथ
रोपता
है,
बड़े
परिश्रम
के
साथ
सींच
सींचकर
बड़ा
करता
है
और
जब
उसमें
फल
फूल
आने
लगते
हैं
तो
वह
उल्लास
और
आनंद
से
झूम
उठता
है।
विप्र
महाविद्यालय
अब
वट
वृक्ष
का
आकार
ले
चुका
है।
यह
मेरे
लिये
मात्र
पौधा
नहीं
था
बल्कि
बालक
जैसे
था।
मैंने
तो
इसे
साधारण
जल
से
नहीं
बल्कि
अपने
खून
पसीने
से
सींचा
है।
इसलिए
पौधा
रूपी
इस
महाविद्यालय
को
वटवृक्ष
का
आकार
लेते
देखकर
मेरा
आनंद
से
भर
उठना
कोई
अतिश्योक्ति
नहीं
है।
यह
तो
उसके
प्रति
ममत्व
का
सहज
भाव
है।”
शिक्षाशास्त्री के रूप में
वे पूरे छत्तीसगढ़ में जाने जाते थे। हर कोई उनके
अनुभवों का लाभ लेने
को उत्सुक रहता था। यही कारण है कि वे
उच्चतर माध्यमिक विद्यालय केरा, महामाया उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पामगढ़, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बिरकोना, नालंदा विद्यालय बिलासपुर के प्रशासनिक समिति
के अध्यक्ष थे। इसके अलावा आप लक्ष्मणेश्वर महाविद्यालय
खरौद, कमला नेहरू महाविद्यालय कोरबा, और विवेकानंद महाविद्यालय
मनेन्द्रगढ़ के संस्थापकों में
से एक थे। देखा
जाये तो वे सही
मायने में एक शिक्षा शास्त्री
के साथ कुशल प्रशासक भी थे।
शुक्ल जी ने सहकारी
जगत में भी काम किया
है। विद्यानगर, विनोबानगर, क्रांतिनगर, प्रियदर्शिनी नगर, अज्ञेयनगर, विवेकानंद नगर आदि अनेक उप नगरीय सहकारी
समितियों के वे सदस्य
और पदाधिकारी रहे और उसे आकार
प्रदान किया।
पद्मश्री से सम्मानित साहित्यकार
और पत्रकार पंडित
श्यामलाल
चतुर्वेदी
ने श्री रामनारायण शुक्ल के बारे में
एक लेख में लिखा है-”शुक्ल जी ग्रामीण
संस्कार
के
हैं,
आत्म
संतोषी
हैं,
आलसी
नहीं।
शहरी
हैं
पर
ग्रामीणें
के
शोषक
नहीं।
शिक्षक
हैं
पर
ट्यूशनी
लुटेरे
नहीं।
प्रशासक
हैं
पर
सबकी
भावनाओं
का
यथा
संभव
ध्यान
रखते
हैं।
निंदकों
से
भी
नेह
का
नाता
निभाने
में
वे
निष्णात्
हैं।
अध्येता
हैं,
विद्वान
हैं
पर
विद्वान
कहाने
की
हविश
नहीं
है।
नियमित
दिनचर्या
में
योग,
आसन,
प्रणायाम,
भ्रमण,
समय
पर
खाना
और
शयन
करना
।
ये
सभी
विशेषताओं
को
समेटे
हुए
समिष्ट
के
संक्षिप्त
स्वरूप
में
व्यष्टि
है।
मनुष्य
जन्मभूमि,
परिवार
और
समाज
का
ऋणी
होता
है।
उससे
उऋण
तो
वह
नहीं
हो
सकता
पर
उसे
चुकाने
की
चाह
तो
रखकर
यथाशक्ति
उपाय
तो
कर
सकता
है।
इस
कसौटी
पर
श्री
शुक्ल
जी
एक
अनुकरणीय
उदाहरण
हैं।”
इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि उन्होंने
अपने सभी भाइयों के परिवार को
जीवनपर्यन्त साथ रखा, उन्हें अपना भरपूर स्नेह दिया, उन्हें लेखन के लिए प्रोत्साहित
भी किया। अमरीका में बसे उनके तीन भाईयों ने वहां रहकर
हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में
लेखन और प्रकाशन कर
रहे हैं। वहां वे अपने देशवासियों
को एकसूत्र में पिरोकर देश सेवा का भाव जगा
रहे हैं। ये सब बड़े
भाई पो. रामनारायण शुक्ल जी की ही
प्रेरणा और प्रकाशन सहयोग
का ही प्ररिणाम है।
बिलासपुर जिलान्तर्गत गनियारी के पास भकुर्रा
नवापारा गांव में इनकी अच्छी खेती है। दो-ढाई हजार
वाले घोंघा तटीय इस गांव में
इनके संयोजन से करीब अस्सी
विद्युत पम्प, खेती और साग सब्जी
ग्राम पंचायत भवन तो बने ही
साथ ही छत्तीसगढ़ के
प्रसिद्ध कवियों पवन दीवान, दानेश्वर शर्मा, लक्ष्मण मस्तुरिहा, रामेश्वर वैश्णव, वसंत दीवान, श्यामलाल चतुर्वेदी, को ग्रामीण साहित्यिक
शिविर में जाने का अवसर मिला।
साथ ही अनेक साहित्यकार,
लेखक और कलाकार भी
वहां जा सके। साहित्य
समागम के साथ साथ
रासलीला, रामलीला और गम्मत आदि
का आयोजन उनके संयोजन में हो सका है।
