छत्तीसगढ़ में देवार गीत और लोक गाथाएं
देवार, छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण जनजाति है। ये एक घुमन्तू या ययावरी जाति के रूप में जाने जाते हैं। इनका जीवन अनिश्चितता व भटकने में व्यतीत होता है। भाषाविद डाॅ. विनयकुमार पाटक के अनुसार ‘देवार‘ शब्द ‘देव‘ और ‘आर‘ से समन्वित प्रतीत होता है जिसका अर्थ ‘‘देवोद्रेक की प्राप्ति‘‘ माना जा सकता है। नाच-गान से ये जहां अपना थकान मिटाते हैं, वहां भूख-प्यास को भी भूला बैठते हैं। इनके नाच-गान के साथ धार्मिक मान्यता भी संपृक्त है तदनुरूप ये देवताओं को प्रसन्न करने के लिये नृत्य करते हैं। नाच गान इनका विशिष्ट गुण है, सर्प पकड़ना और सुअर पालना इनका धर्म। यही सब ये अपने बच्चों को सहज रूप से देते आये हैं। शिक्षा से ये कोसों दूर हैं।
देवार जनजाति का प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता लेकिन जनश्रुतियों के अनुसार ये जाति राज्याश्रय प्राप्त कलाकार के रूप में भाट या चारण का कार्य करती रही हैं। रियासतों की समाप्ति के बाद ये अपनी कला को इधर उधर विचरण कर प्रदर्शित करते हैं। अर्थात ये बहुत संतोषी जीव कहे जा सकते हैं। जो कुछ मिल गया खा लिए, फटा चिथड़ा मिल गया उसे पहन लिए और टेंटनुमा कपड़े का निवास बनाकर गोदरी बिछाकर सो जाते हैं। कुछ दिनों बाद ये अपना डेरा-डंडा उठाकर दूसरी जगह पैदल चले जाते हैं। बांसनुमा डंडे, टट्टे, कपड़ों की पोटली, मिट्टी व सिल्वर के बर्तन रखे सुअर और मूर्गियों को लिए चलते हैं। ठंड हो या बरसात या गर्मी सब ऋतु में ये अपना जीवन यापन इसी प्रकार करते हैं। देवार जाति के पुरूष लोकवाद्य ‘चिकारा‘ (सारंगी का लोकस्वरूप) और ढोलक बजाते हैं, स्त्रियां नाच गान करती हैं। इसे देवारीन नाच कहते हैं। कुछ देवार परिवार ‘डंगचघा‘ का प्रदर्शन कर मनोरंजन करते हैं और लोग मनोरंजन के बाद उन्हें पैसा देते हैं। कुछ परिवार बंदर नाच दिखाकर भी मनोरंजन कर पैसा प्राप्त करते हैं। इसके बावजूद ये सर्प पकड़ते और ओझा के रूप में झाड़फूंक भी करते हैं। आंचलिक कवि श्री मोहन डहरिया रायपुर ने देवार गीत में उनके बारे में गाया है:-
मोर गांव के भाठा मा
लगाइन देवार डेरा
लिपिन पोतिन ठोक ठाक के
बनाइन अपन डेरा
जुगुर जागर दिखय संगी
छै फुट के डेरा। मोर गांव ....
गांव मा नवा पहुना देख के
लइका सियान जुरियागे
कुकुर बेंदरा धर के
ठौका करिया देवार आगे
हाथ जोड़के करिया करिस
सबके राम राम
चोंगी माखुर देके करिया
शुरू करय अपन काम। मोर गांव ...
टिमिक टिमिक दीया बरय
भाठा के देवार डेरा मा
संझा बाजय सारंगी खंजेरी
अउ गावय देवार गीत
बेंदरा घलो कूदत रहय
सुनके करिया के गीत। मोर गांव ...
तन मा जेकर आधा कपड़ा
भुंइया जेकर बिछौना हे
बघिया बेंदरा सांप कुकुर
जेकर रोज खिलौना हे
देवार दिखाय बेंदरा नाचा
देवारिन गोदय गोदना
पढ़ाई से इमन दूरिहा होगे
इही समाज के वेदना। मोर गांव ...
