शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

महाशिवरात्रि के अवसर पर : छत्तीसगढ़ में शैव परंपरा

 छत्तीसगढ़ में शैव परंपरा

प्रो अश्विनी केशरवानी 


महेश्वर महादेव 
प्राचीन छत्तीसगढ़ पर दृष्टिपात करें तो हमें इस क्षेत्र में जहां वैष्णव मंदिर, देवी मंदिर जहां बहुतायत में मिलते हैं, वहीं शैव मंदिर अपनी गौरव गाथा कहते नहीं अघाते। छत्तीसगढ़ प्राचीन काल से आज तक अनेक धार्मिक आयोजनों का समन्वय स्थल रहा है। गांवों में स्कूल-कालेज न हो, हाट बाजार न हो, तो कोई बात नहीं, लेकिन नदी-नाले का किनारा हो या तालाब का पार, मंदिर चाहे छोटे रूप में हों, अवश्य देखने को मिलता है। ऐसे मंदिरों में शिव, हनुमान, राधाकृष्ण और रामलक्ष्मणजानकी के मंदिर प्रमुख होते हैं। प्राचीन काल से ही यहां शैव परम्परा बहुत समृद्ध थी। कलचुरि राजाओं ने विभिन्न स्थानों में शिव मंदिर का निर्माण कराया जिनमें चंद्रचूड़ महादेव (शिवरीनारायण), बुद्धेश्वर महादेव (रतनपुर), पातालेश्वर महादेव (अमरकंटक), पलारी, पुजारीपाली, गंडई-पंडरिया के शिव मंदिर प्रमुख हैं। इसकेे समकालीन कुछ शिव मंदिर और बने जिनमें पीथमपुर का कालेश्वरनाथ, शिवरीनारायण में महेश्वरनाथ प्रमुख हैं। 

छत्तीसगढ़ के अधिकांश शिव मंदिर सृजन और कल्याण के प्रतीक स्वरूप निर्मित हुए हैं। लिंग रहस्य और लिंगोपासना के बारे में स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है, उसके अनुसार भगवान महेश्वर अलिंग हैं, प्रकृति प्रधान लिंग है -

आकाशं लिंगमित्याहु पृथिवी तस्य पीठिका।

आलयः सर्व देवानां लयनाल्लिंग मुच्यते।।

अर्थात् आकाश लिंग और पृथ्वी उसकी पीठिका है। सब देवताओं का आलय में लय होता है, इसीलिये इसे लिंग कहते हैं। हिन्दू धर्म में शिव का स्वरूप अत्यंत उदात्त रहा है। पल में रूष्ट और पल में प्रसन्न होने वाले और मनोवाँछित वर देने वाले औघड़दानी महादेव ही हैं।

छत्तीसगढ़ में राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों द्वारा निर्मित अनेक गढ़, हवेली, किला और मंदिर आज भी उस काल के मूक साक्षी है। कई लोगों के वंश खत्म हो गये और कुछ राजनीति, व्यापार आदि में संलग्न होकर अपनी वंश परम्परा को बनाये हुए हैं। वंश परम्परा को जीवित रखने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता ? राजा हो या रंक, सभी वंश वृद्धि के लिए मनौती मानने, तीर्थयात्रा और पूजा-यज्ञादि करने का उल्लेख तात्कालीन साहित्य में मिलता हैं। देव संयोग से उनकी मनौतियां पूरी होती रहीं और देवी-देवताओं के मंदिर इन्ही मनौतियों की पूर्णता पर बनाये जाते रहे हंै, जो कालान्तर में उनके ‘‘कुलदेव’’ के रूप में पूजित होते हैं। छत्तीसगढ़ में औघड़दानी महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। यहां लखेसर चढ़ाया जाता है। हसदो नदी के तट पर प्रतिष्ठित कालेश्वरनाथ महादेव वंशवृद्धि के लिए सुविख्यात् है। इसी प्रकार माखन साव के वंश को महेश्वर महादेव ने बढ़ाया। इन्ही के पुण्य प्रताप से बिलाईगढ़-कटगी के जमींदार की वंशबेल बढ़ी और जमींदार श्री प्रानसिंह बहादुर ने नवापारा गांव माघ सुदी 01 संवत् 1894 में महेश्वर महादेव के भोग-रागादि के लिए चढ़ाकर पुण्य कार्य किया।

 भगवान शिव अक्षर, अव्यक्त, असीम, अनंत और परात्पर ब्रह्म हैं। उनका देव स्वरूप सबके लिए वंदनीय है। शिवपुराण के अनुसार सभी प्राणियों के कल्याण के लिए भगवान शंकर लिंग रूप में विभिन्न नगरों में निवास करते हैं। उपासकों की भावना के अनुसार भगवान शंकर विभिन्न रूपों में दर्शन देते हैं। वे कहीं ज्योतिर्लिंग रूप में, कहीं नंदीश्वर, कहीं नटराज, कहीं अर्द्धनारीश्वर, कहीं अष्टतत्वात्मक, कहीं गौरीशंकर, कहीं पंचमुखी महादेव, कहीं दक्षिणामूर्ति तो कहीं पार्थिव रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित होते हैं। शिवपुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंग के स्थान निर्देश के साथ-साथ कहा गया है कि जो इन 12 नामों का प्रातःकाल उच्चारण करेगा उसके सात जन्मों के पाप धुल जाते हैं। लिंग रहस्य और लिंगोपासना के बारे में स्कंदपुराण में वर्णन है कि भगवान महेश्वरनाथ अलिंग हैं, प्रकृति ही प्रधान लिंग है। महेश्वर निर्गुण हैं, प्रकृति सगुण है। प्रकृति या लिंग के ही विकास और विस्तार से ही विश्व की सृष्टि होती है। अखिल ब्रह्मांड लिंग के ही अनुरूप बनता है। सारी सृष्टि लिंग के ही अंतर्गत है, लिंगमय है और अंत में लिंग में ही सारी सृष्टि का लय भी हो जाता है। ईशान, तत्पुरूष, अघोर, वामदेव और सद्योजात ये पांच शिव जी की विशिष्ट मूर्तियां हैं। इन्हें ही इनका पांच मुख कहा जाता है। शिवपुराण के अनुसार शिव की प्रथम मूर्ति क्रीडा, दूसरी तपस्या, तीसरी लोकसंहार, चैथी अहंकार और पांचवीं ज्ञान प्रधान होती है। छŸाीसगढ़ में शिव जी के प्रायः सभी रूपों के दर्शन होते हैं। आइये इन्हें जानें:-

लक्ष्मणेश्वर महादेव

जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जिला मुख्यालय जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से 106 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 125 कि. मी. व्हाया बलौदाबाजार, और छŸाीसगढ़ का सांस्कृतिक तीर्थ शिवरीनारयण से दो-ढाई कि. मी. की दूरी पर स्थित खरौद शिवाकांक्षी होने के कारण ‘‘छत्तीसगढ़ की काशी‘‘ कहलाता है। यहां के प्रमुख आराध्य देव लक्ष्मणेश्वर महादेव हैं जो उन्नत किस्म के ‘‘लक्ष्य लिंग‘‘ के पार्थिव रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित हैं। मंदिर के चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के भीतर 110 फीट लंबा और 48 फीट चैड़ा चबुतरा है जिसके उपर 48 फीट ऊंचा और 30 फीट गोलाई लिए भव्य मंदिर स्थित है। मंदिर के गर्भगृह में ‘‘लक्ष्यलिंग‘‘ स्थित है। इसे ‘‘लखेश्वर महादेव‘‘ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें एक लाख शिवलिंग है। बीच में एक पातालगामी अक्षय छिद्र है जिसका संबंध मंदिर के बाहर स्थित कुंड से है। शबरीनारायण महात्म्य के अनुसार इस महादेव की स्थापना श्रीराम ने लक्ष्मण की विनती करने पर लंका विजय के निमित्त की थी। इस नगर को ‘‘छत्तीसगढ़ की काशी‘‘ कहा जाता है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। महाशिवरात्री को यहां दर्शनार्थियों की अपार भीढ़ होती है। कवि श्री बटुकसिंह चैहान इसकी महिमा गाते हैं:-

जो जाये स्नान करि, महानदी गंग के तीर।

लखनेश्वर दर्शन करि, कंचन होत शरीर।।

सिंदूरगिरि के बीच में लखनेश्वर भगवान।

दर्शन तिनको जो करे, पावे परम पद धाम।।

मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पाश्र्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ है। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दृसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरूष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्ति स्थित है। मुर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देता है। उनके पाश्र्व में दो नारी प्रतिमा है। इसके नीचे प्रत्येक पाश्र्व में द्वारपाल जय और विजय की मुर्ति है। महामहोपाध्याय गोपीनाथ राव द्वारा लिखित ‘‘आक्नोग्राफी आफ इंडिया‘‘ तथा आर. आर. मजुमदार की ‘‘प्राचीन भारत‘‘ में इस दृश्य का चित्रण मिलता है।

