सोमवार, 29 अगस्त 2022

छत्तीसगढ़ में गणेश उत्सव की प्राचीन परंपरा

 गणेश चतुर्थी के अवसर पर

छत्तीसगढ़ में गणेश उत्सव की प्राचीन परंपरा

प्रो. अश्विनी केशरवानी

    

विघ्ननाशक और गणेश या गणपति की सिद्धि विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है। गणेश जी के अनेक नाम निम्नानुसार हैं:- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन। सिद्धि सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवत्र्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहुँचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहुँचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुवा था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने निःशंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया।

..और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विव्हल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ‘‘गणेश’’ के रूप में जाना जाता है।

गणेश चतुर्थी को पूरे देश में गणेश जी प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। गणेश जी ही ऐसे देवता हैं जिनकी घरों में और सार्वजनिक रूप से प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। चतुर्थी से लेकर अनंत चैदस तक उत्सव जैसा माहौल होता है। सभी स्थानों में आर्कस्ट्रा, नाच-गाना, गम्मत आदि अनेक कार्यक्रम कराये जाते हैं। छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं होता। पहले रायपुर में गणेश पूजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम बृहद स्तर पर होता था। लोग यहां के आयोजन को महाराष्ट्र के गणेश पूजन से तुलना करतते थे और दूर दूर से यहां गणेश पूजन देखने आते थे। लेकिन अब छत्तीसगढ़ के प्रायः सभी स्थानों में गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा है। 

छत्तीसगढ़ प्राचीन काल से त्यौहारों और पर्वो में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए विख्यात् रहा है। यहां के राजे-रजवाड़ों में सार्वजनिक गणेश पूजन और आयोजन से उत्सव जैसा माहौल हुआ करता था। रायगढ़ का गणेश पूजन पूरे छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश में विख्यात् था। छŸाीसगढ़ के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य की सीमा से लगा आदिवासी बाहुल्य जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थित है। दक्षिण पूर्वी रेल लाइन पर बिलासपुर संभागीय मुख्यालय से 133 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 253 कि. मी. की दूरी पर स्थित यह नगर उड़ीसा और बिहार प्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य, नदी-नाले, पर्वत श्रृंखला और पुरातात्विक सम्पदाएं पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। रायगढ़ जिले का निर्माण 01 जनवरी 1948 को ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के पूर्व पांच रियासतों क्रमशः रायगढ़, सारंगढ़, जशपुर, उदयपुर और सक्ती को मिलाकर किया गया था। बाद में सक्ती रियासत को बिलासपुर जिले में सम्मिलित किया गया। केलो, ईब और मांड इस जिले की प्रमुख नदियां है। इन पहाड़ियों में में प्रागैतिहासिक कान के भित्ति चित्र सुरक्षित हैं। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद बहुत सी रियासतें इतिहास के पन्नों में कैद होकर गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन रायगढ़ रियासत के राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत कला और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। राजसी ऐश्वर्य, भोग विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, नृत्यकला और साहित्य को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्हें कोर्ट आॅफ वार्ड्स के अधीन रहना पड़ा। लेकिन 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे भारत में फैल गयी। यहां के निष्णात् कलाकार अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिताओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पुरस्कृत होते रहे। इससे पूरे देश में छत्तीसगढ़ जैसे सुदूर वनांचल राज्य की ख्याति फैल गयी।

रायगढ़ में गणेश मेले की शुरूवात:-

रायगढ़ में ‘‘गणेश मेले’’ की शुरूवात कब हुई इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता। मुझे मेरे घर में रायगढ़ के राजा विश्वनाथ सिंह का 8 सितंबर 1918 को लिखा एक आमंत्रण पत्र माखनसाव के नाम मिला है जिसमें उन्होंने गणेश मेला उत्सव में सम्मिलित होने का अनुरोध किया गया है। इस परम्परा का निर्वाह राजा भूपदेवसिंह भी करते रहे। पंडित मेदिनी प्रसाद पांडेय ने ‘गणपति उत्सव दर्पण‘ लिखा है। 20 पेज की इस प्रकाशित पुस्तिका में पांडेय जी ने गणेश उत्सव के अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों को छंदों में समेटने का प्रयास किया है। गणेश चतुर्थी की तिथि तब स्थायी हो गयी जब कुंवर चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ। बालक चक्रधरसिंह के जन्म को चिरस्थायी बनाने के लिए ‘चक्रधर पुस्तक माला‘ के प्रकाशन की शुरूवात की थी। इस पुस्तक माला के अंतर्गत पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के कुशल संपादन में पंडित अनंतराम पांडेय की रचनाओं का संग्रह ‘अनंत लेखावली‘ के रूप में नटवर प्रेस रायगढ़ से प्रकाशित किया गया था। कहते हैं रायगढ़ रियासत के राजा जुझारसिंह ने अपने शौर्य और पराक्रम से राज्य को सुदृढ़ किया, राजा भूपदेवसिंह ने उसे श्री सम्पन्न किया और राजा चक्रधरसिंह ने उसे संगीत, कला, नृत्य और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में ख्याति दिलायी। पं. मेदिनीप्रसाद पाण्डेय गणपति उत्सव दर्पण में गणेश मेला का वर्णन करते हैं:-

नाचनहार जु गावनहार बजावनहार जितेक जु आई।

स्वांग तमासे दिखावनहार जु देस बिदेसन के रहे छाई।।

मांगनहार जुबान बनावन हार हितेरन के समुदाई।

भूप उदार भले  सबके सतकार समेत जुकीन बिदाई।।

नान्हे महाराज से चक्रधर सिंह तक का सफर:-

दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत, नृत्य और कला के क्षेत्र में ख्याति यहां बरसों से आयोजित होने वाले गणेश मेला उत्सव में मिली। बाद में यह जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। क्योंकि इस दिन (19 अगस्त सन् 1905 को) रायगढ़ के आठवें राजा भूपदेवसिंह के द्वितीय पुत्र रत्न के रूप में चक्रधरसिंह का जन्म हुआ। वे तीन भाई क्रमशः श्री नटवरसिंह, श्री चक्रधरसिंह और श्री बलभद्रसिंह थे। चक्रधरसिंह को सभी ‘‘नान्हे महाराज’’ कहते थे। उनका लालन पालन यहां के संगीतमय और साहित्यिक वातावरण में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा रायगढ़ के मोती महल में हुई। आठ वर्ष की आयु में सन् 1914 में उन्हें रायपुर के राजकुमार कालेज में दखिल कराया गया। नौ वर्ष तक वहां के कड़े अनुशासन में विद्याध्ययन करने के बाद सन 1923 में प्रशासनिक ट्रेनिंग के लिए छिंदवाड़ा चले गये। कुशलता पूर्वक वहां की प्रशासनिक ट्रेनिंग पूरा करके रायगढ़ लौटने पर उनका विवाह बिंद्रानवागढ़ के जमींदार की बहन से हुआ। जिनके गर्भ से श्री ललित कुमार सिंह, श्री भानुप्रताप सिंह, मोहिनी देवी और गंधर्वकुमारी देवी का जन्म हुआ। 15 फरवरी 1924 को राजा नटवरसिंह की असामयिक मृत्यु हो गयी। चूंकि उनका कोई पुत्र नहीं था अतः रानी साहिबा ने चक्रधरसिंह को गोद ले लिया। इस प्रकार श्री चक्रधरसिंह रायगढ़ रियासत की गद्दी पर आसीन हुए। 04 मार्च सन् 1929 में सारंगढ़ के राजा जवाहरसिंह की पुत्री कुमारी बसन्तमाला से राजा चक्रधरसिंह का दूसरा विवाह हुआ जिसमें शिवरीनारायण के श्री आत्माराम साव सम्मिलित हुए। मैं उनका वंशज हूँ और मुझे इस विवाह का निमंत्रण पत्र मेरे घर में मिला। उनके गर्भ से सन 1932 में कुंवर सुरेन्द्रकुमार सिंह का जन्म हुआ। उनकी मां का देहांत हो जाने पर राजा चक्रधरसिंह ने कवर्धा के राजा धर्मराजसिंह की बहन से तीसरा विवाह किया जिनसे कोई संतान नहीं हुआ।

नृत्य, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में:-

राजा बनने के बाद चक्रधरसिंह राजकीय कार्यो के अतिरिक्त अपना अधिकांश समय संगीत, नृत्य, कला और साहित्य साधना में व्यतीत करने लगे। वे एक उत्कृष्ट तबला वादक, कला पारखी और संगीत प्रमी थे। यही नहीं बल्कि वे एक अच्छे साहित्यकार भी थे। उन्होंने संगीत के कई अनमोल ग्रंथों, दर्जन भर साहित्यिक और उर्दू काव्य तथा उपन्यास की रचना की। उनके दरबार में केवल कलारत्न ही नहीं बल्कि साहित्य रत्न भी थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री भगवतीचरण वर्मा, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, श्री रामेश्वर शुक्ल ‘‘अंचल’’, डाॅ. रामकुमार वर्मा और पं. जानकी बल्लभ शास्त्री को यहां अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाने और पुरस्कृत होने का सौभाग्य मिला। अंचल के अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार जिनमें पं. अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र और ‘‘पद्मश्री’’ पं. मुकुटधर पांडेय आदि प्रमुख थे, ने यहां साहित्यिक वातावरण का सृजन किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र रायगढ़ दरबार में दीवान रहे। श्री आनंद मोहन बाजपेयी उनके निजी सचिव और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके पथ प्रदर्शक थे। इनके सानिघ्य में राजा चक्रधर सिंह ने कई पुस्तकों की रचना की। उनमें बैरागढ़िया राजकुमार, अल्कापुरी और मायाचक्र (सभी उपन्यास), रम्यरास, रत्नहार, रत्नमंजूषा (सभी काव्य), काव्य कानन (ब्रज काव्य), जोशे फरहत और निगारे फरहत (उर्दू काव्य) आदि प्रमुख है। इसके अलावा नर्तन सर्वस्वम, तालतोयनिधि, रागरत्नमंजूषा और मुरजपरन पुष्पाकर आदि संगीत की अनमोल कृतियों का उन्होंने सृजन किया है।

चांपा में रहस से गम्मत तक का सफर:-

इसी प्रकार चांपा में भी गणेश उत्वस मनाये जाने का उल्लेख मिलता है जिसका बिखरा रूप आज भी यहां अनेत चौदस को देखा जा सकता है। चाम्पा, छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत दक्षिण पूर्वी रेल्वे का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो 22.2 अंश उत्तरी अक्षांश और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र सतह से 500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहाड़ियां, मदनपुर की झांकियां, बिछुलवा नाला, केरा झरिया, हनुमानधारा और पीथमपुर के छोटे-बड़े मंदिर चाम्पा को दर्शनीय बनाते हैं। यहां का रामबांधा देव-देवियों के मंदिरों से सुशोभित और विशाल वृक्षों से परिवेष्ठित और राजमहल का मनोरम दृश्य है। यहां मित्रता के प्रतीक समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ उड़िया संस्कृति की साक्षी हैं। डोंगाघाट स्थित श्रीराम पंचायत, वीर बजरंगबली, राधाकृष्ण का भव्य मंदिर, तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया और मनिकादेवी, हनुमानधारा में हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कलेश्वरनाथ का मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी का मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति कर जीता जागता उदाहरण है।


चांपा जमींदारी का अपना एक उज्जवल इतिहास है। यहां के जमींदार शांतिप्रिय, प्रजावत्सल और संगीतानुरागी थे। धार्मिक और उत्सवप्रिय तो वे थे ही, कदाचित् यही कारण है कि चांपा में नवरात्रि में समलेश्वरी, मदनपुर में महामाया देवी और मनिका माई, रथ द्वितीया में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की रथयात्रा, जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, रासलीला और गणेश चतुर्थी से गणेश पूजा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। गणेश पूजा उत्सव रायगढ़ के गणेश मेला के समान होेता है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अनूठा होता है। यहां का ‘‘रहस बेड़ा’’ उस काल की कलाप्रियता का साक्षी है। पहले गणेश उत्सव रहसबेड़ा में ही होता था। यूं तो रहसबेड़ा चांपा के आसपास अनेक गांव में है जहां भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन होता है। लेकिन जमींदारी का सदर मुख्यालय होने के कारण यहां का रहसबेड़ा कलाकारों को एक मंच प्रदान करता था जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होता था। यहां पर अनेक प्रकार के गम्मत, रामलीला, रासलीला, नाटक, नृत्य आदि का आयोजन किया जाता था। आज इस प्रकार के आयोजन गली-मुहल्ले, चैराहों में बेतरतीब ढंग से होता है। आपपास के गांवों से हजारों लोग इसे देखने आते हैं। भीड़ इतनी अधिक होती है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। खासकर अनंत चैदस को तो रात भर अन्यान्य कार्यक्रम होते हैं।

