रविवार, 18 दिसंबर 2022

गुरू घासीदास और सतनाम परम्परा

 18 दिसंबर को जयंती के अवसर पर 

गुरू घासीदास और सतनाम परम्परा

 प्रो अश्विनी केशरवानी 


छत्तीसगढ़ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है। एक ओर जहां छत्तीसगढ़ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और भौतिक संपदाओं को अपने गर्भ में समेटकर अग्रणी है, वहीं दूसरी ओर संत-महात्माओं की या तो जन्म स्थली है, तपस्थली या फिर कर्मस्थली। ये किताबी ज्ञान के बुद्धि विलासी न होकर तत्व दर्शन के माध्यम से निरक्षरों के मन मस्तिष्क में छाने में ज्यादा सफल हुये हैं। गुरू घासीदास इसी श्रृंखला के एक प्रकाशमान संत थे। वे यश के लोभी नहीं थे। इसीलिये उन्होंने अपने नाम और यश के लिये कोई चिन्ह, रचना या कृतित्व नहीं छोड़ी। उनके शिष्यों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप आज उनके बारे में लिखित जानकारी पूरी तरह नहीं मिलती। सतनाम का संदेश ही उनकी अनुपम कृति है, जो आज भी प्रासंगिक है।। डाॅ. हीरालाल शुक्ल प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने गुरू घासीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्र रूप में समेटने का स्तुत्य प्रयास किया है। गुरू घासीदास पर उन्होंने तीन ग्रंथ क्रमशः हिन्दी में गुरू घासीदास संघर्ष समन्वय और सिद्धांत, अंग्रेजी में छत्तीसगढ़ रिडिस्कवर्ड तथा संस्कृत में गुरू घासीदास चरित्रम् लिखा है। ये पुस्तकें ही एक मात्र लिखित साक्ष्य हैं। इस सद्कार्य के लिये उन्हें साधुवाद दिया जाना चाहिये।

रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गांव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था। 

अमरौतिन के लाल भयो, बाढ़ो सुख अपार,

सत्य पुरूष अवतार लिन्हा, मंहगू घर आय किन्हा।

उनके जन्म को सोहर गीत में अमरौतिन के पूर्व जन्म का पुण्य बताया गया है। देखिये सोहर गीत की एक बानगी:-

हो ललना धन्य

अमरौतिन तोर भाग्य

दान पुण्य होवत हे अपार

सोहर पद गावत हे

आनंद मंगल मनावत हे

सोहर पद गावत हे...।

घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्रमशः अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पांचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है जिसमें आसमान में बिना सहारे कपड़े सुखाना, हल को बिना पकड़े जोतना, एक टोकरी धान को पूरे खेत में बोने के बाद भी टोकरी का धान से भरा होना, पानी में पैदल चलना और मंत्र शक्ति से आग जलाना आदि प्रमुख है।

प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यो में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहां वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यो के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहां उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिद्धि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।

18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में छत्तीसगढ़ के लोगों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये यदि किसी महापुरूष का योगदान रहा है तो सतनाम के अग्रदूत, समता के संदेश वाहक और क्रांतिकारी सद्गुरू घासीदास का है। समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च और महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है:-

श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।

श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।

एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।

श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला।।

छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहां राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत निम्नलिखित है:-

सत्य ही ईश्वर है और उसका सत्याचारण ही सच्चा जीवन है।

सत्य का अन्वेषण और प्राप्ति गृहस्थ आश्रम में सत्य के मार्ग में चलकर भी किया जा सकता है।

ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्विकार है। वह सतनाम है। वह शुद्ध, सात्विक, निश्छल, निष्कपट, सर्व शक्तिमान और सर्व व्याप्त है।

सत्य के रास्ते में चलकर और शुद्ध मन से भक्ति करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

धर्म का सार अहिंसा, प्रेम, परोपकार, एकता, समानता और सभी धर्मो के प्रति सद्भाव रखना है।

अहिंसा एक जीवन दर्शन है, दया एक मानव धर्म है। संयम, त्याग और परोपकार सतनाम धर्म है।

गुरू घासीदास ने सतनाम का जो दार्शनिक सिद्धांत दिया वह निरंतर अनुभूति के तत्व दर्शन पर आधारित है। वह उनकी आजीवन तपस्या, चिंतन, मनन और साधना का प्रतिफल है। यह उनके अलौकिक ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति पर आधारित है। उन्होंने न केवल छत्तीसगढ़ को एकरूपता प्रदान की बल्कि एक संस्कृति और एक जीवन दर्शन दिया। उनका उपदेश सम्पूर्ण मानवता के लिये कल्याणकारी है। जो निम्नानुसार है:-

        1. दया, अहिंसा के रूप में ईश्वर तक पहुंचने का साधन है।

       2. मांस तथा नशीली वस्तुओं का सेवन पाप है। यह हमें ईश्वर तक नहीं पहुंचने देता और दिग्भ्रमित कर देता है।

3. सभी धर्मो के प्रति समभाव तथा सहिष्णुता रखना चाहिये। सभी धर्मो का लक्ष्य एक ही है।

4. जाति भेद, ऊंच नीच और छुआछूत का भेदभाव ईश्वर तक पहुंचने में व्यवधान उत्पन्न करता है।

        5. मानवता की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। दलितों और पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है और मानवता की आराधना ही सच्चा कर्मयोग है।

..अपने विचारों को गुरू घासीदास ने सात सूत्रों में बांधा है जो सतनाम पंथ के प्रमुख सिद्धांत है:-

सतनाम पर विश्वास रखो

मूर्ति पूजा मत करो

जाति भेद के प्रपंच में मत पड़ो

मांसाहार मत करो

शराब मत पीयो

परस्त्री को मां-बहन समझो।

निःसंदेह गुरू घासीदास के सतनाम के द्वारा भारतीय समाज को एक व्यावहारिक दर्शन का ज्ञान कराकर भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ बनाया है। इस पंथ के लोगों द्वारा अक्सर गाया जाता है.

सुप्रसिद्ध इतिहासकार चोपड़ा, पुरी और श्रीदास ने मैकमिलन कम्पनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ए सोसल कल्चरल एंड इकोनामिक हिस्ट्री आॅफ इंडिया’ के भाग तीन में लिखा है -‘18वीं शताब्दी में अवध के बाबा जगजीवनदास ने एक अलग धार्मिक पंथ बनाया जो कि सतनाम पंथ कहलाया-सत्य और ज्ञान पर विश्वास करने वाला..। इस पंथ के लोग उत्तरी भारत में दूर तक विस्तृत रूप में फैले हैं। इस पंथ को दो भागों में बांटा गया है- एक गृहस्थ और दूसरा भिक्षुक। इस पंथ के पहले लोग अपना जाति लिखना शुरू कर दिये जबकि दूसरे लोग जाति लिखना छोड़ दिये। सेंट्रल प्राविन्स में उन दिनों सतनामी समाज एक सम्प्रदाय के रूप में आया। ये सतनामी उस समय के उच्च धार्मिक विचारों के लोगों की अनुमति के बगैर ईश्वर की पूजा अर्चना कर सकने में असमर्थ थे। इस सम्प्रदाय के गुरू घासीदास ही थे जो मध्य युगीन सतनामी समाज में विश्वास और उपासना विधि को जीवित रखना चाहते थे तथा उनमें अभिनव चेतना लाने की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रचारित किया कि वास्तविक भगवान उनके सतनाम में प्रकट होते हैं। ईश्वर की नजर में सभी समान हैं। इसलिये मानव समाज में कोई भेद नहीं होना चाहिये जैसा कि जाति प्रथा से भेदभाव परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन पिछड़े, निम्न और अछूत समझे जाने वाले वर्गो में धार्मिक और सामाजिक चेतना लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 19वीं सदी में इस आंदोलन ने अंधविश्वासी हिन्दू जाति विशेषकर  प्रिस्टली क्लास के लोगों को भयभीत किया और समस्त लोगों के बीच आपसी सद्भावना हेतु बाध्य कर दिया।’’

छत्तीसगढ़ की सुंदर समन्वित संस्कृति पर गुरू घासीदास द्वारा स्थापित सतनाम के बारे में सुप्रसिद्ध साहित्य चिंतक डाॅ. विमलकुमार पाठक ने लिखा है कि यहां के हरिजन संत गुरू घासीदास द्वारा प्रवर्तित सत्यज्ञान अथवा सतनाम के अनुयायी होकर सतनामी सम्बोधित होते हैं। वे सात्विक विचार से युक्त होते हुये द्विज सदृश्य यज्ञोपवित से सुशोभित हुये हैं। गुरू घासीदास की जन्म भूमि और तपोभूमि गिरौदपुरी तथा कर्मभूमि भंडारपुरी था जहां वे अपना संदेश दिये। आज वे स्थान सतनामी समाज के धार्मिक और सांस्कृतिक तीर्थ स्थल हैं।

इतने बड़े ज्योति पुरूष एवं समदर्शी संत की इतने दिनों तक उपेक्षा सचमुच मानवता की उपेक्षा थी। उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिये तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 1983 में बिलासपुर में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय की स्थापना की। तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार का यह प्रयास सचमुच प्रशंसनीय है। 25 नवंबर सन् 1985 को गुरू घासीदास विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति श्री शरतचंद्र बेहार ने कहा था-‘‘छत्तीसगढ़ विभिन्न संस्कृतियों का संगम होने के कारण बौद्धिक उदारता और सहनशीलता इस क्षेत्र की विशेषता रही है। इसलिये देश के अन्य हिस्सों से ऐसे लोग जो तत्कालीन मुख्य विचारधारा और व्यवस्था से असहमत थे, यहां आकर अपने विचारों के लिये समर्थन और आश्रय खोज रहे हैं इसी कारण यहां कबीर पंथी की बड़ी संख्या है। मतभेद का घोषनाद करने वालों की परम्परा में 19 वीं शताब्दी की शुरूवात में गुरू घासीदास ने समाज की कठोर जाति प्रथा तथा उससे जुड़ी सामाजिक, आर्थिक शोषण की प्रक्रियाओं से विद्रोह किया। मूर्ति पूजा का विरोध कर निराकार ईश्वर पर विश्वास करने तथा सामाजिक औपचारिकताओं के खिलाफ आवाज उठाने के कारण स्व. श्रीकांत वर्मा ने उनके दर्शन को ‘‘अवतारों से विद्रोह’’ निरूपित किया है। समाज को संगठित कर उनमें आत्म सम्मान की भावना बढ़ाने तथा एक क्षमता मूलक सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था की स्थापना के लिये ठोस कदम उठाने वाले ऐसे कर्मयोगी की उपलब्धियों का आकलन करने पर ‘‘दलितों का मसीहा’’ की सशक्त एवं सुस्पष्ट क्षवि मेरे मन में अंकित होता है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में गुरू घासीदास ने अन्यों की उपेक्षा को देखा समझा और उसका विरोध किया। उसने जिस तरह से हरिजनों और समाज के पिछड़े वर्गा को संगठित कर उसका नेतृत्व किया वह 20वीं शताब्दी के अंत में भी बहुत कम लोग कर सकते हैं।’’

बहरहाल, सद्गुरू घासीदास अन्याय तथा सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध संघर्ष करने तथा पिछड़े लोगों के जीवन में सम्मान की भावना पैदा करने की दृष्टि से क्रांतिकारी उपदेश देने के लिये हमेशा याद किये जायेंगे। यदि हम उनके सिद्धांतों का अंश मात्र भी पालन करें तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समास्याओं का निराकरण स्वमेव हो जायेगा। इन अर्थो में गुरू घासीदास आज भी प्रासंगिक हैं



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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान

 30 नवंबर को पुण्यतिथि के अवसर पर

पंडित मालिकराम भोगहा का साहित्यिक अवदान


प्रो. अश्विनी केशरवानी

पंडित मालिकराम भोगहा 
छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक अर्थो में अपनी विशेषता रखता है। यहां ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेषों का बाहुल्य है जो अपनी प्राचीनता और वैभव सम्पन्नता की गाथाओं को मौन रहकर बताता है लेकिन इसके प्रेरणास्रोत और विद्वतजन गुमनामी के अंधेरे में खो गये। उन दिनों आत्मकथा लिखने की पिपासा नहीं होने से कुछ लिख छोड़ने की परम्परा नहीं रही। दूसरी ओर उनकी कृतियां और पांडुलिपियां पर्याप्त सुरक्षा के अभाव में चूहे और दीमक का भोजन या तो बन गये हैं या बनते जा रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस ओर देशोद्धार के सम्पोषकों ने ध्यान नहीं दिया। उनकी उपेक्षा नीति के कारण अंचल के अनेक मेघावी कवि, लेखक और कला मर्मज्ञ गुमनामी के अंधेरे में खो गये। इसी अज्ञात परम्परा के महान कवि-लेखकों में पंडित मालिकराम भोगहा भी थे जिन्हें प्रदेश के प्रथम नाटककार होने का गौरव प्राप्त होना चाहिए था, मगर आज उन्हें जानने वाले गिने चुने लोग ही हैं। छत्तीसगढ़ ऐसे अनेक स्वनामधन्य कवि-लेखकों से सुसम्पन्न था। देखिये पंडित शुकलाल पांडेय की एक बानगी:-

रेवाराम गुपाल अउ माखन, कवि प्रहलाद दुबे, नारायन।

बड़े बड़े कवि रहिन हे लाखन, गुनवंता, बलवंता अउ धनवंता के अय ठौर।।

राजा रहिन प्रतापी भारी, पालिन सुत सम परजा सारी।

जतके रहिन बड़े अधिकारी, अपन जस के सुरूज के बल मा जग ला करिन अंजोर।।

पंडित मालिकराम भोगहा इनमें से एक थे। छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं:-

नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।

बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।

हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।

विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।

विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।

हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।। 

महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण नवगठित जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि.मी.,बिलासपुर से 64 कि.मी.,रायपुर से 140 कि.मी. बलौदाबाजार होकर और रायगढ़ से 110 कि.मी. सारंगढ़ होकर स्थित है। यहां वैष्णव परम्परा के मठ और मंदिर स्थित है। कलिंग भूमि के निकट होने के कारण वहां की सांस्कृतिक परम्पराओं से पूरी तरह प्रभावित यह नगर भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना गया है। उड़िया कवि सरलादास ने 14 वीं शताब्दी में लिखा था कि भगवान जगन्नाथ को शबरीनारायण से पुरी ले जाया गया है। यहां भगवान नारायण गुप्त रूप से विराजमान हैं और प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को सशरीर विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। कदाचित् इसी कारण इसे ‘‘गुप्तधाम‘‘ माना गया है। यहां भगवान नारायण के अलावा केशव नारायण, लक्ष्मीनारायण, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, राम लक्ष्मण जानकी, राधाकृष्ण, अन्नपूर्णा, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, बजरंगबली, काली, शीतला और महिषासुरमर्दिनी आदि देवी-देवता विराजमान हैं। प्राचीन साहित्य में यहां मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम होने का उल्लेख मिलता है। यहीं श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर खाकर उन्हें मोक्ष प्रदान किये थे। यहीं भगवान श्रीराम ने आर्य समाज का सूत्रपात किया था। शबरी से भेंट को चिरस्थायी बनाने के लिए ‘‘शबरी-नारायण’’ नगर बसा है। यहां की महत्ता कवि गाते नहीं अघाते। देखिए कवि की एक बानगी:-

रत्नपुरी में बसे रामजी सारंगपाणी

हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी।

प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम,

है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम 

शिवरीनारायण में प्रकट शैरि-राम युत हैं लसे

जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहिं फंसे।

भोगहा द्वार 
प्राचीन काल में यहां के मंदिरों में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। उनके गुरू ‘‘कनफड़ा बाबा और नगफड़ा बाबा‘‘ कहलाते थे और जिसकी मूर्ति यहां आज भी देखी जा सकती है। नवीं शताब्दी के आरंभ में रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के स्वामी दयाराम दास तीर्थाटन करते रतनपुर आये। उनकी विद्वता और चमत्कार से हैहयवंशी राजा प्रसन्न होकर उन्हें अपना गुरू बना लिए। उनके निवेदन पर स्वामी जी शबरीनारायण में वैष्णव मठ स्थापित करना स्वीकार कर लिए। जब वे शबरीनारायण पहुंचे तब उनका सामना तांत्रिकों से हुआ। उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हंे यहां से जाने को बाध्य किये। इस प्रकार यहां वे वैष्णव मठ स्थापित किये और वे इस मठ के प्रथम महंत हुए। आज मठ के 14 महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक ईश्वर भक्त और चमत्कारी थे। वर्तमान में राजेश्री रामसुन्दरदास जी यहां के महंत हैं। यहां के मंदिरों की पूजा-अर्चना करने वाले पुजारी ‘‘भोगहा‘‘ उपनाम से अभिसिक्त हुए। यहां की महिमा श्री मालिकराम भोगहा के मुख से सुनिए:-

आठों गण सुर मुनि सदा आश्रय करत सधीर

जानि नारायण क्षेत्र शुभ चित्रोत्पल नदि तीर

देश कलिंगहि आइके धर्मरूप  थिर पाई

दरसन परसन बास अरू सुमिरन तें दुख जाई।

सन् 1861 में जब बिलासपुर जिला पृथक अस्तित्व में आया तब उसमें तीन तहसील क्रमशः बिलासपुर, शिवरीनारायण और मुंगेली बनाये गये। सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह सन् 1882 में तहसीलदार होकर शिवरीनारायण आये। उनका यहां आना इस क्षेत्र के साहित्यकारों के लिए एक सुखद घटना थी। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें इतना भाया कि उन्होंने इसे अपनी रचनाओं में समेटने का भरपूर प्रयास किया। बनारस में ‘‘भारतेन्दु मंडल‘‘ की तर्ज पर उन्होंने यहां ‘‘जगन्मोहन मंडल‘‘ की स्थापना कर यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की एक नई दिशा प्रदान की। उनकी रचनाओं में कई स्थानों पर ‘जगन्मोहन मंडल‘ का उल्लेख है। यहां के आनरेरी मजिस्ट्रेट पं. यदुनाथ भोगहा के अनुरोध पर उनके चिरंजीव मालिकराम भोगहा को उन्होंने अपने शागीर्दी में साहित्य लेखन करना सिखाया। पं. मालिकराम जी ने उन्हें अपना गुरू माना है। वे लिखते हैं:-

प्रेमी परम रसिक गुणखान।

नरपति विजयसुराघवगढ़ के, कवि पंडित सुखदान।।

ठाकुर जगमोहन सिंह 

जय जन वंदित श्री जगमोहन, तासम अब नहिं आन।

जग प्रसिद्ध अति शुद्ध मनोहर, रचे ग्रंथ विविधान।।

सोई उपदेश्यो काव्य कोष अरू, नाटक को निरमान।

ताकि परम शिष्य ‘‘मालिक‘‘ को, को न करे सनमान।।

तब इस अंचल के अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार यहां आकर साहित्य साधना किया करते थे। उनमें पं. अनंतराम पांडेय(रायगढ़), पं. पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली),       श्री वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पं. हीराराम त्रिपाठी (कसडोल), पं. मालिकराम भोगहा, श्री गोविंद साव, (सभी शिवरीनारायण), श्री बटुकसिंह चैहान (कुथुर-पामगढ़), जन्मांध कवि नरसिंहदास वैष्णव (तुलसी), शुकलाल पांडेय और पं. लोचनप्रसाद पांडेय भी यहां सु जुड़े रहे। तब यह नगर धार्मिक, सांस्कृतिक तीर्थ के साथ साहित्यिक तीर्थ भी कहलाने लगा। कौन हैं ये मालिकराम भोगहा ? छत्तीसगढ़ में उनका साहित्यिक अवदान क्या था ? 

शिवरीनारायण मंदिर के पुजारी और भोगहापारा के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा का उल्लेख एक सज्जन व्यक्ति के रूप में ठाकुर जगमोहनसिंह ने सन् 1884 में प्रकाशित अपने सज्जनाष्टक में किया है:-

  बन्दो आदि अनन्त शयन करि शबरनारायण रामा।

  बैठे अधिक मनोहर मंदिर कोटि काम छबिधामा।।

जिनको राग भोग करि निसुदिन सुख पावत दिन रैनू।

  भोगहा श्री यदुनाथ जू सेवक राम राम रत चैनू।।

है यदुनाथ नाथ यह सांचों यदुपति कला पसारी।

  चतुर सुजन सज्जन सत संगत सेवत जनक दुलारी।।

दिन दिन दीन लीन मुइ रहतो कृषि कर्म परवीना।

  रहत परोस जोस तजि मेरे हैं द्विज निपट कुलीना।।

भोगहा जी बड़े सुहृदय, भक्त वत्सल और प्रजा वत्सल थे। सन् 1885 में यहां बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसमें जन धन की बड़ी हानि हुई थी। इस समय भोगहा जी ने बड़ी मद्द की थी। शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार और कवि ठाकुर जगमोहनसिंह ने तब ‘‘प्रलय‘‘ नाम की एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के ‘समर्पण‘ में वे भोगहा जी के बारे में लिखते हैं:-‘‘भोगहा जी आप वहां के प्रधान पुरूष हो। आपकी सहायता और प्रजा पर स्नेह, जिसके वश आपने टिकरीपारा की प्रजा का प्राणोद्धार ऐसे समय में जब चारों ओर त्राहि त्राहि मची थी, किया था-इसमें सविस्तार वर्णित है। यह कुछ केवल कविता ही नहीं वरन् सब ठीक ठाक लिखा है।‘‘ देखिये उनका पद्य:-

  पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस

          त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास

  छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी

  काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी

  तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी

          धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी।। 52 ।।

  कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह

  कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह

  शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टार्यौ

          भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबार्यौ

  रोवत कोऊ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ

  कोऊ निज धन घर बार नास लखि बिलपति कोऊ।। 53 ।।

  श्री यदुनाथ भोगहा को मालगुजार, माफीदार और पुजारी बताया गया है। बाढ़ के समय उन्होंने बड़ी मद्द की थी। टिकरीपारा (तब एक उनकी मालगुजारी गांव) में स्वयं जाकर वहां के लोगों की सहायता की थी। ठाकुर साहब ने लिखा है:-‘‘ऐसेे जल के समय में जब पृथ्वी एकार्णव हो रही थी, सिवाय वृक्षों की फुनगियों के और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिस समय सब मल्लाहों का टिकरीपारा तक नौका ले जाने में साहस टूट गया था, आपका वहां स्वयं इन लोगों को उत्साह देकर लिवा जाना कुछ सहज काम नहीं था। यों तो जो चाहे तर्क वितर्क करें पर जिसने उस काल के हाल को देखा था वही जान सकता है।‘‘ एक दोहा में इसका उन्होंने वर्णन किया है:-

  पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय।

  अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय।। 63 ।।

  बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस।

  गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबार्यौ ईश।। 64 ।।

  इस सद्कार्य से प्रभावित होकर ठाकुर जगमोहनसिंह ने इनकी प्रशंसा अंग्रेज सरकार से की थी और उन्हें पुरस्कार भी देने की सिफारिश की थी मगर अंग्रेज सरकार ने ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने लिखा है:- ‘‘आपका इस समय हमारी सरकार ने कुछ भी सत्कार न किया-यद्यपि मैंने यथावत् आपकी प्रशंसा अपने अधिकार के सम्बंध में श्रीयुत् डिप्टी कमिश्नर बिलासपुर को लिखी थी तथा सोच का स्थान है कि उस पर भी अद्यापि ध्यान न हुआ-‘नगार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ?‘ आदि आपकी सहायता, प्रजागण पर स्नेह और उनका उपकार जगत ने स्वीकार किया और उनकी भी प्रीति आप पर निष्कपटता के साथ है तो इससे बढ़ के और पारितोषिक नहीं। क्यों कि ‘धनांनि जीवितन्न्जैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत तन्निमिŸो वरं त्यागि विनाशे नियते सति‘ और भी ‘विभाति कायः करूणा पराणाम्परोपकारैर्नतु चन्दनेन‘ ऐसा प्राचीन लोग कह आये हैं।‘ इस प्रकार उनकी प्रशंसा कर ठाकुर साहब ने उनके सुखी रहने की कामना की है:-

  सुखी रहैं ये सब पुरवासी खलगन सुजन सुभाए।

  श्री यदुनाथ जियै दिन कोटिन यह मन सदा कहाए।। 109 ।।

पंडित मालिकराम भोगहा का जन्म बिलासपुर जिलेे (वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला) के शिवरीनारायण में संवत् 1927 में हुआ। वे सरयूपारी ब्राह्मण थे। उनके पिता पं. यदुनाथ भोगहा यहां के नारायण मंदिर के प्रमुख पुजारी, मालगुजार और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे। जब मालिकराम बहुत छोटे थे तभी उनकी माता का देहावसान हो गया। मातृहीन पुत्र को पिता से माता और पिता दोनों का प्यार और दुलार मिला। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह के संरक्षण में हुई। संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू के अलावा उन्होंने संगीत, गायकी की शिक्षा ग्रहण की। आगे चलकर मराठी और उड़िया भाषा सीखी। उन्होंने कम समय में ही अलौकिक योग्यता हासिल कर ली। मालिकराम जी धीरे धीरे काव्य साधना करने लगे। पहले उनकी कविता अवस्थानुरूप श्रृंगार रस में हुआ करती थी। बाद में उनकी कविताएं अलंकारिक थी। उनकी कविताएं सरस और प्रसाद गुण युक्त थी। उनकी कुछ कविताओं को ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपनी पुस्तकों में सम्मिलित किया है। देखिए उनकी एक कविता: -

लखौं है री मैंने रयन भयै सोवै सुख करी।

छकी लीनी बीनी मधुर गीत गावै सुर भरी।

मिटावै तू मेरे सकल दुख चाहे छनिक में।

न लावै ज्यों बेरी अधर रस सोचे तनिक में।।

मालिकराम जी अपना उपनाम ‘‘द्विजराज‘‘ लिखा करते थे। उनकी अलंकारी भाषा होने के कारण लोग उन्हें ‘‘अलंकारी‘‘ भी कहा करते थे। शिवरीनारायण के मंदिर के पुजारी होने के कारण ‘‘भोगहा‘‘ उपनाम मिला। उनके वंशज आज भी यहां मंदिर के पुजारी हैं।

मालिकराम जी, ठाकुर जगमोहनसिंह के प्रिय शिष्य थे। उसने भोगहा जी को अपने साथ मध्य प्रांत, मध्य भारत, संयुक्त प्रांत और पंजाब के प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा करायी जिससे उन्हें यात्रा अनुभव के साथ विद्यालाभ भी हुआ। बाल्यकाल से ही मालिकराम जी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे हमेशा धार्मिक ग्रंथों का पठन और मनन किया करते थे। किशोरावस्था में उन्होंने वेद, उपनिषद और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। ब्रह्यचर्य रहकर चतुर्मास का पालन करना, पयमान को जीवन का आधार समझना, नित्य एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करना, योग धर्म में पथिक होकर भी सांसारिक कर्तव्यों से जूझना और अपनी सुशि़क्षा तथा सच्चरित्र के द्वारा लोगों में धर्मानुराग उत्पन्न कर परमार्थ में रत रहना वे परम श्रेष्ठ समझते थे। इन्हीं गुणों के कारण मालिकराम जी आदर्श गृहस्थ के पावन पद के अधिकारी हुये। वे अक्सर कहा करते थे-‘‘ ब्रह्यचर्य व्रत और गायत्री मंत्र में ऐसी शक्ति है जिससे मनुष्य देवतुल्य बन सकता है।‘‘ वे स्त्री शिक्षा और पत्नीव्रत पर लोागें को उपदेश दिया करते थे। उनके इस उनदेश का लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। बैसाख पूर्णिमा संवत् 1964 को उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इससे उन्हें बहुत धक्का लगा। वे अक्सर कहा करते थे-‘‘ मेरी आध्यात्मिक उन्नति का एक कारण मेरी पत्नी है। उनके सतीत्व और मनोदमन को देखकर मैं मुग्ध हो जाता हंू। उनका वियोग असहनीय होता है:-

मेरे जीवन की महास्थली में तू थी स्निग्ध सलिल स्रोत।

इस भवसागर के तरने में तेरा मन था मुझको पोत।।

कहीं पत्नीव्रत में विघ्न उपस्थित न हो और चित्त की एकाग्रता जो दृढ़ अध्यावसाय से प्राप्त हुई है, कहीं विचलित न हो जाये, कुछ तो इस आशंका से और कुछ अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। समय आने पर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई लेकिन जन्मते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। नवजात पुत्र की मृत्यु से वे बहुत व्यथीत हुये। वे अस्वस्थ रहने लगे और सूखकर कांटा हो गये। उपचार से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं हुआ और अंततः वे 38 वर्ष की अल्पायु में 30 नवंबर सन् 1909 को स्वर्गवासी हुए। यह जानते हुये भी कि शरीर नश्वर है, न अतीव वेदना से भर उठा। उन्हीं के शब्दों में:-

जो जन जन्म लियो है जग में सो न सदा इत रैहैं।

जग बजार से क्रय विक्रय कर अंत कूच कर जैहैं।

तद्यपि जे सज्जन विद्वज्जन असमय ही उठ जावै।

तिनके हेतु जगत रोवत है गुनि गुनि गुण पछतावै।

पंडित लोचनप्रसाद पांडेय उन्हें शोकांजलि देते हुए लिखते हैं:-

हे प्राणियों की प्रकृति जग में मरण यह सब जानते।

यह देह है भंगुर इसे भी लोग हैं सब मानते।

पर मृत्यु प्रियजन की जलाती हा ! न किसके प्राण है ?

