रविवार, 22 जनवरी 2023

संस्कृतनिष्ठ कवि चिरंजीवदास

21 जनवरी को जयंती के अवसर पर 

संस्कृतनिष्ठ कवि चिरंजीवदास

प्रो. अश्विनी केशरवानी

सभ्यता के विकास में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। गिरि-कंदराओं से निकलकर धरती के गर्भ को पवित्र करती ये नदियां क्षेत्रों और प्रदेशों को सिंचित ही नहीं करती बल्कि दो या दो से अधिक प्रदेशों की सभ्यता और वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ने का कार्य करती है। रायगढ़, छत्तीससगढ़ प्रांत का एक प्रमुख सीमावर्ती जिला मुख्यालय है। इस जिले की सीमाएं बिहार, उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जुड़ती है। अतः स्वाभाविक रूप से यहां उन प्रदेशों को प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां की सभ्यता, रहन सहन, और सांस्कृतिक परम्पराओं का सामीप्य उड़ीसा से अधिक है। पूर्ववर्ती प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत छत्तीससगढ़ का पूर्वी भाग उड़िया भाषी सम्बलपुर से जुड़ा था। यहां मिश्रित परम्पराएं देखने को मिलती हैं।

केलो नदी के तट पर बसा रायगढ़ पूर्व में छत्तीसगढ़ का एक ‘‘फ्यूडेटरी स्टे्टस‘‘ था। यहां के राजा कला पारखी, संगीत प्रेमी और साहित्यिक प्रतिभा के धनी थे। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यहां का गणेश मेला एक उत्सव हुआ करता था...और इस उत्सव में हर प्रकार के कलाकार, नर्तक, नाटक मंडली और साहित्यकार आपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके यथोचित पुरस्कार और सम्मान पाता था। इस प्रकार रायगढ़ सांस्कृतिक और साहित्यिक तीर्थ के रूप में ख्याति प्राप्त किया। संगीत और नृत्य के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में यहां अनेक मूर्धन्य साहित्यकार पुरस्कृत हुए। यहां के राजा चक्रधरसिंह स्वयं एक उच्च कोटि के साहित्यकार और कला पारखी थे। उनकी सभा में साहित्यकारों की भी उतनी ही कद्र होती थी जितनी अन्य कलाकारों की होती थी। उनके राज्य के अनेक अधिकारी और कर्मचारी भी साहित्यिक अभिरूचि के थे। ऐसे साहित्यकारों की लंबी श्रृंखला है। उन्हीं में से एक श्री चिरंजीवदास भी थे।

श्री चिरंजीवदास रायगढ़ के सीमावर्ती ग्राम कांदागढ़ में श्री बासुदेव दास के पुत्ररत्न के रूप में पौष शुक्ल त्रयोदशी संवत् 1977, तद्नुसार 21 जनवरी 1920 ई. को हुआ। उनका बचपन गांव की वादियों में गुजरा। उनकी शिक्षा दीक्षा रायगढ़ में ही हुई। उड़िया उनकी मातृभाषा थी। अतः स्वाभाविक रूप से उड़िया साहित्य में उनकी रूचि थी। इसके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। यहां की प्राकृतिक सुषमा, केलो नदी का झर झर करता प्रवाह, पहाड़ियों और वनों की हरियाली उनके कवि मन को जागृत किया और वे काव्य रचना करने लगे। उन्होंने हिन्दी और उड़िया दोनों भाषा में काव्य रचना की है।