चाम्पा में गणेश उत्सव की शुरूवात जमींदार श्री नारायण सिंह के शासन काल में शुरू हुआ। वे संगीतानुरागी, धर्मप्रिय और प्रजावत्सल थे। उन्होंने ही यहां जगन्नाथ मंदिर का निर्माण आरंभ कराया जिसे उनके पुत्र प्रेमसिंह ने पूरा कराया। इनके शासनकाल में ही यहां रायगढ़ के गणेश मेला के बाद सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा गणेश उत्सव होता था। नारायण सिंह के बाद प्रायः सभी जमींदारों ने इस उत्सव को जारी रखा। उस काल के गणेश उत्सव का बखान लोग आज भी करते नहीं अघाते। महल परिसर में गणेश जी की भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती थी। इसके अलावा सोनारपारा, देवांगनपारा के चैराहों में गणेश जी की प्रतिमा रखी जाती थी। आसपास के गांवों की गम्मत पार्टी, नृत्य मंडली, रामलीला और रासलीला की मंडली यहां आती थी। अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। लगभग 15 दिन तक उत्सव का माहौल होता था। उस समय यहां दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर, कमरीद, बलौदा, अकलतरा, नरियरा, कोसा, कराईनारा, रायखेड़ा, गौद, पिसौद और शिवरीनारायण आदि अनेक स्थानों से सांस्कृतिक मंडलियां यहां आती थी। कमरीद के बिजली बेलन गम्मत मंडली के प्रमुख धरमलाल गीतकार ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। वे अक्सर गाते थे:-

‘ ए हर नोहे कछेरी,

हाकि मन बैठे बैठे खेलत हेगरि...।’

इस प्रकार उनकी गीतों में व्यंग्य का पुट होता था। दादू सिंह का रासलीला और गम्मत यहां बहुत सराहे जाते थे। नरियरा के ठाकुर विशेश्वरसिंह, रायगढ़ के भीखमसिंह, पंडित कार्तिकराम और बर्मनलाल जैसे चोटी के कलाकार, कत्थक नर्तक, तबला वादक और संगीतकार यहां शिरकत करने आते थे। इस आयोजन का पूरा खर्च जमींदार अपने खजाने से वहन करते थे। चाम्पा के जमींदार श्री रामशरणसिंह के शासनकाल में यहां का गणेश उत्सव चरम सीमा पर था। इस आयोजन में इतना खर्च हुआ कि सन् 1926 में चाम्पा जमींदारी को ‘‘कोर्ट ऑफ वार्ड्स’’ घोषित कर दिया गया। उन्होंने ही यहां ‘रहस बेड़ा’ का निर्माण कराया था। अनंत चतुर्दशी को विसर्जन पूजा के बाद नगर की सभी गणेश प्रतिमाएं महल में लायी जाती थी और एक साथ बाजे-गाजे और करमा नृत्य मंडली के नृत्य के साथ पूरे नगर का भ्रमण करती हुई डोंगाघाट पहुंचकर हसदो नदी में विसर्जित कर दी जाती थी। आज भी यहां बहुत संख्या में नृत्य मंडली, गम्मत पार्टी, आर्केस्ट्रा और छत्तीसगढ़ी नाचा आदि का आयोजन होता है। इस आयोजन से आवागमन पूरी तरह से अवरूद्ध हो जाता है। स्थानीय सांस्कृतिक, सामाजिक संस्थाएं और प्रशासन के संयुक्त प्रयास से इसका व्यवस्थित रूप से आयोजन एक सार्थक प्रयास होगा...।





शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

निष्काम कर्मयोग के कीर्तिस्तम्भ स्वामी आत्मानंद

 27 अगस्त को पुण्यतिथि के अवसर पर

निष्काम कर्मयोग के कीर्तिस्तम्भ स्वामी आत्मानंद

                                                              प्रो. अश्विनी केशरवानी

    


रायपुर जिलान्तर्गत मांढर से लगे गांव बरबंदा में कपसदा के मालगुजार श्री मंसाराम वर्मा के पुत्र श्री धनीराम और श्रीमती भाग्यवती के पुत्र रत्न के रूप में 06 अक्टूबर सन् 1929 को प्रातः 6.32 बजे विशाखा नक्षत्र में एक अद्भूत बालक का जन्म हुआ। सुन्दर सलौने और सूर्य के समान तेजस्वी इस बालक ने छत्तीसगढ़ को वेदांतीय आध्यात्मिक चेतना का केंद्र बनाया और स्वामी आत्मानंद के नाम से जग प्रसिद्ध हुआ। माता-पिता दोनों उन्हें महादेव का प्रसाद और आशीर्वाद समझ कर ग्रहण किया और उन्हें रामेश्वर नाम दिया।

बालक रामेश्वर अत्यंत सुन्दर और सुशील थे। उनके केश काले और घुंघराले तथा आंखें चित्ताकर्षक थी। सारा गांव उनसे स्नेह रखता था। चार वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अपने पिता से हारमोनियम बजाना और गीत गाना सीख लिया। स्कूल और गांव के कार्यक्रमों में हारमोनियम के साथ भजन गाकर वे सबको चमत्कृत कर देते थे। मेट्रिक की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की। तत्पश्चात् उच्च शिक्षा के लिए उन्हें नागपुर भेजा गया। वे वहां श्रीरामकृष्ण मिशन के छात्रावास में रहने लगे और वहां के हिस्लाप काॅलेज में भर्ती हो गये। आश्रम के पुनीत परिवेश में उनकी गगनगर्भी आध्यात्मिकता की भूख तीव्र हो गयी। वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव और स्वामी विवेकानंद की भावधारा से अनुप्राणित हो उठे। ऋषितुल्य सन्यासियों के सहचर्य में उन्हें अपने जीवन के महान् उद्देश्य का आभास होने लगा। आश्रम में उन्हें सब ‘‘तुलेन्द्र’’ के नाम से पुकारते थे। उनका जीवन बड़ा सात्विक था। धोती-कुरता उनकी पोशाक थी। उनका यही सादगीपन उन्हें विरागी होने का मार्ग दिखा। जब उनके पिता जी को उनके वैराग की ओर झुकाव का पता चला तब वे उन्हें वहां से हटाकर साइंस कालेज छात्रावास में दाखिल करा दिये। लेकिन उनका आश्रम से सतत संपर्क बना रहा। सन् 1949 में बी. एस-सी. की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की। पूरे विश्वविद्यालय में मेरिट में उनका दूसरा स्थान था। इसके बाद उन्होंने सन् 1951 में गणित विषय में एम. एस-सी. प्रथम श्रेणी और विश्वविद्यालय में मेरिट में प्रथम स्थान प्राप्त किया। विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें ‘‘गोल्ड मेडल’’ प्रदान किया गया। उसने आई. ए. एस. की परीक्षा पास की और उसी समय विदेश में उच्च अध्ययन के लिये फेलोसिप की स्वीकृति मिली। लेकिन तब तक उन्होंने अपने जीवन के प्रयोजन को समझ चुके थे। उन्होंने न तो आई. ए. एस. अनना स्वीकार किया, न ही विदेश में उच्च शिक्षा के लिए जाना..। वे श्रीरामकृष्ण संघ में ब्रह्मचर्य व्रत में दीक्षित होकर आध्यात्मिक साधना में रत हो गये।

स्वजनों और परिजनों के लिए उनका विरागी होना एक अतुलनीय वज्रपात था। मगर वे कर भी क्या सकते थे ? सन् 1957 में ब्रह्मचारी तुलेन्द्र वर्मा विधिवत ब्रह्मचर्य मंत्र में दीक्षित हुए और उन्हें ‘‘ब्रह्मचर्य तेज चैतन्य’’ नाम दिया गया। श्रीरामकृष्ण आश्रम नागपुर में वे लगभग 8 वर्ष तक रहे। इन वर्षो में वे कठोर साधना में लीन रहे। ब्रह्मचर्य दीक्षा के उपरान्त ब्रह्मचर्य तेज चैतन्य में एक दैवीय विकलता का सूत्रपात हुआ। उन्हें स्पष्ट आभास होता था कि उनके जीवन की सुनिर्दिष्ट दिशा है और उन्हें एक महान कार्य करना है। किंतु कर्मक्षेत्र में पदार्पण करने के पूर्व वे आध्यात्म राज्य की महात्म्य उपलब्धियों को प्राप्त करना चाहते थे। उन्हें प्रतीत होता था कि आध्यात्मिकता का महान् क्षेत्र हिमालय उनका आव्हान कर रहा है। सन् 1959 के प्रारंभ में वे कठिन आध्यात्मिक साधना के लिए निकल पड़े। अनेक संत महात्माओं के सत्संग में रहने के बाद कर्मक्षेत्र में पदार्पण करने को उद्यत हुए। उनका कार्यक्षेत्र अब स्पष्ट था। वे रायपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाना चाहते थे। इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद अपने बाल्यकाल के दो वर्ष रायपुर में व्यतीत किये थे। उन्होंने रायपुर में एक आश्रम निर्माण की दिशा में प्रयास किया। नगर पालिका भवन में वे हर सप्ताह प्रवचन देने लगे। उनका अंतरगर्भी आध्यात्मिकता उन्हें अल्प समय में लोकप्रिय बना दिया। सन् 1960 में वे तपस्या करने अमरकंटक चले गये। यहां उन्होंने पुण्य सलिला नर्मदा के तट पर सन्यास ग्रहण किया और ‘‘स्वामी आत्मानंद’’ कहलाये। अमरकंटक से लौटने पर वे रायपुर में आश्रम निर्माण को गति प्रदान किये और स्वामी विवेकानंद आश्रम उनके संबल के कारण ही आकार ग्रहण कर सका। श्रीरामकृष्ण धारा को प्रचारित करने के लिए उन्होंने पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। पुस्तकालय, औषधालय, छात्रावास और सत्संग भवन की योजना 3 वर्ष में पूरा किया। यह उनके जीवन साधना का सुफल और आध्यात्मिकता की साकार कहानी है।

स्वामी आत्मानंद की लोकोपयोगी योजना को फलिभूत करने के लिए म. प्र. शासन द्वारा श्रीरामकृष्ण सेवा समिति को भूमि प्रदान की और योजना साकार हो सकी। आश्रम का चलित औषधालय गांव गांव में निःशुल्क चिकित्सा प्रदान करता है। छात्रावास में विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था है। उनके पढ़ने के लिए पुस्तकालय भी है। सन् 1985 में सुदूर बस्तर के नारायणपुर और अबूझमाड़ क्षेत्र में ‘‘वनवासी सेवा केंद्र’’ की स्थापना की। दुर्गम स्थलों जैसे कुतुल दूरकभट्टी, आकाबेड़ा, कच्चापाल और कुंदला के माड़िया बस्तियों में रेसिडेंसियल स्कूल, उचित मूल्य की दुकानें और स्वास्थ्य सेवा केंद्रों की स्थापना करायी। 27 अगस्त सन् 1989 को नागपुर से रायपुर लौटते एक कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। इतनी सहजता से उन्होंने मृत्यु का वरण कर लिया और हमें विलखता छोड़ गये... हमारी उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है। छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा उनकी स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने के लिए स्वामी आत्मानंद इंग्लिश मीडियम स्कूल शुरू किया गया है और कालेज भी शुरू करने की योजना है।  इस सद्प्रयास के लिए छत्तीसगढ़ शासन को साधुवाद। 


 


शनिवार, 20 अगस्त 2022

बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव

 21 अगस्त को पुण्यतिथि के अवसर पर

बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव

प्रो. अश्विनी केशरवानी

बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव छत्तीसगढ़ के उन साहित्यकारों में से थे जिन्होंने गद्य और पद्य दोनों में रचनाएं लिखे हैं। उनका जन्म फिंगेश्वर में श्री बनमाली लाल जी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 02 फरवरी सन् 1894 को हुआ। माता-पिता को उन्होंने आर्थिक रूप से संघर्ष करते देख बालपन से ही निश्चय कर लिया था कि उन्हें भी अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार जीवन जीना है। घर में बड़़े होने के कारण उन्होंने किशोरावस्था से ही अर्थोपार्जन में लग गये थे जिसके कारण 16-17 वर्ष के बजाय 21-22 वर्ष की आयु में मेट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही श्री माधवराव सप्रे का स्नेह और सानिघ्य उन्हें मिला और उनकी काव्यधारा का आरंभ हो गया। सप्रे जी जैसे गुरू ने उनकी काव्यधारा को देखा परखा और महसूस किया कि उनमें एक अच्छे साहित्यकार की संभावनाएं हैं लेकिन वे कहीं गद्य से दूर न हो जाये इसलिए उन्हें गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त किया। मेट्रिक करने के बाद श्रीवास्तव जी को सन् 1915 में रायपुर और 1916 में बिलासपुर के शासकीय स्कूल में मास्टरी की नौकरी मिली। लेकिन उन्होंने नौकरी ज्यादा दिन नहीं की और सप्रे जी के पास लौट आये और उन्हीं के पास 25 रूपये मासिक पर कार्य करने लगे। इसके साथ ही उनका लेखन जारी रहा। सप्रे जी के मार्गदर्शन में उन्होंने लोकमान्य तिलक के मराठी गीता रहस्य का हिन्दी अनुवाद किया। इसीप्रकार पं. हृदयनाथ द्वारा लिखित Public Services in India का ‘‘भारत में सरकारी नौकरियां‘‘ शीर्षक से, चिंतामणि विनायक बैद्य की महाभारत मीमांसा, दत्त भार्गव संवाद का मराठी से हिन्दी अनुवाद किया। सन् 1916 से 1917 के बीच सप्रे जी के सुझाये शीर्षक से 20 निबंधों का लेखन किया। 1919 से 1954 के बीच वे जबलपुर के ‘‘श्री शारदा‘‘ मासिक पत्रिका के उप संपादक, राष्ट्रीय विद्यालय रायपुर के मैनेजर रहे। आजादी मिलने के बाद सत्ती बाजार रायपुर के सहकारी बुनकर संघ के जुड़े बाद में 1952 से श्री किशोर पुस्तकालय पुरानी बस्ती रायपुर के पुस्तकालयाध्यक्ष रहे। लगभग साठ वर्षो तक उन्होंने साहित्य की सेवा की। उन्होंने प्रेरक कविताएं लिखीं, मराठी और अंगे्रजी के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद किया, निबंध, संस्मरण, नाटक और कहानियां लिखीं। सभा, सम्मेलनों, अधिवेशनों की रिपोर्ट तैयार की और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। उन्होंने पं. माधवप्रसाद सप्रे जी की जीवनी लिखी मगर अधूरी और अप्रकाशित रह गई थी जिसे जबलपुर के श्री गोविंद नारायण हार्डीकर ने पूरा किया और मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के द्वारा प्रकाशित की गई। 