पंडित मालिकराम भोगहा कृत ‘‘श्री शबरीनारायण माहात्म्य‘‘ के पांचवें अध्याय के 95-96 श्लोक में लक्ष्मण जी श्रीरामचंद्रजी से कहते हैं:- हे नाथ ! मेरी एक इच्छा है उसे आप पूरी करें तो बड़ी कृपा होगी। रावण को मारने के लिये हम अनेक प्रयोग किये। यह एक शेष है कि इहां ‘‘लक्ष्मणेश्वर महादेव‘‘ थापना आप अपने हाथ कर देते तो उत्तम होता -

रावण के वध हेतु करि चहे चलन रघुनाथ

वीर लखन बोले भई मैं चलिहौं तुव साथ।।

वह रावण के मारन कारन किये प्रयोग यथाविधि हम।

सो अब इहां थापि लखनेश्वर करें जाइ वध दुश्ट अधम।।

यह सुन श्रीरामचंद्रजी ने बड़े 2 मुनियों को बुलवाकर शबरीनारायण के ईशान कोण में वेद विहित संस्कार कर लक्ष्मणेश्वर महादेव की थापना की:-

यह सुनि रामचंद्रजी बड़े 2 मुनि लिये बुलाय।

लखनेश्वर ईशान कोण में वेद विहित थापे तहां जाय।। 97 ।।

....और  अनंतर अपर लिंग रघुनाथ। थापना किये अपने हाथ।

पाइके मुनिगण के आदेश। चले लक्ष्मण ले दूसर देश।।

अर्थात एक दूसरा लिंग श्रीरामचंद्रजी अपने नाम से अपने ही हाथ स्थापित किये, जो अब तक गर्भगृह के बाहर पूजित हैं। तभी तो आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल अपनी पुस्तक ‘‘शिवरीनारायण और सात देवालय‘‘ में इस मंदिर की महिमा का बखान किया हैः-

सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये।

लाख बेल के पत्र, लाख चांवल जो मुझे चढ़ाये।।

एवमस्तु! तेरे कृतित्वके क्रम को रखे जारी।

दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।।

खरौद में छत्तीसगढ़ का अत्यंत प्राचीन शैव मठ है। इस मठ के महंत निहंग बैरागी लोग थे। इसी प्रकार दूसरा शैव मठ पीथमपुर में था। छत्तीसगढ़ में अनेक राजा महाराजा और मालगुजार बैरागी लोग हुए हैं। 

कालेश्वर महादेव

जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 10 कि. मी., चांपा से 8 कि. मी. और बिलासपुर से 80 कि. मी. की दूरी पर हसदो नदी के तट पर पीथमपुर स्थित है। यह नगर यहां स्थित ‘‘कालेश्वर महादेव‘‘ के कारण सुविख्यात् है। चांपा के पंडित छविनाथ द्विवेदी ने ‘‘कलिश्वरनाथ महात्म्य स्त्रोत्रम‘‘ संवत् 1987 के लिखा था। उसके अनुसार पीथमपुर के इस शिवलिंग का उद्भव चैत कृष्ण प्रतिपदा संवत् 1940 को हुआ। मंदिर का निर्माण संवत् 1949 में आरंभ हुआ और 1953 में पूरा हुआ। खरियार के राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने कालेश्वर महादेव की पूजा अर्चना कर वंश वृद्धि का लाभ प्राप्त किया था। खरियार के युवराज डाॅ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे सूचित किया है-‘‘मेरे दादा स्व. राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने वास्तव में वंश वृद्धि के लिए पीथमपुर जाकर कालेश्वर महादेव की पूजा और मनौती की थी। उनके आशीर्वाद से दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव, विजयभैरवदेव और दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी हुई और हमारा वंश बढ़ गया।‘‘ यहां महाशिवरात्री को एक दिवसीय और फाल्गुन पूर्णिमा से 15 दिवसीय मेला लगता है। धूल पंचमी को यहां प्रतिवर्ष परम्परागत शिव जी की बारात निकलती है जिसमें नागा साधुओं की उपस्थिति उसे जीवंत बना देती है। कवि बटुकसिंह चैहान गाते हैं-

              हंसदो नदी के तीर में, कलेश्वर नाथ भगवान।

दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।

फागुन मास के पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।

काशी समान फल पावहीं, गावत वेद पुराण।।

चंद्रचूड़ महादेव

जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 67 कि. मी., बिलासपुर से 67 कि. मी. की दूरी पर छत्तीसगढ़ की पुण्यतोया नदी महानदी के तट पर शिवरीनारायण स्थित है। जोंक, शिवनाथ और महानदी का त्रिवेणी संगम होने के कारण इसे ‘‘प्रयाग‘‘ की मान्यता है। यहां भगवान नारायण के मंदिर के सामने पश्चिमाभिमुख चंद्रचूड़ महादेव स्थित हैं। मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। बगल में एक जटाधारी किसी राज पुरूष की मूर्ति है। गर्भगृह में चंद्रचूड़ महादेव और हाथ जोड़े कलचुरि राजा-रानी की प्रतिमा है। मंदिर के बाहर संवत् 919 का एक शिलालेख हैं। इसके अनुसार कुमारपाल नामक कवि ने इस मंदिर का निर्माण कराया और भोजनादि की व्यवस्था के लिए चिचोली नामक गांव दान में दिया। इस शिलालेख में रतनपुर के कलचुरि राजाओं की वंशावली दी गयी है। यहां का माहात्म्य बटुकसिंह चैहान के मुख से सुनिए:-

महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिंड कर दान।

सो जैहै बैकुंठ को, कही बटुकसिंह चैहान ।।

महेश्वर महादेव

शिवरीनारायण में ही महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उनके बारे में लिखा है:-

माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।

दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुबिधि तिनहिं मुरारी।।२४।।

लच्छ पती सुद शरन जनन को टारत सकल कलेशा।

द्रब्य हीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।।२५।।

दुओ धाम प्रथमहिं करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।

सेतुबन्ध रामेसुर को लहि गंगा जल अन्हवाई।।२६।।

चार बीस शरदहुं के बीते रीते गोलक नैना।

लखि असार संसार पार कहं मूंदे दृग तजि चैना।।२७।।

  महेश्वरनाथ के वरदान से ही माखन साव के वंश की वृद्धि हुई और आज विशाल वठ वृक्ष की भांति फैला हुआ है। महेश्वरनाथ के आशीर्वाद से बिलाईगढ़-कटगी के जमींदार के वंश की वृद्धि हुई जिससे प्रसन्न होकर बिलाईगढ़ के जमींदार श्री प्रानसिंह ने माघ सुदी 01 संवत् 1894 मे नवापारा गांव इस मंदिर के व्यवस्था और भोगराग आदि के लिए चढ़ाया था। शिवरीनारायण के अलावा हसुवा, टाटा और लखुर्री में महेश्वर महादेव और झुमका में बजरंगबली का भव्य मंदिर है। हसुवा के महेश्वर महादेव के मंदिर को माखन साव के भतीजा और गोपाल साव के पुत्र बैजनाथ साव, लखुर्री के महेश्वरनाथ मंदिर को सरधाराम साव के प्रपौत्र प्रयाग साव ने और झुमका के बजरंगबली के मदिर को बहोरन साव ने बनवाया। इसी प्रकार टाटा के घर में अंडोल साव ने शिवलिंग स्थापित करायी थी। माखन वंश द्वारा निर्मित सभी मंदिरों के भोगराग की व्यवस्था के लिए कृषि भूमि निकाली गयी थी। इससे प्राप्त अनाज से मंदिरों में भोगराग की व्यवस्था होती थी। आज भी ये सभी मंदिर बहुत अच्छी स्थिति में है और उनके वंशजों के द्वारा सावन मास में श्रावणी पूजा और महाशिवरात्रि में अभिषेक किया जाता है। शिवरीनारायण के इस महेश्वरनाथ मंदिर के प्रथम पुजारी के रूप में श्री माखन साव ने पंडित रमानाथ को नियुक्त किया था। पंडित रमानाथ ठाकुर जगमोहनसिंह द्वारा सन् 1884 में लिखित तथा प्रकाशित पुस्तक ‘‘सज्जनाष्टक‘‘ के एक सज्जन थे। उनके मृत्यूपरांत उनके पुत्र श्री शिवगुलाम इस मंदिर के पुजारी हुए। फिर यह परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इस मंदिर का पुजारी हुआ। इस परिवार के अंतिम पुजारी पंडित देवी महाराज थे जिन्होंने जीवित रहते इस मंदिर में पूजा-अर्चना की, बाद में उनके पुत्रों ने इस मंदिर का पुजारी बनना अस्वीकार कर दिया। सम्प्रति इस मंदिर में पंडित कार्तिक महाराज के पुत्र श्री सुशील दुबे पुजारी के रूप में कार्यरत हैं।

