19 जून को जयंती के अवसर पर
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के जनक माधवराव सप्रेzs
प्रो. अश्विनी केशरवानी
पं. माधवराव सप्रे जी का जन्म अविभाजित मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया में 19 जून 1871 में हुआ था। पिता कोडोपंत के पांच पुत्रों में वे सबसे छोटे थे। चार बड़े भाई के नाम क्रमशः रामचंद्र राव, बाबुराव, लक्ष्मण राव और गणेश राव थे। परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। तब बड़े भाई रामचंद्र राव परिवार का भार सम्हालने लगे। जब माधवराव दो वर्ष के थे तब बड़े भाई रामचंद्र राव का स्वर्गवास हो गया। फिर बाबुराव ने परिवार का भार सम्हाला। इसके लिए उन्हें पहले जबलपुर फिर बिलासपुर में नौकरी करनी पड़ी। इस प्रकार उनका पूरा परिवार बिलासपुर आ गया, उस समय माधवराव जी मात्र चार साल के थे। उनकी प्राथमिक, मिडिल स्कूल की शिक्षा बिलासपुर और हाई की शिक्षा रायपुर में ही हुई। मिडिल स्कूल की शिक्षा उन्होंने अच्छे अंकों के साथ पास की थी जिससे उन्हें सात रूपया मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। सरल और धीर गंभीर स्वभाव उन्हें माता जी से मिला। नीतिगत शिक्षा भी उन्हें यहीं मिली जिसकी जड़ें उनके जीवनपर्यन्त बनी रही। माधवराव जी की लिखने पढ़ने में अधिक रूचि थी जिसके कारण उनका व्यक्तित्व अन्य विद्यार्थियों से अलग था जिसके कारण वे शिक्षकों के प्रिय छात्र बन गये। उनके शिक्षकों में श्री नंदलाल दुबे और श्री वामनराव लाखे जी थे जिन्होंने आगे चलकर मराठी काव्य संग्रह का संपादन भी किया। श्री नंदलाल दुबे जी हिन्दी सेवक थे और उन्होंने हिन्दी में अनेक पुस्तकें लिखीं थी। उन्होंने माधवराव सप्रे के मन में हिन्दी के प्रति अगाध निष्ठा का निर्माण किया और उन्हें मेघावी लेखक के रूप में गढ़ने में सफल हो गये। इनके प्रोत्साहन से उनका झुकाव हिन्दी साहित्य के लेखन, पत्रकारिता और समाज सेवा की ओर होने लगा। यहीं उनके एक सहपाठी मित्र वामनराव राजाराम चिंचोलकर हुए जो साहित्यप्रेमी थे और आगे चलकर ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ के संपादक भी बने।
सन् 1889 में सप्रेजी का विवाह रायपुर
के डिप्टी कलेक्टर श्री लक्ष्मीराव शेवड़े की पुत्री से
हुआ। इसी वर्ष उन्हें आगे की पढ़ाई के
लिये एण्ट्रेंस की परीक्षा देनी
थी मगर तबियत बिगड़ जाने से नहीं दे
सके और अगले साल
1890 में एण्ट्रेंस परीक्षा पास करके जबलपुर चले गये। उस समय उन्हें
दस रूपया मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी थी। आगे चलकर जबलपुर उनकी कर्मभूमि बनी। कदाचित् जबलपुर को संस्कारधानी बनाने
में सप्रेजी का सक्रिय योगदान
था। वे इतिहास और
साहित्य के विद्यार्थी थे।
रात रातभर पाठ्यक्रय की पुस्तकों के
अलावा अन्य विषयों की पुस्तकों का
भी अध्ययन किया करते थे। कालेज के पुस्तकालय का
वे भरपूर उपयोग किया करते थे। तुलनात्मक अध्ययन में उनकी गहरी रूचि थी। इसी बीच वे बीमार पड़
गये और पेंड्रा में
उनकी मां का स्वर्गवास हो
गया। उन्होंने पेंड्रारोड में अर्थोपार्जन के लिए रेल्वे
और पी. डब्लू डी. में एक ठेकेदार के
साथ काम करना शुरू किया मगर ठेकेदार ने ईमानदारी से
उनका साथ नहीं दिया जिससे उन्हें नुकसान हुआ। 1894 में वे अपनी पत्नी
के कुछ जेवर लेकर ग्वालियर चले लगे। वहां उन्होंने विक्टोरिया कालेज में एफ. ए. की पढ़ाई
के लिए प्रवेश ले लिया। सन्
1896 में वहां से उन्होंने एफ.