मावलीप्रसाद जी द्विवेदी युग के ऐसे समर्थ कवि थे जिन्होंने रस, छंद और अलंकार से अपनी कविताओं का न केवल श्रृंगार किया बल्कि रीतिकालीन कवियों की भांति अपने विचारों को पिरोकर हिन्दी के उल्लेखनीय कवियों की श्रेणी में अपने को स्थापित किया। प्रो. बालचन्द कछवाहा ने ‘संस्कृति के उद्गाता मावली बाबू‘ में लिखा है-‘‘कविता के बहिरंग की भव्यता, अर्थ गांभीर्य तथा अर्थ के उत्कर्ष के साथ कवि की रस दृष्टि भी व्यापक है। वस्तुतः मावली बाबू रस को ही काव्य की आत्मा मानते थे। सहृदय पाठकों के हृदय को आल्हादित कर उन्हें ब्रह्मानंद की उच्च स्थिति में प्रतिष्ठित करने हेतु कवि बहुत सावधान है। ईश्वर स्वयं ही रस रूप है, आनंद स्वरूप है। सृष्टि का आरंभ, विकास और लय मानो प्रभु की आनंद केलि ही है।‘‘ देखिये उनकी कविता की एक बानगी:-

ब्रह्म की उपासना है, साहित्य उपासना भी

हृदय कमल जहां नित्य खिल जाता है।

आतम का प्रकाश होता भ्रम का विनाश होता

चंचल, चपल मन अनुभूति पाता है।

सत्य, शिव, सुन्दर स्वरूपता का होता जन्म

मलिन विरूपता का ह्रास होता जाता है।

सारे कुप्रभाव तजि करे जो साहित्य सेवा

वह व्रतधारी वीर ब्रह्मानंद पाता है।।

‘‘नैया है‘‘ पर उनका एक समस्या पूर्ति छंद की बानगी पेश है:-

तू है करूणा निधान, त्रिभुवन वीर राम

तेरो नाम द्वंदहीन, फंद सुलझैया है।

रमापति, क्षमा पति,संस पति, माया पति

पतित जनों की लाज, पत रखवैया है। 

राजिव नयन राम, लोचनाभिराम राम,

मातु कौशल्या का प्यारा तू कन्हैया है।

हित परखैया, जन दुख दलवैया राम

तू ही है खेवैया मोरी डगमग नैया है।।

भुजंगप्रयात छंद में मात्र चार छंदों में उन्होंने सरस्वती की वंदना की है:-

नमौ ईश्वरी शारदा, बुद्धिदा को।

जपै देव दवेी कवि वृंद जाको।।

कृपाकारिणी, मंगलानन्ददा को।  

सुवीणाधृता ब्रह्म पुत्री गिरा को।।

वे अक्सर बिलासपुर में पंडित सरयूप्रसाद त्रिपजी ‘मधुकर‘, द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘, प्यारेलाल गुप्त, बाबू यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव आदि से मिलने और भारतेन्दु साहित्य समिति के वार्षिक अधिवेशन में आया करते थे। उनके बारे में डाॅ. विमलकुमार पाठक लिखते हैं:- ‘गौर वर्णीय, लंबा चेहरा, बारीक घनी मूंछें, पतला कद काठी और थोड़ी झुकी हुई कमर, धोती-कमीज, पीला गमछा, सिर में गोल टोली और हाथ में छाता हाथ में लिए लंबे लंबे डग भरते रायपुर के सड़क में अक्सर देखा जाता था। गर्मी में माथे पर चुहचुहा आये पसीने को रूमाल या गमछे से पोंछते, पानी पीते, डकार लेते और थोड़ी देर तक रूमाल से हवा झेलते हुए स्वस्थ होकर रूकी बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते थे।‘

पंडित मुकुधर पाण्डेय जी अपने एक संस्मरण में बाबू मावली प्रसाद के बारे में लिखते हैं-‘‘मावलीप्रसाद हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध लेखक थे। उनके निबंध उच्च कोटि के होते थे। उन्होंने मौलिक लेख लिखकर जहां हिन्दी के निबंध साहित्य को समृद्ध बनाया, वहीं अनुवाद भी प्रस्तुत किया। श्रीवास्तव जी को स्वयं सप्रे जी से यह अनुवाद कला सीखने का सौभाग्य मिल था। उनका हिन्दी को प्रदेय सराहनीय है।‘‘ 

उनकी एक कविता का भाव देखिये:-

विजय वन का मैं सुमन हूँ। 

वास मुझमें जिस सगुण का,

उस सनातन का सदन हूँ।

झूमता हूँ कंटकों में,

विपिन में विकसित आशंकित।

तन समर्पिण की दिशा में,

मैं अकिंचन सी लगन हूँ। 

साथ जब तारन तरन है,

जो सदा आशरण शरण है।

चरण मंगल करण जिसका,

मैं अभय उसकी शरण है।।

उनके प्रशंसको में सेठ गोविंद दास, डाॅ. रामकुमार वर्मा, डाॅ. विनय मोहन शर्मा, हनुमान प्रसाद पोद्दार, डाॅ. बल्देवप्रसाद मिश्र, पदुनपतल पुन्नालाल बख्शी, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. मुकुटधर पाडेय, प्यारेलाल गुप्त, द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘ रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल‘ नर्मदाप्रसाद खरे और प्रयागदत्त शुक्ल आदि प्रमुख थे। वास्तव में बाबू मावलीप्रसाद श्रीवास्तव मौन साधक और साहित्यिक संत थे। हिन्दी साहित्य में उनके अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे प्रभृत साहित्यकार का 21 अगस्त सन् 1974 को रायपुर में देहावसान हो गया।



रविवार, 14 अगस्त 2022

छत्तीसगढ़ में रासलीला और श्रीकृष्ण के लोक स्वरूप

  19 अगस्त को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर प्रकाशनार्थ

छत्तीसगढ़ में रासलीला और श्रीकृष्ण के लोक स्वरूप 

प्रो. अश्विनी केशरवानी

एक समय था जब नाट्य साहित्य मुख्यतः अभिनय के लिए लिखा जाता था। कालिदास, भवभूति और शुद्रक आदि अनेक नाटककारों की सारी रचनाएं अभिनय सुलभ है। नाटक की सार्थकता उसकी अभिनेयता में है अन्यथा वह साहित्य की एक विशिष्ट लेखन शैली बनकर रह जाती। नाटक वास्तव में लेखक, अभिनेता और दर्शकों की सम्मिलित सृष्टि है। यही कारण है कि नाटक लेखकों के कंधों पर विशेष उत्तरदायित्व होता है। रंगमंच के तंत्र का ज्ञान पात्रों की सजीवता, घटनाओं का औत्सुक्य और आकर्षण तथा स्वाभाविक कथोपकथन नाटक के प्राण हैं। इन सबको ध्यान में रखकर नाटक यदि नहीं लिखा गया है तो वह केवल साहित्यिक पाठ्य सामग्री रह जाती है। भारतीय हिन्दी भाषी समाज में रामलीला और नौटंकी का प्रसार था। कभी कभी रास मंडली भी आया करती थी जो अष्ठछाप के काव्य साहित्य के आधार पर राधा कृष्ण के नृत्यों से परिपूर्ण संगीत प्रधान कथानक प्रस्तुत करती थी। रामलीला और रासलीला को लोग धार्मिक भावनाओं से देखते थे। गांवों में जो नौटंकी हुआ करती थी उसका प्रधान विषय वीरगाथा अथवा उस प्रदेशिक भाग में प्रचलित कोई प्रेम गाथा हुआ करती थी। ग्रामीणजन का मनोरंजन करने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता था। पंडित हीराराम त्रिपाठी के पद्य रासलीला में अधिकतर गाए जाते थे। देखिए उनके गीत की एक बानगी:-

चल वृन्दावन घनस्याम दृष्टि तबै आवै।

होगा पूरन काम जन्म फल पावै।।

द्रुम लता गुल्म तरू वृक्ष पत्र दल दल में।

जित देखे तित श्याम दिखत पल-पल में।।

घर नेह सदा सुख गेह देखु जल थल में।

पावेगा प्रगट प्रभाव हिये निरमल में।।

तब पड़े सलोने श्याम मधुर रस गावै।।1।।

तट जमुना तरू वट मूल लसै घनस्यामैं।

तिरछी चितवन है चारू नैन अभिरामैं।।

कटि कसै कांछनी चीर हीर मनि तामैं।

मकराकृत कुण्डल लोल अमोल ललामैं।।

मन स्वच्छ होय दृग कोर ओर दरसावै।।2।।

सुख पुंज कुंज करताल बजत सहनाई।

अरू चंग उपंग मृदंग रंग सुखढाई।।

मन भरे रसिक श्याम सज्जन मन भाई।

जेहि ढूँढ़त ज्ञानी निकट कबहुं नहिं पाई।।

युग अंखियों में भरि नीर निरखि हुलसावै।।3।।

श्रीकृष्ण प्रीति के रीति हिये जब परसै।

अष्टांग योग के रीति आपु से बरसै।

द्विज हीरा करू विस्वास आस मन हरसै।।

अज्ञान तिमिर मिटि जाय नाम रवि कर से।।

तब तेरे में निज रूप प्रगट परसावै।।4।।

चल वृन्दावन घनश्याम दृष्टि तब आवै।।

मुगलों के आक्रमण के पूर्व भारत के सभी भागों में खासकर राज प्रसादों और मंदिरों में संस्कृत और पाली प्राकृत नाटकों के लेखन और मंथन की परंपरा रही है लेकिन उनका संबंध अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित था। ग्रामीणजन के बीच परंपरागत लोकनाट्य ही प्रचलित थे। मुगलो के आक्रमण से भारतीय परंपराएं छिन्न भिन्न हो गयी और यहां के प्रेक्षागृह भग्न हो गये। तब नाटकों ने दरबारों में भाण और प्रहसन का रूप ले लिया। लेकिन लोकनाट्य की परंपरा आज भी जीवित है...चाहे ढोलामारू, चंदापन या लोरिकियन रूप में हो, आज भी प्रचलित है। आज हमारे बीच जो लोकनाट्य प्रचलित है उसका समुचित विकास मध्य युग के धार्मिक आंदोलन की छत्रछाया में हुआ। यही युग की सांस्कृतिक चेतना का वाहक बना। आचार्य रामचंद्र ने राम कथा को और आचार्य बल्लभाचार्य ने कृष्ण लीला को प्रोत्साहित किया। इनके शिष्यों में सूर और तुलसी ने क्रमशः रासलीला और रामलीला को विकसित किया। इसी समय बंगाल में महाप्रभु चैतन्य ने जात्रा के माध्यम से कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। पं. हीराराम के गीत गाये प्रचलित थे:-

कृष्ण कृपा नहिं जापर होई दुई लोक सुख ताहिं न होई।

देव नदी तट प्यास मरै सो अमृत असन विष सम पलटोई।।

धनद होहि पै न पावै कौड़ी कल्पद्रुम तर छुधित सो होई।

ताको चन्द्र किरन अगनी सम रवि-कर ताको ठंढ करोई।।

द्विज हीरा हरि चरण शरण रहु तोकू त्रास देइ नहिं कोई।।

डाॅ. बल्देव से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह के शासनकाल में नगर दरोगा ठाकुर रामचरण सिंह जात्रा से प्रभावित रास के निष्णात कलाकार थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रामलीला और रासलीला के विकास के लिए अविस्मरणीय प्रयास किया। गौद, मल्दा, नरियरा और अकलतरा रासलीला के लिए और शिवरीनारायण, किकिरदा, रतनपुर, सारंगढ़ और कवर्धा रामलीला के लिए प्रसिद्ध थे। नरियरा के रासलीला को इतनी प्रसिद्धि मिली कि उसे ‘छत्तीसगढ़ का वृंदावन‘ कहा जाने लगा। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, उनके बहनोई कोसिरसिंह और भांजा विश्वेश्वर सिंह ने नरियरा और अकलतरा के रासलीला और रामलीला के लिए अथक प्रयास किया। उस काल में जांजगीर क्षेत्रान्तर्गत अनेक गम्मतहार सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मणदास चिकरहा को नाचा पार्टी में रास का यथेष्ट प्रभाव देखने को मिलता था। उस समय दादूसिंह गौद और ननका रहस मंडली, रानीगांव रासलीला के लिए प्रसिद्ध था। वे पं. हीराराम त्रिपाठी के श्री कृष्णचंद्र का पचरंग श्रृंगार गीत गाते थे:- 

