शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

छत्तीसगढ़ में श्रीराम

छत्तीसगढ़ में श्रीराम 
प्रो अश्विनी केशरवानी    
  01 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आया और देश का 26 वां राज्य बना। 135194 वर्ग कि. मी. में फैला और लगभग दो करोड़ आबादी को 27 जिलों में समेटे छत्तीसगढ़ प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण, वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना तथा अपने गौरवपूर्ण अतीत को गर्भ में समाए हुआ है। प्राचीन काल में यह दंडकारण्य, महाकान्तार, महाकोसल और दक्षिण कोसल कहलाता था। दक्षिण जाने का मार्ग यहीं से गुजरता था इसलिए इसे दक्षिणापथ भी कहा गया और ऐसा वि”वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से गुजरकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गए। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। उस काल के अवश’ा यहां आज भी दृ’िटगोचर होता है। सरगुजा का रामगढ़, श्रीराम की “ाबरी से भेंट, उनके बेर खाने का प्रसंग का साक्षी “ाबरी-नारायण, खरदू’ाण की स्थल खरौद, कबंध राक्षस की “ारणस्थल कोरबा, बाल्मीकी आश्रम जहां लव और कुश का जन्म हुआ-तुरतुरिया, राजा द”ारथ के लिए पुत्रे’िठ यज्ञ कराने वाले श्रृंगि ऋ’िा के साथ अन्य सप्त ऋ’िायों का आश्रम सिहावा, मारीच खोल जहां मारीच के साथ मिलकर रावण ने सीताहरण का ‘ाडयंत्र रचा, आज ऋ’ाभतीर्थ के नाम से जाना जाता है। धमतरी जिलान्तर्गत चंद्रखुरी जहां माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर है। सुदूर चक्रकोट (बस्तर) और चित्रकोट का वनांचल श्रीराम और लक्ष्मण के दक्षिणपथ गमन के साक्षी हैं।

श्रीरामचंद्र को भगवान वि’णु का पूर्ण अवतार माना गया है। अवतार के प्रयोजन और उसके महत्व विशद विवेचन विभिन्न पुराणों में मिलता है लेकिन भगवद्गीता में इसका स्प’ट उल्लेख हुआ है। उसमें बताया गया है कि भगवान वि’णु के अवतारों में सृ’िट के विकास का रहस्य छिपा माना गया है। भगवान वि’णु के अवतारों की तीन श्रेणियां क्रम”ाः पूर्ण अवतार, आवे”ाावतार और अं”ाावतार है। श्रीराम और श्रीकृ’ण को पूर्णावतार और भगवान पर”ाुराम को आवे”ाावतार माना गया है। विभिन्न ग्रंथों में उनके 24 और 10 अवतारों का उल्लेख है जिसमें मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, पर”ाुराम, राम, कृ’ण, बुद्ध, और कल्कि प्रमुख हैं। भगवान वि’णु के अवतारों का सामूहिक या स्वतंत्र निरूपण कु’ााणकाल के पूर्व नहीं मिलता। इस काल में वराह, कृ’ण और बलराम की मूर्तियां बननी प्रारंभ हुई। गुप्तकाल में वै’णव धर्मावलंबी “ाासकों के संरक्षण में अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। गुप्तकाल के बाद 7 से 13 वीं “ाताब्दी के मध्य लगभग सभी क्षेत्रों में द”ाावतार फलकों तथा अवतार स्वरूपों की स्वतंत्र मूर्तियां बनीं। इसमें वराह, नृसिंह और वामन स्वरूपों की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां महाबलीपुरम्, एलोरा, बेलूर, सोमनाथपुर, ओसियां, भुवने”वर, खजुराहो तथा अन्य अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त राम, बलराम और कृ’ण की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में मिली हैंं। भगवान वि’णु के एक अवतार के रूप में द”ारथी राम की लोकमानस से जुड़े होने के कारण ब्राह्मण देवों में विशेष प्रति’ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में गुप्तकाल में लोकप्रिय हुई किंतु वि’णु के एक अवतार के रूप में इनकी कल्पना निःसंदेह प्राचीन है और ब्राह्मण देवों में इनकी विशेष प्रति’ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में बाद में लोकप्रिय हुई। प्रतिमा लक्षण ग्रंथों में आभूषणों और कीरिट मुकुट से सुशोभित द्विभुज श्रीराम के मनोहारी और युवराज के रूप में निरूपण मिलता है। द्विभुज राम के हाथों में धनुष और बाण प्रदर्षित होते हैं, जैसा कि शिवरीनारायण के श्रीराम जानकी मंदिर और खरौद के शबरी मंदिर में मिलता है। कहीं कहीं श्रीरामलक्ष्मणजानकी के साथ भरत और शत्रुघन की मूर्तियां श्रीराम पंचायत के रूप में मिलती है। श्रीराम पंचायत की मूर्तियां रायपुर के दूधाधारी मठ में स्थित हैं।