सरगुजा में देवार लोग ओझा का कार्य करते हैं। ये तंत्र-मंत्र की सिद्धि कर जादू टोने, भूतप्रेत को भगाने का भी काम करते हैं। यहां ये एक बस्ती में स्थायी रूप से रहते हैं। सरगुजा में इन्हें बैगा के समानान्तर मान सम्मान दिया गया है और इन्हें देव जागृत करने वाले ‘‘मांत्रिक देवार‘‘ कहा जाता है।
डाॅ. पाठक के अनुसार देवार गोंड़ जनजाति से सम्बंधित माने जाते हैं। उनमें जातीय गौरव महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार जैसे पक्षियों में पतरेंगवा, सर्प में मणिधारी और राजाओं में गोंड़ श्रेष्ठ हैं, वैसे ही जनजाति में देवार अग्रणी हैं:-
चिरई म सुंदर रे पतरेंगवा, सांप संुदर मनिहार।
राजा म सुंदर गोंड़े रे राजा, जात सुंदर रे देवार।।
नख-शिख निरूपण और अलंकर विभूषण देवार गीत एवं गाथाओं में दृष्टव्य है:-
पांव के अंगरी बिछिया बिराजे
मछरी छाप कलदार
छुनमुन पांव के पइरी बाजे
कनिहा हावै लचकदार
चूरी पहिरे बर जाय
ए सियारी दीनानाथ ....।
सोनहा सुर्रा काल म खिनवा
कान म बारी सोहाय
माथे म टिकली नाक के मुसकी
आंख म काजर लगाय
दसो अंगुरिया दस जोड़ी मुंदरी
भंवराही भंवराय
ए सियारी दीनानाथ ....।
मध्यप्रदेश अनुसचित जाति जनजाति विभाग की शोध पत्रिका के देवार अंक में प्रकाशित लेख के अनुसार, ‘‘मध्यप्रदेश के मंडला में भूमिया जाति के लोग ही ग्राम्य पुजारी होते हैं जिन्हें देवार कहा जाता है। यहां के देवार को धरती का मलिक भी कहा जाता है। इस प्रकार देवार कर्मगत विशेषण है जो जाति संज्ञा के रूप में स्थापित हो गया।‘‘
देवार लोग ग्राम्य पुजारी के साथ साथ गोंड़ जनजाति की परंपरागत लोक गाथाएं गाने में भी कुशल होते हैं। ये लोक गाथाओं की प्रस्तुति गांव गांव में भ्रमण करके करते हैं, बदले में अपने यजमानों से प्राप्त अन्न और पैसा लेकर घर वापस लौटते हैं। इसी प्रकार मंडला जिले में परधान एक दूसरी गोंड़ की उपजाति है। ये जाति भी देवारों की तरह गोंड़ मिथकों एवं गोंड़ इतिहास से सम्बंधित गाथाएं गांव गांव में भ्रमण करते गाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मंडला के कुछ देवार सपरिवार रतनपुर के हैहयवंशी राज्य में आकर गोंड़ मिथकों का एवं आख्यानों से सम्बंधित लोक गाथाओं का प्रस्तुतिकरण करने लगे। आगे चलकर रतनपुर का बलवान गोपालराय देवारों के ईष्ट हो गये। छत्तीसगढ़ के रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, बस्तर और बस्तर जिलों में देवार जनजाति रहते हैं।
रतनपुर के गोपालराय बिंझिया से जुड़ी एक प्रबंध गीत जिसका संकलन श्री प्यारेलाल गुप्त ने 10 जून 1918 को किया था:-
अहो माय सरसती भवानी मोहिं चघगावौं गीत
अंठे गावौं कंठे जिभिया में गुरू गनेश
जोन जोन अच्छर गावौं सरसती जिभिया में बैठ कहि देय
देव बरोबर राजा रतनपुर के राज सिरी कलियानसाय
चार जुग के महाराज में छत्री जनमे गोपालराय
तिनके संग में गोपालराय के तैंतीस कोरी देवता प्रगट हैं।
कौन कौन देवता हवैं।
देवरचंडी देव प्रचंडी देव माता मावली
रईगढ़ के रंगेली अठारा सती, मुरगापाठ देवता, छुरिन के कोसगाई
तरैंगा के मावली घोराधार, समलाई संभलपुर के
सम्मुख देवता महामाई रतनपुर के काना भैरों, लखमी देवी, बुढ़ा महादेव
भेंडीमुड़ा में ठाकुर देवता, जिनके आगू मैं पराऊ बयगा
मातिन के मातिन देई, सुरगुजा के नथलदेई
सातगढ़ कंबराने में झगरखांड देउता