किसका न होता प्रिय विरह से भ्रष्ट सारा ज्ञान है ?

भवताप तापित प्राण को चिरशांति का जो स्रोत है।

भवसिंधु तरने हेतु जिसका हृदय पावन पोत है।

चिर विरह ऐसे मित्र का हो सह्य किसको लोक में ?

छाती नहीं फटेगी किसकी हाय ! उसके शोक में ?

शोकाश्रुप्लावित नेत्र होते हैं रूक जाता गला।

कर कांपता है फिर लिखें हम इस दशा में क्या भला ?

इस समय तो रोदन बिना हमसे नहीं जाता रहा।

हा हन्त मालिकराम ! धार्मिक भक्त ! हा द्विजराज ! हा !

पं. मालिकराम जी एक उत्कृष्ट कवि और नाटककार थे। उन्होंने रामराज्यवियोग, सती सुलोचना और प्रबोध चंद्रोदय (तीनों नाटक), स्वप्न सम्पत्ति (नवन्यास), मालती, सुर सुन्दरी (दोनों काव्य), पद्यबद्ध शबरीनारायण महात्म्य आदि ग्रंथों की रचना की। उनका एक मात्र प्रकाशित पुस्तक रामराज्यवियोग है, शेष सभी अप्रकाशित है। यह नाटक प्रदेश का प्रथम हिन्दी नाटक है। इसे यहां मंचित भी किया जा चुका है। इस नाटक को भोगहा जी ने ठाकुर जगमोहनसिंह को समर्पित किया है। वे लिखते हैं:-‘‘ इस व्यवहार की न कोई लिखमत, न कोई साक्षी और न वे ऋणदाता ही रहे, केवल सत्य धर्म ही हमारे उस सम्बंध का एक माध्यम था और अब भी वही है। उसी की उत्तेजना से मैं आपको इसे समर्पण करने की ढिठाई करता हूँ। क्योंकि पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र होता है, विशेष यह कि पिता, गुरू आदि उपमाओं से अलंकृत महाराज के स्थान पर मैं आपको ही जानता हूँ। जिस तरह मैंने अपना सत्य धर्म स्थिर रख, प्राचीन ऋण से उद्धार का मार्ग देखा, उसी तरह यदि आप भी ऋणदाता के धर्म को अवलम्ब कर इसे स्वीकार करेंगे तो मैं अपना अहोभाग्य समझूंगा..।‘‘

भोगहा जी के बारे में पं. लोचनप्रसाद पांडेय लिखते हैं:-‘‘ पूज्य मालिकराम मेरे अग्रज पं. पुरुषोत्तम प्रसाद पांडेय के बड़े स्नेही मित्र थे। उनमें बड़ी घनिष्ठता थी। मालिकराम जी हमारे प्रदेश के एक सुप्रसिद्ध और दर्शनीय पुरूष थे। उनकी सच्चरित्रता और धार्मिकता की प्रशंसा हम क्या अंग्रेज अधिकारी और पादरी तक किया करते थे। कई पादरी उनकी आध्यात्मिक उन्नति से मुग्ध होकर उनका मान करते थे। मालिकराम जी का हृदय बालकों के समान कोमल और पवित्र था। वे बालकों के साथ बातचीत करके खुश होते थे। ग्रामीण किसानों और उन आदमियों से जिन्हें हम असभ्य कहकर घिनाते थे, उनसे बड़े प्रेम और आदर के साथ मिला करते थे। वे ग्रामीण भाषा में गीत गाकर और हावभाव के साथ बोला करते थे जिससे हजारों नर नारियां मोहित उठ उठते थे। उनकी साहित्य सेवा और मातृ भाषानुराग आदर्श था। स्वदेश भक्ति तो उनके नश नश में भरी हुई थी। उनकी विद्वता और काव्य शक्ति की प्रशंसा अनेक विद्वानों ने की है। ऐसे आदर्श और गुणवान पुरूष का अल्प अवस्था में उठ जाना हमारे देश का दुर्भाग्य है। उनकी मृत्यु से छत्तीसगढ़ का एक सपूत हमसे छिन गया।‘‘ अस्तु:-

जिसका पवित्र चरित्र औरों के लिये आदर्श है।

वह वीर मर कर भी न क्या जीवित सहस्रों वर्ष है।।



प्रस्तुति,

     प्रो. अश्विनी केशरवानी


राघव, डागा कालोनी,

चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)


 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

दीपावली पर्व

 दीपावली पर्व पर 
तुलसी में दियना जलाए हो माय

दीपावली आज केवल हिन्दुओं का ही त्योहार ही नहीं है बल्कि सभी वर्गो और सम्प्रदायों के द्वारा मनाया जाने वाला एक राष्ट्रीय त्योहार है। राष्ट्रीय एकता के प्रतीक यह त्योहार लोगों में आपसी सौहार्द्र बनाये रखने में सहयोग करता है। पांच दिनों तक मनाए जाने वाले इस त्योहार के पीछे अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। दीपों का यह पर्व खुशियों का प्रतीक है। भगवान श्रीरामचंद्र जी 14 वर्ष बनवास के दौरान अनेक राक्षसों और रावण जैसे शूरवीरों को मारकर जब अयोध्या लौटे तो न केवल अयोध्या में बल्कि पूरे ब्रह्मांड में दीप जलाकर खुशियां मनायी गयी थी और उनका स्वागत किया गया था। तब से दीप जलाकर इस पर्व को मनाने की परंपरा प्रचलित हुई। बुंदेलखंडी लोकगीतों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि रामायण काल में दीवाली जेठ मास में मनायी जाती थी जिसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी के जन्म के बाद कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष में मनायी जाने लगी:- 

जेठ दिवारी होत तो, जेठ पूजत तो गाय

उपजे कन्हैया नंद के, सो ले गये कार्तिक मास। 


दीपावली की तैयारी एक महिने पूर्व से शुरू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे इसका ही हमें इंतजार था। दीपों के इस पर्व के साथ घरों औं दुकानों की साफ सफाई  और रंग रोगन भी हो जाता है। साफ सफाई से जहां साल भर से जमते आ रहे कचरा और गंदगी की सफाई हो जाती है और ख्याल से उतरे कुछ जरूरी सामान और कागजात की छंटाई सफाई हो जाती है। व्यापारी वर्ग के लिए तो यह नये वर्ष की शुरूवात होती है। पुराने हिसाब किताब बराबर करना और नये खाता बही की शुरूवात जैसे लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। रंग रोगन से जहां मकानों और दुकानों की शोभा बढ़ जाती है, वहीं टूटे फूटे मकानों, दीवारों और सामानों की मरम्मत आदि हो जाती है। मान्यता भी यही है कि साफ सुथरे जगहों में लक्ष्मी जी का वास होता है और संभवतः लोगों का यह प्रयास लक्ष्मी जी को बहलाने फुसलाने का माध्यम भी होता है। इससे एक ओर तो धन्ना सेठों के घर चमकने लगते हैं वहीं दाने दाने को मोहताज लोग एक दीप भी नहीं जला पाते....तभी तो कवि श्री सरयूप्रसाद त्रिपाठी ‘मधुकर‘ कहते हैं:-

धनिकों के गृह सज स्वच्छ हुये,

दीनों ने आंसू से पोंछा।

माता का आंचल पकड़ बाल

मिष्ठान हेतु रह रह रोता।

लक्ष्मी पूजा की बारी है

पर पास न पान सुपारी है।


कार्तिक अमावस्या को मनाये जाने वाले इस त्योहार के प्रति पुराने जमाने में जो खुशी और उत्साह होता था उसका आज पूर्णतः अभाव देखा जा सकता है। आज दीवाली के प्रति लोगों की खुशियां कृत्रिम और क्षणिक होती है। जबकि पुराने समय में दीवाली के आगमन की तैयारी एक माह पहले से शुरू हो जाती थी। इस दिन सबके चेहरे पर रौनक होती थी। सभी आपसी भेद भाव को भूलकर एकता के सूत्र में बंध जाया करते थे। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छूत-अछूत जैसा भेद नहीं होता था बल्कि आपसी समझ-बूझ से लोग यह त्योहार मनाया करते थे। पर्व और त्योहारों का संबंध आजकल मन से कम और धन से ज्यादा होता है। सम्पन्नता विशेष आयोजनों और त्योहारों को विभाजित कर देती है, विपन्नता तो महज जीवन को जिंदा रखती है और मरने भी नहीं देती। देखिये कवि मधुकर जी की एक बानगी:-

चिंता विस्मृत हो गयी दुखद

उत्साह अमित उर में छाया।

धन दल विहीन नव नील गगन

विस्मृत अतिशय मन को भाया।

विहंसी निशि में तारावलियां

जब जुगनूं की जमात चमकी।

कुछ सहमे अचानक आ गयी

यह अलस अमा रजनी काली। 


छत्तीसगढ़ में कार्तिक मास को धरम महिना कहा जाता है और इस मास में तुलसी चैरा में दीया जलाना बड़ा शुभ माना जाता है। कवि भी यही कहते हैं:-

कातिक महिना धरम के रे माय।

तुलसी में दियना जलाए हो माय।।

छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि स्व. श्री हरि ठाकुर दीवाली को विशुद्ध कृषि संस्कृति पर आधारित त्योहार मनाते हैं। इस समय खेतों में धान की बाली लहलहाने लगती है और बाली के धान पकने लगते हैं। किसान इसे देखकर झूम झूमकर गाने लगता है:-

दिया बाती के तिहार,

होगे घर उजियार

गोइ अचरा के जोत ल

जगाए रहिबे

दूध भरे धान,

होगे अब तो जवान

परौं लक्ष्मीं के पांव,

निक बादर के छांव,

सुवा रंग खेत खार, बन दूबी मेढ़ पार,

गोई फरिका पलक के लगाए रहिबे।


दीपों का यह त्योहार खुशी, आनंद और भाईचारा का प्रतीक माना जाता है पर बदलते परिवेश में इसकी परिभाषा फिजूलखर्ची और दिखावे ने ले लिया है। इससे मध्यम वर्गीय परिवारों  का आर्थिक ढांचा बहुत हद तक चरमरा जाता है। हमारे समाज में उच्च-मध्यम और निम्न वर्गीय लोग रहते हैं। उच्च वर्ग का फिजुलखर्ची और भोंडा प्रदर्शन मध्यम और निम्न वर्गीय लोगों को बरगलाने के लिये काफी होता है। कुछ लोग तो इन्हें हेय समझने लगे हैं। निम्न वर्ग तो हमेशा यही समझता है कि अमीरों के लिये ही सभी त्योहार होते हैं। सबसे ज्यादा आर्थिक और सामाजिक बोझ मध्यम वर्गीय परिवारों के उपर ही पड़ता है। उनकी स्थिति सांप और छुछंदर जैसी होती है। वे त्योहारों को न तो छोड़ सकती है न ही उनसे जुड़ सकती है। मेरा अपना अनुभव है कि कुछ लोग इस कोशिश में रहते हैं कि अपनी दीवाली सबसे ज्यादा रंगीन और आकर्षक हो। इसके लिये वे अधिक खर्च करना अपनी शान समझते हैं। अपनी शान और अभियान को बनाये रखने तथा पड़ोसियों के उपर अपना रोब जमाने का यह प्रयास मात्र होता है। इससे न उसके शान और मान में बढ़ोतरी होती है, न ही लोग उनसे जुड़ पाते हैं। सामाजिक जुड़ाव के लिये आर्थिक सम्पन्नता का भोंडा प्रदर्शन के बजाय व्यावहारिक होकर सादगी से इस पर्व को मनाना उचित होगा।

छत्तीसगढ़ की दीवाली:-

छत्तीसगढ़ में पांच दिन तक चलने वाले इस त्योहार का आरंभ धनतेरस याने धनवंतरि त्रयोदश से होता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान धनवंतरि अपने हाथ में अमृत कलश लिए प्रगट हुए थे। समुद्र मंथन में जो 14 रत्न निकले थे, भगवान धनवंतरि उनमें से एक हैं। वे आरोग्य और समृद्धि के देव हैं। स्वास्थ्य और सफाई से इनका गहरा संबंध होता है। इसीलिए इस दिन सभी अपने घरों की सफाई करते हैं और लक्ष्मी जी के आगमन की तैयारी करते हैं। इस दिन लोग यथाशक्ति धन के रूप में सोना-चांदी और बर्तन आदि खरीदते हैं। कवि मधुकर जी भी यही कहते हैं:-