10 मार्च सन् 1994 को भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर के खरौद ग्रामीण शिविर में मेरा उनका साहित्यिक परिचय हुआ। तब मैं श्री चिरंजीवदास की सादगीपूर्ण व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुआ था। श्री स्वराज्य करूण के अनुसार ‘‘आडंबर और आत्म प्रचार के अंधे युग में पहुँच  के जरिये अपनी पहचान बनाने वालों की भीड़ समाज के लगभग सभी क्षेत्र में हावी है। लेकिन श्री चिरंजीवदास का व्यक्तित्व और कृतित्व इस तरह की भीड़ से एकदम अलग है। अनेक वर्षो से सरस्वती की मौन साधना में लीन श्री चिरंजीवदास अपनी पहचान के संकट से बिल्कुल निश्चिंत नजर आते हैं। दरअसल उनकी तमाम चिंताएं तो विश्व की उस प्राचीनतम भाषा के साथ जुड़ गई है जो सभी भारतीय भाषाओं की जननी होकर भी अपने ही देश में अल्प मत में है।‘‘ डाॅ. प्रभात त्रिपाठी के अनुसार-‘‘संस्कृत साहित्य के रस मर्मज्ञ चिरंजीवदास का सृजनशील व्यक्तित्व अनेकायामी है।‘‘ अगर प्रसिद्ध कवि और आलोचक श्री अशोक बाजपेयी का शब्द उधार लेकर कहें तो श्री चिरंजीवदास समकालीनता से मुक्त हैं। उनकी कविता मुख्य रूप से संस्कारधर्मी ललित कल्पना से ही निर्मित है। छायावादोत्तर युग की काव्य भाषा में पौराणिक कल्पनाओं के सजग प्रयोग के साथ उन्होंने इस यंग की असीम सभ्यता को भी गहराई से मूर्त करने की कोशिश की है। उनकी अपनी कविता प्रेम और प्रगति के सबल आधारों पर टिकी है। उसमें परंपरागत प्रबंधात्मकता और प्रासंगिक आधुनिकता के अतिरिक्त निजी अनुभूति का खरापन भी सक्रिय है।‘‘

पूर्वी मध्यप्रदेश में रायगढ़ शहर के वाशिदें चिरंजीवदास उसी संस्कृत भाषा के एकांत साधक और हिन्दी अनुवादक हैं, जो सभी भाषाओं की जननी है। उनके द्वारा किये गये अनुवाद का यदि सम्पूर्ण प्रकाशन हो तो प्राचीनतम संस्कृत भाषा और हिन्दी जगत के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क सेतु बन सकता है। सन 1960 में महाकवि कालिदास के मेघदूत ने उन्हें अनुवाद करने की प्रेरणा दी। हिन्दी और उड़िया भाषा में कविताएं तो वे सन् 1936 से लिखते आ रहे हैं। लेकिन पिछले 34 वर्षो में उन्होंने मेघदूत के अलावा कालिदास के ऋतुसंहार, कुमारसंभव और रघुवंश जैसे सुप्रसिद्ध महाकाव्यों के साथ साथ जयदेव, भर्तृहरि, अमरूक और बिल्हण जैसे महाकवियों की संस्कृत रचनाओं का सुन्दर, सरल और सरस पद्यानुवाद भी किया है। उमर खैय्याम की रूबाईयों के फिट्जलैंड द्वारा किये गये अंग्रेजी रूपांतरण का दास जी ने सन् 1981 में उड़िया पद्यानुवाद किया है। प्रकाशन की जल्दबाजी उन्हें कभी नहीं रही। शायद इसीकारण उनके द्वारा 1964 में किया गया ऋतुसंहार का हिन्दी पद्यानुवाद अभी प्रकाशित हुआ है। सिर्फ ऋतुसंहार ही क्यों, सन् 1962 में जयदेव कृत गीतगोविंद, सन् 1972 में महाकवि अमरूक उचित शतक और सन् 1978 में महाकवि बिल्हण कृत वीर पंचाशिका के हिन्दी पद्यानुवाद अभी अभी प्रकाशित हुआ है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि ऐसे उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक हमारे यहां नहीं हैं। इन पुस्तकों को श्री दास ने स्वयं प्रकाशित कराया है। इसी प्रकार सन् 1979 में उन्होंने महाकवि हाल की प्राकृत रचना गाथा सप्तशती का हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसके पूर्व कालिदास के मेघदूत का सन् 1960 में, कुमारसंभव का 1970 में और रघुवंश का 1974 में पद्यानुवाद वे कर चुके थे। उनकी अधिकांश पुस्तकें अभी तक अप्रकाशित हैं। आधी शताब्दी से भी अधिक से सतत जारी अपनी इस साहित्यिक यात्रा में श्री चिरंजीवदास एक सफल आध्यात्मिक साहित्यकार और अनुवादक के रूप में रेखांकित होते हैं। अपनी साहित्यिक यात्रा के प्रारंभिक दिनों का स्मरण करते हुये वे बताते हैं-‘‘जब मैं 15-16 वर्ष का था, तभी से मेरे मन में काव्य के प्रति मेरी अभिरूचि जागृत हो चुकी थी। मैं हिन्दी में कविताएं लिखता था। सन् 1960 में महाकवि कालिदास का मेघदूत को पढ़कर लगा कि संस्कृत के इतने सुंदर काव्य का यदि हिन्दी में सरस पद्यानुवाद होता तो कितना अच्छा होता ? और तभी मैंने उसका पद्यानुवाद करने का निश्चय कर लिया।‘‘ श्री दास ने मुझे बताया कि अनुवाद कर्म में मुझे हिन्दी और उड़िया भाषा ने हमेशा प्रेरित किया। क्योंकि ये दोनों भाषा संस्कृत के बहुत नजदीक हैं। संस्कृत के कवियों में महाकवि कालिदास की रचनाओं ने चिरंजीवदास को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि कालिदास के काव्य का आयाम बहुत विस्तुत है, विशेषकर रघुवंश में उनकी सम्पूर्ण विचारधारा भारतीय संस्कृति के प्रति उनका अदम्य प्रेम, आर्य परंपरा के प्रति अत्यंत आदर और लगाव स्पष्ट है।