ए. की पढ़ाई पास
करके छुट्टियों में कांकेर आ गये। क्योंकि
उस समय बाबुराव कांकेर रियासत में दीवान थे और यहीं
उनके साथ उनकी पत्नी भी रहती थी।
यहां पत्नी की तबियत खराब
हो जाने और ग्वालियर जाने
आने में अधिक व्यय के साथ अधिक
समय लगता था। अतः बाबुराव जी उनकी आगे
की पढ़ाई के लिये नागपुर
के हिस्लाप कालेज में एडमिशन करा दिये। यहां वे मन लगाकर
पढ़ाई करने लगे। लगभग डेढ़ वर्ष बाद उनकी पत्नी की प्रसव के
दौरान मृत्यु होने की सूचना मिली।
लेकिन दुख में भी उन्होंने अपनी
पढ़ाई जारी रखी और पूरी की।
सप्रेजी हमेशा से ही आत्म
निर्भर रहने के पक्षधर थे।
इसके लिए वे हमेशा प्रयासरत
रहते थे। सन् 1899 में पेंड्रा के राजकुमार को
अंग्रेजी पढ़ाने के लिए एक
योग्य शिक्षक की आवश्यकता थी।
जैसे ही ये सूचना
सप्रेजी को मिली उसने
तत्काल ज्वाइन कर लिये। इसके
लिए उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई क्योंकि राजकुमार के रायपुर में
राजकुमार कालेज में पढ़ाई के दौरान वे
उनके ट्यूटर रह चुके थे।
इसके लिए उन्हें पचास रूपये मासिक दिया जाने लगा। इससे बचत करके वे हिन्दी की
सेवा करने का विचार किये
और उसी की परिणति है
“छत्तीसगढ़ मित्र” का प्रकाशन। जब
पर्याप्त पैसे की व्यवस्था हो
गयी तब सप्रेजी राजकुमार
को ट्यूशन पढ़ाना छोड़ दिये और एक मासिक
पत्रिका निकालने पर विचार करने
लगे। पेंड्रा एक छोटा सा
कस्बा था। यहां मुद्रण की भी कोई
सुविधा नहीं थी और न
ही संपादन के लिये कोई
योग्य व्यक्ति मिल सकते थे। ऐसे में उन्हें सहपाठियों श्री वामनराव लाखे और श्री रामराव
चिंचोलकर की याद आयी।
उनसे संपर्क करने पर दोनों मित्र
सहयोग करने के लिए तैयार
हो गये। श्री वामनराव लाखे प्रकाशक बने और श्री रामराव
चिंचोलकर संपादक बनने के लिए तैयार
हो गये। पत्रिका का मासिक मुद्रण
रायपुर से होना था।
इसके लिए रूपरेखा बनायी गयी और देश प्रदेश
के जाने माने हिन्दी लेखकों से रचनाएं आमंत्रित
की गयी और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रहला अंक
सन् 1900 में प्रकाशित हुई और पाठकों के
पास पहुंची।
पत्रिका का नाम ‘छत्तीसगढ़
मित्र’ ही क्यों रखा
गया। वास्तव में सप्रेजी कलकत्ता से प्रकाशित “भारत
मित्र” से बहुत प्रभावित
थे। इसकी प्रसार संख्या कम होते हुये
भी उसका कलेवर देशवासियों की भावनाओं को
प्रतिबिम्बित करता था। उस समय छत्तीसगढ़
भी बहुत पिछड़ा हुआ था और शिक्षा
का प्रसार कुछ ही शहरों तक
सीमित था। गांवों में स्कूल तक नहीं थे।
न कृषि की उन्नति हो
रही थी न ही
़यहां कोई उद्योग धंधा था। सप्रेजी के मन में
इस पिछड़े क्षेत्र में जन जागृति करने
की इच्छा थी। इस भावना को
लोगों के मन में
उद्वेलित करने के लिये मासिक
पत्रिका के रूप में
“‘छत्तीसगढ़ मित्र” का प्रकाशन शुरू
किया गया। इस पत्रिका ने
क्षेत्रीय जनता की भरपूर और
चहुंमुखी सेवा की साथ ही
पूरे हिन्दी जगत को जागृत कर
रचनाधर्मिता को दृढ़ आधार
पर खड़ा करने के सिद्धांत को
निरूपित किया। इसीलिए बाद के वर्षो में
छत्तीसगढ़ मित्र का कलेवर, नीति
शिक्षा और समालोचना विषयों
पर केंद्रित होता गया।
कलकत्ता
से प्रकाशित “हिन्दी बंगवासी”, बम्बई के दैनिक “श्री
वेंकटेश्वर समाचार”, नागपुर के “गोरक्षण” और आगरा के