लिप पुतकर स्वच्छ विशाल भवन

है खड़े गर्व से हास लिए।

सज्जित हो कर मन ही मन में

सुंदर भविष्य की आस लिए।।

दूसरे दिन कृष्ण चतुर्दशी होता है। इस दिन को नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण नरकासुर का वध करके उनकी कैद से हजारों राजकुमारियों को मुक्ति दिलाकर उनके जीवन में उजाला किये थे। राजकुमारियों ने इस दिन दीपों की श्रृंखला जलाकर अपने जीवन में खुशियों को समाहित किया था:-

उमा की काली निशा में, लास करता है उजाला।

कलित कातिक में जल रही है, आज फिर से दीप माला।।

तीसरे दिन आता है दीपावली। दीपों का त्योहार..लक्ष्मी पूजन का त्योहार। असत्य पर सत्य की, अंधकार पर प्रकाश की, और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक त्योहार है दीपावली। इस त्योहार को मनाने के पीछे अनेक लोक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। श्रीरामचंद्र जी के 14 वर्ष बनवास काल की समाप्ति और अयोध्या आगमन पर उनके स्वागत में दीप जलाना, अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का इस दिन जन्म हुआ था और इसी दिन उन्होंने जल समाधि ली थी। अहिंसा की प्रतिमूर्ति और जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इसी दिन निर्वाण किया था। सिख धर्म के प्रवर्तक श्री गुरूनानक देव का जन्म इसी दिन हुआ था। इन सत्पुरूषों के उच्च आदर्शो और अमृतवाणी से हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है।...और इसी अमावस्या को भगवान विष्णु जी ने धन की देवी लक्ष्मी जी का वरण किया था। इसीलिए इस दिन सारा घर दीपों के प्रकाश से जगमगा उठता है। पटाखे और आतिशबाजी की गूंज उनके स्वागत में होती हैं। इस दिन धन की देवी मां लक्ष्मी को पूजा अर्चना करके प्रसन्न किया जाता है और घर को श्री सम्पन्न करने की उनसे प्रार्थना की जाती है:-

जय जय लक्ष्मी ! हे रमे ! रम्य

हे देवि ! सदय हो, शुभ वर दो

प्रमुदित हो, सदा निवास करो

सुख सम्पत्ति से पूरित कर दो,

हे जननी ! पधारो भारत में

कटु कष्ट हरो, कल्याण करो

भर जावे कोषागार शीघ्र

दुर्भाग्य विवश जो है खाली

घर घर में जगमग दीप जले

आई है देखो दीवाली...। 


चैथे दिन आती है गोवर्धन पूजा। यह दिन छत्तीसगढ़ में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है। मुंगेली क्षेत्र में इस दिन को पान बीड़ा कहते हैं और अपने अपने घरों में मिलने आये लोगों का स्वागत पान बीड़ा देकर करते हैं। इस दिन गोवर्धन पहाड़ बनाकर उसमें श्रीकृष्ण और गोप गोपियां बनाकर उनकी पूजा की जाती है। रावत लोग गाय की पूजा करते हैं और नाचते गाते हैं:-

चार महिना चराएव खाएव दही के मोरा

आगे मोर दिन देवारी, छोड़ेबर तोर निहोरा।

इस दिन छत्तीसगढ़ में शौर्य के प्रतीक रावत नाच का शुभारंभ होता है। नाचते हुए वे गाते हैं:-

लगगे कातिक महिना संगी,

घर कोठार बनाबो।

आही देवारी लाही अंजोरी,

जम्मो अंधिायार मिटाबो।।

पांचवें दिन आता है भाईदूज का पवित्र त्योहार। यमराज के वरदान से इस दिन बहन अपने भाई का आत्मीय स्वागत करके मोक्ष का अधिकारी बनती हैं। पांच दिन तक चलने वाले इस त्योहार को लोग बड़े धूमधाम और आत्मीय ढंग से मनाते हैं।

यह सच है कि दीपावली के आगमन से खर्च में बढ़ोतरी हो जाती है और पांच दिन तक मनाये जाने वाले इस त्योहार के कारण आपका पांच माह का बजट फेल हो जाता है। उचित तो यही होगा कि आप इसे अपने बजट के अनुसार ही मनायें। हर वर्ष आने वाला दीपावली अपने चक्र के अनुसार इस वर्ष भी आया है और भविष्य में भी आयेगा पर इससे घबराये नहीं और सादगी पूर्ण सौहार्द्र वातावरण में मनायें। दूर दर्शिता से काम लें, इतनी फिजुलखर्ची न करें कि आपका दीवाला ही निकल जाये और न ही इतनी कंजूसी करें कि दीवाली का आनंद ही न मिल पाये..। कवि का भाव भी यही है:-

हे दीप मालिके ! फैला दो

आलोक तिमिर सब हट जावे।

जल जरवे भ्रष्ट्राचार-शलभ

दुख की बदली भी छंट जावे

रोगों से कोई ग्रसित न हो

जठरानल से भी त्रसित न हो

अनुभव करने सब लोग लगे

हमने स्वतंत्रता है पा ली

नवज्योति जगाने जीवन में

आयी यह जगमग दीवाली

               



सोमवार, 17 अक्तूबर 2022

संगीत और नृत्य का संगम प्रो. कल्याणदास महंत

  19 अक्टूबर को पुण्यतिथि के अवसर पर


संगीत और नृत्य का संगम प्रो. कल्याणदास महंत

प्रो. अश्विनी केशरवानी

कत्थक के विशिष्ट घरानों में रायगढ़ घराने का महत्वपूर्ण स्थान है। इस घराने को जिन प्रतिभाओं ने उन्नत किया है उनमें कल्याणदास महंत का विशिष्ट स्थान है। आइए, संगीत और नृत्य से जुड़े और मध्यप्रदेश शासन द्वारा ‘शिखर सम्मान‘ से सम्मानित इस कलाकार के जीवन के पृष्ठों पर दृष्टिपात करें।

संगीत और नृत्य एक दूसरे से जुड़ी दो विधाएं, लेकिन एक दूसरे में काफी घुली मिली, फिर भी बहुत कम प्रतिभाएं ऐसी होती हैं जिनका इन दोनों विधाओं पर समान अधिकार होता है।कल्याणदास महंत उन्हीं बिरली प्रतिभाओं में से एक हैं। कहते हैं, प्रतिभा जन्मजात होती हैं लेकिन प्रतिभा को अगर माहौल भी अनुकूल मिल जाये तो प्रतिभा के उस अंकुर को एक लहलहाते पेड़ में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। कल्याणदास महंत के साथ भी ऐसा ही हुआ।

10 अक्टूबर 1921 को बिलासपुर जिले के मड़वा (नवापारा) ग्राम में कुशालदास महंत के घर द्वितीय पुत्ररत्न के रूप में कल्याणदास का जन्म हुआ। उनका बचपन पिता और बड़े भाई के संगीतमय माहौल में बीता, जिससे सात वर्ष की उम्र से ही संगीत (नृत्य और गायन) की ओर इनका झुकाव बढ़ता ही गया। बड़े भाई ‘इसराज‘ बजाते थे, जिससे आसपास के तबला और हारमोनियम वादक और गायक कलाकारों की बैठक इनके घर आये दिन हुआ करती थी। बालक कल्याण की रूचि इससे स्वाभाविक रूप से बढ़ती गयी।

कला चंद्रपुर से सारंगढ़ ले आयी


कल्याणदास जी कहते हैं, ‘गांवों में गम्मत और नाचा हुआ करता था। मेरी रूचि देखकर लोग मुझे आमंत्रित करने लगे। उनका खुश होना मुझे उत्साहित करता था। आज जो सम्मान मुझे मिला है, यह उसी का प्रतिफल है। एक बार चंद्रपुर के जमींदार शशिभूषण सिंह का हमारे घर आगमन हुआ उस दिन संयोग से बोलवा उस्ताद और लल्लूलाल तबला और हारमोनियम पर संगत कर रहे थे। बड़े भाई इसराज बजा रहे थे। बस, मेरे नृत्य का सितारा चमक उठा। मुझे आज भी उस दिन गाये गीत के बोल याद हैं। चंद्रपुर के जमींदार उसी से आकर्षित होकर मुझे चंद्रपुर ले आये ... ‘यमुना तट में राम, खेलत होरी यमुना तट में।‘ नृत्य विधा में मेरी कीर्ति चारों ओर फैलने लगी और एक दिन गांव में सनसनी फैल गयी जब सारंगढ़ रियासत के सिपाही परवाना लेकर हमारे घर आये। पहले तो सिपाही को देखकर हम लोग डरे, बाद में जब उन्होंने परवाना पढ़कर सुनाया और मुझे राजदरबार में ससम्मान ले जाने की अपनी मंशा जाहिर की तो खुशी से मैं उनके साथ हो लिया। इस प्रकार मैं चंद्रपुर से सारंगढ़ आ गया। यहां राजदरबार में मेरा नृत्य-गायन हुआ-

बहियां रे, घर जाने को छोड़ मोरी,

राह-बाट मोरी रोकत-टोकत है...।

मेरा बाल नृत्य देखकर राजा बहादुर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दीवान की सलाह मानकर मुझे दरबार में रहने की अनुमति दे दी। सारंगढ़ रियासत में मेरी उपस्थिति से सबसे ज्यादा खुशी राजकुमारी वासंती देवी को हुई। उनका संगीत के प्रति झुकाव था। मेरे नृत्य-गायन से प्रसन्न होकर वे हारमोनियम पर संगत करतीं और गीत गाती थीं-‘दिया बिना सूनी रे, हवेली कौनो काम की...।‘ 


बाद में उनकी शादी रायगढ़ के राजा चक्रधरसिंह से हुई। विवाहोपरांत वे रायगढ़ आ गयीं। मेरा नृत्य-गायन जैसे निर्जीव हो गया। लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था और एक दिन राजा चक्रधरसिंह के आगमन से ही मेरा सितारा पुनः चमक उठा। मेरा नृत्य देखकर वे अति प्रसन्न हुए। संगीत के पारखी तो वे थे ही, मेरा बाल नृत्य उन्हें मोहित कर गया और वे मुझे रायगढ़ ले आये। यहां मेरे जैसे और भी कलाकार थे। मुझे कार्तिकराम, फिरतूदास और बर्मनलाल का साथ मिला। हम उम्र साथ से हमारा उत्साह दोगुना होता, प्रतिस्पर्धा की होड़ से हमारी कला में निखार आता गया।

संगीतमय रियासत

रायगढ़ रियासत शुरू से ही संगीतमय रही है। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद सदियों से चले आ रहे भारतीय राज्यों तथा रियासतों के सभी विशेषाधिकार समाप्त कर भारतीय संघ में इनका विलय कर दिया गया। जिसके बाद यह रियासत इतिहास के पन्नों में कैद होकर, गुमनामी के अंधेरे में धीरे धीरे अपना अस्तित्व खोने लगी। लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थीं, जिन्हें साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए आज भी याद किया जाता है। छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्वी भाग में रायगढ़ रियासत और और राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत और कत्थक नृत्य के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। राजसी ऐश्वर्य, भोग-विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, कला और साहित्य को समर्पित कर दिया। फलस्वरूप 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति कत्थक नृत्य के क्षेत्र में समूचे भारत में सिर चढ़कर बोलने लगी थी। राजा चक्रधरसिंह के योगदान के कारण ही लखनऊ, जयपुर और बनारस जैसे कत्थक के विशिष्ट घरानों के साथ रायगढ़ घराने का भी नाम जुड़ गया। सन् 1924 में उनके बढ़े भाई राजा नटवरसिंह की आकस्मि मृत्यु के उपरांत, राजगद्दी सम्हालने के बाद उनका ज्यादा समय साहित्य, संगीत और कला में ही व्यतीत होने लगा। वे छत्तीसगढ़ के प्रतिभावान कालाकारों को खोजकर उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था कर, उनकी प्रतिभा को उभारने लगे।

इन्हीं प्रतिभाओं में कातिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल प्रमुख हैं। देश के चोटी के कलाकारों को अपने दरबार में आमंत्रित कर उन्हें कत्थक, गायन और तबला वादन की शिक्षा देने का प्रबंध किया गया तथा स्वयं राजा चक्रधरसिंह ने भी इन गुरूओं से संगीत के शास्त्रीय पक्ष तथा तबला वादन की शिक्षा ग्रहण की। इनके अथक प्रयास और लगन से, कत्थक के विद्वान गुरूओं के सानिघ्य और दीक्षा से चारों कलाकार देश-विदेश में ख्याति अर्जित करने लगे। कार्तिक-कल्याण की जोड़ी तो बहुत मशहूर हुई। 1935 में कलकत्ता में आयोजित आल इंडिया बंगाल म्यूजिक कान्फ्रेंस में इन्हें स्वर्ण और रजत पदक मिला। 1937 में इन्होंने इलाहाबाद संगीत सम्मेलन में स्वर्ण और रजत पदक प्राप्त किया। 1936 में दिल्ली आल इंडिया म्यूजिक कान्फ्रेंस में कल्याणदास को विशेष सम्मान एवं नृत्य प्रोफेसर की उपाधि प्रदान की गयी।

कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं


एक वाकिए का जिक्र करते हुए कल्याणदास जी ने बताया कि 1937 में इलाहाबाद में आयोजित आॅल इंडिया म्यूजिक कान्फ्रेंस में हमारे प्रदर्शन से प्रभावित होकर दतिया और नेपाल के महाराजा ने कार्तिक-कल्याण और फिरतूदास को कुछ समय के लिए अपने राज्य में ले जाने की अनुमति देने का जब अनुरोध किया, तब राजा चक्रधरसिंह ने जवाब दिया था- ‘कार्तिक-कल्याण मेरी आंखें हैं और फिरतू-बर्मन मेरी भुजा, जिन्हें मैं किसी भी कीमत पर एक क्षण के लिए भी अपने से अलग नहीं कर सकता।‘