उनकी आरंभिक रचनाओं में छायावादी काव्य संस्कारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कविताओं में शिल्प के पुरानेपन के बावजूद कुछ ऐसे अछूते विषय भी हैं जिन पर कविता लिखने की कोशिश ही उनके अंतर्निहित नैतिक साहस को प्रदर्शित करता है। ऋग्वेद के यम और यमी पर लिखित उनकी सुदीर्घ कविता इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कथात्मक आधार पर लिखी गयी ‘‘रति का शाप‘‘ और उड़ीसा की लोकगाथा पर आधारित ‘‘केदार गौरी‘‘ जैसे प्रबंध कविताओं में भी हम स्त्री-पुरूष के अनुराग की ओर उनके गहन संपर्क की रंगारंग अभिव्यक्ति देखते हैं। मुक्त छंद में लिखी गई उनकी अनेक कविताएं इसके प्रमाण हैं। आज से 50 वर्ष पूर्व उनकी कविताओं में प्रगतिशील दृष्टि मौजूद थी। आदिवासी लड़की पर लिखी ‘‘मुंडा बाला‘‘ कविता उनके सौंदर्य बोध और उनकी करूणा को मूर्त करने वाली कविता है। मैं  डाॅ. प्रभात त्रिपाठी के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूँ  कि ‘‘आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में उनकी कविता को पढ़ना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है कि उनकी कविताओं में विस्तृत कर दी गयी शब्दावली के पुनर्वास का सार्थक प्रयास है। संस्कृत के वर्णवृथी के अतिरिक्त उड़िया एवं बंगला के लयात्मक संस्कारों को धारण करने वाली उनकी कविता हमारी जातीय स्मृतियों की जीवंतता को उजागर करती है। केवल शाब्दिक चमत्कार के स्तर से गहरे उतरकर वे इस शब्दावली में अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा एक नई अर्थपूर्ण बनाते हैं। अपने व्यक्त रूप में उनकी कविता का आकार पुरातनपंथी सा लग सकता है किंतु यह अनेक आवाजों से बनी कविता है। एक गंभीर हृदय के लिए यह कविता आ अजस्र अवकाश है। काल और कालातीत इतिहास और पुराण लोक और लोकोत्तर को एक दूसरे से मिलाने की कोशिश करती   श्री चिरंजीवदास की कविताएं इन्ही काव्य परंपरा की सार्थक और गंभीर रचना है।‘‘ उन्होंने संस्कृत भाषा में लिखित पुस्तकों का हिन्दी पद्यों में अनुवाद किया है। इसीलिए उनके काव्यों में संस्कृत शब्दों का पुट मिलता है। 31 जनवरी सन् 1979 को लेखाधिकारी (राजस्व) के पद से सेवानिवृत्त होकर केलो नदी के तट पर स्थित अपने निवास में साहित्यिक साधना में लीन रहे। अब तक उन्होंनेे दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखी और अनुवाद किया है। उनकी प्रकाशित कृतियों में रघुवंश, ऋतुसंहार, गीतगोविंद, अमरूक शतक, चैर पंचाशिका और संचारिणी प्रमुख है। उनकी अप्रकाशित कृतियों में कुमारसंभव, मेघदूत, रास पंचाध्यायी, श्रीकृष्ण कर्णमृत, किशोर चंदानंदचंपू, भर्तृहरि, शतकत्रय रसमंजरी और आर्य सप्रशनी प्रमुख है। उन्होंने फिट्जलैंड की अंग्रेजी रचना का उड़िया में ‘‘उमर खैय्याम‘‘ शीर्षक से पद्यानुवाद किया है। उनकी रचनाओं में उत्कृष्ट रचनाकार कालिदास की रचनाओं का अनुवाद  प्रमुख है। उन्होंने कालिदास को परिभाषित करते हुए लिखा हैः- ‘‘कीर्तिरक्षारसंबद्धा स्थिराभवति भूतले‘‘ अर्थात् कालिदास निश्चय ही अक्षरकीर्ति है। अंत में 26 नवंबर 1998 को वे चिर निद्र में लीन हो गये। तब मुझे उनकी ‘‘मुरली बजरी‘‘ कविता की ये पंक्तियां याद आती है:-