पातालेश्वर महादेव

बिलासपुर जिला मुख्यालय से 32 कि. मी. की दूरी पर बिलासपुर-शिवरीनारायण मार्ग में मस्तुरी से जोंधरा जाने वाली सड़क के पाश्र्व में स्थित प्राचीन ललित कला केंद्र मल्हार प्राचीन काल में 10 कि. मी. तक फैला था। यहां दूसरी सदी की विष्णु की प्रतिमा मिली है और ईसा पूर्व छटवीं से तेरहवीं शताब्दी तक क्रमबद्ध इतिहास मिलता है। यहां का पातालेश्वर महादेव जग प्रसिद्ध है। प्राप्त जानकारी के अनुसार कलचुरि राजा जाज्वल्यदेव द्वितीय के शासनकाल में संवत 1919 में पंडित गंगाधर के पुत्र सोमराज ने इस मंदिर का निर्माण कराया है। भूमिज शैली के इस मंदिर में पातालगामी छिद्र युक्त पातालेश्वर महादेव स्थित हैं। इस मंदिर की आधार पीठिका 108 कोणों वाली है और नौ सीढ़ी उतरना पड़ता है। प्रवेश द्वार की पट्टिकाओं में दाहिनी ओर शिव-पार्वती, ब्रह्मा-ब्रह्माणी, गजासुर संहारक शिव, चैसर खेलते शिव-पार्वती, ललितासन में प्रेमासक्त विनायक और विनायिका और नटराज प्रदर्शित हैं।

बुढ़ेश्वर महादेव

बिलासपुर जिला मुख्यालय से 22 कि. मी. की दूरी पर प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर स्थित है। यहां कलचुरि राजाओं का वर्षो तक एकछत्र शासन था। यहां उनके कुलदेव बुढ़ेश्वर महादेव और कुलदेवी महामाया थी। डाॅ. प्यारेलाल गुप्त के अनुसार तुम्माण के बंकेश्वर महादेव की कृपा से कलचुरि राजाओं को दक्षिण कोसल का राज्य मिला था। उनके वंशज राजा पृथ्वीदेव ने यहां बुढ़ेश्वर महादेव की स्थापना की थी। इसकी महिमा अपार है। मंदिर के सामने एक विशाल कुंड है।

पाली का शिव मंदिर

बिलासपुर जिला मुख्यालय से अम्बिकापुर रोड में 50 कि. मी. की दूरी पर पाली स्थित है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्राचीन रतनपुर का विस्तार दक्षिण-पूर्व में 12 मील दूर पाली तक था, जहां एक अष्टकोणीय शिल्पकला युक्त प्राचीन शिव मंदिर एक सरोवर के किनारे है। मंदिर का बाहरी भाग नीचे से उपर तक कलाकार की छिनी से अछूता नहीं बचा है। चारों ओर अनेक कलात्मक मूर्तियां इस चतुराई से अंकित है, मानो वे बोल रही हों-देखो अब तक हमने कला की साधना की है, तुम पूजा के फूल चढ़ाओ। मध्य युगीन कला की शुरूवात इस क्षेत्र में इसी मंदिर से हुई प्रतीत होती है। खजुराहो, कोणार्क और भोरमदेव के मंदिरों की तरह यहां भी काम कला का चित्रण मिलता है।

रूद्रेश्वर महादेव


बिलासपुर से 27 कि. मी. की दूरी पर रायपुर राजमार्ग पर भोजपुर ग्राम से 7 कि. मी. की दूरी पर और बिलासपुर-रायपुर रेल लाइन पर दगौरी स्टेशन से मात्र एक-डेढ़ कि. मी. दूर अमेरीकापा ग्राम के समीप मनियारी और शिवनाथ नदी के संगम के तट पर ताला स्थित है जहां शिव जी की अद्भूत रूद्र शिव की 9 फीट ऊंची और पांच टन वजनी विशाल आकृति की उद्र्ववरेतस प्रतिमा है जो अब तक ज्ञात समस्त प्रतिमाओं में उच्चकोटि की प्रतिमा है। जीव-जन्तुओं को बड़ी सूक्ष्मता से उकेरकर संभवतः उसके गुणों के सहधर्मी प्रतिमा का अंग बनाया गया है।

गंधेश्वर महादेव

रायपुर जिलान्तर्गत प्राचीन नगर सिरपुर महानदी के तट पर स्थित है। यह नगर प्राचीन ललित कला के पांच केंद्रों में से एक है। यहां गंधेश्वर महादेव का भव्य मंदिर है, जो आठवीं शताब्दी का है। माघ पूर्णिमा को यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है।

कुलेश्वर महादेव

रायपुर जिला मुख्यालय से दक्षिण-पूर्वी दिशा में 50 कि. मी. की दूरी पर महानदी के तट पर राजिम स्थित है। यहां भगवान राजीव लोचन, साक्षी गोपाल, कुलेश्वर और पंचमेश्वर महादेव सोढुल, पैरी और महानदी के संगम के कारण पवित्र, पुण्यदायी और मोक्षदायी है। यहां प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से 15 दिवसीय मेला लगता है। इस नगर को छत्तीसगढ़ शासन पर्यटन स्थल घोषित किया है।

इसके अलावा पलारी, पुजारीपाली, गंडई-पंडरिया, बेलपान, सेमरसल, नवागढ़, देवबलौदा, महादेवघाट (रायपुर), चांटीडीह (बिलासपुर), और भोरमदेव आदि में भी शिव जी के मंदिर हैं जो श्रद्धा और भक्ति के प्रतीक हैं। इन मंदिरों में श्रावण मास और महाशिवरात्री में पूजा-अर्चना होती है। 


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रविवार, 5 फ़रवरी 2023

राजिम मेला के अवसर पर : धार्मिक आस्था का केंद्र राजिम

 राजिम मेला के अवसर पर

धार्मिक आस्था का केन्द्र राजिम

प्रो. अश्विनी केशरवानी

महानदी, सोढुल और पैरी नदी के संगम के पूर्व दिशा में बसा राजिम प्राचीन काल से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दक्षिण कोशल में विख्यात् राजनीतिक तथा सांस्कृतिक धारा से सदैव सामंजस्य बनाये रखने वाला यह ऐतिहासिक नगरी रही है। यह नगर 20.58 डिग्री उत्तरी अक्षांश एवं 81.35 डिग्री पूर्वो देशांश पर स्थित है। रायपुर जिला में स्थित यह एक पौराणिक, प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं कला को अमूल्य धरोहरों को समेटे इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और कलानुरागियों के लिये आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। रायपुर जिला मुख्यालय से दक्षिण-पूर्वी दिशा में 50 कि.मी. की दूरी पर राजिम स्थित है। मंदिरों को इस प्राचीन नगरी की सीमा का निर्धारण दक्षिण पश्चिम में क्रमशः पैरी और महानदी से होती है। भूतेश्वर महादेव और पंचेश्वर महादेव के मंदिरों तक पैरी नदी की पृथक सत्ता प्रत्यक्ष देखने को मिलती है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक उपलब्धियों की उपादेयता सर्वमान्य तथ्य है। फलतः वे स्थान जहां से पुरातात्विक सामाग्रियां प्राप्त होती है, वह इतिहास एवं संस्कृति के अध्येताओं तथा अनुसंधान कर्ताओं  के लिये सहज आकर्षण के केन्द्र हो जाते हैं। इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ में ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व राजिम को प्राप्त हैं वह स्थान किसी दूसरे स्थान को नहीं है। यह एक ऐसा स्थान है। जहां से प्राप्त सामाग्रियों का काल किसी विशेष युग से न होकर भिन्न-भिन्न कालों से है और उनका विषय राजनीतिक और सांस्कृतिक उभय प्रकृति का है और इतिहास निर्माण के साधन के रूप में उसका महत्व अपरिजात्य सा है। राजिम से लगे पितईबंध नामक ग्राम से प्राप्त मुद्रा से पहली बार ‘‘क्रमादित्य’’ नामक अज्ञात राजा को ऐतिहासिकता प्रकाश में आयी हैं साथी ही महेन्द्रादित्य के साथ उसके पारिवारिक संबंध का होना भी प्रमाणित हुआ है। महाशिव तीवरदेव का जो ताम्रपत्र राजिम से प्राप्त हुआ है। उससे उसके साम्राज्य  सीमा के निर्धारण में सहायता मिलती हैं विलासतुंग के नल वंश के इतिवृत्ति के ज्ञान का एक मात्र साधन राजीव लोचन मंदिर से प्रापत शिलालेख है। रतनपुर के कलचुरी नरेश जाजल्लदेव प्रथम एवं रत्नदेव द्वितीय के विजय का उल्लेख उसके सामंत जगपालदेव के राजीव लोचन मंदिर से प्राप्त अन्य शिलालेखों में हुआ है जिसके संबंध में अन्य अभिलेखों में कोई जानकारी नहीं मिलती। यहां के मंदिर और मूर्तियां लोगों की धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं इसके साथ ही भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्तिकला के इतिहास में छत्तीसगढ़ अंचल के ऐश्वर्यशाली योगदान को लिपिबद्ध करते समय अपने लिये विशिष्ट स्थान की पात्रता रखने वाला उदाहरण है। सर्वेक्षण में यहां से बहुत अधिक मात्रा में मृत्भांड के अवशेष प्राप्त हुये है। इसके आधार पर यहां के सांस्कृतिक अनुक्रम का अनुमानित समय निर्धारित हो सका हैं इन मृण्मय अवशेषों के अध्ययन से ही अब यहां पल्लवित संस्कृति का प्रारंभ चाल्कोलिथिक युग में तय किया है। 