रायगढ़ दरबार में आमंत्रित संगीतज्ञों में जयपुर घराने के पंडित जगन्नाथ प्रसाद पहले गुरू थे। उन्होंने तीन वर्ष तक यहां कत्थक की शिक्षा दी। इसके पश्चात 1930 में पं. जयलाल यहां आये और राजा चक्रधरसिंह के अंतिम समय तक रहे। कत्थक के प्रख्यात गुरू और लखनऊ घराने से सम्बद्ध पं. कालिकाप्रसाद के तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज जैसे चोटी के कलाकारों ने भी समय समय पर रायगढ़ दरबार को सुशोभित किया। बिंदादीन महाराज के शिष्य सीताराम महाराज भी यहां रहे। उस्ताद कादर बख्श, अहमद जान थिरकवा जैसे प्रसिद्ध तबला वादक यहां बरसों रहे। इनके अतिरिक्त मुनीर खां, जमान खां, कामत खां, सादिक हुसैन आदि ने भी तबले की शिक्षा दी। कत्थक में गायन के लिए हाजी मोहम्मद, अनाथ बोस, नन्हें बाबू, धन्नू मिश्रा और नासिर खां भी रायगढ़ दरबार में रहे।

दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत एवं नृत्य के क्षेत्र में इतनी ख्याति इसलिए मिली, क्योंकि यहां प्रतिवर्ष गणंश मेला उत्सव मनाया जाता था जिसमें चोटी के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित का बचपन भी रायगढ़ में ही बीता है।

मध्यप्रदेश शिखर सम्मान

सन् 1985 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रो. कल्याणदास महंत को ‘‘शिखर सम्मान‘‘ प्रदान किया गया। कला, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी से सींचे कलाकारों में से कल्याणदास को सम्मान प्राप्त हुआ। आगे चलकर श्री कार्तिकराम और श्री बर्मनलाल को भी मध्यप्रदेश शासन द्वारा शिखर सम्मान प्रदान किया गया। सम्मान मिलने के बाद सर्वप्रथम किरोड़ीमल शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रायगढ़ के वार्षिक स्नेह सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित कर सम्मानित किया गया। उनके शिष्य देश-विदेश में उसकी परंपरा को प्रचारित कर रहे हैं। लेकिन वे अपनी अंतिम सांस तक संगीत को समर्पित रहकर इंदिरा कला एवं संगीत विश्व विद्यालय खैरागढ़ में प्राध्यापक रहे। उन्होंने 19 अक्टूबर 1991 को अंतिम सांस लेकर संगीत परंपरा को अलविदा कहकर स्वर्गारोहण किया।



रविवार, 2 अक्तूबर 2022

छत्तीसगढ़ में दशहरा की अद्भूत परम्परा

 छत्तीसगढ़ में दशहरा की अद्भूत परम्परा

प्रो. अश्विनी केशरवानी     

दशहरा भारत का एक प्रमुख लोकप्रिय त्योहार है। इसे देश के कोने कोने में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार असत्य के उपर सत्य का और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। श्रीराम सत्य के प्रतीक हैं। रावण असत्य के प्रतीक हैं। विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और हमें शक्ति मां भवानी की पूजा-अर्चना से मिलती है। इसके लिए अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमीं तक मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं और दसमीं को दस सिर वाले रावण के उपर विजय प्राप्त करते हैं। कदाचित् इसी कारण दशहरा को ‘‘विजयादशमी‘‘ कहा जाता है। वास्तव में रावण अजेय योद्धा के साथ साथ प्रकांड विद्वान भी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से देवताओं, किन्नरों, किरातों और ब्रह्मांड के समस्त राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था। मगर वे अपनी इंद्रियों कों नहीं जीत सके तभी तो वे काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर कार्य करते थे। यही उन्हें असत्य के मार्ग में चलने को मजबूर करते थे। इसी के वशीभूत होकर उन्होंने माता सीता का हरण किया और श्रीराम के हाथों मारे गये। श्रीराम की विजय की खुशी में ही लोग इस दिन को ‘‘दशहरा‘‘ कहने लगे और प्रतिवर्ष रावण के प्रतिरूप को मारकर दशहरा मनाने लगे।

 

यहां यह बात विचारणीय है कि आज हम गांव गांव और शहर में इस दिन रावण की आदमकद प्रतिमा बनाकर जलाकर दशहरा मनाते हैं। इस दिन रावण की प्रतिमा को जलाकर घर लौटने पर मां अपने पति, बेटे और नाती-पोतों तथा रिश्तेदारों की आरती उतारकर दही और चांवल का तिलक लगाती है और मिष्ठान खाने के लिए पैसे देती है। कई घरों में नारियल देकर पान-सुपारी खिलाने का रिवाज है। इस दिन अपने मित्रों, बड़े बुजुर्गों, छोटे भाई-बहनों, माताओं आदि सबको ‘‘सोनपत्ति‘‘ देकर यथास्थिति आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग अपने मित्रों से गले मिलकर रावण मारने की बधाई देते हैं। कहीं कहीं दशहरा के पहले ‘रामलीला‘ का मंचन होता है और रामराज्य की कल्पना की जाती है। रायगढ़ में मथुरा की नाटक मंडली आकर रामलीला का मंचन करती थी। छत्तीसगढ़ में रामलीला के लिए अकलतरा और कोसा बहुत प्रसिद्ध था। इसी प्रकार रासलीला के लिए नरियरा और नाटक के लिए शिवरीनारायण बहुत प्रसिद्ध था। टी.बी. की चकाचैंध ने रामलीला, रासलीला और नाटकों के मंचन को प्रभावित ही नहीं किया बल्कि समाप्त ही कर दिया है। यह एक विचारणीय प्रश्न है।

दशहरा के पूर्व शक्ति की साधना की जाती है। विभिन्न स्थानों में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है। आज दुर्गा की झांकियों के लिए बिलासपुर का नाम कलकत्ता के बाद आने लगा है। नवरात्रि में पूरा बिलासपुर दुर्गामय हो जाता है। राजे-रजवाड़े के समय मां दुर्गा की प्रतिमा स्ािापित नहीं किये जाते थे बल्कि देवी मंदिरों में जंवारा बोया जाता था और विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि दी जाती थी। छत्तीसगढ़ के प्रायः सभी रियासतों और जमींदारी में कोई न कोई देवी प्रतिष्ठित हैं जो उनकी ‘कुलदेवी‘ हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि देवियों की पूजा से राजा जहां शक्ति संपन्न होता था वहीं रियाया की सुरक्षा के शक्ति संचय आवश्यक भी था। वे अपनी मान्यता के अनुसार देवी के नाम पर अपनी राजधानी का नामकरण किये हैं। चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, सारंगढ़ की सारंगढ़हीन देवी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी आदि।

छत्तीसगढ़ में प्रमुख रूप से महामाया और समलेश्वरी देवी प्रतिष्ठित हैं। वास्तव में ये दोनों देवी दो प्रमुख रियासत क्रमशः रत्नपुर और संबलपुर की कुलदेवी हैं। छत्तीसगढ़ की रियासतें और जमींदारी या तो रत्नपुर से जुड़ी थी या फिर संबलपुर रियासत से। यहां के सामंत मित्रतावश वहां की देवियों को अपनी राजधानी में स्थापित करके उन्हें अपनी कुलदेवी मान लिए। इसके अलावा यहां अनेक देवियां क्षेत्रीयता का बोध कराती हैं, जैसे- सरगुजा की सरगुजहीन दाई, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, अड़भार की अष्टभुजी देवी, कोरबा की सर्वमंगला देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, जशपुर की कालीमाई आदि। इन देवियों की प्राण प्रतिष्ठा कई रियासतों और जमींदारी के निर्माण की गाथा से जुड़ी हैं। यहां नवरात्रि में देवियों की विशेष पूजा-अर्चना और दशहरा मनाने की विशिष्ट परंपरा रही है जो आज काल कवलित होती जा रही है। कहीं कहीं इसके अवशेष अवश्य देखे जा सकते हैं।

सक्ती राज परिवार में आज भी होती है लकड़ी के तलवार की पूजा:-

  इतिहास के पन्नों को उलटने से पता चलता है कि सक्ती रियासत यहां के शासक के शौर्य के प्रदर्शन के फलस्वरूप निर्मित हुआ था। पूर्व में यह क्षेत्र संबलपुरराज के अंतर्गत था। यहां के शासक संबलपुर रियासत की सेना में महत्वपूर्ण ओहदेदार थे और अपनी शूर वीरता के लिए बहुत चर्चित थे। यह दो जुड़वा भाई हरि और गुजर की कहानी है जो लकड़ी के तलवार को अपना हथियार बनाये थे। उसी तलवार से शिकार भी करते थे। जब संबलपुर के राजा कल्याणसाय को पता चला कि उनकी विशाल सेना में दो अधिकारी ऐसे हैं जो लकड़ी की तलवार से लड़ते हैं। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ था। वे विचार करने लगे कि कहीं हमारी सेना का यह तौहीन तो नहीं है ? उन्होंने तत्काल आदेश दिया कि इस वर्ष विजयादशमी पर्व में मां समलेश्वरी में भैंस की बलि उन्हीं जुड़वा भाईयों की तलवार से दी जायेगी। शर्त यह होगी कि भैंस का सिर लकड़ी के तलवार के एक ही वार से कटना चाहिये अन्यथा दोनों भाईयों का सिर कलम कर दिया जायेगा...?

दशहरा के दिन संबलपुर में विशाल जन समुदाय के बीच राजा कल्याणसाय ने देखा कि हरि और गुजर ने अपने लकड़ी के तलवार से एक ही वार से भैंस की सिर काट डाला, अविश्वसनीय किंतु सत्य। विशाल जन समुदाय ने करतल ध्वनि से दोनों भाईयों का स्वागत किया। राजा उनके शौर्य से प्रसन्न होकर घोषणा की कि ‘तुम दोनों एक ऐसे क्षेत्र का विस्तार करो जो शक्ति का प्रतीक हो और जिसके तुम दोनों जमींदार होगे।‘ तब दोनों भाईयों ने एक ऐसा करतब दिखाया जो सबको पुनः आश्चर्य में डाल दिया। उन्होंने राजा बहादुर से निवेदन किया कि ‘हम दोनों सूर्योदय से सूर्यास्त तक पैदल जितनी भूमि नाप सकेंगे, हम उसी भूमि के अधिकारी होंगे।‘ उनकी बात  राजा ने मान ली। शर्त के मुताबिक हरि और गुजर दिन भर में 138 वर्ग मील का क्षेत्र पैदल चलकर तय किया और शौर्य के प्रतीक ‘‘सक्ती रियासत‘‘ की स्थापना की। उनके शौर्य गाथा में एक जनश्रुति और प्रचलित है जिसके अनुसार दोनों भाई एक बार निहत्थे एक आदमखोर शेर से लड़े थे। रियासत बनने के बाद सक्ती जमींदारी में प्रजा बड़ी सुखी थी। आगे चलकर यहां के जमींदार रूपनारायण सिंह को अंग्रेजों ने सन् 1892 में ‘‘राजा बहादुर‘‘ का सनद प्रदान किया। आज भी यहां दशहरा पर्व में देवी की पूजा-अर्चना और लकड़ी के तलवार की पूजा की जाती है।

सारंगढ़ में गढ़ भेदन की परंपरा:-

वर्तमान सारंगढ़ पूर्व में सारंगपुर कहलाता था। सारंग का शाब्दिक अर्थ है-बांस। अर्थात् यहां प्राचीन काल में बांसों का विशाल जंगल था। कहा तो यहां तक जाता है कि यहां के सैनिकों के हथियार भी बांस के हुआ करते थे। यहां के राजा के पूर्वज बालाघाट जिलान्तर्गत लांजी से पहले फूलझर आये। यहां के जमींदार उनके रिश्तेदार थे। बाद में श्री नरेन्द्रसाय को संबलपुर के राजा ने सैन्य सेवा के बदले सारंगढ़ परगना पुरस्कार में दिया था। आगे चलकर वे सारंगढ़ के जमींदार बने थे। यहां के राजा कल्याणसाय (सन् 1736 से 1777) हुये, जिन्हें मराठा शासक ने ‘‘राजा‘‘ की पदवी प्रदान की थी। यहां के राजा संग्रामसिंह (सन् 1830 से 1872) को अंग्रेजों ने ‘‘फ्यूडेटरी चीफ‘‘ बनाया था।

यहां के राजा की कुलदेवी ‘‘सम्लाई देवी‘‘ है, जो गिरि विलास पैलेस परिसर में आज भी प्रतिष्ठित है। प्राप्त जानकारी के अनुसार समलेश्वरी देवी की स्थापना सन् 1692 में की गयी थी। सारंगढ़ छत्तीसगढ़ का उड़ीसा प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है। यहां छत्तीसगढ़ी और उड़िया परंपरा आज भी देखने को मिलती है। यहां के प्रमुख त्योहारों में रथयात्रा और दशहरा है। रथयात्रा में जहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी सवारी पूरे नगर में बड़े


उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है वहीं दशहरा में गढ़ भेदन की परंपरा यहां के मुख्य आकर्षक हैं। शिवरीनारायण रोड में नगर से 4 कि.मी. की दूरी पर खेलभाठा में गढ़ भेदन किया जाता है। यहां चिकनी मिट्ठी का प्रतीकात्मक गढ़ (मिट्ठी का ऊंचा टीला) बनाया जाता है और उसके चारों ओर पानी भरा होता है। गढ़ के सामने राजा, उसके सामंत और अतिथियों के बैठने के लिए स्टेज बनाया जाता था, जिसके अवशेष यहां आज भी मौजूद है। विभिन्न ग्रामों से दशहरा मनाने आये ग्रामीण जन इस गढ़ भेदन में प्रतियोगी होते थे। वे इस मिट्ठी के गढ़ में चढ़ने का प्रयास करते और फिसल कर पानी में गिर जाते हैं। पानी में भीगकर पुनः गढ़ में चढ़ने के प्रयास में गढ़ में फिसलन हो जाता था। बहुत प्रयत्न के बाद ही कोई गढ़ के शिखर में पहुंच पाता था और विजय स्वरूप गढ़ की ध्वज को लाकर राजा को सौंपता था। करतल ध्वनि के बीच राजा उस विजयी प्रतियोगी को तिलक लगाकर नारियल और धोती देकर सम्मानित करते थे। फिर राजा की सवारी राजमहल में आकर दरबारेआम में बदल जाती थी जहां दशहरा मिलन होता था। ग्रामीणजन अपने राजा को इतने करीब से देखकर और उन्हें सोनपत्ती देकर, उनके चरण वंदन कर आल्हादित हो उठते थे। सहयोगी सामंत, जमींदार और गौटिया नजराना पेश कर अपने को धन्य मानते थे। अंत में मां समलेश्वरी देवी की पूजा अर्चना करके खुशी खुशी घर को लौटते थे। राजा नरेशचंद्र सिंह ने यहां के दशहरा उत्सव को अधिक आकर्षक बनाने के लिए मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्रियों को आमंत्रित किया करते थे जो गढ़ भेदन के समय स्टेज में राजा के बगल में बैठते थे। यहां के दशहरा उत्सव में भाग लेने वाले मुख्य मंत्रियों में डाॅ. कैलासनाथ काटजू, श्री भगवंतराव मंडलोई, श्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र, राजा गोविंदनारायण सिंह और पंडित श्यामाचरण शुक्ल प्रमुख थे। यहां भी बांस के हथियारों की पूजा की जाती है।

चंद्रपुर में नवमीं को दशहरा:-

उड़ीसा के संबलपुर रियासत के अंतर्गत चंद्रपुर एक छोटी जमींदारी थी। जब मध्यप्रदेश बना तब चंद्रपुर को बिलासपुर जिलान्तर्गत जांजगीर तहसील में सम्मिलित किया गया था जो महानदी और मांड नदी के तट पर स्थित है। यहां की अधिष्ठात्री चंद्रसेनी देवी हैं। इस मंदिर की स्थापना के बारे में एक किंवदंति प्रचलित है। जिसके अनुसार चंद्रसेनी देवी, सरगुजा की सरगुजहीन दाई और संबलपुर की समलेश्वरी देवी की छोटी बहन है। समलेश्वरी देवी रायगढ़ और सारंगढ़ में भी विराजमान हैं। एक बार किसी बात को लेकर चंद्रसेनी देवी नाराज होकर सरगुजा को छोड़कर निकल जाती हैं। सरगुजा की सीमा को पार करके उदयपुर (वर्तमान धरमजयगढ़) होते हुए रायगढ़ आ जाती है। यहां समलेश्वरी देवी उन्हें रोकने का बहुत प्रयास करती है लेकिन चंद्रसेनी देवी यहां भी नहीं रूकती और दक्षिण दिशा में आगे बढ़ जाती है। रास्ते में वह सोचने लगती है कि अगर सारंगढ़ में समलेश्वरी दीदी पुनः रोकेगी तो मैं क्या करूंगी..? इस प्रकार सोचते हुए वह महानदी के तट में पहुंच गई और वहां विश्राम करने लगी। सफर की थकान से उन्हें गहरी नींद आ गई। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी महानदी पार करते समय और अनजाने में राजा के पैर की ठोकर मिट्ठी से दबी चंद्रसेनी देवी की लग गई जिससे उनकी निद्रा खुल गई। उन्होंने राजा को स्वप्न में निर्देश दिया कि तुमने मेरा अपमान किया है अगर तुमने महानदी के तट पर एक मंदिर निर्माण कराकर मेरी स्थापना नहीं करायी तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायेगा..? तत्काल राजा ने मूर्ति को निकलवाकर महानदी के तट पर टीले के उपर एक मंदिर बनवाकर चंद्रसेनी देवी की स्थापना विधिवत करायी। आगे चलकर उनके नाम पर चंद्रपुर नगर बसा। आज चंद्रसेनी देवी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की अधिष्ठात्री देवी हैं। यहां प्रतिवर्ष बड़ी धूमधाम से नवरात्र पर्व में पूजा-अर्चना की जाती है। यहां ‘‘जेवरहा परिवार‘‘ को पूजा करने का अधिकार मिला है। अष्टमी के दिन यहां बलि देने की परंपरा है। यहां शुरू से ही भैंसा की बलि दी जाती है। और नवमी को विजय खुशी मनाते हुए विजयादशमीं (दशहरा) मनाया जाता है।

पूजा उत्सव सरगुजा रियासत का प्रमुख आकर्षण:-

सरगुजा रियासत में दशहरा उत्सव वास्तव में सरगुजहीन और महामाया देवी की पूजा-अर्चना का पर्व होता है। यहां दो देवियों-सरगुहीन (समलेश्वरी) और महामाया देवी की पूजा एक साथ होती है। इस प्रकार दो देवियों की पूजा एक साथ कहीं देखने को नहीं मिलता। शक्ति संचय का यह नवरात्र पर्व बड़ी श्रद्धा से यहां मनाया जाता है। अश्विन शुक्ल परवा के दिन महामाया देवी के मंदिर में कलश स्थापना का कार्य पूरा होता है। इसे ‘‘पहली पूजा‘‘ कहा जाता है। इसी दिन से सरगुजा रियासत के अंतर्गत आने वाले राजा, जमींदार, गौंटिया, किसान और ग्रामीण जन यहां इकठ्ठा होने लगते हैं। अष्टमी के दिन राजा की सवारी का विशाल जुलूस ‘‘बलि पूजा‘‘ के लिए नगर भ्रमण के बाद महामाया मंदिर पहुंचती थी। महामाया देवी को प्राचीन काल में नरबलि देने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। बाद में उसे बंद कर दिया गया और पशु बलि दी जाने लगी। इस दिन को ‘‘महामार‘‘ कहा जाता था। फिर दशहरा को राजा की सवारी पुनः देवी दर्शन कर नगर भ्रमण करती हुई राजमहल परिसर में पहुंचकर ‘‘मिलन समारोह‘‘ में परिवर्तित हो जाता था। उस समय राज परिवार के सभी सदस्य, अन्य सामंत, जमींदार, ओहदेदार विराजमान होते थे। ग्रामीणजन सोनपत्ती देकर उन्हें बधाई देते थे। उस दिन सरगुजा के लिए अविस्मरणीय होता था जिसका स्मरण कर आज भी वहां के लोग रोमांचित हो उठते हैं। सरगुजा में देवी पूजा का वर्णन सुप्रसिद्ध कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में की है:-

लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।


रत्नपुर जहां नरबलि दी जाती थी:-

रत्नपुर कलपुरी राजाओं की वैभवशाली राजधानी थी। यह नगर महामाया देवी की उपस्थिति के कारण ‘‘शक्तिपीठ‘‘ कहलाता है। रत्नपुर का राजधानी के रूप में निर्माण महामाया देवी के आदेश-आशीष का ही प्रतिफल है। तत्कालीन साहित्य में उपलब्ध जानकारी के अनुसार रत्नपुर में महामाया देवी की मूर्ति को मराठा सैनिकों ने बंगाल अभियान से लौटते समय सरगुजा से लाकर प्रतिष्ठित किया था। राजा की सरगुजा में महामाया देवी की पूर्ति बहुत अच्छी लगी और वे उन्हें अपने साथ नागपुर ले जाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे उस मूर्ति को वहां से उठाना चाहे लेकिन मूर्ति टस से मस नहीं हुई। हारकर राजा देवी के सिर को ही काटकर अपने साथ ले आये लेकिन उसे रत्नपुर से आगे नहीं ले जा सके और रत्नपुर में ही स्थापित कर दिये। सरगुजा में आज भी सिरकटी महामाया देवी की मूर्ति है जिसमें प्रतिवर्ष मोम (अथवा मिट्टी) का सिर बनाया जाता है। रत्नपुर में नवरात्र बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहां आज भी हजारों मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। एक अन्य किंवदंति में राजा रत्नदेव शिकार करते रास्ता भटककर यहां के जंगल में आ गये और एक पेड़ की टहनी में रात गुजारी। रात्रि में उन्हें पेड़ के नीचे महामाया देवी का दरबार देखने को मिला। बाद में उन्हें स्वप्नादेश हुआ कि यहां अपनी राजधानी बनाओ। तब राजा रत्नदेव से यहां अपनी राजधानी बसायी और रत्नपुर नाम दिया। प्राचीन काल में यहां नरबलि देने की प्रथा थी जिसे राजा बहरसाय ने बंद करा दिया। लेकिन पशुबलि आज भी दी जाती है।

बस्तर में दंतेश्वरी देवी की शोभायात्रा:-

  बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहां दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकलती है। दशहरा आमतौर पर अयोध्यापति राजा राम की रावण के उपर विजय का पर्व के रूप में मनाया जाता है लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं होता। वास्तव में बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा यहां के राजवंश की गौरवगाथा का जीवन्त दस्तावेज है। ऐतिहासिक दस्तावेज से पता चलता है कि यहां का दशहरा राजधानी का आयोजन रहा है। इस राज्योत्सव का उल्लेख प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव (1313 ई.) से ही मिलता है। राजा अन्नमदेव अपनी विजययात्रा के दौरान चक्रकोट (बस्तर का प्राचीन नाम) की नलवंशीय राजकुमारी चमेली बाबी पर मुग्ध हो गये। उन्होंने राजकुमारी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे राजकुमारी ने अस्वीकार कर दिया, यही नहीं बल्कि राजा अन्नमदेव के विरूद्ध सैन्य संचालन करतेी हुई वीरगति को प्राप्त हुई। इस घटना का राजा के उपर गहरा प्रभाव पड़ा...और उन्होंने चमेली बाबी की स्मृति में नारंगी नदी के जल में पुष्प प्रवाहित करने की परंपरा शुरू की। कालान्तर में यह दशहरा की एक अनिवार्य परंपरा बन गयी। आज भी इसका निर्वहन किया जाता है। राजाओं के साथ जहां उनकी राजधानियां बदलीं वही दशहरा उत्सव के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया। 


बस्तर की अराध्य दंतेश्वरी माई आज अवश्य है लेकिन वास्तव में वह राजा की ईष्ट देवी के रूप में पूजित होती रहीं हैं। नवरात्र में बस्तर के राजा दंतेश्वरी माई के मंदिर में पुजारी के रूप में नौ दिन रहकर शक्ति साधना किया करते थे। जो देवी राजा की ईष्ट हो वह बस्तरांचल में पूजित न हो ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज दंतेश्वरी माई का बस्तरांचल में विशेष स्थान है। बस्तर की ग्राम देवियों में मावली देवी, हिंगलाजिन, परदेसिन, तेलिन, करनकोटिन, बंजारिन, डोंगरी माता और पाट देवी प्रमुख हैं।

बस्तर जिला मुख्यालय जगदलपुर नगर की परिक्रमा करने वाला विशाल रथ का परिचालन बस्तर दशहरा का प्रमुख आकर्षण होता है। प्राचीन काल में यह रथ 12 पहियों का हुआ करता था लेकिन आगे चलकर इसके परिचालन में असुविधा होने लगी जिससे राजा वीरनारायण के शासनकाल (1538-1553 ई.) में इसे आठ तथा चार पहिये वाले दो रथ में निकाला जाने लगा। दशहरा उत्सव में रथयात्रा की शुरूवात राजा पुरूषोत्तमदेव के शासनकाल (1407-39 ई.) में हुई। उन्होंने लोट मारते हुए जगन्नाथ पुरी की यात्रा पूरी की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ के आदेशानुसार वहां के पुजारी ने राजा को एक रथचक्र प्रदान कर उसे रथपति की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने अपने राज्य में रथयात्रा का आयोजन इसी रथचक्र प्राप्ति के बाद शुरू की थी। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा की तर्ज में उन्होंने बस्तर में गोंचा परब और नवरात्र के बाद दशहरा की उत्सव शुरू की। दशहरा की शुरूवात अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से हो जाती है। इस दिन ब्राह्मणों को बुलाकर देवी देवताओं की पूजा कराये जाते हैं। यह सप्तशती पाठ, बगलामुखी पाठ, हनुमान चालीसा पाठ, विष्णु पाठ के रूप में पूरे नवरात्र में चलता है। सीरसार चैंक में जोगी बिठाई की रस्म होती है। हलबा जाति का आमाबाल गांव का एक व्यक्ति जोगी के रूप में बैठता है। लगभग दस दिनों तक यह व्यक्ति फलाहार करके उत्सव की निर्विघ्न समाप्ति के लिए कामना करता रहता है। नवमीं को जोगी उठाई होती है। जोगी बिठाई के दूसरे दिन से फूलरथ परिक्रमा प्रारंभ करता है। फूलों से अलंकृत होने के कारण यह फूलरथ कहलाता है। भतरा जाति के लोग इस रथ को चुराकर कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। यहीं राजा नवाखाई की शुरूवात करता है। 1898 ई. में इस प्रथा को बंद कर दिया गया। 

फूल रथ में राजा बैठकर राजा मावलीगुड़ी से जगन्नाथ गुड़ी तक जाता था। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से षष्ठी तक राजा कभी नीला पीताम्बर और गले में दुपट्टा डालकर और कभी पूरे शरीर में चंदन लगाकर और हाथ, गला तथा सिर में फूलों की माला डालता था लेकिन इस दौरान वे आभूषण धारण नहीं करते थे। राजा सरस्वती पूजा करते थे। प्रातःकाल राजा ब्राह्मणों के पास देवपाठ सुनने के लिये बैठते थे। फिर मावली डोली अथवा दंतेश्वरी डोली रात्रि नौ बजे आती थी जिसे दंतेवाड़ा से लाया जाता था। माता की सवारी का स्वागत राजा स्वयं अपने कर्मचारियों और सेनाओं के साथ करते थे। इस अवसर पर प्रजा अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होते थे। जब तक दंतेश्वरी माई जगदलपुर में रहते थे, राजा स्वयं उनकी पूजा-अर्चना करते थे। प्रतिदिन बकरा, भैंसा, मुर्गा आदि की बलि दी जाती थी। इस अवसर पर राजा अपनी तलवार की भी पूजा किया करता था। अंतिम क्रिया के रूप में दशहरा पर्व सम्पन्न होता था जिसमें दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकाली जाती थी। समूचे बस्तर के ग्रामीण, जमीदार और अन्य ओहदेदार शामिल होते थे। सभी दंतेश्वरी माई की रथ को खींचकर पुण्य के भागीदार बनने को लालायित रहते थे। महिलाएं सुंदर वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर अपने अपने घरों की छतों से इस दृश्य को देखकर आनंदित होती थीं। अन्यान्य महिलाएं इस शोभायात्रा में शामिल भी होती थीं।