इन प्राणों की प्यास जता दे,

इन सांसों का अर्थ बता दे,

स्वर में मेरे स्पंदन सुलगा,

आहों का प्रज्वलित पता दे।


प्रस्तुति,


प्रो. अश्विनी केशरवानी

राघव, डागा कालोनी, 

चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)




गुरुवार, 12 जनवरी 2023

मकर संक्रांति : देवगणों के जागने का पर्व

देवगणों के जागने का पर्व मकर संक्रांति

प्रो. अश्विनी केशरवानी

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश ‘संक्रांति‘ कहलाता है। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है। जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। उत्तरायण से दक्षिणायन के समय में ठीक इसके विपरीत होता है। वैदिक काल में उत्तरायण को ‘देवयान‘ तथा दक्षिणायन को ‘पितृयान‘ कहा जाता था। मकर संक्रांति के दिन यज्ञ में दिये गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएं शरीर छोड़कर स्वार्गादि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसीलिए यह आलोक का पर्व माना गया है।


धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन स्नान, दान, जप, हवन और धार्मिक अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। इस अवसर पर किया गया दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना अधिक मिलता है। इसीलिए लोग गंगादि नदियों में तिल लगाकर सामूहिक रूप से स्नान करके तिल, गुड़, मूंगफली, चांवल आदि का दान करते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को शाल और कंबल दान करने का विशेष महत्व होता है। विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शांति, अपने स्वास्थ्यवर्द्धन और सर्व कल्याण के लिए तिल के छः प्रकार के प्रयोग पुण्यदायक व फलदायक होते हैं-तिल जल स्नान, तिल दान, तिल भोजन, तिल जल अर्पण, तिल आहुति और तिल उबटन मर्दन। कदाचित् यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में इस दिन तिल उबटन के रूप में लगाकर नदियों में स्नान करते हैं, तिल का दान करते हैं, तिलगुजिया, तिल से बने गजक, रेवड़ी और खिचड़ी खाने-खिलाने का रिवाज है। 

विभिन्न राज्यों में संक्रांति:-

इलाहाबाद में माघ मास में गंगा-यमुना के रेत में पंडाल बनाकर कल्पवास करते हैं और नित्य गंगा स्नान करके दान आदि करके किला में स्थित अक्षयवट की पूजा करते हैं। प्रलय काल में भी नष्ट न होने वाले अक्षयवट की अत्यंत महिमा होती है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चांवल और भूने हुए मक्का की आहूति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचैली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियां आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मनाते हैं। नई बहू और नवजात बच्चों के लिए लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है। महाराष्ट्र में इस दिन ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं:- ‘तिल गूढ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला‘ अर्थात् तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं। बंगाल में भी इस दिन स्नान करके तिल दान करने की विशेष प्रथा है। असम में बिहु और आंध्र प्रदेश में भोगी नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। तामिलनाडु में मकर संक्रांति को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पोंगल सामान्यतः तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन कूड़ा करकट इकठ्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