पेंडरा के भाटा में गुरभेली नगारा, मैना नांव के हथनिन रहिन
लल्लू बजैं चारजुग के नेगी बने रहिन तो प्रगना चलावै
कतेक राजा के परगना, सात राजा के संजारी,
सोरा राजा के बलौद, असी राजा के धमधा,
बावन के गढ़ा, बावन के मंडीला, बावन के बनराज
अठारह में रतनपुर, औ अठारह में रईपुर
सोरागढ़ में नागपुर, छप्पन कोट के जिमिंदार
छै गढ़ पाटरानी पटना, उतर बधेली
सोरा डंड के सुरगुजा, बाइस डंड के ओड़ियान
सात राजा के कोड़या, सात राजा के भखार, बिंद्राबन खोली ले,
छह कोरी माल लोहा बजवैया हथियार उठवैया
अंडा महुदा माल भागे दुबे सगरो बाम्हन के बेटवा अंय भागे दुबे
पीपरथाह का नवाय के बोकरा का पŸाी चराबैं
नौ मुंठा के साबर गठरी पारैं
भेज देय रतनपुर काखर अख्तियार चले गठरी छुटै
एक्के छोरै गोपालराय दुसर के लेखा बोझा हो जाय
उनके बल के थाह में दोनों झन मितानी बदे रहिन।
डाॅ. दयाशंकर शुक्ल के अनुसार देवार छत्तीसगढ़ की एक खानाबदोश जाति है। ये सुअर पालते हैं। ये गांवों में घूम घूमकर गोदना गोदते हैं। ये यदि भिक्षा न मांगें तो इन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। नृत्य-गीत भी इनकी जीविका का साधन है। इसकी गीतों में सरसता होती है। व्यंग्य और हास्य का पुट इनके गीतों की विशंषता है। इनका जीवन कठोर और दरिद्रता से भरा होता है। इसके बावजूद ये अपनी गीतों में जीते हैं। देखिये एक गीत:-
झुमर जारे पंडकी झुमर जा रे
धमधा के राजा भाई तोर कइसन लागरे
लहर लोर लोर
तीतुर में झोर झोर
राय झुमझुम बांस पान
हंसा करेला पान-झुमर जारे-
धमधा के राजा भाई मोर ससुर लाग रे
लहर लोर लोर
तीतुर में झोर झोर
राय झुमझुम बांस पान
हंसा करेला पान
झुमर जा रे पंडकी झुमर जा रे।
ये गीत छत्तीसगढ़ में बहु प्रचलित है। संगीत और सरल भावनाओं का गीत में समन्वय देखने को मिलता है। पंडकी झुमर जा झुमर जा-धमधा के राजा से तुम्हारा कैसा नाता। धमधा के राजा मेरे ससुर लगते हैं। पंडकी झुमर जा झुमर जा। प्रमी प्रेमिका का वार्तालाप इस गीत में दृष्टव्य है। देखिये प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रणय निवेदन कर रहा है:-
प्रेमिका- कोन डोंगरी कोन झाड़ी कोन बन रे
भैया बोदरू के मोरे
कोन मेर टेंड़ा ला टेंड़त होबे रे
प्रेमी- इही डोंगरी, इही जंगल, इही झाड़ी वो बहिनी-
टूरी वो
इही मेर टेंड़ा ला टेंड़त हावंव वो।
प्रेमिका- कोन मेर बासी ला उतारंव रे भाई बोदरू मोर
प्रेमी- करसा के लउली अउ सात गांठ हरदी ल
लई लानबे वो बहिनी मोर
प्रेमिका- पर्रा बिजना, करसा के लउजी सात गांठ
हरदी ला का करबो रे भइया मोर
न तोरे संगनी न तोरे जंचनी रे भइया मोर
सात गांठ हरदी ला का करबे
प्रेमी- तोरे संग मंगनी, तोरे संग जंचनी
प्रेमिका- छाती तोर टूटय, आंखी तोर फूटय रे भाई रे मोरे
बहिनी बर नियत लगाये रे
प्रेमी- छाती मोर नई टूटय
आंखी मोर नई फूटय
तोरे संग भांवर परही वो।
इस गीत में स्त्री-पुरूष के पारस्परिक सम्बंधों पर प्रकाश पड़ता है। पुरूष का स्त्री के प्रति आकर्षण किसी ध्येय को लेकर ही होता है। उधर स्त्री-पुरूष के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहती है कि बहन से विवाह करने की नियत कैसे हो गई ! इस पर पुरूष ढीठ होकर कहता है कि मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, तेरे साथ विवाह होकर रहेगा। देखिये एक देवार गीत जिसमें उड़ीसा के नारी का चित्रण किया गया है:-
ए सीयरी दिन नाथ