काछन गादी, बस्तर दशहरा की एक प्रमुख रस्म है। यह दशहरा का एक प्रारंभिक विधान है। इसके द्वारा युद्ध की देवी काछन माता को तांत्रिक अनुष्ठान के द्वारा जगाया जाता है। कांटों की सेज पर एक महार कन्या को बिठाया जाता है। यहीं पर से वह कन्या दशहरा उत्सव मनाने की घोषणा करती है। पथरागुड़ा के पास जेल परिसर से लगा काछन देवी की गुड़ी है। यहीं पर यह उत्सव होता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार लाला जगदलपुरी के अनुसार हरिजनों की देवी काछन देवी को बस्तर के राजाओं द्वारा सम्मान देना इस बात की पुष्टि करता है कि वे इस राज्य में अपृश्य नहीं थे। इसी प्रकार आपसी सहयोग से विशाल रथ का निर्माण, उसके लिए लकड़ी काटकर संवरा जाति के लोग जंगलों से लाकर करते हैं। इससे उनकी राजा और इस उत्सव के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है। दशहरा का प्रमुख आकर्षण मुरिया दरबार होता था। कदाचित मुरिया जाति की दरबार में ऊंचा स्थान था। दरबार का मुखिया राजा होता था। इस दरबार में राजा अनेक विषयों पर चर्चा करके आदेश जारी करता था और मुरिया इस आदेश को लेकर साल भर के लिए दंतेश्वरी माई से वर्ष भर राज्य में खुशहाली के लिए प्रार्थना कर नई उमंग, नई जागृति और आत्म विश्वास लिए आदिवासी जन अपने गांवों को लौटते हैं।

शिवरीनारायण में गादी पूजा और विजियादशमी:-

छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक और धार्मिक तीर्थ शिवरीनारायण में दो प्रकार का दशहरा मनाया जाता है। नगर के उत्साही नवयुवकों के द्वारा मेला ग्राउंड में जहां रावण की मूर्ति की स्थापना कर श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान की शोभायात्रा निकालकर रावण का वध किया जाता है, वहीं मठ के महंत की बाजे-गाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा में तलवारबाजी और आतिशबाजी की धूम होती है जो जनकपुर जाकर सोनपत्ती के पेड़ की पूजा-अर्चना करके मठ लौट आती है और मठ के बाहर स्थित गादी चैरा में महंत के द्वारा हवन-पूजन की जाती है। इस अवसर पर मठ के साधु संत और नगर के गणमान्य नागरिक उपस्थित होते हैं। हवन पूजन के उपरांत महंत गादी चैरा में विराजमान होते हैं। उस समय सभी उन्हें यथा शक्ति भेंट देते हैं। ऐसी किंवदंति है कि यह प्राचीन काल में दक्षिणापथ और जगन्नाथ पुरी जाने का मार्ग था। लोग इसी मार्ग से जगन्नाथ पुरी और दक्षिण दिशा में तीर्थ यात्रा करने जाते थे। उस समय यहां नाथ संप्रदाय के तांत्रिक रहते थे और यात्रियों को लूटा करते थे। एक बार आदि गुरू दयाराम दास तीर्थाटन के लिए ग्वालियर से रत्नपुर आए। उनकी विद्वता से रत्नपुर के राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरू बनाकर अपने राज्य में रहने के लिए निवेदन किया। रत्नपुर के राजा  शिवरीनारायण में तांत्रिकों के प्रभाव और लूटमार से परिचित थे। उन्होंने स्वामी दयाराम दास से तांत्रिकों से मुक्ति दिलाने का अनुरोध किया। आदि स्वामी दयाराम दास जी शिवरीनारायण गये। वहां उन्हें भी तांत्रिकों ने लूटने का प्रयास किया मगर वे सफल नहीं हुए, उनकी तांत्रिक सिद्धि स्वामी जी के उपर काम नहीं की। तांत्रिकों ने स्वामी दयाराम दास को शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और फिर दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ जिसमें तांत्रिकों की पराजय हुई और जमीन के भीतर एक चूहे के बिल में प्रवेश कर अपनी जान की भीख मांगने लगे। स्वामी जी ने उन्हें जमीन के भीतर ही रहने की आज्ञा दी और उनकी तांत्रिक प्रभाव की शांति के लिए प्रतिवर्ष माघ शुक्ल त्रयोदस और विजयादशमी (दशहरा) को पूजन और हवन करने का विधान बनाया। आज भी शिवरीनारायण में शबरीनारायण मंदिर परिसर में दक्षिण द्वार के पास स्थित एक गुफानुमा मंदिर में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरू कनफड़ा और नगफड़ा बाबा की पगड़ी धारी मूर्ति स्थित है। साथ ही बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा भी है। शिवरीनारायण में 9वीं शताब्दी में निर्मित और नाथ सम्प्रदाय के कब्जे में बरसों से रहे मठ में वैष्णव परंपरा की नींव डाली। शिवरीनारायण के इस मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और 15 वें महंत राजेश्री रामसुंदरदास जी वर्तमान में हैं। इस मठ के महंत रामानंदी सम्प्रदाय के हैं। जिस स्थान में दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था वहां पर एक चबुतरा और छतरी बना है। बरसों से प्रचलित इस पूजन परंपरा को ‘‘गादी पूजा‘‘ कहा गया। क्योंकि पूजन और हवन के बाद महंत उसके उपर विराजमान होते हैं और नागरिक गणों द्वारा गादी पर विराजित होने पर महंत को श्री फल और भेंट देकर उनका सम्मान किया जाता है। इस परंपरा के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है मगर महंती सौंपते समय उन्हें मठ की परंपराओं के बारे में जो गुरू मंत्र दिया जाता है उनमें यह भी शामिल होता है। इस मठ में जितने भी महंत हुए सबने इस परंपरा का बखूबी निर्वाह किया है। आज भी यह परंपरा निभायी जाती है।




बुधवार, 28 सितंबर 2022

छायावाद और पंडित मुकुटधर पांडेय

 छायावाद और पंडित मुकुटधर पांडेय 

प्रो. अश्विनी केशरवानी

महानदी के तट पर रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग के चंद्रपुर से 7 कि.मी. की दूरी पर जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत बालपुर ग्राम स्थित है। यह ग्राम पूर्व चंद्रपुर जमींदारी के अंतर्गत पंडित शालिगराम, पंडित चिंतामणि और पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय की मालगुजारी में खूब पनपा। पांडेय कुल का घर महानदी के तट पर धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से युक्त था। यहां का एक मात्र निजी पाठशाला पांडेय कुल की देन थी। इस पाठशाला में पांडेय कुल के बच्चों के अतिरिक्त साहित्यकार पंडित अनंतराम पांडेय ने भी शिक्षा ग्रहण की। धार्मिक ग्रंथों के पठन पाठन और महानदी के प्रकृतिजन्य तट पर इनके साहित्यिक मन को केवल जगाया ही नहीं बल्कि साहित्याकाश की ऊँचाईयों तक पहुंचाया...और आठ भाईयों और चार बहनों का भरापूरा परिवार साहित्य को समर्पित हो गया। पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद, पंडित लोचनप्रसाद, बंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर सभी उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। साहित्य की सभी विधाओं में इन्होंने रचना की। पंडित लोचनप्रसाद जहां इतिहास, पुरातत्व और साहित्य के ज्ञाता थे वहां पंडित मुकुटधर जी पांडेय साहित्य जगत के मुकुट थे। छायावाद के वे प्रवर्तक माने गये हैं। वे छत्तीसगढ़ के प्रथम साहित्यकार हैं जिन्हें भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्मश्री‘‘ अलंकरण प्रदान किया गया है। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रांत के गौरव हैं। धीरे धीरे पांडेय कुल का घर महानदी में समाता गया और उनका परिवार रायगढ़ में बसता गया। इस प्रकार रायगढ़ नगर साहित्य कुल से जगमगाने लगा।

सन् 1982 में जब मेरी नियुक्ति रायगढ़ के किरोड़ीमल शासकीय कला और विज्ञान महाविद्यालय में हुई थी तब रायगढ़ जाने की इच्छा नहीं हुई थी। लेकिन ‘‘नौकरी करनी है तो कहीं भी जाना है‘‘ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मैंने रायगढ़ ज्वाइन कर लिया। कुछ दिन तो भागमभाग में गुजर गये। जब मन स्थिर हुआ और सपरिवार रायगढ़ में रहने लगा तब मेरा साहित्यिक मन जागृत हआ। दैनिक समाचार पत्रों में मेरी रचनाएं नियमित रूप से छपने लगी। नये नये विषयों पर लिखने की मेरी लाालसा ने मुझे रायगढ़ की साहित्यिक और संगीत परंपरा की पृष्ठभूमि को जानने समझने के लिए प्रेरित किया। यहां के राजा चक्रधरसिंह संगीत और साहित्य को समर्पित थे। उनके दरबार में साहित्यिक पुरूषों का आगमन होते रहता था। पंडित अनंतराम पांडेय और पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय उनके दरबार के जगमगाते नक्षत्र थे।  डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र जैसे साहित्यकार उनके दीवान और पंडित मुकुटधर पांडेय जैसे साहित्यकार दंडाधिकारी थे। ऐसे साहित्यिक पृष्ठभूमि में मेरी लेखनी फली फूली। हमारे स्टाॅफ के प्रो. अम्बिका वर्मा,  डाॅ. जी. सी. अग्रवाल, डाॅ. बिहारीलाल साहू, पं्रो. मेदिनीप्रसाद नायक, कु. शिखा नंदे, प्रो. दिनेशकुमार पांडेय डाॅ. मिनकेतन प्रधान से मेरा न केवल सामान्य परिचय हुआ बल्कि मैं उनके स्नेह का भागीदार बना। प्रो. दिनेशकुमार पांडेय साहित्यिक पितृ पुरूष पं. मुकुटधर पांडेय के चिरंजीव हैं। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया....और मेरी लेखनी सतत् चलने लगी।

मेरे लिए एक सुखद संयोग बना और एक दिन मुझे श्रद्धेय मुकुटधर जी के चरण वंदन करने का सौभाग्य मिला। मेरे मन में इस साहित्यिक पितृ पुरूष से इस तरह से कभी भेंट होगी, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। उन्हें जानकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि मैं शिवरीनारायण का रहने वाला हूँ। थोड़े समय के लिए वे कहीं खो गये। फिर कहने लगे-‘शिवरीनारायण तो एक साहित्यिक तीर्थ है, मैं वहां की भूमि को सादर प्रणाम करता हंू जहां पंडित मालिकराम भोगहा और पंडित शुकलाल पांडेय जैसे प्रभृति साहित्यिक पुरूषों ने जन्म लिया और जो ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित हीराराम त्रिपाठी, नरसिंहदास वैष्णव और बटुकसिंह चैहान जैसे साहित्यिक महापुरूषों की कार्य स्थली है। मेरे पुज्याग्रज पंडित पुरूषोŸाम प्रसाद और पंडित लोचनप्रसाद नाव से अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। उस समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी ठाकुर जगमोहनसिंह वहां के तहसीलदार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सुषमा से प्रेरित होकर अनेक ग्रंथों की रचना ही नहीं की बल्कि यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की नई दिशा प्रदान की। उन्होंने काशी के ‘‘भारतेन्दु मंडल‘‘ की तर्ज पर शिवरीनारायण में ‘‘जगमोहन मंडल‘‘ की स्थापना की थी। उस काल के साहित्यकारों में पंडित अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, पं. हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, बटुकसिंह चैहान, आदि प्रमुख थे। मेरे अग्रज पंडित लोचनप्रसाद भी शिवरीनारायण जाने लगे थे और उन्होंने मालिकराम भोगहा जी की अलंकारिक शैली को अपनाया भी था। मैं भी उनके साथ शिवरीनारानायण गया तो भगवान जगन्नाथ के नारायणी रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वहां के साहित्यिक परिवेश ने मुझे भी प्रेरित किया..।‘

बालपुर और शिवरीनारायण सहोदर की भांति महानदी के तट पर साहित्यिक तीर्थ कहलाने का गौरव हासिल किया है। यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में जन्म लेकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। महानदी का संस्कार मुझे भी मिला। जब मैं लेखन की ओर उद्यत हुआ तब मुझे महानदी का कलकल निनाद प्रफुल्लित कर देता था। महानदी का सुन्दर वर्णन पांडेय जी के शब्दों में:-

कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।

कल कलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप।।

इसके बाद श्रद्धेय पांडेय जी से मैं जितने बार भी मिला, मेरा मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उन्होंने भी मुझे बड़ी आत्मीयता से सामीप्य प्रदान किया। संभव है मुझमें उन्हें शिवरीनारयण के साहित्यिक पुरूषों की झलक दिखाई दी हो ? रायगढ़ में ऐसे कई अवसर आये जब मुझे उनका स्नेह भरा सानिघ्य मिला। 01 और 02 मार्च 1986 को पंडित मुकुटधर जी पांडेय के सम्मान में रायगढ़ में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा छायावाद पुनर्मूल्यांकन गोष्ठी में डाॅ. विनयमोहन शर्मा, डाॅ. शिवमंगलसिंह सुमन, श्री शरदचंद्र बेहार आदि अन्यान्य साहित्यकारों का मुझे सानिघ्य लाभ मिला। इस अवसर पर विश्वविद्यालय द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी को डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक प्रकार से साहित्यिक उत्सव था।