सांस्कृतिक केन्द्र:- राजिम के इतिहास की अंतः प्रकृति राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। इसके उन्नयन में राजवंशों का ऐश्वर्यशाली एवं विलासितापूर्ण जीवन किसी भी युग में एकांकी रूप से गतिमान दिखाई नहीं देता। यहां का प्राचीन सांस्कृतिक कलेवर मूलतः लोकजीवन की विविध उपलब्धियों द्वारा अभिषिक्त रहा हैं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर हम राजिम के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का इस अंचल के अन्य स्थानों सिरपुर, मल्हार, आरंग, रतनपुर, खरौद और शिवरीनारायण आदि से करने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न युगों में इन नगरों के विकास के मूल में जनता की आकांक्षाएं एवं अभिलाषाएं ही प्रमुख रूप से क्रियाशील रही है। जन आकाक्षाओं को तुष्ट करने के उद्देश्य से अथवा अपनी वैयक्तिक सांस्कृतिक उपलब्धिओं को जन जन तक पहुुंचाने की अभिलाषा से शासक वर्ग का भी प्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त होता रहा है। इस तरह राजिम को प्राचीन, सांस्कृतिक उपलब्धियों का सामान्य जन जीवन से निकट का संबंध रहा है। इसके विपरित अन्य स्थानों के उत्कर्ष में यथेष्ट सीमा तक राजनीतिक आधार ही कारणभूत रहा हैं इसकी पुष्टि के लिये हम सिरपुर को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं यह प्राचीन दक्षिण कोशल के दो प्रमुख राजवंशों-शरभपुरियों एवं सोमावंशियों की राजधानी रही है। यहां के विकास में शासकों की वैयक्तिक भावनाओं, अभिरूचियों एवं राजत्वकाल की विशिष्ट परिस्थितियों का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा हैं यह सर्वमान्य है कि विशुद्ध राजनीतिक प्रश्रय द्वारा पोषित एवं सम्बंधित होने के कारण जो शताब्दियों तक ऐश्वर्य एवं समृद्धि की देवी का निवास स्थान रहा है, उसे अपने आश्रयदाता के पतन के साथ ही श्रीहीन होना पड़ा जो कभी अपने ऐश्वर्य एवं समृद्धि के कारण ‘‘श्रीपुर’’ नाम को सार्थक करता था, वही आज दुर्गम वन विधियों से आवृत, उदास, क्लांत, शोभाहीन एवं उपेक्षित छोटा सा ग्राम मात्र रह गया है। यही स्थिति रतनपुर, मल्हार, खरौद और शिवरीनारायण आदि को भी है।

यद्यपि राजिम अपने सुदीर्घ ऐतिहासिक जीवन में कभी उत्कर्ष का सुख  भोगा है, तो कभी अपकर्ष की पीड़ा भी झेला है। परन्तु किसी भी युग में धार्मिक एवं सांस्कृतिक भावभूति पर अवलम्बित जन आस्था का सम्बल मिलने से इसके विकास की संघ प्रवाहमान धारा को पूर्णतः अवरूद्ध नहीं किया जा सका हैं युग विशेष की बदलती मान्यताओं एवं परिस्थितयों के सम्यक प्रीााव द्वारा नियंत्रित परम्परा तथा आस्था को सदैव प्रश्रय देने वाली यह ऐतिहासिक नगरी छत्तीसगढ़ के प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक ही सांस्कृतिक उपलब्धियों से इेतिहासकारों, पुरातत्वविदों एवं जिज्ञासुओं को परिचित कराने में समर्थ है। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि राजिम का ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टि से अध्ययन प्राचीन दक्षिण कोशल के सांस्कृतिक इतिहास के सम्य ज्ञान के लिये आवश्यक है।

राजिम नाम को सार्थकता :- राजिम नाम को सार्थकता के लिये जनश्रुतियों का सहारा लिया जा सकता है। जनश्रुति से पता चलता है कि राजिम नामक एक तेलिन के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि एक समय जब राजिम तेल बेचने जा रही थी तो वह रास्ते में पड़े एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ी जिससे टोकरी में रखा तेल गिर गया। तेल के गिर जाने से वह अपने सास-ससुर से मिलने वाली प्रताड़ना की कल्पना मात्र से भयभीत होकर विलाप करने लगी और ईश्वर से उनसे रक्षा करने की प्रार्थना करने लगी। कुछ देर रोने के बाद अपने को संयत करके घर लौटने के लिये जब वह टोकरी को उठाने लगी तब तेल पात्र को भरा पाकर चकित हो गयी। फिर वह खुशी खुशी पास के गांव में तेल बेचने गयी वहां सुबह से शाम तक तेल बेचती रही लेकिन तेल पात्र खाली नहीं हुआ। इससे इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। प्रतिदिन की तुलना मे अधिक पैसा कमाने के बावजूद तेल पात्र को तेल से भरा पाकर खुशी से वह घर लौटी। लेकिन घर में उसकी बतायी बातों की किसी ने विश्वास नहीं किया बल्कि उसको पुष्टि के लिये दूसरे दिन उसी जगह से गुजर कर पास के गांवों में तेल बेचने जाते हैं लेकिन तेल पात्र में एक बूंद तेल कम नहीं हुआ जिससे उन्हे बहू की बातों का विश्वास हो गया। बाद में राजिम को एक रात स्वप्नादेश हुआ कि उस स्थान में दबे देव प्रतिमा को निकालकर प्रतिष्ठित करो। निर्दिष्ट स्थान की खुदाई करने पर एक श्यामवर्ण विष्णु भगवान की चतुर्भुजी प्रतिमा मिली। उस प्रतिमा को श्रद्धा पूर्वक घर लाकर उसकी पूजा अर्चना करने लगे। इसी समय वहां के राजा जगपालदेव को स्वप्नादेश हुआ कि लोकहित में वहां एक मंदिर का निर्माण कराकर राजिम तेलिन के घर स्थित प्रतिमा को उसमें प्रतिष्ठित करे। उन्होंने इस आदेश का श्रद्धा पूर्वक पालन करते हुए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और राजिम तेलिन के घर जाकर उस मूर्ति को मंदिर में प्रतिष्ठित करने हेतु देने को कहा। तब राजिम उस मूर्ति को सशर्त कि भगवान के नाम के साथ उसका भी नाम जोड़ा जाये, देने को राजी हो गयी। इस प्रकार मंदिर का नाम ‘‘राजिम-लोचन’’ हुआ जो आग्र चलकर ‘‘राजीव लोचन’’ कहलाने लगा।

सामान्यता विद्वानों ने इस जनश्रुति को पूर्ण सत्य नहीं माना है लेकिन इससे इंकार भी नहीं किया है। सत्यांश की पुष्टि के लिये दो तथ्य प्रस्तुत किये जाते है:-

1 उक्त कहानी में उल्लेखित राजा जगपाल को ऐतिहासिक पुरूष माना जा सकता हैं और 

2 उनकों जगपालदेव नाम उस राजा के साथ स्थापित किया जा सकता है। जिसका शिलालेख राजीव लोचन मंदिर की पाश्र्व भित्ति में लगा हुआ है।

3. राजीव लोचन मंदिर के सामने राजेश्वर तथा दानेश्वर मंदिर के पीछे जो लेकिन मंदिर के नाम से देव गृह है वह राजिम तेलिन संबंधी जनश्रुति को प्रमाणित करता है इस मंदिर के गर्भगृह में पूजार्थ एक शिलापट्ट ऊंची वेदी पर पृष्ठभूमि से लगा हुआ हैं इसके सामने उपरी भाग पर खुली हथेली, सूर्य, चुद्र और पूर्ण कुुंभ की आकृति विद्यमान है, नीचे एक पुरूष और स्त्री की सम्मुखाभिमुख प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में स्थित है। इसके दोनों पाश्र्व में एक-एक परिचारिका की मूर्ति स्थित है। शिलापट्ट के मध्य जुते बैलयुक्त कोल्हू का शिल्पांकन है।

रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद रायबहादुर हीरालाल ने जुते बैल युक्त कोल्हू को राजिम तेलिन की वंश परम्परा से चले आने वाले व्यवसाय की पतीकात्मक अभिव्यक्ति बताया है यह शिलापट्ट सती स्तम्भ कहलाता है। इसे आधार मानकर उन्होंने यह मत व्यक्त किया है कि यदि राजिम तेलिन से संबंधित जनश्रुति के मूल में सत्यांश है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अपने अपराध देव राजीव लोचन के सामने सती हुई थी परन्तु इसमें सत्यांश किस सीमा तक है तथा उसे कहां तक विश्वास किया जा सकता है यह निर्णय कर पाना कठिन है सती स्तम्भ के बारे मे विचार करने पर अज्ञान और माया के वशीभूत जीव की दशा का चित्रण कोल्हू और बैल को मानकर किया गया है और धर्माचरण से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, इस शाश्वत संदेश को अभिव्यक्त करने का उपक्रम इस पीठिका पर अंकित है, ऐसा प्रतीत होता है। परन्तु गहराई में जाने पर ही इसके गहन भावों और दार्शनिक तथ्यों को जान पाते है।

राजिम नाम के संबंध में एक दूसरी जनश्रुति भी प्रचलित है। इसका उल्लेख सर रिचर्ड जेकिंस ने एशियाटिक रिसर्चेज में किया है। उसके अनुसार राजिम श्रीराम के समकालीन राजीवनयन नाम किसी राजा की राजधानी थी। राजा राजीव नयन ने श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को पकड़कर महानदी के तट पर निवास कर रहे कंदर्मक ऋषि को सौंप दिया। घोड़े की रक्षा कर रहे शत्रुघन जब ऋषि कंदर्मक से अश्वमेद्य यज्ञ का घोड़ा को मांगा लेकिन ऋषि के मना करने पर शत्रुघन के आक्रमण कर दिया और ऋषि के क्रोधाग्नि से सेना सहित शत्रुघन मारे गये। अश्वमेघ यज्ञ की सफलता के लिये स्वयं श्रीराम को यहां आना पड़ा था। यहां श्रीराम के आने पर राजा राजीव नयन बिना युद्ध किये उनकी अधीनता स्वीकार कर ली। ऋषि कंदर्मक भी श्रीराम की विनती करने पर शत्रुघन सहित सेना को जीवित कर दिये। तब श्रीराम यहां अपना अस्तित्व ‘‘राजीव लोचन’’ के रूप में छोड़ते गये। आज भी यहां श्रीराम की मूर्ति प्रतिष्ठित है।

धर्मशास्त्र में व्याख्या :- भारतीय प्रतीक विज्ञान में वृष का संबंध धर्म से स्थापित किया गया है निरूवत में ब्रह्म के यज्ञ पुरूष रूप (धर्म) की कल्पना वृषभ रूप में की गयी है। श्रीमद् भागवत में धर्म के वृत्त रूप का उल्लेख करते हुये तप, ,शौच, ,दया और सत्य को उसका चार पैर बताया गया है। स्कंद पुराण में विष्णु के वृषभ रूप में अवतार लेने का वर्णन हैं योग वशिष्ठ में ऊखल को काली की आकृति कहा गया हैं काली शिव शक्ति का नाम है। कोल्हू का अधोभाग ऊखल का ही दूसरा रूप है। शक्ति तत्व के अनुरूप शिव-शक्ति की भी स्थाणु रूप में कल्पना की गयी है। महाभारत के अनुशासन पर्व में कूटस्थ लिंग को स्थाणु कहा गया है। कोल्हू का ललाट भाग स्थाणु है। इस तरह सम्पूर्ण कोल्हू लिंग और वेदी का एक स्वरूप होने से अर्द्ध नारीश्वर का प्रतीक है। यह अर्द्ध नारीश्वर रूप शिव-शक्ति सामरस का बोधक है जो सृष्टि का मूल है कोल्हू के वेदी अंग को योनी भी कह सकते हैं। शास्त्रकारों ने भी योनि को प्रकृति तथा लिंग को पुरूष माना हैं ‘‘लिंड.म पुरूष इत्युक्तोयोनिस्तु प्रकृतिः स्मृताः।’’ शिव पुराण के अंतर्गत वायु संहिता में भी शिव पवरमेशान को पुरूष और परमेश्वरी को प्रकृति कहा गया हैं सारण्य मतानुसार जड़ प्रकृति में चेतन पुरूष के संसर्ग से उत्पन्न संक्षोभ सृष्टि का कारण है। कोल्हू के अधोभाग अर्थात् वेदांे, योनि अथवा प्रकृति को उपर के ललाट अर्थात स्थाणु लिंग या पुरूष संसर्ग स्थिर रखने वाले तथा गति उत्पन्न करने वाला रज्जु काल सर्प का प्रतीक है। इस तरह कोल्हू चराचर जगत का और उसमें जूता बैल धर्म का सूचक कहा जा सकता है तथा इस रूपांकन का तात्विक भाव ‘‘धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा’’ को अभिव्यक्त करता है। अतः ऐसी स्थिति में कोल्हू एवं बैल को व्यवसाय का प्रतीक कहना युक्ति संगत नहीं होगा। इस प्रकार का दूसरा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह स्वीकार किया जा सके कि सती स्तम्भों पर सती नगरी के व्यवसाय आदि को प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने की परम्परा रही हो। 

कलचुरी कालीन राजिम :- राजीव लोचन मंदिर के महामंडप को पाश्र्व भित्ति पर कलचुरि संवत् 896 का एक शिलालेख है जिसे रतनपुर के कलचुरी नरेशों के सामंत जगपालदेव ने उत्कीर्ण कराया था। इस अभिलेख में ंजगपालदेव के वंश का नाम ‘‘राजमाल’’ उल्लेखित है। कनिंघम ने राजमाल वंश नाम से ही ‘‘राजम-राजिम’’ नाम की उत्पत्ति मानी है। यद्यपि राजमाल से राजिम नामकरण का प्रचलन संभव प्रतीत होता है परन्तु शब्द साम्य के आधार पर इस अनुमान को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता । अधिकांश विद्वान ‘‘राजिम’’ को ‘‘राजीव’’ का विकृत रूप मानते है। इस संदर्भ में वे ‘‘राजीव लोचन’’ से भगवान विष्णु के एक विरूद का आश्य स्वीकार करते हैं इसकी प्रमाणिकता के लिये वहां की प्रसिद्ध विष्णु की प्रतिमा को प्रस्तुत किया जा सकता है।

गुप्त कालीन मूर्तिकला का केन्द्र :- राजीव लोचन मंदिर पंचायत शैली का हैं मुख्य मंदिर ऊँचे विस्तृत चबुतरे पर बनाया गया है। उसके चारों ओर चार देवलिकाएं अर्थात छोटे मंदिर बनाए गये है। मुख्य मंदिर के तीन भाग है मंडप और दक्षिण-पश्चिम छोर से सीढ़ियां बनी है जिसमें चढ़कर मंदिर में प्रवेश किया जा सकता हैं मंडप के बीचोबिच स्तम्भों की दो पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में छः स्तम्भ के नीचे का भाग सपाट है जबकि उपरी भाग में गंगा-यमुना, वराह, नृसिंग,सूर्य और दुर्गा की देव प्रतिमाएं अंकित हैं गर्भगृह में भगवान विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा है वे अपने चारों हाथ में शंख, चक्र.,पद्म और गदा धारण किये हुये है।