नवलख ओड़िया नवलख ओड़निन
डेरा परे सारी रात
ओड़निन टूरी ठमकत रेंगय
गिर गय पेट के भार
पांच मुड़ा के बेनी गंथा ले
खोंचे गोंदा के फूल
नवलख ओड़िया नवलख ओड़निन
कोड़य सगर के पार।
इस गीत का भाव है कि नौ लाख उड़िया पुरूष और नौ लाख स्त्रियों ने सारी रात पड़ाव डाला। उड़ीसा की लड़की ठमकत रेंग रही है और पेट के भार गिर गई। पांच फेरों वाली बेनी गांथे हुए हैं और जूड़े में गेंदा फूल लगाइ्र है। नौ लाख उड़िया पुरूष और नौ लाख उड़िया स्त्री सागर के पार को खोद रही है। देखिये एक अन्य गीत -
बघवा रेंगाले धीरे धीरे गा
डोंगरी के तीरे तीरे
बघवा रेंगाले धीरे धीरे
कोन नदी एले ठेले
कोन नदी में घूंचा पेले
कोन नदी में मारय झिंचकोरी
डोंगरी के तीर।
प्यारेलाल गुप्त के अनुसार छत्तीसगढ़ में देवार जाति के लोग काफी संख्या में मिलते हैं। इस जाति में मुक्तक और प्रबंध गीत प्रचलित होता है। देवार जाति के लोग नृत्य भी करते हैं और उसके साथ मुक्तक गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में बिरम या विरह होता है। देखिये गीत की कुछ पंक्तियां:-
पांचों भाई के एके ठन बहिनी,
वो मोरों दाई मैं तो देवत हों धिया धकेल।
हई हुई रे मारे विरम, मैं तो देवत हों धिया धकेल।
दार्द ददा के इनदरी जरत है, भौजी के जियरा जुड़ाय।
हई हई रे मोर बिरम, भौजी के जियरा जुड़ाय।
एक ही बहिन के ब्याह हो जाने से पांचों भाइयों को उसका विरह दुखी करता है पर भौजाइयां खुश होती हैं। ‘‘सास ननंद मोरे जनम के बैरिन‘‘ लोकोक्ति पूरे देश में प्रसिद्ध है। देवार जाति में प्रबंध गीत भी प्रचलित है। इनमें छत्तीसगढ़ का इतिहास मुखरित होता है। अनेक गीत रतनपुर राजा और उसके सामंतों के कार्यो के वर्णन से भरे हुए हैं। पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने देवारों को छत्तीसगढ़ की चारण जाति माना है, जिसके अनुसार इस जाति के लोग अपने स्वामी की प्रशस्ति का गान करते हैं। इस दृष्टि से देखा जाये तो देवार इस प्रदेश के ऐतिहासिक महत्व को अपने गीतों में सुरक्षित, रखते चले आ रहे हैं। इन देवारों के प्रबंध गीतों में गोपाल राय का पंवारा, डेरहा दलपत का पंवारा, चन्दा गुवालिन का पंवारा आदि प्रसिद्ध है। गोपाल राय रतनपुर के राजा कल्याण साय, जो हैहयवंशी राजा था और जिसका उल्लेख जहांगीरनामा में मिलता है, का एक मल्ल था। एक समय राजा कल्याण साय ने दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की और अपने मल्ल को बहुत धृष्ट होने के कारण नहीं ले जाने का निर्णय किया परन्तु गोपाल राय रानी भवानामती से आज्ञा लेकर उसके साथ चला गया। दिल्ली जाकर उसने बादशाह के हाथी को मार डाला और अनेक वीरता के करतब दिखाये। देखिये गीत:-
राजा बोले कल्याण साय भवानी माता,
तोर हुकुम ला पातेंव तो बाच्छाय के सेवा मां जातेंव।
बाच्छाय बइठे हवय जेकर बेटा शाह जहान,
बाच्छाय के बीरन बैठे, नेगी बहादुर खान।
बीरन बहादुर नेंगी के बेटा डब्बल खान,
बाच्छाय के गुरू जहां हे दलीला मलीला।
छै महिना के सेवा करय तो तखत ला करय सलाम।
बरिख दिन सेवा करय तो बाच्छाय ला करय सलाम।
बरस दिन मांदू पड़त बाच्छाय बहिराय।
हिन्दी के बाना ला वो डिल्ली मां बोरय गा।
गाय मांस खवावय कलमा पढ़वावय ज्वान।
कान चीर मुंदरी पहिरावयकर मुगलानी भेष।
प्रो अश्विनी केशरवानी
"राघव " डागा कालोनी , बरपाली चौंक चाम्पा - ४९५६७१
जिला जांजगीर चाम्पा