गुरुवार, 30 जून 2011

गुप्त से प्रकाशमान होता शिवरीनारायण

प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ के जाने-माने लेखक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ 'शिवरीनारायण देवालय और परंपराएँ' उनकी दूसरी कृति है। इसके पूर्व 'पीथमपुर के कालेश्वरनाथ' प्रकाशित हुई थी। मूलत: विज्ञान के प्राध्यापक होने के बावजूद साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं पर उनकी गहरी रूचि के परिणाम स्वरूप इन ग्रंथों का प्रकाशन संभव हो सका है। वे स्वयं मानते हैं कि उन्हें चित्रोत्पलागंगा का संस्कार, भगवान शबरीनारायण का आशीर्वाद और भारतेन्दु कालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और श्री गोविंद साव की प्रेरणा मिली है जिसके कारण ही वे लेखन वृत्ति की ओर प्रवृत्त हुए हैं।

शिवरीनारायण कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहाँ महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहाँ एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान शबरीनारायण के दर्शन करने जमीन में ''लोट मारते'' आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहाँ विराजते हैं इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को ‘छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी’ कहा जाता है।

उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ''गुप्तधाम'' के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदीप्यमान है। यहाँ सकल मनोरथ पूरा करने वाली माँ अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान शबरीनारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और माँ गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहाँ मंदिर निर्माण कराया गया है। यहाँ अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है।

डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-''इंद्रभूति शबरीनारायण से नीलमाधव को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।'' आसाम के ''कालिका पुराण'' में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे। गोपीनाथ महापात्र के अनुसार ''भगवान शबरीनारायण संवरा लोगों द्वारा पूजित होते थे जो भुवनेश्वर के पास स्थित धौली पर्वत में रहते थे।'' सरला महाभारत के मुसली पर्व के अनुसार ''सतयुग में भगवान शबरीनारायण के रूप में पूजे जाते थे जो पुरूषोत्तम क्षेत्र में प्रतिष्ठित थे।'' लेकिन वासुदेव साहू के अनुसार ''शबरीनारायण न तो भुवनेश्वर के पास स्थित पर्वत में रहते थे, जैसा कि गोपीनाथ महापात्र ने लिखा है, न ही पुरूषोत्तम क्षेत्र में, जैसा कि सरला महाभारत में कहा गया है। बल्कि शबरीनारायण महानदी घाटी का एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जोंक और महानदी के संगम से 3 कि.मी. उत्तर में स्थित है। स्वाभाविक रूप से यह वर्तमान शिवरीनारायण ही है। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक ''छत्तीसगढ़ परिचय'' में लिखते हैं-''शबर (सौंरा) लोग भारत के मूल निवासियों में एक हैं। उनके मंत्र जाल की महिमा तो रामचरितमानस तक में गायी गयी है। शबरीनारायण में भी ऐसा ही एक शबर था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था।'' आज भी शिवरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरूओं नगफड़ा और कनफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा नुमा मंदिर में स्थित है। इसी प्रकार बस्ती के बाहर आज भी नाथ गुफा देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि शिवरीनारायण की महत्ता प्रयाग, काशी, बद्रीनारायण और जगन्नाथपुरी से किसी मायने में कम नहीं है तभी तो कवि गाता है :-

चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे॥

नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है।

हिन्दुस्तान में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम प्रयागराज में हुआ है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ अस्थि प्रवाहित करने और पिंडदान करने से 'मोक्ष' मिलता है। लेकिन मोक्षदायी सहोदर के रूप में छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण और राजिम को माना जा सकता है। दोनों सांस्कृतिक तीर्थ चित्रोत्पला गंगा के तट पर क्रमश: महानदी, शिवनाथ और जोंकनदी तथा महानदी, सोढुल और पैरी नदी के साथ त्रिधारा संगम बनाते हैं। यहाँ भी अस्थि विसर्जन किया जाता है, और ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ पिंडदान करने से मोक्ष मिलता है। शिवरीनारायण में तो माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि कुंड है जिसमें अस्थि प्रवाहित किया जाता है। श्री बटुकसिंह चौहान ने श्री शिवरीनारायण सुन्दरगिरि महात्म्य के आठवें अध्याय में अस्थि विसर्जन की महत्ता का बहुत सुंदर वर्णन किया है :-

दोहा शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
पिण्ड दान वहाँ जो करे, तरो-बैकुण्ठ जाय॥
दोहा क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के, होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले, निर्धन को धनवान॥
महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान॥