पंच रंग पर मान कसें घनश्याम लाल यसुदा के।

वाके वह सींगार बीच सब रंग भरा बसुधा के।।

है  लाल  रंग  सिर  पेंच  पाव  सोहै,

अँखियों में लाल ज्यौं कंज निरखि द्रिग मोहै।

है लाल हृदै उर माल कसे जरदा के।।1।।

पीले  रंग  तन  पीत  पिछौरा  पीले।

पीले  केचन  कड़ा  कसीले  पीले।।

पीले बाजूबन्द कनक बसुदा के ।। पांच रंग ।।2।।

है हरे रंग द्रुम बेलि हरे मणि छज्जे।

हरि येरे वेणु मणि जड़ित अधर पर बज्जे।।

है हरित हृदय के हार भार प्रभुता के।। पांच रंग।। 3।।

है नील निरज सम कोर श्याम मनहर के।

नीरज नील विसाल छटा जलधर के।।

है नील झलक मणि ललक वपुष वरता के।। पांच रंग।।4।।

यह श्वेत स्वच्छ वर विसद वेद जस गावे।

कन स्वेत सर्वदा लहत हृदय तब आवे।।

द्विज हीरा पचरंग साज स्याम सुखदा के।। पांच रंग।।5।।

बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन् देश के कोने में प्रसिद्ध था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा    है:- 

                                ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों

ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों

यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला

अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला

शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर

बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।

प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। भोगहा जी की एक मात्र प्रकाशित नाटक ‘‘राम राज्य वियोग‘‘ में उन्होंने लिखा है:- ‘‘यहां भी कई वर्ष नित्य हरि कीर्तन, नाटक और रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक समय मेरे छोटे भाई श्रीनिवास ने ‘‘कंस वध उपाख्यान‘‘ का अभिनय दिखाकर सर्व सज्जनों को प्रसन्न किया। इस मंडली में हमारे मुकुटमणि श्रीमान् महंत गौतमदास जी भी सुशोभित थे। श्रीकृष्ण भगवान का अंतध्र्यान और गोपियों का प्रलापना, उनके हृदय में चित्र की भांति अंकित हो गया जिससे आपकी आनंद सरिता उमड़ी और प्रत्यंग को आप सोते में निमग्न कर अचल हो गये। अतएव नाटक कर्ता  का उत्साह अकथनीय था और एक मुख्य कारण इसके निर्माण का हुआ।‘‘ पंडित शुकलाल पांडेय लिखते   हैं:- 

                     हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।

क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।

विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।

राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।

हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।

भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं।।

छत्तीसगढ़ में श्रीकृष्ण के लोक स्वरूप:- 

छत्तीसगढ़ में जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण के लोक स्वरूप की कल्पना करके इसे ‘‘आठे कन्हैया‘‘ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण के स्वरूप की कल्पना उसके लोक रक्षक के रूप में की गयी है। सभी जानते हैं कि उनका जन्म न केवल कंस की आततायी से मथुरा, गोकुल और वृंदावन वासियों को मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था बल्कि पूरी सृष्टि को आसुरी वृत्ति से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था। साथ ही माता देवकी के गर्भ से जन्म लेने, माता यशोदा को बाललीला दिखाने, हस्तिनापुर के कौरव-पांडवों के युद्ध में लोकलीला उनका मुख्य उद्देश्य था। डाॅ. पीसीलाल यादव का मानना है कि जब लागों की आवाज कंस के सामंती व्यवस्था में कुचली जा रही थी तब लोक भावनाओं की रक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। आठे कन्हैया लोक संस्थापक श्रीकृष्ण के जनमोत्सव का केवल प्रतीक मात्र नहीं है, अपितु लोक समूह की शक्ति को प्रतिस्थापित करने का पर्व भी है। उन्होंने हठी इंद्र के मान मर्दन और लोकरक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत उठाया था। शायद इसी कारणलोक संगइक के रूप में श्रीकृष्ण जन जन में पूजनीय हैं। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में आठे कन्हैया के प्रतिअगाध श्रद्धा है। इस दिन अधिकांश बड़े-बूढ़े और स्त्री-पुरूष उपवास करते हैं। इस दिन मालपुआ, खीर पूड़ी बनाकर भोग लगाया जाता है।

मटकी फोड़ और दहिकांदो:- 

‘गोविंदा आला ले..‘ गीतों के साथ जन्माष्टमी के दिन मटकी फोड़ और दही लूट प्रतियोगिता प्रायः सभी जगहों में होता है। पहले छत्तीसगढ़ में श्रीकृष्ण जन्म के साथ दही लूटकर नाचने की परंपरा थी जिसे दहिकांदो कहा जाता है।

रायगढ़ में जन्माष्टमी उत्सव:- 

रायगढ़ जिला मुख्यालय में सेठ किरोड़ीमल के द्वारा स्थापित गौरीशंकर मंदिर स्थित है। यहां गौरी शंकर के अलावा राधा कृष्ण की मूर्ति भी है। यहां प्रतिवर्ष जन्माष्टमी बड़े धूमधाम से मानाया जाता है। मंदिर परिसर में अनेक प्रकार की झंकियां लगाई जिसे देखने के लिए छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के लोग आते हैं। इस अवसर पर अनेक प्रकार के मनोरंजन के साधन, मीना बाजार, झूला और खरीदी के लिए दुकानें लगती है। मेला जैसा दृश्य होता है। पूरे प्रदेश में जन्माष्टमी का अनूठा आयोजन होता है।

छत्तीसगढ़ का वृंदावन नरियरा का राधाकृष्ण मंदिर:- 

जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत अकलतरा रेल्वे स्टेशन से मात्र 10 कि. मी. दूरी पर स्थित ग्राम नरियरा में लगभग 100 साल पुराना राधाकृष्ण मंदिर है। यहां सन 1925 में श्री प्यारेलाल सनाड्य ने रासलीला शुरू किया था जिसे नियमित, संगठित और व्यवस्थित किया ठाकुर कौशलसिंह ने। यहां प्रतिवर्ष माघ सुदि एकादशी से 15 दिन रासलीला होता था। जिसे देखने के लिए दूर दूर से लोग यहां आते थे। वृंदावन के रासलीला की अनुभूति लोगों को होती थी। कदाचित् इसी कारण नरियरा को छत्तीसगढ़ का वृंदावन कहा जाता है। कृष्ण भक्ति का अनूठा उदाहरण यहां देखने को मिलता है। इसीलिए पंडित शुकलाल पांडेय ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में गाते हैं:-

                                 ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों

ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों



 


गुरुवार, 11 अगस्त 2022

ममता, दया और करूणा की प्रतिमूर्ति मिनीमाता

 11 अगस्त को पुण्यतिथि के अवसर पर

ममता, दया और करूणा की प्रतिमूर्ति मिनीमाता

प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्तीसगढ़ में अनेक महान लोगों ने जन्म लेकर ऐसे सद्कार्य किया जिसके कारण आज भी उन्हें श्रद्धा से स्मरण किया जाता है। पंडित सुंदरलाल शर्मा, डाॅ. खूबचंद बघेल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह और क्रांतिकुमार भारती जैसे महान क्रांतिकारी, पंडित रविशंकर शुक्ल, बैरिस्टर छेदीलाल जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और छत्तीसगढ़ के हित साधक ममतामयी, सहृदय, दया और करूणामयी मिनीमाता भी एक थी। मिनीमाता का जन्म असम के नुवागांव जिले के जमुनामुख में 15.03.1916 को ऐसे समय में हुआ जब छत्तीसगढ़ में भीषण अकाल के कारण ऐसे अनेक परिवार जीविका की तलाश में मजदूरी करने असम गये और अनेक प्रकार के कष्टों के बीच मजदूरी करते जीवनयापन कर रहे थे। उनकी माता का नाम देवमती और पिता का नाम बुधारी महंत था। वास्तव में उनका परिवार मूलतः अविभाजित बिलासपुर जिले (अब कबीरधाम जिला) के पंडरिया जमींदारी के अंतर्गत सगोना का निवासी था। सन् 1901 से 1910 के बीच जब छत्तीसगढ़ में भीषण आकाल पड़ा जिससे बहुत से गरीब परिवार जीविका की तलाश में छत्तीसगढ़ छोड़कर असम के चाय बगानों में काम करने चले गये। 

मिनीमाता के नाना का परिवार छत्तीसगढ़ में अकाल के दौरान असम के चाय बगान कैसे पहुंचा इसका मार्मिक चित्रण लोकप्रिय साहित्यकार डाॅ. परदेशीराम वर्मा ने किया है। उनके अनुसार सगोना का मालगुजार परिवार इस अकाल से त्रस्त होकर जीविका के लिए अपनी पत्नी और तीन बेटियों के साथ असम के चाय बगानों में काम की तलाश के लिए बिलासपुर आ गया। यहां के रेल्वे स्टेशन में सरकारी किचन से उन्हें खाना मिला। खाना खाकर वे वहीं सुस्ता रहे थे कि मजदूर ले जाने वाले ठेकेदार ने उन्हें मजदूरों के साथ असम ले जाने के लिए साथ में ले लिया। ट्रेन कलकत्ता भी नहीं पहुंची थी कि उनकी एक बेटी की मृत्यु हो गई। अकाल से पीड़ित परिवार में पति पत्नी के अलावा ये तीन बेटियां ही थी जिनमें से एक बेटी ने मृत्यु का वरण कर लिया था। उन्हें ढाढस बंधाने वाला भी कोई नहीं था। मां-बाप ने तय किया कि सामने वाली गंगामाई को चलती ट्रेन से प्रणाम कर माटी के चोला को सौंप देंगे। गंगा नदी का चैड़ा पाट देर से दिखा। थरथराते हाथों से बच्ची के शव को पिता ने विलाप करते हुए चलती ट्रेन से गंगा को सौंप दिया ... ‘मिला लेबे महतारी।‘ गुरू घासीदास का संदेश- ‘माटी के चोला, माटी के काया, के दिन रहिबे, बता दे मोला ...।‘ रेल के डिब्बे में बैठे लोग भी इस दृश्य को देखकर हिल गये थे। बच्ची की मां बेसुध होकर पड़ी थी। लेकिन सब कुछ सामान्य था। कलकत्ता पहुंचकर सबने ट्रेन बदली और चल पड़े असम की ओर...। पद्मा नदी पास आ रही थी और पहली बेटी की तरह दूसरी बेटी ने भी साथ छोड़ दिया ... और पहली बेटी की तरह पिता ने उन्हें भी कांपते हाथों से रोत बिलखते पद्मा नदी को सौंप दिया। कबीर की वह व्यवस्था भी नहीं बन सकी जो आखरी बिदाई के संदर्भ में प्रचलित है -

‘चार हाथ चरगज्जी मंगाये,

चढ़े काठ के घोड़ा, अऊ घोड़ा जी,

चार संत तोहे बोहिके लेंगे .......।‘

ऐसा कुछ भी नहीं हुआ दोनों बेटी के लिए, न चरगज्जी मंगाई जा सकी, न काठ के घोड़े में बिटिया को चढ़ाया जा सका और न ही चार संत मिले जो उन्हें कंधे में लेकर श्मशाम तक जाते। डाॅ. वर्मा जी आगे लिखते हैं, सत्य मार्ग के पथिक पिता ने गुरूजी से संबल मांगा-

‘सत्य में हे धरती, सत्य में अकास हो,

सत्य में हे चंदा, सत्य में परकास हो।

सत्य में तर जाही संसार,

अमरित धार बोहाई दे,

होई जाही बेड़ा पार,

सतगुरू महिमा दिखाई दे....।‘

अब उनकी गोद में केवल एक बेटी, छै वर्षीया बेटी ‘देवमती‘। संयोग देखिये कि असाम पहुंचकर देवमती के माता पिता भी ज्यादा दिन जीवित नहीं रहे और परलोक सिधार गये। भरे पूरे संसार में तब देवमती को एक नये परिवार का साथ मिला। चाय के बगान में काम करते देवमती ने एक साथी मजदूर बुधारी को जीवन साथी बनाया और उन्हीं की बिटिया थी मिनीमाता। होलिका दहन के दिन 15 मार्च 1916 को एक बच्ची ने जन्म लिया जिन्हें सबने छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान के लिए जीवन समर्पित करने वाली मिनीमाता के रूप में जाना। उनका वास्तविक नाम ‘मीनाक्षी‘ था। जमुनामुख में ही मीनाक्षी ने शिक्षा में प्राप्त की। एक दिन सतनाम पंथ के गुरू अगमदास उनके घर पहंुचे। पूरा परिवार गुरू के आगमन से खुश हो उठा-