राजिम को अधिकांश मूर्तियों में त्रिभंग अंगयष्टि के रूपायन द्वारा दैहिक सौंदर्य में लयात्मकता, कोमलता तथा रसात्मकता की प्रतिष्ठा की गयी हैं यहां की कुछ मूर्तियों में विशेष प्रयोजन की अभिव्यक्ति के लिये यदि एक भंग अथवा अतिभंग मुद्रा का आश्रय लिया गया है तो ऐसे उदाहरणों में आंगिक लयात्मकता, कोमलता, सुडौलता आदि को पूर्ण मनोयोग के साथ प्रस्तुत किया गया है। यहां कि अनेक मूर्तियों दैहिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति के लिये रूपमंडन, सुललित अंग विन्यास, अंग विच्छेप तथा भाव भंगिमा के निर्देशन में मूर्तिकारों ने आक्रामक भाव का चयन किया है। इस तरह यहां शिल्पियों ने ‘‘रूप पापं वृत्तये न’’ उक्ति को बड़ी चतुराई और उदारता के साथ प्रस्तुत किया हैं इन मूर्तियों में श्रृंगार और अध्यात्मिकता का मनोरम समन्वय है यही इनके चिरत्तर रसात्मकता का आधार है। गुप्त कालीन तथा पूर्व मध्यकालीन परम्परा में हम यहां की मूर्तियों को अधोवस्त्र धारण किये जाते हैं नारी मूर्तियों में कटि के उपर के अंग को ढकने के लिये उत्तरीय अथवा स्तनोत्तरीय के रूप में प्रयोग किये जाने वाले वस्त्र भी पाते है जिसके छोर बड़े कलात्मक ढंग से लटकते दिखाये गये हैं यहां की मूर्तियों में विविध अलंकरणों का समायोजन गुप्त परम्परा तथा पूर्व मध्यकालीन परम्परा का है। डाॅ. विष्णु सिंह ठाकुर राजिम के मंदिरों के शिल्प के संबंध में लिखते हैं - ‘‘प्राचीन कलाकृतियां जहां एक ओर भौतिक जीवन के हर्ष-विषाद के क्षणों को सुख-दुख की अनुभूतियों को शील, संयम आदि भौतिक गुणों तथा समृद्धि एवं ऐश्वर्य को प्रस्तुत करती है, वही दूसरी ओर उनके प्रति कलात्मकता में अध्यात्म का स्वर सद्यः मुखरित रहता है। यह दूसरा पक्ष ही भारतीय कला का प्राण बिन्दु रहा है।’’

‘‘राजिम माहात्म्य’’ में इसे ‘‘पद्म क्षेत्र’’ कहा गया है। इसमे आंचलिक विश्वास एवं धार्मिक का पुट है। सृष्टि के आरंभ में भागवान विष्णु के नाभि कमल की एक पंखुड़ी पृथ्वी पर गिरी पड़ी। इसी कमल दल से ढका भूभाग कालान्तर में ‘‘पद्म क्षेत्र’’ के नाम से जाना गया। कुलेश्वर महादेव (उत्पलेश्वर लिंग) को केन्द्र मानकर चम्पेश्वर, बावनेश्वर, फिंगेश्वर तथा पटेश्वर-इन पांचों शिव लिंगों की ‘‘प्रदक्षिणा’’ को पंच कोशी यात्रा कहते है। चारों दिशाओं में स्थित धाम और गुप्त तीर्थधाम शिवरीनारायण के बाद राजिम का दर्शन साक्षी गोपाल के रूप में किया जाता हैं माघ पूर्णिमा को यहां मेला लगता है जो छत्तीसगढ़ के प्रमुख मेले में से एक है।


 प्रो. अश्विनी केशरवानी

‘‘राघव‘‘, डागा कालोनी,

चाम्पा 495671 (छत्तीसगढ़)



शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

माघी मेला के अवसर पर : छत्तीसगढ़ का टेम्पल सिटी शिवरीनारायण

 माघी मेला के अवसर पर

छत्तीसगढ़ का टेम्पल सिटी शिवरीनारायण     

महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात् शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 140 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ‘‘प्रयाग‘‘ जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ‘‘श्री नारायण क्षेत्र‘‘ और ‘‘श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र‘‘ कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान नारायण के दर्शन करने जमीन में ‘‘लोट मारते‘‘ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है और शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ’’साक्षी गोपाल‘‘ विराजमान हैं। कदाचित् इसीकारण यहां के मेले को ‘‘छत्तीसगढ़ का कुंभ‘‘ कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।

गुप्तधाम:-


    चारों दिशाओं में अर्थात् उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ‘‘गुप्तधाम‘‘ के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदिप्यमान है। यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। यहां की महत्ता का वर्णन पंडित हीराराम त्रिपाठी द्वारा अनुवादित शबरीनारायण माहात्म्य में किया गया हैः-

शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान

याज्ञवलक्य व्यासादि ऋषि निज मुख करत बखान।

शबरीनारायण मंदिर:-

यहां के प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों की भव्यता और अलौकिक गाथा अपनी मूलभूत संस्कृति का शाश्वत रूप प्रकट कर रही है, जो प्राचीनता की दृष्टि से अद्वितीय है। 8-9 वीं शताब्दी की  मूर्तियों को समेटे मंदिर एक कलात्मक नमूना है, जिसमें उस काल की कारीगरी आज भी देखी जा सकती है। 172 फीट ऊंचा, 136 फीट परिधि और शिखर में 10 फीट का स्वर्णिम कलश के कारण कदाचित् इसे ‘‘बड़ा मंदिर‘‘ कहा जाता है। वास्तव में यह शबरीनारायण मंदिर है। यह ऊपर भारतीय आर्य शिखर शैली का उत्तम उदाहरण है। इसका प्रवेश द्वार सामान्य कलचुरि कालीन मंदिरों से भिन्न है। प्रवेश द्वार की शैलीगत समानता नांगवंशी मंदिरों से अधिक है। वर्तमान मंदिर जीर्णोद्धार के कारण नव कलेवर में दृष्टिगत होता है। इस मंदिर के गर्भगृह में दीवारों पर चित्र शैली में कुछ संकेत भी दृष्टिगत होता है। कारीगरों का यह सांकेतिक शब्दावली भी हो सकता है ? प्राचीन काल में यहां पर एक बहुत बड़ा जलस्रोत था और इसे बांधा गया है। जलस्रोत को बांधने के कारण मंदिर का चबूतरा 100 100 मीटर का है। जलस्रोत भगवान नारायण के चरणों में सिमट गया है। इसे ‘‘रोहिणी कुंड‘‘ कहा जाता है। इस कुंड की महिमा कवि बटुकसिंह चैहान के शब्दों में-रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर। इस मंदिर के गर्भ द्वार के पाश्र्व में वैष्णव द्वारपालों शंख पुरूष और चक्र पुरूष की आदमकद प्रतिमा है। इसी आकार प्रकार की मूर्तियां खरौद के शबरी मंदिर के गर्भगृह में भी है। द्वार शाखा पर बारीक कारीगरी और शैलीगत लक्षण की भिन्नता दर्शनीय है। गर्भगृह के चांदी के दरवाजा को ‘‘केशरवानी महिला समाज‘‘ द्वारा बनवाया गया है। इसे श्री देवालाल केशरवानी ने जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से सन् 1959 में बनवाया था। गर्भगृह में भगवान नारायण पीताम्बर वस्त्र धारण किये शंख, चक्र, पद्म और गदा से सुसज्जित स्थित हैं। साथ ही दरवाजे के पास परिवर्ती कालीन गरूड़ासीन लक्ष्मीनारायण की बहुत ही आकर्षक प्रतिमा है जिसे जीर्णोद्धार के समय भग्न मंदिर से लाकर रखा गया है। मंदिर के बाहर गरूण जी और मां अम्बे की प्रतिमा है। मां अम्बे की प्रतिमा के पीछे भगवान कल्की अवतार की मूर्ति है जो शिवरीनारायण के अलावा जगन्नाथ पुरी में है। श्री प्रयागप्रसाद और श्री जगन्नाथप्रसाद केशरवानी ने मंदिर में संगमरमर लगवाकर सद्कार्य किया है। मंदिर में सोने का कलश क्षेत्रीय कोष्टा समाज के द्वारा सन् 1952 में लगवाया गया है।

    श्री प्यारेलाल गुप्त ने प्राचीन छत्तीसगढ़ में लिखा है:-‘‘शिवरीनारायण का प्राचीन नाम शौरिपुर होना चाहिये। शौरि भगवान विष्णु का एक नाम है और शौरि मंडप के निर्माण कराये जाने का उल्लेख एक तत्कालीन शिलालेख में हुआ है।‘‘ इस मंदिर के निर्माण के सम्बंध में भी अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण किसी शबर राजा द्वारा कराया गया मानते हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और भोगहापारा (शिवरीनारायण) के मालगुजार पंडित मालिकराम भोगहा ने भी इस मंदिर का निर्माण किसी शबर के द्वारा कराया गया मानते हैं।