प्रस्तुत ग्रंथ ''शिवरीनारायण : देवालय और परंपराएँ'' इन्हीं सब भावों को लेकर लिखा गया है। इस ग्रंथ में दो खंड है। पहले खंड में यहाँ के मंदिरों क्रमश: गुप्तधाम, शबरीनारायण और सहयोगी देवालय, अन्नपूर्णा मंदिर, महेश्वरनाथ मंदिर, शबरी मंदिर, जनकपुर के हनुमान और खरौद के लखनेश्वर मंदिर के उपर सात आलेख हैं जिसके माध्यम से यहाँ के सभी मंदिरों के निर्माण से लेकर उसकी महत्ता का विस्तृत वर्णन करने का प्रयास किया है। प्रमुख मंदिर भगवान शबरीनारायण का है शेष सहायक मंदिर हैं जिसके निर्माण के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है। बदरीनारायण में भगवान नर नारायण की तपस्थली है और शिवरीनारायण में भगवान नर नारायण शबरीनारायण के रूप में गुप्त रूप से विराजमान हैं। भारतेन्दु कालीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने जो 'शबरीनारायण माहात्म्य' लिखा है उसका शीर्षक उन्होंने 'श्रीशबदरीनारायण माहात्म्य' दिया है। उन्होंने ऐसा शायद स्कंद पुराण में इस क्षेत्र को 'श्रीनारायण क्षेत्र' के रूप में उल्लेख किये जाने के कारण किया है। यहाँ रामायण कालीन शबरी उध्दार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूषण की मुक्ति के पश्चात् 'लक्ष्मणेश्वर महादेव' की स्थापना खरौद में की थी। इसीप्रकार औघड़दानी शिवजी की महिमा आज महेश्वरनाथ के रूप में माखन वंश और कटगी-बिलाईगढ़ जमींदार की वंशबेल को बढ़ाकर उनके कुलदेव के रूप में पूजित हो रहे हैं। माँ अन्नपूर्णा की ही कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' कहलाने का गौरव प्राप्त कर सका है। इस खंड के सभी देवालय लोगों की श्रध्दा और भक्ति का प्रमाण है। तभी तो पंडित हीराराम त्रिपाठी गाते अघाते नहीं हैं :-

होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहाँ जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं॥

ग्रंथ के दूसरे खंड में यहाँ प्रचलित परंपराओं को दर्शाने वाले 17 आलेख है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की तरह चित्रोत्पलागंगा (महानदी) को भी मोक्षदायी माना गया है। 'मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा' में इन्हीं सब तथ्यों का वर्णन है। इस नदी में अस्थि विसर्जन, बनारस के समान महानदी के घाट, भगवान शबरीनारायण के चरण को स्पर्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, वैष्णव मठ और महंत परंपरा, महंतों के द्वारा गादी चौरा पूजा, जगन्नाथ पुरी के समान प्रचलित रथयात्रा, तांत्रिक परंपरा, नाटय परंपरा, साहित्यिक परंपरा, प्रसिध्द मेला के साथ शिवरीनारायण के भोगहा, गुरू घासी बाबा, रमरमिहा और माखन वंशानुक्रम, शिवरीनारायण की कहानी उसी की जुबानी और महानदी के हीरे आलेख यहाँ की परंपराओं को रेखांकित करता है।

इस ग्रंथ को पढ़कर आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र ने आवश्यक संशोधन करने का सुझाव दिया जिसे पूरा करने के बाद यह ग्रंथ पूर्णता को प्राप्त हुआ। जगन्मोहन मंडल के प्रभृति साहित्यकारों में एक गोविंद साव भी थे जिनका वें छठवीं पीढ़ी के वंशज हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और मित्र ठाकुर जगमोहन सिंह शिवरीनारायण में रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की है। यही नहीं बल्कि उन्हों 'जगन्मोहन मंडल' के माध्यम से छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की दिशा प्रदान की थी। छत्तीसगढ़ के अन्यान्य साहित्यकारों के यहाँ आने की जानकारी मिलती है। शिवरीनारायण को साहित्यिक तीर्थ कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस ग्रंथ में बदरीनारायण, प्रयाग और जगन्नाथपुरी से शिवरीनारायण की तुलना की गयी है जिनकी पुष्टि दिये गये तथ्यों से होती है। किसी धार्मिक और सांस्कृतिक नगरों का महत्व उसके साहित्य से ही होता है। इस दिशा में शिवरीनारायण जैसे गुप्तधाम अब गुप्त न होकर प्रकाशमान होगा, ऐसी आशा की जा सकती है।