वे ग्रामीणजनों में कृषि कार्य के अलावा अन्य
समाजिक और धार्मिक कार्यो
के लिये प्रोत्साहित किया करते थे।
उनकी उदारता का एक उदाहरण
यह भी है कि
छत्तीसगढ़ी साहित्य के मूर्धन्य कवि
पंडित द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र’ को सेवा निवृत्त
होने पर अपने इस
महाविद्यालय में एक लिपिक के
रूप में नियुक्त किया और सन् 1980 में
इस महाविद्यालय के प्रशासनिक समिति
के अध्यक्ष का दायित्व भी
सौंपा। जब 1982 में विप्र जी का देहावसान
हो गया तो महाविद्यालय का
नामकरण “द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र महाविद्यालय” रखने का प्रस्ताव प्रशासनिक
समिति में पास कराकर अनुमोदन स्वीकृति के लिये शासन
को भेजा। शासन के नामकरण पर
अवरोध पर उनका तर्क
था कि प्रायः अनेक
महाविद्यालय का नामकरण राजा,
रानी और राजनेता के
नाम पर रखे गये
हैं। हमारी मंशा है कि इस
महाविद्यालय के एक लिपिक
और मूर्धन्य साहित्यकार के नाम पर
इस महाविद्यालय का नामकरण रखा
जाये। बाद में उनके अकाट्य तर्क को मान्य करते
हुए शासन ने इस महाविद्यालय
का नामकरण ‘द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र महाविद्यालय’ रखने की स्वीकृति प्रदान
कर दी।
भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर न केवल छत्तीसगढ़
बल्कि देश में जाना जाने वाली संस्था थी। इस समिति के
माध्यम से देश के
प्रभृति साहित्यकार, कवि, आलोचक, संपादक, पत्रकार और राजनेता को
आमंत्रित किया जाता है। समिति के अध्यक्ष पंडित
द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र के देहावसान के
बाद प्रो. रामनारायण शुक्ल भारतेन्दु साहित्य समिति के कार्यकारी और
बाद में पूर्णकालिक अध्यक्ष बने। उन्होंने विप्र जी द्वारा स्थापित
परम्पराओं का न सिर्फ
सम्यक निर्वहन किया बल्कि उसे अधिक पल्लवित और पुष्पित किया
है। भारतेन्दु साहित्य समिति सन् 1995 में अपना हीरक जयन्ती बड़े उत्साह और गरिमामय आयोजन
के साथ मनाया बल्कि तब से आज
तक के लेखा जोखा
के रूप में और अनेक साहित्यकारों
के उत्कृष्ट आलेखों को संग्रहीत कर
“हीरक जयंती
स्मारिका”
का प्रकाशन किया गया। साथ ही हीरक जयंती
समारोह में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्य
मंत्री श्री दिग्विजय सिंह, सुविख्यात् साहित्यकार श्री नरेश मेहता, डाॅ. विश्वनाथ शुक्ल और प्रदेश के
अन्यान्य कवि, साहित्यकार और पत्रकार सम्मिलित
होकर इसे स्मरणीय बना दिया। ये सब शुक्ल
जी की लगन और
मेहनत का ही परिणाम
था। भारतेन्दु साहित्य समिति के द्वारा प्रतिवर्ष
ग्रामीण शिविर के आयोजन की
कल्पना भी उन्हीं की
देन है जिसके माध्यम
से ग्रामीण साहित्यकारों को न केवल
मंच प्रदान करना बल्कि उन्हें प्रोत्साहित भी करना है,
जिसमें वे पूरी तरह
सफल हुए। यह भी सही
है कि देश विदेश
से कोई भी साहित्यकार, विद्वान
बिलासपुर प्रवास पर आये तो
उन्हें भारतेन्दु साहित्य समिति के माध्यम से
मंच प्रदान कर सम्मानित अवश्य
किया जाता था।
भारतेन्दु साहित्य समिति के द्वारा अनेक
साहित्यकारों के अभिनन्दन ग्रंथ
का प्रकाशन शुक्ल जी के प्रोत्साहन
से संभव हो सका है।
आगे चलकर भारतेन्दु साहित्य समिति द्वारा पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी, मुकुन्द लाल गुप्ता, साधुलाल गुप्ता और डाॅ. विजय
सिन्हा के कुशल संपादन
में ‘प्रो. रामनारायण
शुक्ल
अभिनंदन
ग्रंथ’
सन् 1997 में प्रकाशित किया गया जिसमें उनके समग्र कार्यो पर केंद्रित विद्वान
साहित्यकारों के आलेख प्रकाशित
किया गया है।