पतंग उढ़ाने की विशिष्ट परंपरा:-

मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की विशेष परंपरा है। देशभर में पतंग उड़ाकर मनोरंजन करने का रिवाज है। पतंग उड़ाने की परंपरा का उल्लेख श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने भी किया है। बाल कांड में उल्लेख है- ‘राम इक दिन चंग उड़ाई, इंद्रलोक में पहुंची गई।‘ त्रेतायुग में ऐसे कई प्रसंग हैं जब श्रीराम ने अपने भाईयों और हनुमान के साथ पतंग उड़ाई थी। एक बार तो श्रीराम की पतंग इंद्रलोक में पहुंच गई जिसे देखकर देवराज इंद्र की बहू और जयंत की पत्नी उस पतंग को पकड़ ली। वह सोचने लगी-‘जासु चंग अस सुन्दरताई। सो पुरूष जग में अधिकाई।।‘

मांगलिक कार्यो की शुरूवात:-

पौष मास में देवगण सो जाते हैं और इस मास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होते। लेकिन माघ मास में मकर संक्रांति के दिन से देवगण जाग जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इस दिन से मांगलिक कार्य-उपनयन संस्कार, नामकरण, अन्नप्राशन, गृह प्रवेश और विवाह आदि सम्पन्न होने लगते हैं।

सारे तिरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार:-

गंगा सागर में कपिल मुनि मंदिर 
मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा सागर में भी बड़ा मेला लगता है। इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीढ़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-‘सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।‘ गंगा सागर कैसे पहंचे:- कोलकाता से 135 कि. मी. की दूरी पर सागर द्वीप है। यहां प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर 09 से 15 जनवरी को मेला लगता है। इस मेले में देश-विदेश से लाखों तीर्थ यात्री यहां आते हैं। तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए परिवहन, खाद्य और आवश्यक व्यवस्थाएं पश्चिम बंगाल सरकार सरकारी कर्मचारियों के अलावा स्वयं सेवी संस्थाओं के सहयोग से करती है। कोलकाता से बस के द्वारा सागर द्वीप तक जाने के दो रास्ते हैं:- 1. कोलकाता से काकद्वीप या हारउड प्वाइंट लाट नं. 8 से लंच द्वारा नदी पार कचुबेरिया होकर। कोलकाता से हारउड प्वाइंट 96 कि. मी. की दूरी पर है। यहां से लंच के द्वारा लगभग 100 कि. मी. की दूरी पार कर कचुबेरिया पहंचकर वहां से बस के द्वारा 30 कि. मी. पर गंगासागर स्थित है। बस स्टैंड से मात्र एक-डेढ़ कि. मी. की दूरी पर मेला स्थल है। 2. कोलकाता से नामखाना होकर लंच द्वारा नदी पार चेमागुड़ी होकर। कोलकाता से 114 कि. मी. की दूरी पर नामाखाना स्थित है। नामखाना जेटीघाट से लंच के द्वारा डेढ़-दो घंटे की यात्रा करके नदी पार चेमागुड़ी पहुंचेंगे। यहां से 06 कि. मी. की पैदल अथवा बस की यात्रा करके गंगासागर पहंचा जा सकता है। बस स्टैंड से मात्र एक-डेढ़ कि. मी. की दूरी पर मेला स्थल है।

उपर्युक्त दोनों स्थानों (काकद्वीप और नामखाना) पर सियालदह स्टेशन से ट्रेन द्वारा डायमण्ड हार्बर जाकर वहां से बस के द्वारा पहंुचा जा सकता है। कोलकाता के प्रिंसेपघाट, धर्मतल्ला और हावड़ा से सरकारी एवं गैर सरकारी बसें छूटती है। बड़ा बाजार के सत्यनारायण पार्क से भी गैर सरकारी बसें हर आधे घंटे में छूटती हैं। कोलकाता से हारउड प्वाइंट लाट नं. 8 तक सरकारी बसों की नियमित सेवाएं हैं और मेला के अवसर पर विशेष बस सेवा होती है। जबकि गैर सरकारी बसें मेला के अवसर पर विशेष रूप से चलायी जाती हैं। इसीप्रकार नामखाना जाने वाली बसें भी काकद्वीप से होकर जाती हैं और अब दीघा से भी नामखाना तक बसें चलती हैं। 