तंत्र मंत्र की साधना स्थली:-

उड़ीसा के प्रसिद्ध कवि सरलादास ने चैदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा है:-‘‘भगवान जगन्नाथ स्वामी को शिवरीनारायण से लाकर यहां प्रतिष्ठित किया गया है।‘‘ छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरि ठाकुर ने अपने एक लेख-‘‘शिवरीनारायण जगन्नाथ जी का मूल स्थान है‘‘ में लिखा हैः-‘‘इतिहास तर्क सम्मत विश्लेषण से यह तथ्य उजागर होता है कि शिवरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को पुरी कोई ब्राह्मण नहीं ले गया। वहां से उन्हें हटाने वाले इंद्रभूति थे। वे वज्रयान के संस्थापक थे।‘‘ डाॅ. एन. के. साहू के अनुसार- ‘‘संभल (संबलपुर) के राजा इंद्रभूति जिन्होंने दक्षिण कोसल के अंधकार युग (लगभग 8-9वीं शताब्दी) में राज्य किया था। वे बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इंद्रभूति पद्मवज्र (सरोरूहवज्र) के शिष्य अनंगवज्र के शिष्य थे। कविराज गोपीनाथ महापात्र इंद्रभूति को ‘‘उड्डयन सिद्ध अवधूत‘‘ कहा है। सहजयान की प्रवर्तिका लक्ष्मीकरा इन्हीं की बहन थी। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखा है लेकिन ‘‘ज्ञानसिद्धि‘‘ उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तांत्रिक ग्रंथ है जो 717 ईसवी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने इस ग्रथ में भगवान जगन्नाथ की बार बार वंदना की है। इसके पहले जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। वे उन्हें भगवान बुद्ध के रूप में देखते थे और वे उनके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। ‘‘इवेज्र तंत्र साधना‘‘ और ‘‘शाबर मंत्र‘‘ के समन्वय से उन्होंने वज्रयान सम्प्रदाय की स्थापना की। शाबर मंत्र साधना और वज्रयान तंत्र साधना की जन्म भूमि दक्षिण कोसल ही है।‘‘ डाॅ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-‘‘इंद्रभूति शबरीनारायण से भगवान जगन्नाथ को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।‘‘ आसाम के ‘‘कालिका पुराण‘‘ में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे। 

मंदिरों की नगरी:- 

शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अतः उन समाजों द्वारा यहां मंदिर निर्माण कराया गया है। यहां अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है। इसके अलावा यहां शैव और शाक्त परम्परा के प्राचीन मंदिर भी हैं। इन मंदिरों में निम्नलिखित प्रमुख हैंः-

केशवनारायण मंदिर:-

नारायण मंदिर के पूर्व दिशा में पश्चिमाभिमुख सर्व शक्तियों से परिपूर्ण केशवनारायण की 11-12 वीं सदी का मंदिर है। ईंट और पत्थर बना ताराकृत संरचना है जिसके प्रवेश द्वार पर विष्णु के चैबीस रूपों का अंकन बड़ी सफाई के साथ किया गया है। जबकि द्वार के उपर शिव की मूर्ति है। अन्य परम्परागत स्थापत्य लक्षणों के साथ गर्भगृह में दशावतार विष्णु की मानवाकार प्रतिमा है। यह मंदिर कलचुरि कालीन वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। यहां एक छोटा अंतराल है, इसके बाद गर्भगृह। मंदिर पंचरथ है और मंदिर की द्वार शाखा पर गंगा-यमुना की मूर्ति है, साथ ही दशावतारों का चित्रण हैं। 

चंद्रचूड़ महादेव:-

केशवनारायण मंदिर के वायव्य दिशा में चेदि संवत् 919 में निर्मित और छत्तीसगढ़ के ज्योर्तिलिंग के रूप में विख्यात् ‘‘चंद्रचूड़ महादेव‘‘ का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते राज पुरूष और रानी की हाथ जोड़े पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा है। नंदी की मूर्ति के बगल में किसी सन्यासी की मूर्ति है। मंदिर के बाहरी दीवार पर एक कलचुरि कालीन चेदि संवत् 919 का एक शिलालेख है। इस शिलालेख का निर्माण कुमारपाल नामक किसी कवि ने कराया है और भोग राग आदि की व्यवस्था के लिए ‘चिचोली‘ नामक गांव दान में दिया है। पाली भाषा में लिखे इस शिलालेख में रतनपुर के राजाओं की वंशावली दी गयी है। इसमें राजा पृथ्वीदेव के भाई सहदेव, उनके पुत्र राजदेव, पौत्र गोपालदेव और प्रपौत्र अमानदेव के पुण्य कर्मो का उल्लेख किया गया है। 

राम लक्ष्मण जानकी मंदिर:- 

चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के ठीक उत्तर दिशा में श्रीराम लक्ष्मण जानकी का एक भव्य मंदिर है जिसका निर्माण महंत अर्जुदास की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के पश्चात् अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने कराया था। इसी प्रकार केंवट समाज द्वारा श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण रामघाट के पास लक्ष्मीनारायण मंदिर के पास कराया गया है। इस मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के चैबीस अवतारों की सुंदर मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंदिर के बगल में संवत् 1997 में निर्मित श्रीरामजानकी-गुरू नानकदेव मंदिर का मंदिर है। 

महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर:-


महेश्वर महादेव 
महानदी के तट पर छत्तीससगढ़ के सुप्रसिद्ध मालगुजार श्री माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा लिखित श्रीशबरीनारायण माहात्म्य के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है। माखन साव भी धार्मिक, सामाजिक और साधु व्यक्ति थे। ठाकुर जगमोहनसिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उनके बारे में लिखा है। उनके अनुसार माखनसाव क्षेत्र के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामेश्वरम् की यात्रा की और 80 वर्ष की सुख भोगा। उन्होंने महेश्वर महादेव और शीतला माता मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। उनके पौत्र श्री आत्माराम साव ने मंदिर परिसर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण कराया और सुन्दर घाट और बाढ़ से भूमि का कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवार का निर्माण कराया। इस घाट में अस्थि विसर्जन के लिए एक कुंड बना है। इस घाट में अन्यान्य मूर्तियां जिसमें शिवलिंग और हनुमान जी प्रमुख है, के अलावा सती चैरा बने हुये हैं।
शीतला माता 

लक्ष्मीनारायण-अन्नपूर्णा मंदिर:-

नगर के पश्चिम में मैदानी भाग जहां मेला लगता है, से लगा हुआ लक्ष्मीनारायण मंदिर है। मंदिर के बाहर जय विजय की मूर्ति माला लिए जाप करने की मुद्रा में है। सामने गरूड़ जी हाथ जोड़े विराजमान है। गणेश जी भी हाथ में माला लिए जाप की मुद्रा में हैं। मंदिर की पूर्वी द्वार पर माता शीतला, काल भैरव विराजमान हैं। वहीं दक्षिण द्वार पर शेर बने हैं। भीतर मां अन्नपूर्णा की ममतामयी मूर्ति है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अकेली है। उन्हीं की कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ ‘‘धान का कटोरा‘‘ कहलाता है। नवरात्रि में यहां ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। जीर्णोद्धार में लक्ष्मीनारायण और अन्नपूर्णा मंदिर एक ही अहाता के भीतर आ गया जबकि दोनों मंदिर का दरवाजा आज भी अलग अलग है। लक्ष्मीनारायण मंदिर का दरवाजा पूर्वाभिमुख है जबकि अन्नपूर्णा मंदिर का दरवाजा दक्षिणाभिमुख है। मंदिर परिसर में दक्षिणमुखी हनुमान जी का मंदिर भी है।

राधा-कृष्ण मंदिर:-

मां अन्नपूर्णा मंदिर के पास मरार-पटेल समाज के द्वारा राधा-कृष्ण मंदिर और उससे लगा समाज का धर्मशाला का निर्माण कराया गया है। मंदिर के उपरी भाग में शिवलिंग स्थापित है। इसी प्रकार लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने मथुआ मरार समाज द्वारा राधा-कृष्ण का पूर्वाभिमुख मंदिर बनवाया गया है।

सिंदूरगिरि-जनकपुर:-

मेला मैदान के अंतिम छोर पर साधु-संतों के निवासार्थ एक मंदिर है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहीं आकर नौ दिन विश्राम करते हैं। इसीलिए इसे जनकपुर कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में जिस सिंदूरगिरि का वर्णन मिलता है, वह यही है। इसे ‘‘जोगीडिपा‘‘ भी कहते हैं। क्यों कि यहां ‘‘योगियों‘‘ का वास था। महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार ने यहां पर योगियों के निवासार्थ भवन का निर्माण संवत् 1927 में कराया। स्वामी अर्जुनदास की प्रेरणा से संवत् 1928 में श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने यहां एक हनुमान जी का भव्य मूर्ति का निर्माण कराया। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। ।

काली और हनुमान मंदिर:-  शबरी सेतु के पास काली और हनुमान जी का भव्य और आकर्षक मंदिर दर्शनीय है।

शिवरीनारायण मठ:-


नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं। वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस मठ के बारे में सन 1867 में जे. डब्लू. चीजम साहब बहादुर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस मठ की व्यवस्था के लिए माफी गांव हैहयवंशी राजाओं के समय से दी गयी है और इस पर इसके पूर्व और बाद में किसी ने हस्तक्षेप नहीं किया है। संवत् 1915 में डिप्टी कमिश्नर इलियट साहब ने महंत अर्जुनदास के अनुरोध पर 12 गांव की मालगुजारी मंदिर और मठ के राग भोगादि के लिये प्रदान किया। 