पांडेय जी के सुपुत्र प्रो. दिनेशप्रसाद पांडेय के परिवार का मैं एक सदस्य हो गया। उनके घर अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों के पत्र पं. मुकुटधर पांडेय के नाम देखने को मिला जिसमें साहित्य के अनेक बिंदुओं पर चर्चा की गई थी। डाॅ. बल्देवसाव, डाॅ. बिहारीलाल, ठाकुर जीवनसिंह, प्रो. जी.सी. अग्रवाल आदि के पास श्रद्धेय पांडेय जी की रचनाओं को पढ़ने का सुअवसर मिला। पांडेय जी की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह ‘‘विश्वबोध‘‘ और ‘‘छायावाद एवं श्रेष्ठ निबंध‘‘ का संपादन डाॅ. बल्देव साव ने किया है और    श्री शारदा साहित्य सदन रायगढ़ ने इसे प्रकाशित किया है। इसी प्रकार उनकी कालिदास कृत मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद छत्तीसगढ़ लेखक संघ रायगढ़ द्वारा प्रकाशित की गई है। पांडेय जी की ‘‘छायावाद एवं अन्य निबंध‘‘ शीर्षक से म. प्र. हिन्दी साहित्य समेलन भोपाल द्वारा श्री सतीश चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित कर स्तुत्य कार्य किया है। इसी कड़ी में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी के जन्म शताब्दी वर्ष 1995 के अवसर पर प्रभृति साहित्यकारों की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कर एक अच्छी परम्परा की शुरूवात की है।

मुझे हाई स्कूल में मधुसंचय में पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविता ‘‘विश्वबोध‘‘ पढ़ने को मिली थी। इस कविता में ईश्वर का दर्शन और शास्त्रों के अध्ययन का बहुत अच्छा चित्रण मिलता है:-

खोज में हुआ वृथा हैरान।

यहां भी था तू हे भगवान।।

गीता ने गुरू ज्ञान बखाना।

वेद पुराण जनम भर छाना।।

दर्शन पढ़े, हुआ दीवाना।

मिटा  न  पर  अज्ञान ।।

जोगी बन सिर जटा बढ़ाया।

द्वार द्वार जा अलख जगाया।।

जंगल में बहु काल बिताया।

हुआ  न  तो  भी  ज्ञान ।।

ईश्वर को कहां नहीं ढूंढ़ा, मिला तो वे कृषकों और श्रमिकों के श्रम में, दीन दुखियों के श्रम में, परोपकारियों के सात्विक जीवन में और सच्चे हृदय की आराधना में..। कवि की एक बानगी पेश है:-

दीन-हीन के अश्रु नीर में।

पतितो की परिताप पीर में।।

संध्या की चंचल समीर में।

करता था तू गान।।

सरल स्वभाव कृषक के हल में।

पतिव्रता रमणी के बल में।।

श्रम सीकर से सिंचित धन में।

विषय मुक्त हरिजन के मन में।।

कवि के सत्य पवित्र वचन में।

तेरा मिला प्रणाम ।।

ईश्वर दर्शन पाकर कवि का मन प्रफुल्लित हो उठता है। तब उनके मुख से अनायास निकल पड़ता हैः-

देखा मैंने यही मुक्ति थी।

यही भोग था, यही भुक्ति थी।।

घर में ही सब योग युक्ति थी।

घर  ही  था  निर्वाण ।।

शिवरीनारायण की पावन धरा पर जन्म लेकर मेरा जीवन धन्य हो गया। मेरा यह भी सौभाग्य है कि मैं स्व. गोविंदसाव जैसे साहित्यकार का छोटा पौध हूँ। महानदी का स्नेह संस्कार, महेश्वर महादेव की कुलछाया और भगवान नारायण की प्रेरणा से ही मेरी लेखनी आज तक प्रवाहित है। मुझे ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और पं. शुकलाल पांडेय का साहित्य अगर पढ़ने को नहीं मिला होता तो शायद मैं लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता। पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में मेरे पितृ पुरूष गोविंदसाव का उल्लेख किया है:-

नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।

बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन ।

हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति भोरा रघुवर।

विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।

विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट छवि।

हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।

इसी प्रकार उन्होंने पंडित मुकुटधर पांडेय जी के बारे में भी छत्तीसगढ़ गौरव में उल्लेख किया है -

जगन्नाथ है भानु चंद्र बल्देव यशोधर।

प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।

पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक। 

परमकृति शिवदास आशुकवि बुध उर शासक।

ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर।

श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता वर।।

आज जब मैं पंडित मुकुटधर जी पांडेय के बारे में लिखने बैठा हूँ तो अनेक विचार-संस्मरण मेरे मन मस्तिष्क में उभर रहे हैं।...फिर वह दिन भी आया जब जीवन के शाश्वत सत्य के सामने सबको हार माननी पड़ती है। 06 नवंबर 1989 को प्रातः 6.20 बजे 95 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया। यह मानते हुये भी कि जीवन नश्वर है, मन अतीव वेदना से भर उठा। विगत अनेक वर्षो से रूग्णता और वृद्धावस्था ने उनकी अविराम लेखनी को यद्यपि विराम दे दिया था। फिर भी उनकी सकाय उपस्थिति से साहित्य जगत अपनी सार्थकता देखता था। एक काया के नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु साहित्य मनीषी पंडित मुकुटधर पांडेय किसी भी मायने में एक सामान्य व्यक्ति नहीं थे। पुराना दरख्त किसी को कुछ नहीं देता परन्तु उनकी उपस्थिति मात्र का एहसास मन को सांत्वना का बोध अवश्य करा देता है। साहित्य जगत में श्रद्धेय पांडेय जी की मौजूदगी प्रेरणा का अलख जगाने जैसी निःशब्द सेवा का विधान किया था। कोई भी यहां अमरत्व का वरदान लेकर नहीं आया है लेकिन केवल देह त्याग ही अमरत्व का अवसान नहीं होता। श्रद्धेय पांडेय जी के महाप्रयाण के संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं होता। शोकातुर करती है तो यह बात कि हिन्दी काव्य में इस मायने मंे समस्त भारतीय भाषाओं के काव्य में छायावाद की ओजस्वी धारा को सर्जक जनक के नाते पांडेय जी के चिर मौन होने के साथ ही हमारे बीच से छायावाद का अंतिम प्रकाश सदैव के लिए बुझ गया। उन्हीं के शब्दों में:-

जीवन की संध्या में अब तो है केवल इतना मन काम

अपनी ममतामयी गोद में, दे मुझको अंतिम विश्राम

चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर

प्राण प्रतीक्षारत् लूटेंगे, मृत्यु पर्व को सुख भरपूर।

मैं सोचने लगा -

जिसे हो गया आत्म तत्व का ज्ञान

जीवन मरण उसे है एक समान।

पांडेय जी ने तो एक एक को जीया है, भोगा है। देखिये उनकी कुछ मुक्तक:-

जीवन के पल पल का रखे ख्याल,

कोई पल कर सकता हमें निहाल।

चलने वाली सांसे है अनमोल,

काश समझ सकते हम इनके बोल।

माना नश्वर है सारा संसार,

पर अविनश्वर का ही यह विस्तार।

इसी प्रकार उनसे पूर्व छायावाद की अप्रतिम कवियत्री महादेवी वर्मा हमसे छिन जाने वाली इस कड़ी की अंतिम से पहले की कड़ी थी। पहले होने का गौरव तो केवल पांडेय जी का ही था। लेकिन वही अंतिम कड़ी होंगे किसने सोचा और जाना था ? निश्चय ही पांडेय जी ने भी कभी इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। छत्तीसगढ़ की माटी से उन्हें अगाध प्रेम था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नदी-पहाड़, पशु-पक्षी सबसे लगाव था। देखिये छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी की एक बानगी:-

कितना सुंदर और मनोहर महानदी यह तेरा रूप

कलकल मय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप

तुझे देखकर शैशव की है स्मृतियां उर में उठती जाग

लेता है कैशोर काल का, अंगड़ाई अल्हड़ अनुराग

सिकता मय आंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद

मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीडा कौतुक विविध विनोद।

इसीलिए अपना ऋण उन्होंने काव्य साधना की दिव्य विधा का संस्थापक बनकर उतारा था। इस धरती ने उन्हें जो कुछ भी दिया उसे उन्होंने साहित्य जगत को लौटाया है। प्रणय की यही संवेदना उनकी कविता का सम्पुट वरदान बनी थी, जिसने भी उसे पढ़ा-सुना उसने दिल से सराहा और स्वीकार किया।

‘‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः‘‘ कवि का स्थान बहुत ऊँचा है, ऐसा स्वीकारने वाले इस साहित्य वाचस्पति का कहना है-‘‘ कविता तो हृदय का सहज उद्गार है। वाद तो बदलते रहते हैं पर कविता में एक हृदयवाद होता है जो कभी नहीं बदलता।‘‘ मानव मन में जो भावानुभूति होती है, वही सार्वजनीन है, सर्वकालिक है। ऐसे मानने वाले इस साहित्यानुरागी का जन्म नवगठित जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर चंद्रपुर से मात्र 07 कि.मी. दूर बालपुर में 30 सितंबर 1895 ईसवीं को पंडित चिंतामणी पांडेय के आठवें पुत्र के रूप में हुआ। अन्य भाईयों में क्रमशः पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोेेेेचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे। अतः माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा...?

पांडेय जी की पहनी कविता ‘‘प्रार्थना पंचक‘‘ 14 वर्ष की आयु में स्वदेश बांधव नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। फिर ढेर सारी कविताओं का सृजन हुआ। यहीं से उनकी काव्य यात्रा निर्बाध गति से चलने लगी और उनकी कविताएं हितकारणी, इंदु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत और सरस्वती जैसे श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई। सन् 1909 से 1915 तक की उनकी कविताएं ‘‘मुरली-मुकुटधर पांडेय‘‘ के नाम से प्रकाशित होती थी। उनकी पहली कविता संग्रह ‘‘पूजाफूल‘‘ सन् 1916 में इटावा के ब्रह्यप्रेस से प्रकाशित हुई। तत्कालीन साहित्य मनीषियों-आचार्य महाबीर प्रसादद्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी की प्रशंसा से उन्हें संबल मिला और उनकी काव्यधारा बहने लगी। इसी वर्ष पांडेय जी प्रयाग विश्वविद्यालय की प्रवेशिका में उŸाीर्ण होकर इलाहाबाद चले गये। कवि का किशोर मन बाल्यकाल के छूट जाने से अधीर हो उठता है:-

बाल्यकाल तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है,

मेरे इस सुखमय जीवन को दुखमय से भर देता है।

तीन माह के अल्प प्रवास के बाद पांडेय जी अस्वस्थ होकर बालपुर लौट आते हैं और यहीं स्वाध्याय से अंग्रेजी, बंगला और उड़िया भाषा पढ़ना और लिखना सीखा। गांव में रहकर उन्होंने सादगी भरा जीवन अपनाया

छोड़ जन संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम गेह, 

नहीं प्रसादों की कुछ चाह, कुटीरों से क्यों इतना नेह।

उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम सहज रूप में दर्शनीय है। ‘‘किंशुक कुसुम‘‘ में प्रकृति से उनके अंतरंग लगाव की पद्यबद्धता ने कविता में एक अनोखे भावलोक की सर्जना की है। किंशुक कुसुम से उनकी बातचीत ने प्रकृति का जैसे मानवीकरण ही कर दिया। पांडेय जी महानदी से सीधे बात करते लगते हैं:-

शीतल स्वच्छ नीर ले सुंदर बता कहां से आती है, 

इस जल में महानदी तू कहां घूमने जाती है।

‘‘कुररी के प्रति‘‘ में एक विदेशी पक्षी से अपनत्व भाव जगाने उनसे वार्तालाप करने लगते हैं। देखिये उनकी एक कविता:-

अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप

ऐसी दारूण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप

शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप

बता तुझे कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप।

सामाजिक मूल्यों के उत्थान पतन को भी उन्होंने निकट से देखा और जाना है। ग्रामीण जीवन की झांकी उनकी कविताओं में दृष्टव्य है। उनके मुथ्तकों में दार्शनिकता का बोध होता है। त्योहारों को सामान्य लोगों के बीच आकर्षक बनाने का भी उन्होंने प्रयास किया है:-

कपट द्वेष का घट फोड़ेंगे, होली के संग आज

बड़े प्रेम से नित्य रहेंगे हिन्द हिन्द समाज

फूट को लूट भगावेंगे, ऐता का सुख पावेंगे..।

इस प्रकार मुकुटधर जी का समूचा लेखन जनभावना और काव्य धारा से जुड़ा है। छायावादी कवि होने के साथ साथ उन्होंने छायावादी काव्यधारा से जुड़कर अपनी लेखनी में नयापन लाने की साधना जारी रखी और सतत् लेखन के लिए संकल्पित रहे। यही कारण है कि मृत्युपर्यन्त वे चुके नहीं। उन्होंने सात दशक से भी अधिक समय तक मां सरस्वती की साधना की है। इस अंतराल में पांडेय जी ने जीवन की गति को काफी नजदीक से देखा और भोगा है। उनकी रचनाओं में पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छŸाीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है।

अनेक दृष्टांत हैं जो मुकुटधर जी को बेहतर साहित्यकार और कवि के साथ साथ मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं। उनका समग्र जीवन उपलब्धियों की बहुमूल्य धरोहर है जिससे नवागंतुक पीढ़ी नवोन्मेष प्राप्त करती रही है। उनकी प्रदीर्घ साधना ने उन्हें ‘‘पद्म श्री‘‘ से  ‘‘भवभूति अलंकरण‘‘ तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया है। सन् 1956-57 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ‘‘साहित्य वाचस्पति‘‘ से विभूषित किया गया। सन् 1974 में पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और सन् 1986 में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया है। 26 जनवरी सन् 1976 को भारत सरकार द्वारा ‘‘पद्म श्री‘‘ का अलंकरण प्रदान किया गया। सन् 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘‘भवभूति अलंकरण‘‘ प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अंचल के अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया गया है। वास्तव में ये पुरस्कार और सम्मान उनके साहित्य के प्रति अवदान को है, छŸाीसगढ़ की माटी को है जिन्होंने हमें मुकुटधर जी जैसे माटी पुत्र को जन्म दिया है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन....

काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य,

जीवन जिसका एक काव्य, वह धन्य।