गंगासागर मेले में आने वाले तीर्थ यात्रियों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर केवल मेला क्षेत्र में ही नहीं बल्कि कोलकाता महानगर से लेकर विभिन्न स्थानों पर सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा व्यापक स्तर पर व्यवस्था की जाती है। पूरे मेले का दायित्व जिला प्रशासन दक्षिण 24 परगना का है। पश्चिमी बंगाल सरकार के गृह विभाग के अंतर्गत इस मेले की व्यवस्था हेतु एक स्थायी मेला समिति बनाई जाती है। इस समिति के पदेन सचिव दक्षिण 24 परगना के जिला शासक होते हैं। इस समिति में पी.एच.ई. के चीफ इंजीनियर, पी.डब्लू.डी. के चीफ इंजीनियर, पश्चिमी बंगाल के स्वास्थ्य निदेशक, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, डी.सी.पोर्ट, पश्चिमी बंगाल के ट्रांसपोर्ट सेक्रेटरी, कमाण्डेंट मोबाइल सिविल इमरजेंसी फोर्स, भारत सेवा श्रम संघ और जिला सभापति सदस्य होते हैं।

मेले में क्या करें और क्या न करें:-

0 गंगासागर जाने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या कम से कम होनी चाहिए अन्यथा साथियों के बिछुड़ने की संभावना होती है।

0 तीर्थयात्रा के समय सामान उतना रखें जितना उठा सकें। किसी अपरचित व्यक्ति के उपर विश्वास न करें। सामानों के लिए अगर कुली की आवश्यकता पड़े तो कुली का बैच नंबर अवश्य नोट कर लेवें। बिना बैच वाले किसी कुली के उपर विश्वास न करें।

0 मेले में अथवा यात्रा के दौरान किसी प्रकार की असुविधा होने पर पुलिस, स्वयं सेवकों और सूचना केंद्र से सहायता अवश्य लेवें।

0 यात्रा के समय बस, टेªन अथवा लंच में चढ़ते और उतरते समय विशेष सावधानी रखें, धक्का मुक्की से बचें।

0 खानपान में विशेष सावधानी रखें, बासी, अस्वस्थकर न ही खायें और न ही पीयें। कचरा को कचरा रखने के डिब्बे में ही डालें, गंदगी न फैलायें।

0 साफ सुथरे स्थान में ही रूकें, जहां तहां मल-मूत्र त्याग न करें। 

0 खाने-पीने और रहने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं के द्वारा निःशुल्क व्यवस्था की जाती है। 

0 स्नान करते समय समान व कपड़ों की देखभाल स्वयं करें, किसी अनजान व्यक्ति के भरोसे न छोड़ें। 

0 किसी भी प्रकार की असुविधा से बचने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं से संपर्क करें और उनकी सलाह मानें।

बंगाल के सुदूर दक्षिणी छोर पर विश्वविख्यात् सुंदर वन के महत्वपूर्ण भाग के रूप में सागर द्वीप स्थित है। यह द्वीप 30 कि. मी. लंबा और 12 कि. मी. चैड़ा है। यह अत्यंत प्राचीन द्वीप है। इस द्वीप में प्राचीन कपिल मुनि का मंदिर है। नदी के तट पर एक चबुतरे के उपर स्थित मंदिर में सिंदुर राग रंजित कपिल मुनि की मूर्ति स्थित है। उनके बाये हाथ में गंगा का प्रतीक कमण्डल है और दाये हाथ में मोक्ष के लिए कैवल्य का प्रतीक जपमाला है। मस्तक पर पंचनाग है जो शेषनाग के प्रतीक हैं। महामुनि कपिल के दायीं ओर भगीरथ को गोद में लिए पतित पावनी चतुर्भुजी गंगा विराजमान है और बायी ओर राजा सगर की प्रतिमा है। इसके अलावा वीर बजरंगबली, बन देवी के रूप में विशालक्षी देवी और इंद्र यज्ञ के घोड़े के साथ स्थित हैं।