“राजपूत” आदि अनेक पत्रों के द्वारा छत्तीसगढ़
मित्र के प्रकाशन की
ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित
किया था। छत्तीसगढ़
मित्र के प्रकाशन का
पहला और दूसरा साल
कुल मिलाकर अच्छा रहा। उसके प्रकाशन से हिन्दी भाषी
क्षेत्रों में लोग जानने लगे साथ ही शिक्षा और
साहित्य के क्षेत्र में
भी अपना स्थान बना लिया। पाठकों और ग्राहकों की
ओर से भी अच्छा
प्रतिसाद मिला। अपने पाठकों के विश्वास जीतने
में पत्रिका कामयाब रही। छत्तीसगढ़ मित्र तीसरे वर्ष अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता
रहा। फिर भी उसे उत्तमता
प्रदान करने की भरसक कोशिश
की गई। इसके कलेवर, प्रस्तुतिकरण और मुद्रण में
कोई कमी नहीं थी। इसलिए पूरे देश में इसकी सराहना की जाती रही
है। सुधि पाठक छत्तीसगढ़ मित्र की वित्तीय स्थिति
से भलिभांति परिचित थे और उन्हें
इस बात का अंदेशा भी
था कि इसका प्रकाशन
बंद न हो जाये
? इसके बाद भी पाठकों से
उचित सहयोग नहीं मिलने से सप्रेजी निराश
हो गये और वे अपना
कार्य समेटना प्रारंभ कर दिये। जो
लेख आदि पूरे करना था उसे अगले
अंक में पूरा किया और तीसरे वर्ष
के अंतिम में अंक में “हमारी अंतिम सूचना” के साथ इस
युगान्तकारी छत्तीसगढ़ मित्र का प्रकाशन को
बंद करने की घोषणा कर
दी। उन्होंने इसे बंद करने का दोषारोपण किसी
के उपर नहीं किया बल्कि स्वयं वरण कर लिया। छत्तीसगढ़
मित्र अपने प्रकाशन काल में विविध स्तरीय सामग्री का प्रकाशन कर
जहां पाठकों और हिन्दी प्रेमियों
की अभिरूचि में परिपक्वता लाना चाहता था। इसीलिए उसमें बाबू सत्येन्द्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, श्रीमती रानी भवानी, दादा भाई नौरोजी, एकनी बेसेंट, स्वामी विवेकानंद, डाॅ. आनंदी बाई जोशी, बाबू सुरेशचंद्र विश्वास आदि महापुरूषों का जीवन चरित्र
प्रकाशित किया वहीं लोकोक्तियों और कहावतों को
भी स्थान दिया। वैज्ञानिकों और ऐतिहासिक विषयों,
महिला उत्थान, शिक्षाप्रद कहानियां, लोकभ्रम की बातें और
ललित निबंध आदि का प्रकाशन कर
छत्तीसगढ़ मित्र ने पाठकों की
रूचियों की पूर्ति की।
यह सामग्री आज भी उतनी
प्रासंगिक है जो प्रकाशन
वर्ष में थी। परन्तु दुर्भाग्य से इस सामग्री
को न तो संरक्षित
कर रखा गया और न ही
सप्रेजी के बाद की
पीढ़ी समुचित प्रचार प्रसार किया। हालांकि समय समय पर सप्रेजी के
निबंधों का संग्रह श्री
देवीप्रसाद वर्मा, उनके व्यक्तित्व और कृतिव पर
श्री संतोष कुमार शुक्ल के संपादन में
मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल और डाॅ. अशोक
सप्रे के संपादन में
छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर द्वारा पं. माधवराव सप्रे चयनिका का प्रकाशन किया
गया है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ के अन्यान्य उत्कृष्ट
साहित्यकार केवल इसलिये राष्ट्रीय लेखकों और हिन्दी साहित्य
के इतिहास लेखकों की नजर में
नहीं आ सके और
गुमनामी का चादर ओढ़े
हुए है क्योंकि उनकी
रचनाएं काल के गर्त में
समा गई, उसे संग्रहित नहीं किया जा सका। यह
एक विचारणीय तथ्य है। 23 अप्रेल सन् 1926 को रायपुर में
उनका देहावसान साहित्य और पत्रकारिता जगत
के लिए अपूरणीय क्षति थी।