‘मोरे फूटे करम आज जागे हो साहेब।

मेरे अंगना म आइके बिराजे हो साहेब।।‘

गुरूजी के साथ राजमहंत, सेवादार सिपाही भी थे। गुरूजी का कोई पुत्र नहीं था। गद्दी के अधिकारी की चिंता गुरूजी को थी। उन्होंने अपनी चिंता मीनाक्षी की मां को बताया। गुरूजी के संकेत के महत्व को समझते हुए मां ने स्वीकृति दे दी। यह एक विलक्षण और इतिहास रचने वाला क्षण था। छत्तीसगढ़ के भाग्य को संवारने के लिए एक मां ने अपनी बेटी की यात्रा सही कदशा में मोड़ रही थी। ये वही मां थी जो अपने पिता के साथ छत्तीसगढ़ छोड़कर क्या आई कि सब कुछ छूट सा गया मगर गुरूजी के आदेश से फिर उसी धरती की ओर उनकी यात्रा मुड़ गई थी। परिवार सहित मीनाक्षी देवी छत्तीसगढ़ आ गई मिनीमाता के रूप में गुरूमाता बनकर। उनका छत्तीसगढ़ आगमन ऐसे दौर में हुआ जब पूरा देश स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था। गुरूजी अगमदास का घर स्वतंत्रता सेनानियों से भरा रहता था। रायपुर का वह घर स्वतंत्रता का अलख जगाने वाले सेनानियों का ऐसा किला था जहां रसद और अन्य सुविधा पर्याप्त मात्रा में थी। उनके बीच मीनाक्षी को ऐसा संस्कार मिला कि उन्होंने आजीवन खादी पहनने का व्रत ले लिया और उनके साथ इस आंदोलन में कूद पड़ी। गुरू परिवार की उदार परम्परा के अनुरूप निराश्रित और जरूरतमंदों को निरंतर संरक्षण देती रही। यहां के हर गांव को गुरू अगमदास अपना गांव मानते थे। मिनीमाता ने छत्तीसगढ़ में आकर उनकी सहृदयता, सरलता, निष्कपटता और समर्पण भावना को गहराई से समझा। सन् 1951 में गुरू अगमदास परलोक सिधार गये। उस समय वे सांसद थे। गुरू गद्दी और अवयस्क पुत्र विजयकुमार गुरू के साथ ही मिनीमाता को छत्तीसगढ़ की चिंता व्यथित कर रही थी। बहुत सी चुनौतियों को झेलते हुए गुरूजी के कामों को आगे बढ़ाने का निश्चिय किया। उन्हें असमिया, बांगला, अंग्रेजी, हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। उन्होंने न केवल सतनामी समाज का परिपोषण और संरक्षण नहीं किया बल्कि अन्य लोगों, श्रीकांत वर्मा जैसे साहित्यकार, कामरेड मुस्ताक, कवि मैथ्यू जहानी जर्जर, भंवरसिंह पोर्ते जैसे राजनेता और चंदूलाल चंद्राकर जैसे पत्रकार पर समान स्नेह रखती थी। उनकी ममता, दया और स्नेह जग जाहिर था। उनका द्वार सबके लिए खुला था। वे छत्तीसगढ़ की उदार और दिव्य मातृ परंपरा की पूंजी लेकर राजनीति में आई और सबकी लाडली बन गई।

सन् 1952 में वे सांसद बनकर दिल्ली पहुंची। वे 1952 से 1972 तक सारंगढ़, जांजगीर और महासमुंद लोकसभा क्षेत्र की सांसद रहीं। पंडित रविशंकर शुक्ल, महंत लक्ष्मीनारायण दास आदि प्रदेश के प्रथम पंक्ति के नेताओं के साथ काम किया। मिनीमाता ने बाबा साहेब अम्बेडकर और पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा दी गई जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। छुआछूत मिटाने तथा अधिकार विहीन दलितों-पिछड़ों के हितों के लिए मिनीमाता ने एक ऐसा आंदोलन छेड़ा कि वे देश और प्रदेश में पूजनीय हो गई। देशी-विदेशी, स्वजातीय, ऊंच-नीच, धनी-गरीब सब पर एक समान व्यवहार करने वाली मिनीमाता के चमत्कारिक व्यक्तित्व से इंदिरा जी बेहद प्रभावित हुई। उनकी तेजस्विता तब सामने आई जब मुंगेली क्षेत्र के निरपराध सतनामियों की हत्या हो गई। करूणा और दया की प्रतिमूर्ति मिनीमाता उस दौर में ऐसा सिंहनाद किया कि दरिंदे भी कांप उठे। इस घटना के बाद उनकी सक्रियता और बढ़ गई। हर सताया हुआ समाज, दबा हुआ व्यक्ति और शोषित समुदाय मिनीमाता के आंचल की छांव चाहने लगा था। प्रसिद्ध पत्रकार राजनारायण मिश्र, राजनेता और साहित्यकार केयूर भूषण और पंथी कलाकार देवदास बंजारे मिनीमाता की सहृदयता, दूर दृष्टि और सहयोग की तारीफ करते थकते नहीं थे। 

वास्तव में मिनीमाता समाज की गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ापन दूर करने में पूरा जीवन समर्पित कर दिया। मजदूर हितों और नारी शिक्षा के प्रति हमेशा जागरूक रहीं। बाल विवाह और दहेज प्रथा दूर करने के लिए समाज से संसद तक आवाज बुलंद किया। छत्तीसगढ़ में कृषि तथा सिंचाई के लिए हसदेव बांगों परियोजना उनकी दूर दृष्टि का परिचायक है। शासन उनके नाम पर इस परियोजना को ‘मिनीमाता हसदेव बांगों परियोजना‘ शुरू किया। उन्होंने भिलाई इस्पात संयंत्र में स्थानीय लोगों को रोजगार देने के लिए भरपूर प्रयास किया। यही नहीं बल्कि एक बार अपने रायपुर स्थित निवास में मजदूरों से पथराव कराकर शासन को स्थानीय लोगों को रोजगार देने के लिए बाध्य किया था। उनकी सक्रियता और समझाइश से धर्मान्तरण पर भी प्रभाव पड़ा। अपने जीवन काल में उन्होंने हजारों लड़कियों को साहस के साथ अपना जीवन गढ़ने का मंत्र दिया। 11 अगस्त 1972 को एक हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया। उनके निधन से बेसहारा लोगों ने अपना मसीहा और प्रदेश ने एक सजग प्रहरी खो दिया। छत्तीसगढ़ शासन उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए कोरबा में शासकीय मिनीमाता कन्या महाविद्यालय, बलौदाबाजार में शासकीय मिनीमाता कन्या महाविद्यालय, राजनांदगांव में मिनीमाता शासकीय कन्या पालिटेकनिक महाविद्यालय, लोरमी में ममतामयी मिनीमाता कला एवं विज्ञान महाविद्यालय और बाल्को के कन्या स्कूल का नामकरण भी उनके नाम पर किया गया है। जांजगीर-बिलासपुर मार्ग में अकलतरा मोड़ में मिनीमाता की मूर्ति स्थापित कर मिनीमाता चैंक नाम रखा गया है। यही नहीं बल्कि महिला उत्थान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए मिनीमाता सम्मान छत्तीसगढ़ शासन के द्वारा दिया जाता है। रामधारी सिंह दिनकर ने ठीक ही कहा है:-

‘तुमने दिया राष्ट्र को जीवन,

देश तुम्हें क्या देगा।

अपनी आग तेज रखने को,

तुम्हारा नाम लेगा।‘



मंगलवार, 9 अगस्त 2022

शिवरीनारायण और ठाकुर जगमोहन सिंह

 08 अगस्त को जयंती के अवसर पर

शिवरीनारायण और ठाकुर जगमोहन सिंह 

प्रो. अश्विनी केशरवानी

महानदी के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से भरपूर और छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी के नाम से विख्यात् शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह नगर कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ‘‘प्रयाग‘‘ जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ‘‘श्री नारायण क्षेत्र‘‘ और ‘‘श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र‘‘ कहा गया है। ऐसे सांस्कृतिक नगर में ठाकुर जगमोहनसिंह का आना प्रदेश के बिखरे साहित्यकारों के लिए एक सुखद संयोग था। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ही हिन्दी के विद्वानों का ध्यान छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु युगीन प्रवासी कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहनसिंह की ओर गया है। क्योंकि उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया है। यही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को ‘जगन्मोहन मंडल‘ बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की दिशा भी दी। ‘जगन्मोहन मंडल‘ काशी के ‘भारतेन्दु मंडल‘ की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के साहित्यकार शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने लगे। उस काल के अन्यान्य साहित्यकारों के शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुआ है। इनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय, रायगढ़-परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, बलौदा के पं. वेदनाथ शर्मा, बालपुर के मालगुजार पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, बिलासपुर के जगन्नाथ प्रसाद भानु, धमतरी के काव्योपाध्याय हीरालाल, बिलाईगढ़ के पं. पृथ्वीपाल तिवारी और उनके अनुज पं. गणेश तिवारी और शिवरीनारायण के पं. मालिकराम भोगहा, पं. हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, महंत अर्जुनदास, महंत गौतमदास, पं. विश्वेश्वर शर्मा, पं. ऋषि शर्मा और दीनानाथ पांडेय आदि प्रमुख हैं। शिवरीनारायण में जन्में, पले बढ़े और बाद में सरसींवा निवासी कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय ने ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में ऐसे अनेक साहित्यकारों का नामोल्लेख किया है:-

नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।

        बख्तावर, प्रहलाद दुबे,  रेवा, जगमोहन।

हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।

विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, ब्रज गिरधर।

विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छत्तीस कोट कवि।

  हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।

इस प्रकार उस काल में शिवरीनारायण सांस्कृतिक के साथ ही ‘साहित्यिक तीर्थ‘ भी बन गया था। द्विवेदी युग के अनेक साहित्यकारों- पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. शुकलाल पांडेय, नरसिंहदास वैष्णव, सरयूप्रसाद तिवारी ‘मधुकर‘, ज्वालाप्रसाद, रामदयाल तिवारी, प्यारेलाल गुप्त, छेदीलाल बैरिस्टर, पं. रविशंकर शुक्ल, सुंदरलाल आदि ने शिवरीनारायण की सांस्कृतिक-साहित्यिक भूमि को प्रणाम किया है। मेरा जन्म इस पवित्र नगरी में ऐसे परिवार में हुआ है जो लक्ष्मी और सरस्वती पुत्र थे। पं. शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में मेरे पूर्वज गोविंदसाव को भारतेन्दु युगीन कवि के रूप में उल्लेख किया है:-

रामदयाल समान यहीं हैं अनुपम वाग्मी।

हरीसिंह से राज नियम के ज्ञाता नामी।

गोविंद साव समान यहीं हैं लक्ष्मी स्वामी।

हैं गणेश से यहीं प्रचुर प्रतिभा अनुगामी।

श्री धरणीधर पंडित सदृश्य यहीं बसे विद्वान हैं।

हे महाभाग छत्तीसगढ़ ! बढ़ा रहे तब मान हैं।।

शिवरीनारायण का साहित्यिक परिवेश ठाकुर जगमोहनसिंह की ही देन थी। उन्होंने यहां दर्जन भर पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी। शबरीनारायण जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल के लोग, उनका रहन-सहन और व्यवहार उन्हें सज्जनाष्टक ‘आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय’ लिखने को बाध्य किया। भारत जीवन प्रेस बनारस से सन् 1884 में सज्जनाष्टक प्रकाशित हुआ। वे यहां के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा से अत्याधिक प्रभावित थे। भोगहा जी के पुत्र मालिकराम भोगहा ने तो ठाकुर जगमोहनसिंह को केवल अपना साहित्यिक गुरू ही नहीं बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनके संरक्षण में भोगहा जी ने हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया और उर्दू और मराठी साहित्य का अध्ययन किया, अनेक स्थानों की यात्राएं की और प्रबोध चंद्रोदय, रामराज्यवियोग और सती सुलोचना जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिसका सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया। इसके मंचन के लिए उन्होंने यहां एक नाटक मंडली भी बनायी थी।

ठाकुर जगमोहनसिंह हिन्दी के प्रसिद्ध प्रेमी कवियों-रसखान, आलम, घनानंद, बोधा ठाकुर और भारतेन्दु हरिश्चंद्र की परंपरा के अंतिम कवि थे जिन्होंने प्रेममय जीवन व्यतीत किया और जिनके साहित्य में प्रेम की उत्कृष्ट और स्वाभाविक अभिव्यंजना हुई है। प्रेम को इन्होंने जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार किया था। ‘श्यामालता‘ के समर्पण के अंत में उन्होंने प्रेम को अभिव्यक्त किया है-‘‘अधमोद्धारिनि ! इस अधम का उद्धार करो, इस अधम का कर गहो और अपने शरण में राखो। यह मेरे प्रेम का उद्धार है। तूने मुझे कहने की शक्ति दी, मेरी लेखनी को शक्ति दी, तभी तो मैं इतना बक गया। यह मेरा सच्चा प्रेम है, कुछ उपर का नहीं जो लोग हंसे...।‘‘

कहा जाता है कि विवाहित होकर भी उन्होंने एक ब्राह्मण महिला से प्रेम किया और उन्हें ‘श्यामा‘ नाम देकर अनेक ग्रंथों की रचना की। ‘श्यामालता‘ (सन् 1885) को श्यामा को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है:- ‘‘मैंने तुम्हारे अनेक नाम धरे हैं क्योंकि तुम मेरे इष्ट हौ और तुम्हारे तो अनेक नाम शस्त्र, वेद पुराण काव्य स्वयं गा रहे हैं तो फिर मेरे अकेले नाम धरने से क्या होता है। तुम्हारे सबसे अच्छे नाम श्यामा, दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, वैष्णवी, त्रिपुरसुन्दरी, श्यामा सुन्दरी, मनमोहिनी, त्रिभुवनमोहिनी, त्रैलोक्य विजयिनी, सुभद्रा, ब्रह्माणी, अनादिनी देवी, जगन्मोहिनी इत्यादि-इनमें से मैं तुम्हें कोई एक नाम से पुकार सकता हंू। पर उपासना भेद से तथा इस काव्य को देख मैं इस समय केवल ‘श्यामा‘ ही कहंूगा।‘‘