     श्रीराम की प्रारंभिक मूर्तियां देवगढ़ के दशावतार मंदिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें श्रीराम धनुष और बाण से युक्त हैं। देवगढ़ में श्रीराम कथा के कई दृश्यों का शिल्पांकन हुआ है। एलोरा के कैलास मंदिर और खजुराहो के मंदिरों से श्रीराम की मूर्तियां मिली हैं। खजुराहो के पाश्र्वनाथ मंदिर की भित्ति में सीताराम की एक नयनाभिराम मूर्ति उत्कीर्ण है और पास में हनुमान की मूर्ति भी है जिनके मस्तक पर श्रीराम का एक हाथ पालित मुद्रा में अनुग्रह के भाव में है। यह मूर्ति भक्त और आराध्य के अंतर्संबंधों का सुखद शिल्पांकन है। श्रीराम की स्वतंत्र मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय रही हैं। उत्तर भारत में राम की मूर्ति मुख्यतः विष्णु के अवतार के रूप में उत्कीर्ण है। कर्नाटक में राम का एक प्राचीनतम मंदिर 867 ई. का हीरे मैगलूर में है। श्रीराम के दोनों ओर लक्ष्मण और सीता स्थित हैं। चोलकालीन कांस्य मूर्तियों में भी श्रीराम का मनोहारी अंकन उपलब्ध है। स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त रामकथा के विविध प्रसंगों के उदाहरण खजुराहो, भुवने”वर, एलोरा, बरम्बा, सोमनाथपुर, खरौद, जांजगीर और सेतगंगा जैसे पुरास्थल में दृष्टिगोचर होता है। इन उदाहरणों में भारतीय जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने वाले प्रसंगों जैसे-सीता हरण, जटायु वध, बालि-सुग्रीव युद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कदाचित् इसीकारण छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय ने भी गाया है ः-
    रत्नपुर में बसे रामजी सारंगपाणी
    हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी
    प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम
    है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम
    शिवरीनारायण में प्रकटे शौरिराम युत हैं लसे
    जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहीं फंसे।

श्री ”शिवरीनारायण माहात्म्य में श्रीराम जन्म के संबंध में उल्लेख है जिसमें वि’णु भगवान रामावतार के पूर्व देवताओं को कहते हैं ः-

    मैं निज अंशहि अवध में, रघुकुल हो तनु चार
    राम लक्ष्मण भरत अरू शत्रूहन सुकुमार।
    कौशल्या के गर्भ में जन्महु निस्संदेह
    महात्मा दशरथ नृपति मो पर करत सनेह।।02@128-129

     हे देवों ! मैं अयोध्यापति दशरथ के घर जन्म लेने जा रहा हूं। आप लोग भी वहां जन्म लेकर अपना जीवन सार्थक बनाएं। मैं वहां माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूंगा क्योंकि राजा दशरथ का मेरे उपर बहुत स्नेह है। लोमश ऋषि आगे कहते हैं कि श्रीरामचंद्र जी के अनेक अवतार हुए हैं। उनके विस्तार, जन्म-कर्म का लेखा लगाना बड़ा कठिन है। इसमें तिलमात्र भी संदेह नहीं कि हरि माया बलवती है।उससे ज्ञानी, अज्ञानी और गुणवान भी मोहित हो जाते हैं ः-

    परमात्मा श्रीराम के भये विविध अवतार
    जन्म कर्म के भेद अति हैं विविध विस्तार
    यामे नहिं संदेह कछु हरि माया बलवान
    अज्ञानी गुनवान हूं मोहि रही जग जान।। 04/5-6
    परमात्मा श्रीराम के जब जब  भये अवतार
    किये राज्य नगरी अवध बल बंधि नीति विचार
    तब तब मैं तोहि कुंड में डारे शालिगराम
    रत्नमयी उज्जवल तहां है अनन्त छबिधाम।। 04/7-8

     श्रृंगि ऋषि के पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने पर जो चारू प्राप्त हुआ था उसे महाराजा दशरथ अपनी तीनों रानियों को खिला दिया। कालान्तर में माता कौशल्या के गर्भ से श्रीराम, माता कैकेयी के गर्भ से भरत और माता सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघन का जन्म हुआ। चारों राजकुमारों के जन्म से मानों अयोध्या नगरी को आनंद से भर दिया। सभी अयोध्यावासी आनंद से नाचने गाने लगे जैसे उनकी मुराद पूरी हो गयी हो। देवलोक में भी सभी देवता नाचने गाने लगे और पुष्प वर्षा करने लगे।

     प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ का वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना और अपने गौरवमयी अतीत को गर्भ में समाया हुआ है। दक्षिण जाने का मार्ग छत्तीसगढ़ से गुजरने के कारण इसे दक्षिणापथ भी कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से होकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गये थे। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं।

     सहस्त्राब्दियों पूर्व घटित त्रेतायुग का प्रमाण मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव भी है। नदियों ने अपने मार्ग बदले, पर्वतों ने अपने स्वरूप और अरण्यों ने दिशायें बदली, नहीं बदली तो केवल मनु’यों की आस्था और उनका विश्वास। रामायण के विविध प्रसंग, उस काल की घटनाएं और पात्रों के उपाख्यान तब से लेकर आज तक जनमानस में वाचिक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान हैं। मनु’य अपनी अनुभूतियों के साथ जनश्रुतियों को जोड़कर इतिहास की रचना करता है। लोककथा, लोकगीत, लोककला, कहावतें और मुहावरें एक दिन लोकवाणी बनकर इतिहास बन जाती है। इनमें जन मान्यताओं और आस्थाओं को स्थापित करने के लिए मंदिरों, गुफाओं आदि का निर्माण करके धन्य होता है। ऐसा ही प्रयास छत्तीसगढ़ में सदियों से होता आ रहा है। आज भी उस काल की अनेक स्मृतियां यहां देखने सुनने को मिलती है। बस्तर के लोकगीत, लोकनाट्य, शिल्पकला आदि में श्रीराम की झलक मिलती है। समूचा छत्तीसगढ़वासी रामनवमीं कोबड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। इस दिन शुभ लग्न मानकर सभी शुभकार्य करते हैं। शादियां और गृह प्रवेश आदि शुभ कार्य सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के रामरमिहा लोग अपने पूरे शरीर में राम नाम गुदवाकर श्रीराम नाम की पूजा-अर्चना करते हैं। वे निर्गुण राम को मानते हैं। उनका कहना है के राम से बड़ा राम का नाम है।