जगन्नाथ एवं अन्य मंदिर:-

मठ परिसर में संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार राजसिंह ने एक जगदीश मंदिर बनवाया जिसे उनके पुत्र चंदनसिंह ने पूरा कराया। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के अलावा श्रीराम लक्षमण और जानकी जी की मनमोहक मूर्ति है। परिसर में हनुमान जी और सूर्यदेव की मूर्ति है। सूर्यदेव के मंदिर को संवत् 1944 में रायपुर के श्री छोगमल मोतीचंद्र ने बनवाया। इसीप्रकार हनुमानजी के मंदिर को लवन के श्री सुधाराम ब्राह्मण ने संवत् 1927 में स्वामी जी की प्रेरणा से पुत्र प्राप्ति के बाद बनवाया। इसके अलावा महंतों की समाधि है जिसे संवत् 1929 में बनवाया गया है। यहां हमेशा भजन कीर्तन आदि होते रहता है, भारतेन्दुयुगीन साहित्यकार पंडित हीरराराम त्रिपाठी भी गाते  हैं:-

चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,

बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।

होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,

अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।

शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,           

जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे।।

शिवरीनारायण का माघी मेला -

नगर के पश्चिम में महंतपारा की अमराई में और उससे लगे मैदान में माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्री तक प्रतिवर्ष मेला लगता है। माघ पूर्णिमा की पूर्व रात्रि में यहां भजन-कीर्तन, रामलीला, गम्मत, और नाच-गाना करके दर्शनार्थियों का मनोरंजन किया जाता है और प्रातः तीन-चार बजे चित्रोत्पलागंगा-महानदी में स्नान करके भगवान शबरीनारायण के दर्शन के लिए लाइन लगायी जाती है। दर्शनार्थियों की लाइन मंदिर से साव घाट तक लगता था। भगवान शबरीनारायण की आरती के बाद मंदिर का द्वार दर्शनार्थियों के लिए खोल दिया जाता है। इस दिन भगवान शबरीनारायण का दर्शन मोक्षदायी माना गया है। ऐसी  मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ इस दिन पुरी से आकर यहां सशरीर विराजते हैं। कदाचित् इसी कारण दूर दूर से लोग यहां चित्रोत्पलागंगा-महानदी में स्नान कर भगवान शबरीनारायण का दर्शन करने आते है। बड़ी मात्रा में लोग जमीन में ‘‘लोट मारते‘‘ यहां आते हैं। मंदिर के आसपास और माखन साव घाट तक ब्राह्मणों द्वारा श्री सत्यनारायण जी की कथा-पूजा कराया जाता था। रमरमिहा लोगों के द्वारा विशेष राम नाम कीर्तन होता था। शिवरीनारायण में मेला लगने की शुरूवात कब हुई इसकी लिखित में जानकारी नहीं है लेकिन प्राचीन काल से माघी पूर्णिमा को भगवान शबरीनारायण के दर्शन करने हजारों लोग यहां आते थे...और जहां हजारों लोगों की भीढ़ हो वहां चार दुकानें अवश्य लग जाती है, कुछ मनोरंजन के साधन-सिनेमा, सर्कस, झूला, मौत का कुंआ, पुतरी घर आदि आ जाते हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन इसे मेला के रूप में व्यवस्थित रूप महंत गौतमदास जी की प्रेरणा से हुई। मेला को वर्तमान व्यवस्थित रूप प्रदान करने में महंत लालदास जी का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी की मद्द से अमराई में सीमेंट की दुकानें बनवायी और मेला को व्यवस्थित रूप प्रदान कराया। पंडित रामचंद्र भोगहा ने भी भोगहापारा में सीमेंट की दुकानें बनवायी और मेला को महंतपारा की अमराई से भोगहापारा तक विस्तार कराया। चूंकि यहां का प्रमुख बाजार भोगहापारा में लगता था अतः भोगहा जी को बाजार के कर वसूली का अधिकार अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदान किया गया था। आजादी के बाद मेला की व्यवस्था और कर वसूली का दायित्व जनपद पंचायत जांजगीर को सौंपा गया था। जबसे शिवरीनारायण नगर पंचायत बना है तब से मेले की व्यवस्था और कर वसूली नगर पंचायत करती है। नगर की सेवा समितियों और मठ की ओर से दर्शनार्थियों के रहने, खाने-पीने आदि की निःशुल्क व्यवस्था की जाती है। 

आजादी के पूर्व अंग्रेज सरकार द्वारा गजेटियर प्रकाशित कराया गया जिसमें मध्यप्रदेश के जिलों की सम्पूर्ण जानकारी होती थी। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ फ्यूडेटरी इस्टेट प्रकाशित कराया गया जिसमें छत्तीसगढ़ के रियासतों, जमींदारी और दर्शनीय स्थलों की जानकारी थी। आजादी के पश्चात सन 1961 की जनगरणा हुई और मध्यप्रदेश के मेला और मड़ई की जानकारी एकत्रित करके इम्पीरियल गजेटियर के रूप में प्रकाशित किया गया था। इसमें छत्तीसगढ़ के छः जिलों क्रमशः रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, सरगुजा, बस्तर के मेला, मड़ई, पर्व और त्योहारों की जानकारी प्रकाशित की गयी है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण, राजिम और पीथमपुर का मेला 100 वर्ष से अधिक वर्षो से लगने तथा यहां के मेला में एक लाख दर्शनार्थियों के शामिल होने का उल्लेख है।

यहां के मेला में वैवाहिक खरीददारी अधिक होती थी। बर्तन, रजाई-गद्दा, पेटी, सिल-लोढ़ा, झारा, डुवा, कपड़ा आदि की अच्छी खरीददारी की जाती थी। यहां के मेले में किसिम किसिम के घोड़े, गाय और बैल के साथ ही कृषि से सम्बंधित सामान मिलता था। मेला में अकलतरा और शिवरीनारायण के साव स्टोर का मनिहारी दुकान, दुर्ग, धमधा, बलौदाबाजार, चांपा, बहम्नीडीह और रायपुर का बर्तन दुकान, बिलासपुर का रजाई-गद्दे की दुकान, कलकत्ता का पेटी दुकान, चुड़ी-टिकली की दुकानें, सोने-चांदी के जेवरों की दुकानें, नैला के रमाशंकर गुप्ता का होटल और उसके बगल में गुपचुप दुकान, अकलतरा और सक्ती का सिनेमा घर, किसिम किसिम के झूला, मौत का कुंआ, नाटक मंडली, जादू, तथा उड़ीसा का मिट्टी की मूर्तियों की प्रदर्शिनी-पुतरी घर बहुत प्रसिद्ध था। यहां उड़िया संस्कृति को पोषित करने वाला सुस्वादिष्ट उखरा बहुतायत में आज भी बिकने आता है। कदाचित इसीलिए यहां के मेले का अत्याधिक महत्व होता था।

शिवरीनारायण और आस पास के गांवों में मेला के अवसर पर मेहमानों की अपार भीढ़ होती है। इस अवसर पर विशेष रूप से बहू-बेटियों को लिवा लाने की प्रथा है। शाम होते ही घर की महिलाएं झुंड के झुंड खरीददारी के निकल पड़ती हैं। खरीददारी के साथ साथ वे होटलों और चाट दुकानों में अवश्य जाती हैं और सिनेमा देखना नहीं भूलतीं। मेला में वैवाहिक खरीददारी अवश्य होती है। शासन दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए पुलिस थाना, विभिन्न शासकीय प्रदर्शिनी, पीने के पानी की व्यवस्था आदि करती है। लोग चित्रोत्पलागंगा में स्नान कर, भगवान शबरीनारायण का दर्शन करने, श्री सत्यनारायण की कथा-पूजा करवाने और मंदिर में ध्वजा चढ़ाने से लेकर विभिन्न मनोरंजन का लुत्फ उठाने और खरीददारी कर प्रफुल्लित मन से घर वापस लौटते हैं। यानी एक पंथ दो काज... तीर्थ यात्रा के साथ साथ मनोरंजन और खरीददारी। लोग मेले की तैयारी एक माह पूर्व से करते हैं। यहां के मेला के बारे में पंडित शुकलाल पांडेय ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में लिखते हैं:-

पावन मेले यथा चंद्र किरणें, सज्जन उर।

अति पवित्र त्यों क्षेत्र यहां राजिम, शौरिपुर।

शोभित हैं प्रत्यक्ष यहां भगवन्नारायण।

दर्शन कर कामना पूर्ण करते दर्शकगण।

मरे यहां पातकी मनुज भी हो जाते धुव मुक्त हैं।

मुनिगण कहते, युग क्षेत्र ये अतिशय महिमायुक्त हैं।।




प्रो. अश्विनी केशरवानी

राघव, डागा कालोनी,

चांपा-495671 (छत्तीसगढ़)