‘श्यामालता‘ (सन् 1885) के छंदो को छŸाीसगढ़ और सोनाखान के रमणीक वन, पर्वतों और झरनों के किनारे रचीं। इनमें 132 छंद हैं। ‘प्रेमसम्पŸिालता‘ (सन् 1885) भी यहीं लिखा। इसमें 47 सवैया और 4 दोहा है। इसमें श्यामा और उसके वियोग का मार्मिक चित्रण है। इसी समय उन्होंने गद्य पद्य उपन्यास ‘श्यामास्वप्न‘ की रचना की। इसे उन्होंने अपने मित्र बाबू मंगलप्रसाद को समर्पित किया है। इस उपन्यास की गणना खड़ी बोली के प्रारंभिक उपन्यासों में की जा सकती है। यह गद्य रचना होते हुए भी काव्यात्मक है। रचनाकार ने अपने भावों को अधिक मार्मिक और प्रभावशाली बनाने के लिए पद्यों का आश्रय लिया है। इसमें लेखक द्वारा रचित कविŸा तो हैं ही, इसके अलावा देव, बिहारी, कालिदास, तुलसीदास, गिरधर, बलभद्र, श्रीयति, पद्माकर तथा भारतेन्दु की रचनाओं का भी प्रयोग हुआ है। उन्होंने इसमें श्रीराम के दंडकवन जाने और रास्ते में सुन्दर वन, नदी और पर्वतादिक मिलने का सुन्दर वर्णन किया है:-

बहत महानदि जोगिनी शिवनद तरल तरंग।

कंक गृध्र कंचन निकर जहं गिरि अतिहि उतंग।।

जहं गिरि अतिहि उतंग लसत श्रृंगन मन भाये।

जिन पै बहु मृग चरहिं मिष्ठ तृण नीर लुभाये।।

जोगिनी आज जोंकनदी और शिवनद शिवनाथ नदी के नाम से सम्बोधित होती हैं और शिवरीनारायण में महानदी से मिलकर त्रिवेणी संगम बनाती है। यहां पिंडदान करने से बैकुंठ जाने का उल्लेख शिवरीनारायण माहात्म्य में हुआ हैः-

शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।

पिण्ड दान वहां जो करे, तरो बैकुण्ठ जाय।।

सन् 1886 में ‘श्यामा सरोजनी‘ की रचना हुई। इसमें 204 छंद है। श्यामा को समर्पित करते हुए इस पुस्तक में लेखक लिखते हैं:-‘‘हृदयंगमे ! मनोर्थ मंदिर की मूर्ति ! लो यह श्यामा सरोजनी तुम्हें समर्पित है। श्यामालता से इसकी छटा कुछ और है, वह श्यामालता थी-यह उसी लता मंडप के मेरे मानसरोवर की श्यामा सरोजनी है, इसका पात्र और कोई नहीं जिसे दंू। हां एक भूल हुई कि श्यामास्वप्न एक प्रेमपात्र को समर्पित किया गया पर यदि तुम ध्यान देकर देखो तो वास्तव में भूल नहीं हुई, हम क्या करें, तुम अब चाहती हौ कि अब ढोल पिटें, आदि ही से तुमने गुप्तता की रीति एक भी नहीं निबाही। हमारा दोष नहीं तुम्हीं बिचारो मन चाहै तो अपनी तहसीलदारी देख लो, दफ्तर के दफ्तर मिसलबंदी होकर धरे हैं, आप में कहकर बदल जाने की प्रकृति अधिक थी इसीलिये प्रेमपात्र को स्वप्न समर्पित कर साक्षी बनाया अब कैसे बदलोगी ? जाने दो इस पवारे से क्या-‘नेकी बदी जो बदीहुती भाल में होनीहुती सु तो होय चुकी री‘ पर यह तुम दृढ़ बांध रखना कि मैं यद्यापि तेरा वही सेवक और वही दास हंू जिसको तूने इस कलियुग में दर्शन देकर कृतार्थ किया था- अब आप अपनी दशा तो देखिये मैं तो अब यही कहकर मौंन हो जाता हंू।‘‘ एक सवैया देखिये-

जिनके हितु त्यागि कै लोक की लाज की संगही संग में फेरी कियो। हरिचंद जू त्यो मग आवत जात में साथ घरी 2 घेरी कियो। जिनके हितु मैं बदनाम भई तिन नेकु कह्यो नहि मेरो कियो। हमै व्याकुल छाड़ि कै हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो।।

‘श्यामा सरोजनी‘ में श्यामा के वियोग में विरह व्यथा का उत्कृष्ट वर्णन हुआ है:-

यह चैत अचेत करै हमसे दुखियान को चांदनी छार करै।

पर ध्यान धरो निसिवासर सो जेहि को मुहि नाम सुपार करै।।

यह श्यामा सरोजनी सीस लसै मन मानस हंसिनी हार करै।

जगमोहन लोचन पूतरी लौं पल भीतर बैठि बिहार करै।।

इससे प्रमाणित होता है कि उन्होंने अपने प्रेम में असफल होकर निराशा पायी। श्यामास्वप्न में श्यामा के दोनों प्रेमी कमलाकांत और श्यामसुन्दर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर कवि जगमोहन ही जान पड़ते हैं, कारण हाकिनी के प्रभाव से कारामुक्त कमलाकांत अचानक अपने को कविता कुटिर में पाते हैं जहां श्यामालता-कहीं सांख्य, कहीं योग-कहीं देवयानी के नूतन रचित पत्र बिखरे पड़े हैं। यह श्यामालता और देवयानी स्वयं जगमोहन सिंह की रचनाएं हैं और सांख्य सूत्रों का आर्याछंदों में अनुवाद भी उन्होंने ही किया है। श्यामा सरोजनी के बाद कवि की किसी अन्य रचना का प्रकाशन नहीं हुआ है। जान पड़ता है कि प्रेम के उल्लास और फिर निराशा के आवेग में उन्होंने डेढ़-दो वर्ष में ही तीन-चार रचनाएं रच डालीं फिर आवेश कम होने पर वे शिथिल पड़ गये। अंतिम रचना वे ‘‘जब कभी‘‘ नाम से लिखते रहे, इसमें जब जैसी तरंग आई कुछ लिख लिया करते थे। यह गद्य पद्यमय रचना अपूर्ण और अप्रकाशित है। स्फुट कविताएं और समस्या पूर्तियां भी इन्होंने की है लेकिन ये डायरी के पन्नों में कैद होकर प्रकाश में नहीं आ सकीं। ब्रजरत्नदास ने भी श्यामास्वप्न के सम्बंध में लिखा है-‘कुछ ऐसा ज्ञात होता है कि ठाकुर साहब ने कुछ अपनी बीती इसमें कही है।‘ उनकी बिरह की एक बानगी उनके ही मुख से सुनिये-

श्यामा बिन इत बिरह की लागी अगिन अपार

पावस धन बरसै तरू बुझै न तन की झार।

बुझै न तन की झार मार निज बानन मारत

आंसू झरना डरन मरन को जो मुहिं जारत।

जारत अंत अनंग मीत बनि नीरद रामा

कैसे काटो रैन बिना जगमोहन श्यामा।

सन् 1884 में भारत जीवन प्रेस, बनारस से ‘‘सज्जनाष्टक‘‘ प्रकाशित हुई थी। इसमें शिवरीनारायण के आठ सज्जन व्यक्तियों का वर्णन है। वे इसकी भूमिका में लिखते हैं-‘इस पुस्तक में आठ सज्जनों का वर्णन है, जो शबरीनारायण को पवित्र करते हैं। आशा है कि इन लोगों में परस्पर प्रीति की रीति प्रतिदिन बढ़ेगी और ये लोग ‘‘सज्जन‘‘ शब्द को सार्थक करेंगे। इसको मैंने सबके विनोदार्थ रचा है।‘ इसमें मंगलाचरण और शबरीनारायण को नमन करते हुए मंदिर के पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा के बारे में उन्होंने लिखा हैः-

है यदुनाथ नाथ यह सांचो यदुपति कला पसारी।

चतुर सुजन सज्जन सत संगत जनक दुलारी।।

दूसरे और तीसरे सज्जन शिवरीनारायण मठ के महंत स्वामी अर्जुनदास और स्वामी गौतमदास जी और चैथे पं. ऋषिराम शर्मा हैं। पांचवे सज्जन यहां के लखपति महाजन श्री माखनसाव थे जिन्होंने दो धाम की यात्रा सबसे पहले करके रामेश्वरम में जल चढ़ाकर पुण्यात्मा बने थे। छठे सज्जन सुप्रसिद्ध कवि और शिवरीनारायण माहात्म्य को प्रकाशित कराने वाले पंडित हीराराम त्रिपाठी, सातवें श्री मोहन पुजारी और आठवें लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुजारी पंडित श्री रमानाथ थे। अंतिम तीन दोहा में उन्होंने पुस्तक की रचनाकाल और सार्थकता को लिखा है-

रहत ग्राम एहि विधि सबै सज्जन सब गुन खान।

महानदी सेवहिं सकल जननी सब पय पान।।32।।

श्री जगमोहन सिंह रचि तीरथ चरित पवित्र।

सावन सुदि आठैं बहुरि मंगलवार विचित्र।।33।।

संवत विक्रम जानिए इन्दु वेद ग्रह एक।

शबरीनारायण सुभग जहं जन बहुत बिवेक।।34।।

इसे सत्संग का ही प्रतिफल माना जा सकता है। उन्होंने स्वयं लिखा है-

सत संगत मुद मंगल मूला।

सुइ फल सिधि सब साधन फूला।।

इसी प्रकार 21, 22 और 23 जून सन् 1885 में महानदी में आई बाढ़ और उससे शिवरीनारायण में हई तबाही का, महानदी के उद्गम स्थली सिहावा से लेकर अंत तक उसके किनारे बसे तीर्थ नगरियों का छंदबद्ध वर्णन उन्होंने ‘प्रलय‘ में किया है। प्रलय सन् 1889 में जब वे कूचविहार के सेक्रेेटरी थे, तब प्रकाशित हुआ था। इसमें दोहा, चैपाई, सोरठा, कंडलियां, भुजंगप्रयात, तोटक और छप्पय के 116 छंद है। देखिये उनका एक छंद-

शिव के जटा विहारिनी बही सिहावा आय।

गिरि कंदर मंदर सबै टोरि फोरि जल जाय।।3।।

राजिम श्रीपुर से सुभग चम्पव उद्यान।

तीरथ शबरी विष्णु को तारत वही सुजान।।4।।

सम्बलपुर चलि कटक लौ अटकी सरिता नाहि।

सरित अनेकन लै कटकपुरी पहुंच जल जाहि।।5।।

इस बाढ़ में शिवरीनारायण का तहसील कार्यालय महानदी को समर्पित हो गया। उसके बाद सन् 1891 में तहसील कार्यालय जांजगीर में स्थानांतरित कर दिया गया और शिवरीनारायण को बाढ़ क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। देखिये कवि की एक बानगी-

पुनि तहसील बीच जहं बैठत न्यायाधीश अधीशा।

कोष कूप(क) पर भूप रूप लो तहं पैठ्यो जलधीशा।।37।।

शिवरीनारायण में बाढ़ से हुई तबाही का एक दृश्य देखिये-

पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस

त्राहि त्राहि चहुं मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास

छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी

काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी

तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी

धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी।।52।।

सब रमापति भगवान शिवरीनारायण की स्तुति करने लगे-

जय जय रमानाथ जग पालन। जय दुख हरन करन सुख भावन।

जय शबरीनारायण जय जय। जय कमलासन त्रिभुवनपति जय।।76।।

उन्होंने ‘‘श्यामालता‘‘ और ‘‘देवयानी‘‘ की रचना की। ये दोनों रचना सन् 1884 में रची गयी और इसे श्यामास्वप्न और श्यामा विनय की भूमिका माना गया। श्यामास्वप्न एक स्वप्न कथा है-एक ऐसी फैन्टेसी जो अपनी चरितार्थता में कार्य-कारण के परिचित रिश्ते को तोड़ती चलती है। देश को काल और फिर काल को देश में बदलती यह स्वप्न कथा उपर से भले ही असम्भाव्य संभावनाओं की कथा जान पड़े लेकिन अपनी गहरी व्यंजना में वह संभाव्य असंभावनाओं का अद्भूत संयोजन है। श्यामास्वप्न के मुख पृष्ठ पर कवि ने इसे ‘‘गद्य प्रधान चार खंडों में एक कल्पना‘‘ लिखा है। परन्तु अंग्रेजी में इसे ‘‘नावेल‘‘ माना है। हालांकि इसमें गद्य और पद्य दोनों में लिखा गया है। लेकिन श्री अम्बिकादŸा व्यास ने इसे गद्य प्रधान माना है। उपन्यास आधुनिक युग का सबसे अधिक महत्वपूर्ण साहित्य रूप है जिसे आधुनिक मुद्रण यंत्र युग की विभूति कह सकते हैं। मध्य युगीन राज्याश्रय में पलने वाले साहित्य में यह सर्वथा भिन्न है। देखिए कवि की एक बानगी:-

मोतिन कैसी मनोहर माल गुहे तुक अच्छर जोरि बनावै।

प्रेम को पंथ कथा हरिनाम की बात अनूठी बनाय सुनावै।

ठाकुर सो कवि भावत मोहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै।

पंडित को प्रवीनन को जोई चिŸा हरै सो कविŸा कहावै।

श्यामास्वप्न के सभी चरित्र रीतिकालीन काव्य के विशेष चरित्र हैं। कमलाकांत और श्यामसुंदर अनुकूल नायक हैं। श्यामा मुग्धा अनूठी परकीया नायिका है और वृन्दा उनकी अनूठी सखी है। रचनाकार ने सबको कवि के रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी कविताएं श्रृंगार रस से सराबोर है। इससे इस उपन्यास का वातावरण रीतिकालीन परम्परासम्मत हो गया है और इसका कथानक जटिल बन पड़ता है। कवि स्वयं कहता है:-