संक्रांति श्राद्ध-तर्पण:-

राजा भगीरथ ने अपने पितरों का गंगाजल, अक्षत और तिल से श्राद्ध-तर्पण किया था जिससे उनके पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिली थी। तब से मकर संक्रांति स्नान, मकर संक्रांति श्राद्ध-तर्पण और दान आदि की परंपरा प्रचलित है।

मकर संक्रांति का महत्व:- 

शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक और उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, स्नान, दान, श्राद्ध और तर्पण आदि धार्मिक क्रिया का विशेष महत्व होता है। इस दिन ऐसा करने से सौ गुना पुण्य मिलता है। इस दिन शुद्ध घी और कंबल दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कहा भी गया हैः-

माघे मासि महादेव यो दान घृत कंबलम्।

सभुक्तवा सकलान मो गान अंते मोक्ष च विदंति।।

मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा स्नान और दान को अत्यंत शुभकारी और पुण्यदायी माना गया है। इस दिन प्रयागराज और गंगा सागर में स्नान करने को महास्नान कहा गया है। सामान्यतया सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करता है, किंतु कर्क और मकर राशि में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रक्रिया छः छः माह के अंतराल में होता है। भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित होता है। मकर संक्रांति के पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है। इसीलिए यहां रातें बड़ी और दिन छोटा होता है। किंतु मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उक्रारी गोलार्द्ध की ओर आने लगता है जिससे यहां रातें छोटी और दिन बड़ा होने लगता है। इस दिन से गर्मी बढ़ने लगती है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा और रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा। इसलिए मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को ‘अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर‘ होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से जीवों की चेतन एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होती है। इसी मान्यता के कारणलोगों के द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की आराधना, उपासना और पूजा आदि करके कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

सामान्यतया भारतीय पंचांग की समस्त तिथियां चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती है, किंतु मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित की जाती है। इसी कारण यह पर्व हमेशा 14 जनवरी को ही पड़ता है।

ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनिदेव से मिलने उनके घर जाते हैं। चंूकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपने देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति के दिन का ही चयन किया था। इसी दिन गंगा जी भगीरथ के पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम होते समुद्र में जा मिली थी। इसीलिए गंगा सागर में गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है।

मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक वातावरण में अधिक मात्रा में चैतन्य होता है। साधना करने वाले लोगों को इसका सर्वाधिक लाभ होता है। इस चैतन्य के कारण जीवन में विद्यमान तेज तत्व के बढ़ने में सहायता मिलती है। इस दिन रज, तम की अपेक्षा सात्विकता बढ़ाने एवं उसका लाभ लेने का प्रयत्न करना चाहिए। यह दिन साधना के लिए अनुकूल होता है। ऐसी मान्यता है कि सूर्यदेव पुत्र शनिदेव और पत्नी छाया के शाप से कोढ़ी हो गये थे लेकिन दूसरे पुत्र यमराज के प्रयत्न से उन्हें कोढ़ से मुक्ति मिली और वरदान भी मिला कि जो कोई सूर्य के चेहरे की पूजा करेगा उसे कोढ़ से मुक्ति मिल जायेगा। बाद में सूर्यदेव के कोप से शनि और पत्नी छाया का वैभव समाप्त हो गया। कालान्तर में शनिदेव और पत्नी छाया के तिल से समर्यदेव की पूजा करने पर उन्हें पुनः वैभव प्राप्त हुआ। तब सूर्यदेव ने वरदान दिया कि मकर संक्रांति को जो कोई उनकी तिल से पूजा करेगा उसे दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से मुक्ति मिल जायेगा, कष्ट और विपत्ति का नाश हो जावेगा। कदाचित् इसीकारण इस दिन तिल का उपयोग विविध रूपों में किया जाता है।


प्रो. अश्विनी केशरवानी

डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)