बहुत ठौर उन्मत्त काव्य रचि जाको अर्थ कठोरा।

समुझि जात नहिं कैहू भातिन संज्ञा शब्द अथोरा।

सपनो याहि जानि मुहिं छमियो विनवत हौं कर जोरी।

पिंगल छंद अगाध कहां मम उथली सी मति मोरी।।

तृतीय और चतुर्थ पहर के स्वप्न में इस प्रकार के उन्मत्त काव्य आवश्यकता से अधिक हैं। प्रथम और द्वितीय पहर के स्वप्न में मुख्य कथा के नायक नायिका का परिचय उनका एक दिन अचानक आंखें चार होने पर प्रेम का उदय, फिर उसका क्रमशः विकास, प्रेम संदेश और पत्रों का आदान-प्रदान फिर प्रेम निवेदन, अभिसार और अंत में समागम आदि का क्रमिक वर्णन बड़े स्वाभाविक ढंग से कविŸापूर्ण शैली में किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि कमलाकांत और श्यामसुंदर दोनों जगमोहनसिंह के प्रतिबिंब हैं। जो भी हो, उनका संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन विस्तृत था। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी काव्यों का रस निचोड़कर श्यामास्वप्न में भर देने का प्रयत्न किया है। उनकी रचनाओं में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। रीतिकालीन अलंकारप्रियता और चमत्कार के स्थान पर भारतेन्दु ने रसात्मकता और स्वाभाविकता को विशेष महत्व दिया, उसी प्रकार ठाकुर जगमोहनसिंह की कविता में भी सरल, सहज, स्वाभाविकता और सरलता मिलती है। देखिए एक बानगी:-

अब कौन रहौ मुहि धीर धरावती को लिखि है रस की पतियां।

सब कारज धीरज में निबहै निबहै नहिं धीर बिना छतियां।

फलिहे कसमै नहिं कोटि करो तरू केतिक नीर सिचै रतियां।

जगमोहन वे सपने सी भई सु गई तुअ नेह भरी बतियां।।

श्यामास्वप्न और श्यामा विनय को एक साथ लिखने के बाद सन् 1886 में श्यामा सरोजनी और फिर सन् 1887 में प्रलय लिखा। इस प्रकार सन् 1885 से 1889 तक रचना की दृष्टि से उत्कृष्ट काल माना जा सकता है। सन् 1885 में शबरीनारायण में बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसके प्रलयकारी दृश्यों को उन्होंने ‘‘प्रलय‘‘ में उकेरा है। प्रलय की एक बानगी कवि के मुख से सुनिये:-

शबरीनारायण सुमरि भाखौ चरित रसाल।

  महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।

अस न भयो आगे कबहूं भाखै बूढ़े लोग।

जैसे वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।।

जगमोहनसिंह ने छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक सौंदर्य को बखूबी समेटा है। अरपा नदी के बारे में कवि ने लिखा हैः

अरपा सलिल अति विमल विलोल तोर,

सरपा सी चाल बन जामुन ह्वै लहरे।

तरल तरंग उर बाढ़त उमंग भारी,

कारे से करोरन करोर कोटि कहरै।।

सन् 1887 में श्यामा सरोजनी की भूमिका में ठाकुर जगमोहनसिंह ने लिखा हैः- ‘‘श्यामास्वप्न के पीछे इसी में हाथ लगा और दक्षिण लवण (लवन) के विख्यात् गिरि कंदरा और तुरतुरिया के निर्झरों के तीर इसे रचाा। कभी महानदी के तीर को जोगी जिसका शुद्ध नाम योगिनी है, उसके तीर, देवरी, कुम्भकाल अथवा कुंभाकाल जिसका अपभ्रंश नाम कोमकाल है, काला जंगल आदि विकट पर्वर्तो के निकट मनोहर वनस्थलियों पर इसकी रचना की। प्रकृति की सहायता से सब ठीक बन गया।‘‘ बसंत पर कवि ने लिखा है:-

आज बसंत की पंचमी भोर चले बहुं पौन सुगंध झकोरे।

कैलिया आम की डारन बैठि कुहू कुहू बोलि कै अंग मरोरे।।

भोर की भीर झुकी नव मोर पै उपर तो झरना झरै जोरौ।

प्यारी बिना जगमोहन हाय बयार करेजन कोचै करोरे।।

इसी प्रकार उन्होंने संवत् 1944 में पंडित विद्याधर त्रिपाठी द्वारा विरचित नवोढ़ादर्श को भारत जीवन प्रेस काशी से प्रकाशित कराया। इसके बारे में उन्होंने लिखा है:-

रच्यौ सु रस श्रृंगार के अनुभव को आदर्श।

रसिकन हिय रोचक रसिक नवल नवोढ़ादर्श।।

काशी में रहकर विद्याध्ययन करने से उन्हें जो लाभ हुआ वह अलग है लेकिन उन्हें सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र और पंडित रामलोचन त्रिपाठी की मित्रता का लाभ मिलना कम उपलब्धी नहीं है। उनकी यह मित्रता जीवन भर बनी रही। उन्होंने सन् 1876 में पंडित रामलोचन त्रिपाठी का ‘‘जीवन बृत्तांत‘‘ प्रकाशित कराया था। देखिये उनका एक दोहा:-

स्वस्ति श्री सद्गुण सदन सदन रूप कमनीय।

जगमोहन साचो सुहृद मो जीयन को जीय ।।1।।

पाती कर आती भई छाती लई लगाय।

ईपाती काती बिरह साथी सी सरसाय ।।2।।

खान पान छूटत सबै नैना बरसत मेह।

ये विधना तुम कित रचे विरह रचे जो नेह ।।3।।

बन्धनिया जग मै बहुत प्रेम बंध अनुरूप।

दारू कठिन काटत मधुप मरत कमल के कूप ।।4।।

जाचनि मै लघुता हुतो पै जाचत हम चाहि।

लागलती उन प्रेम की रहै हमारे माहि ।।5।।

अपने लघु मति मित्र पै सदा रहैं अनुकूल।

मर्दशरीफन कै सबै अर्थ होत सम तूल ।।6।।

श्री रामलोचन प्रसादस्याशीर्वादा व्रजन्तु

श्री पण्डित प्रयागदत्त शम्र्मणे नमः’’

ठाकुर जगमोहनसिंह की रचनाओं में भाषा का अपना एक अलग महत्व है जो उन्हें उनके समकालीन रचनाकारों से विशिष्ट बनाती है। उनकी भाषा बंधी बंधाई, कृत्रिम अथवा आरोपित भाषा नहीं है, वरन् जीवन रस में आकंठ डूबी हुई सहज, स्वाभाविक निर्मुक्त और निर्बंध भाषा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल उनके बारे में लिखते हैंः-‘‘प्राचीन संस्कृत साहित्य से अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में रहने के  कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूप माधुर्य की जैसी सच्ची परख, सच्ची अनुभूति ठाकुर जगमोहनसिंह में थी, वैसी उस काल के किसी हिन्दी कवि या लेखक में नहीं थी। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई है, उनके हृदय में इस भूखंड की रूप माधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम और संस्कार नहीं था। परंपरा पालन के लिए चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो पर वहां उनका हृदय नहीं मिलता। अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर जगमोहनसिंह ने श्यामास्वप्न में व्यक्त किया है, उसकी सरसता निराली है। बाबू हरिश्चंद्र और पंडित प्रताप नारायण आदि कवियों की दृष्टि ही हृदय की पहंुच मानव क्षेत्र तक ही थी, प्रकृति के अपर क्षेत्रों तक नहीं, पर ठाकुर जगमोहनसिंह ने नर क्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के रूचि संस्कार के साथ भारत भूमि की प्यारी रूपरेखा को मन में बसाने वाले वे पहले हिन्दी के लेखक थे। वे अपना परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं:-

सोई विजय सुराघवगढ़ के राज पुत्र वनवासी।

श्री जगमोहन सिंह चरित्र यक गूढ़ कवित्त प्रकासी।।

ठाकुर जगमोहनसिंह का व्यक्तित्व एक शैली का व्यक्तित्व था। उनमें कवि और दार्शनिक का अद्भूत समन्वय था। अपने माधुर्य में पूर्ण होकर उनका गद्य काव्य की परिधि में आ जाता था। उनकी इस शैलीको आगे चलकर चडीप्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमण सिंह, शिवपूजन सहाय, राय कृष्णदास, वियोगीहरि और एक सीमा तक जयशंकर प्रसाद ने भी अपनाया था।

इतिहास के पृष्ठों से पता चलता है कि दुर्जनसिंह को मैहर का राज्य पन्ना राजा से पुरस्कार में मिला। उनके मृत्योपरांत उनके दोनों पुत्र क्रमशः विष्णुसिंह को मैहर का राज्य और प्रयागसिंह को कैमोर-भांडेर की पहाड़ी का राज्य देकर ईष्ट इंडिया कंपनी ने दोनों भाईयों का झगड़ा शांत किया। प्रयागसिंह ने तब वहां राघव मंदिर स्थापित कर विजयराघवगढ़ की स्थापना की। सन् 1846 में उनकी मृत्यु के समय उनके इकलौते पुत्र सरयूप्रसाद सिंह की आयु मात्र पांच वर्ष थी। इसलिए उनका राज्य कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन कर दिया गया। सरयूप्रसाद ने  निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुये सन् 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष किया। तब उन्हें कालेपानी की सजा सुनायी गयी। लेकिन उन्होंने आत्म हत्या कर ली। उस समय उनके पुत्र जगमोहनसिंह की आयु छः मास थी। अंग्रेजों की देखरेख में उनका लालन पालन और शिक्षा दीक्षा हुई। 09 वर्ष की आयु में उन्हें वार्ड्स इंस्टीट्यूट, कीन्स कालेज, बनारस में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिल किया गया। यहां उन्होंने 12 वर्षोेे तक अध्ययन किया। देवयानी में उन्होंने लिखा है:-

रचे अनेक ग्रंथ जिन बालापन में काशीवासी।

द्वादश बरस बिताय चैन सों विद्यारस गुनरासी।।

काशी में ही उनकी मित्रता सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र से हुई जो जीवन पर्यन्त बनी रही। मूलतः वे कवि थे। आगे चलकर वे नाटक, अनुवाद, उपन्यास आदि सभी विधाओं पर लिखा। श्यामास्वप्न उनका पहला उपन्यास है जो आज छत्तीसगढ़ राज्य का पहला उपन्यास माना गया है। उनकी पहचान एक अच्छे आलोचक के रूप में भी थी। ऋतुसंहार संभवतः उनकी प्रथम प्रकाशित रचना है। देवयानी में अपनी पुस्तकों की एक सूची उन्होंने दी है:-

प्रथम पंजिका अंग्रेजी में पुनि पिंगल ग्रंथ बिचारा।

करै भंजिका मान विमानन प्रतिमाक्षर कवि सारा।।

बाल प्रसाद रची जुग पोथी खची प्रेमरस खासी।

दोहा जाल प्रेमरत्नाकर सो न जोग परकासी।।

कालिदास के काव्य मनोहर उल्था किये बिचारा।

रितु संहारहिं, मेघदूत पुनि संभव ईश कुमारा।।

अंत बीसई बरस रच्यो पुनि प्रेमहजारा खासों।

जीवन चरित समलोचन को जो मम प्रान सखा सो।।

सज्जन अष्टक कष्ट माहि में विरच्यौ मति अनुसारी।

प्रेमलता सम्पति बनाई भाई नवरस भारी ।।

एक नाटिका सुई नाम की रची बहुत दिन बीते।

अब अट्ठाइस बरस बीच यह श्यामालता पिरीते।।

श्यामा सुमिरि जगत श्यामामय श्यामाविनय बहोरी।

जल थल नभ तरू पातन श्यामा श्यामा रूप भरोरी।।

देवयानी की कथा नेहमय रची बहुत चित लाई।

श्रमण विलाप साप लौ कीन्हौ तन की ताप मिटाई।।


अंतिम समय में उन्हें प्रमेह रोग हो गया। तब डाॅक्टरों ने उन्हें जलवायु परिवर्तन की सलाह दी। छः मास तक वे घूमते रहे। सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपने सहपाठी कूचविहार के महाराजा नृपेन्द्रनारायण की आग्रह पर वे स्टेट कांउसिल के मंत्री बने। दो वर्ष तक वहां रहे और 04 मार्च सन् 1899 में उनका देहावसान हो गया। उनके निधन से साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति हुई जिसकी भरपायी आज तक संभव नही हो सकी है।




लोक साहित्य को सहेजने वाले पंडित अमृतलाल दुबे

लोक साहित्य को सहेजने वाले पंडित अमृतलाल दुबे                                                                       

प्रो. अश्विनी केशरवानी


छत्तीसगढ़ के बिरले साहित्यकारों में पंडित अमृतलाल दुबे का नाम अविस्मरणीय है। क्योंकि उन्होंने जंगलों में रचे बसे लोक जीवन के बिखरे सहित्य को पढ़ने और संग्रहित करने का सद्प्रयास किया है। म. प्र. आदिम जाति कल्याण विभाग में क्षेत्र संयोजक के पद पर नियुक्त होकर कार्य आरंभ करने वाले दुबे जी जंगलों और पहाड़ों की तराई में रहने वाले आदिम जातियों के वाचिक लोक साहित्य को केवल पढ़ा ही नहीं बल्कि उसका दुर्लभ संग्रह भी किया जिसे आदिम जाति कल्याण विभाग ने ‘‘तुलसी के बिरवा जगाय‘‘ शीर्षक से प्रकाशित किया है। उन्हीें के सद्प्रयास से विभाग द्वारा ‘‘आदिम जाति संस्कृति संरक्षण योजना‘‘ शुरू की गयी और इस पुस्तक का प्रकाशन प्रथम पुष्प के रूप में किया गया। आदिम जाति कल्याण विभाग के तत्कालीन संचालक ठा. भा. नायक स्वीकार करते हैं:-‘‘लोक साहित्य संग्रह की दिशा में यह हमारा पहला प्रयास है। मध्यप्रदेश का छत्तीसगढ़ अंचल लोकगीतों का धनी है। इनमें से अनेक लोकगीत आदिवासी तथा ग्राम्य जीवन में प्रायः समान रूप से प्रचलित हैं, जैसे करमा, सुआ, भोजली और ददरिया आदि। उल्लेखनीय है कि संस्कृति या वर्ग विशेष की विशिष्टता यहां महत्व नहीं रखती। लोक जीवन और भाषा की समानता उन्हें एक विचित्र साम्यता प्रदान करती है। श्री अमृतलाल दुबे ने अपनी अभिरूचि और छत्तीसगढ़ लोक जीवन से निकटता के आधार पर ऐसे ही कुछ रोचक लोकगीतों का यह संकलन तैयार किया है। इसके लिए निःसंदेह वे बधाई के पात्र हैं।‘‘

आम तौर पर लोकगीतों का जो संग्रह देखने में आता है उनमें गीतों के साथ उनके लोकजीवन अथवा उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर कोई जानकारी नहीं रखती। लोकजीवन पर या तो संतुलित टिप्पणियां नहीं होती या वे इतना व्यापक और बोधगम्य नहीं होती कि एक अपरिचित क्षेत्र के लोकजीवन से पाठकों को अनायास परिचित करा सके। दुबे जी ने अपने इस संग्रह में बहुत हद तक इस कमी को पूरा किया है। इसकी एक झलक यहां प्रस्तुत है। श्रावण मास में जब प्रकृति अपने हरे परिधान से युक्त हो जाती है, कुषक अपने खेतों में बीज बोने के बाद गांव के चैपाल में ‘‘आल्हा‘‘ के गीत गाने में व्यस्त रहते हैं तब कृषक बालाएं प्रकृति देवी की आराधना हेतु ‘‘भोजली त्योहार‘‘ मनाती हैं। जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह में बढ़ जाती है, उसी प्रकार खेतों में फसल की बढ़ोतरी दिन दूनी रात चैगुनी हो जाये...इस विचार से वह गा उठती है:-

अहो देवी गंगा

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा, हमर भोजली दाई के भीजे आठों गंगा।

जब देवी गंगा की आराधना करती हुई ग्रामीण बालाएं कह रहीं हैं कि लहर रूपी तरंग अर्थात् घोड़े पर सवार होकर हे गंगा मैया तुम आओ, जिससे हमारी भोजली देवी के समस्त अंग एक साथ भीग जावे। तात्पर्य यह है कि हमारे प्रदेश में सूखा कभी न पड़े। एक अन्य गीत की बानगी पेश है:-

आई गईस पूरा बोहाई गईस कचरा, हमरो भोजली दाई के सोन सोन के अचरा।

गंगा माई के आगमन से उनकी भोजली देवी के आंचल स्वर्ण रूपी हो गये। अर्थात् खेतों में फसल तैयार हो गयी है। इससे धान के खेतों में लहराते हुये पीले पीले पौधे आंखों के सामने नाचने लगते हैं। कृषकों का जीवन धान की खेती पर ही अवलंबित होता है। यदि फसल अच्छी हुई तो उनका पूरा वर्ष आनंद पूर्वक व्यतीत होगा, अन्यथा भविष्य भयावह है। फिर धान तो केवल वस्तु मात्र तो नहीं है, इसीलिये तो भोजली देवी के रूप में उसका स्वागत हो रहा है। भारतीय संस्कृति का निचोड़ मानो यह कृषक बाला है। भाई के प्रति उनकी सहज, स्वाभाविक, त्यागमय अनुराग की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। देवी गंगा देवी गंगा की टेक मानो वह कल्याणमयी पुकार हो जो जन जन, ग्राम ग्राम को नित लहर तुरंग से ओतप्रोत कर दे...सब ओर अच्छी फसल होगी तो चारों ओर आनंद ही आनंद होगा। इसी प्रकार छŸाीसगढ़ी लोकगीतों में ‘‘सुआ‘‘ और ‘‘करमा‘‘ मानो वियोग और संयोग गीतों के प्रतिनिधि है। सुआगीत तो मानो साक्षात् विरह गीत ही है। जब ललनाएं एक स्वर में सुआ को संबोधित कर पुकार उठती है:- पईया मैं लागंव चंदा सुरूज के, सुअना, तिरिया जनम झनि देय। जब समस्त नारी जाति की विरह व्यंजना मानो तीव्र रूप में अभिव्यंजित हो उठती है और मानव मन के तार को झनझना देती है। नारी का जीवन तो एक गाय के समान होती है जिसके साथ उसका सम्बंध जोड़ दिया जाता है, उसे निभाने के वह मजबूर होती है। तभी तो वह कह उठती है:-

तिरिया जनम मोर गऊ के बराबर, रे सुअना, जहं पठवय तहं जाय।

पंडित अमृतलाल दुबे छत्तीसगढ़ी ददरिया को भी बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित करने का प्रयास किया है। ..देखते देखते चैत मास समाप्त हो जाता है, पर छत्तीसगढ़ के पर्वतीय प्रदेश में सबेरे काफी ठंड रहती है। महुआ के फल टपकने लगते हैं और उसे बीनने के लिये युवक युवतियों का दल महुआ पेड़ों के नीचे जा पहुंचते हैं। दोनों के बीच छींटाकसी होने लगती है। इसे छत्तीसगढ़ी ददरिया कहलाता है। देखिये इसका एक रूप:- करै मुखारी करौंदा रूख के, एक बोली सुना दे अपन मुख के। तत्काल उसी ढंग की एक लंबी तान में दूसरी ओर से पुरूष आवाज में प्रत्युत्तर मिलता है:- एक ठिन आमा के दुई फांकी, मोर आंखिच आंखी झुलथे तोरेच आंखी।

ददरिया गीतों की रानी है। इसे कुछ लोग ‘‘साल्हो‘‘ भी कहते हैं। अन्य गीत तो वर्ष में नियत समय में ही गाये जाते हैं। परन्तु ददरिया अजस्र प्रवाह की भांति वर्ष भर गाये जाते हैं। इसे बहुधा लोग संवाद के रूप में स्त्री-पुरूष दोनों गाते हैं। एक गीत की बानगी देखिये:- परसा के साड़ी विराले पड़वा, तोर आइ गय जवानी गड़ाले मड़वा। तोला कोनो नइ पूछय झूमै मांछी, बीन ले लुगरा दिये आंधी। कोई भी नारी अपने सौंदर्य का अपमान सहन नहीं कर सकती। इसलिये प्रत्युत्तर में कहती है:- आगी करै चिरचिरा जरै, तोर कनवा आंखी म कीरा परै। इस प्रकार ददरिया को प्रणय गीत भी माना गया है। तभी तो वे एक दूसरे के उपर छींटाकसी करते हैं। यह ग्राम्यांचलों में प्रकृति के अनुरूप गाये जाने वाले गीत हैं। इस प्रकार दुबे जी ने ‘‘तुलसी के बिरवा जगाय‘‘ में राउतों कीे देवारी, गौरा पूजा, माता सेवा और करमा के गीत संग्रहित किया है। ये गीत वास्तव में ग्रामीण अंचलों की सांस्कृतिक परम्परा को रेखांकित करती है। आज भी छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में ये गीत गाये जाते हैं।

बिलासपुर के अरपा पार सरकंडा के श्री भैरवप्रसाद दुबे और श्रीमती राम बाई के इकलौते पुत्र के रूप में श्री अमृतलाल दुबे का जन्म 01 अगस्त सन् 1925 को हुआ। उनके उपर रामायणी पिता के कड़े अनुशासन और ममतामयी मां की धार्मिकता का व्यापक असर पड़ा। यही कारण है कि दुबे जी अंतिम क्षणों तक गायत्री परिवार को समर्पित रहे। कष्टमय बचपन को आर्थिक पूर्ति में झोंकने वाले दुबे जी के मन में पढ़ने की ललक बनी हुई थी। कदाचित् इसी कारण 12 वर्ष की अल्पायु में पेंडरी के पंडित शंभुनाथ दुबे की कन्या मोतिन बाई से विवाह सूत्र में बंधने के बाद भी 17 वर्ष की आयु में अपनी पढ़ाई पुनः शुरू किये और बी. ए. करके धरमजयगढ़ के वनवासी सेवा मंडल में क्षेत्राधिकारी के रूप में पदस्थ हुये। लेकिन पढ़ने की ललक ने उन्हें अंततः हिन्दी साहित्य में एम. ए. करने के लिए बाध्य किया। एम. ए. करने के बाद वे म. प्र. आदिम जाति कल्याण विभाग में क्षेत्र संयोजक के रूप में नियुक्त हुये। अपनी सेवाकाल में वे भोपाल, रायपुर, रतलाम, इंदौर, उज्जैन, बिलासपुर, सरगुजा, बस्तर, खरगौन, धार और झाबुआ आदि जगहों में रहे और वहो के पहाड़ी क्षेत्रों के जन जीवन को बहुत करीब से देखा। सन् 1958 में टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोसल सांइसेस से ट्रेनिंग प्राप्त किये जो आगे चलकर आदिवासी जन जीवन को समझने में मददगार सिद्ध हुई। सन् 1964-65 में अस्पृश्यता निवारण समिति के सचिव के साथ मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत के राज्यों का भ्रमण के साथ अध्ययन किया। इसके परिणाम स्वरूप वहां के गीतों को संग्रहित करने की योजना बनी। सन् 1963 में म. प्र. आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा उनके लोकगीतों के इस संग्रह को प्रकाशित की गई। इसी वर्ष उन्हें इसी पुस्तक पर ‘‘म. प्र. का ईसुरी पुरस्कार‘‘ प्रदान किया गया।

पंडित अमृतलाल दुबे इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं:- ‘‘आदिवासी लोक साहित्य के संकलन बाबत् शान से निर्देश प्राप्त होते रहते थे। इससे प्रेरित होकर मैंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को संकलित करने का निश्चय किया। लोक साहित्य में मेरी बचपन से रूचि रही है। अतः समय पाकर मैं इस कार्य में लग गया। इस कार्य में डाॅ. वेरियर एल्विन और डाॅ. एस. सी. दुबे मेरे लिये प्रकाश स्तम्भ और मार्गदर्शक थे। छत्तीसगढ़ के उन्मुक्त वातावरण में लोक जीवन की झलक मुझे देखने को मिली और मैं उन्हें समेटने लगा। आज इस पुस्तक के रूप में यह आपके समक्ष है।‘‘ लोकगीतों का साहित्य एवं अनुसंधान दोनों दृष्टि में महत्वपूर्ण है। म. प्र. के आदिवासी अंचल विशेषकर छत्तीसगढ़ लोक साहित्य से समृद्ध है। यहां के गीत और नृत्य जहां हमारे लिये मनोरंजन के साधन हैं वहीं आदिवासियों के जीवन के अंग भी हैं। लुप्त हो रहे सांस्कृतिक परम्पराओं को संरक्षित करने की दिशा में दुबे जी का यह प्रयास केवल सराहनीय ही नहीं है बल्कि स्तुत्य और स्वागतेय भी है।

एक लंबे समय तक आदिम जाति कल्याण विभाग में जिला संयोजक, उप संचालक, संयुक्त संचालक, और प्रोजेक्ट अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं देने वाले दुबे जी का 55 वर्ष की अल्पायु में 02 अप्रेल सन् 1980 में देहावसान हो गया। इस प्रकार वे केवल अपना भरा पूरा परिवार को विलखता नहीं छोड़े बल्कि छत्तीसगढ़ के साहित्यिक जगत को सूना कर गये जिसकी भरपायी आज तक संभव नहीं हो पायी है। सन् 1953 में प्रयास प्रकाशन द्वारा उनकी हिन्दी-छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह ‘‘मानस मुक्ता‘‘ प्रकाशित हुआ है। इसी प्रकार सन् 1995 में उनकी छः कविताओं का संग्रह ‘‘मुलिया‘‘ प्रकाशित हुआ है। दुबे जी की अन्यान्य रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी के अम्बिकापुर, रायपुर और इंदौर केंद्रों से हुआ है। वे भारतीय संगीत और फोटोग्राफी के शौकिन थे। वे संगीत, सत्संग, भजन और यज्ञ आदि का आयोजन अक्सर किया करते थे। वे सदा ‘‘सादा जीवन और उच्च विचार‘‘ के अनुयायी रहे। वे हमेशा शाकाहारी और सात्विक रहे। समयानुसार भारतीय वेशभूषा और सत्साहित्य के पठन पाठन और संग्रहण में अग्रणी रहे। निःसंदेह उनका जीवन और चरित्र हमारे लिये प्रेरणादायी है। संभवतः एक सन्यासी के रूप में दुबे जी का अवतरण हुआ था। इसीलिये उनका जीवन कर्मयोगी जैसा निस्पृह, सतत् सत्कर्म में अग्रसर, कर्मठ, दृढ़ और निर्झरणी की भांति प्रफुल्ल हृदय और कोमल मानवीय गुणों से परिपूर्ण था। वे अत्यंत सहज, सरल, निश्छल, मिलनसार और समाज के हित के प्रति सदा समर्पित रहे। ईश्वर आराधना उनका प्राणतत्व था। ऐसे छत्तीसगढ़ के सत्साहित्य पुरूष को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है।