प्रांजल कुमार
बोरीबली, मुंबई

बुधवार, 29 जून 2011

क्या सोंचते हैं हम बच्चों का रिजल्ट देखकर

पिछले दिनों मै अपने एक मित्र के घर गया तो देखा कि उनका दस वर्षीय बेटा प्रियतोष स्कूल से आया था और वह सिर झुकाये खड़ा हो गया जैसे उससे कुछ अपराध किया हो। उसकी मम्मी ने पूछा- ``क्या बात है´´ ? प्रियतोष ने डरते-डरते परीक्षा परिणाम अपनी मम्मी के हाथ में दे दिया। देखते ही वे गुस्से से कांपने लगी- ``ये मार्कस आये हैं तुम्हारे ? किसी में चालीस, किसी में पचास, और किसी में अड़तालीस, बस ? तुम्हें पढ़ाकर मैं अपना दिमाग खराब करती थी। वहां जाकर न जाने तुम्हें क्या हो जाता है। भगवान ने तुम्हें अच्छा-खासा दिमाग दिया है, पर तुम उसका इस्तेमाल ही नही करो तो मैं इसमें क्या कर सकती हूं। डांट सुनते ही प्रियतोष रोने लगा, लेकिन उसकी मम्मी का गुस्सा कम नहीं हुआ और तड़ से एक चांटा प्रियतोष के गाल पर पड़ गया। ``... अब रोते क्यों हो ? रोज तो आकर कहते थे कि पेपर अच्छा हुआ है। और इतने खराब नंबर!´´ चांटा पड़ते ही प्रियतोष का रोना बढ़ गया हिचकियों के बीच वह कहने लगा-´´... तो क्या करता, तुमसे कहता कि पेपर बिगड़ गया तो और डांटती। तुम्हीं तो रात के बारह बजे तक पढ़ाती थी। तब मैं पढ़ता नहीं था क्या? अच्छे मार्कस नहीं आये तो, मैं क्या करूं? स्कूल में टीचर डांटती है और घर पर तुम´´ और प्रियतोष रोते-रोते बेहाल हो गया। हिचकियों से असकी सांस रूकने लगी। उसकी जवाब सुनकर उसकी मां स्तंभित रह गयीं।
इस पूरी घटना के दौरान में मूक दर्शक बना खड़ा रहा। शुरू से ही मैं प्रियतोष और उसकी मां को देख रहा हूं।ं प्रियतोष के स्कूल जाने से लेकर आज तक। जब प्रियतोष ढाई साल का था, उसकी मम्मी उसे जो कुछ सिखाती, उसे वह बहुत जल्दी सीख जाता था। कालोनी के बच्चों को रोज स्कूल जाते देखकर वह भी स्कूल जाने को मचल जाता। उसके स्कूल जाने के प्रति उत्सुकता और कुछ अपनी महत्वाकांक्षा के बीच आखिरकार उसकी उम्र तीन वर्ष बता कर उसे एल. के. जी. में दाखिल करवाया गया। तब उसके पापा-मम्मी बहुत खुश थे। रोज समय निकालकर दोनों उसे पढ़ाते। धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। प्रियतोष स्कूल से आया नहीं कि उसकी मम्मी उसे पढ़ाने बैठ जाती। न उसे खेलने दिया जाता, न टी. वी. देखने। उसके जिद करने पर या तो कोई ऊंची सीख मिलती या फिर मार, इम्तिहान के समय ही नहीं, अक्सर उसकी मम्मी उसे पढ़ाती थी। जब खुद नही पढ़ा पाती तो उसके पापा पढ़ाने बैठ जाते। औसत से भी ऊंचा बौद्धिक स्तर था प्रियतोष का। याददाश्त में भी कोई कमी नही थी, फिर भी स्कूल से जब भी प्रोगेस रिपोर्ट आती तो घर में रोना-धोना अवश्य होता। पता नहीं दोष किसका था ? भारी भरकम पाठ्यक्रम का, स्कूल के स्तर का या घर में पढ़ने-पढ़ाने के लिए मां-पिता के रवैये का ? प्रियतोष के पहले तो अच्छे नंबर आये। मगर उसके माता-पिता चाहते थे कि उसके नंबर में आशातीत वृद्धि होनी चाहिए और इसके लिए वे स्कूल से आने के बाद उसे खाने-खेलने का समय भी न देते और पढ़ने-पढ़ाने पर जोर देते। धीरे-धीरे प्रियतोष का दिल पढ़ाई से उचटने लगा। मां के सामने वह पढ़ने का नाटक करने लगा। और आज उसी का परिणाम सामने था।
आज प्राय: सभी घरों में बच्चों की पढ़ाई को लेकर इस प्रकार की समस्या एक चुनौती बनी हुई है। एक ऐसी चुनौती, जिसे पार पाने के साधन क्या हैं, हमें पता नही है। हर अभिभावक के सामने कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर ढूंढना आसान नही है। केवल स्कूल की पढ़ाई के बल पर बच्चे इम्तहान पास नहीं कर सकते। खुद रोज पढ़ाये तो डर यह है कि बच्चे पूरी तरह मम्मी-पापा के ऊपर निर्भर हो कर न रह जाये। फिर हर अभिभावक बिना प्रशिक्षण पाये अच्छी मां या अच्छा पिता तो बन सकता है लेकिन एक अच्छा अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है।
मुझे एक घटना याद आ रही है हमारे पड़ोस में एक दंपती स्थानांतरित हो कर आये। उनका एक लड़का था, उसे स्थानीय स्कूल में दाखिल करा दिया, बच्चे की सजग, पढ़ी-लिखी आधुनिका युवा मां रोज नन्हे बेटे के स्कूल से आते ही उसका बस्ता खोलती और उसे कुछ खिलाने पिलाने के बाद बैठ जाती होम वर्क कराने। एक हता ही हुआ था कि एक दिन शाम को उसके बेटे के स्कूल की टीचर उनके घर पहुंच गयी। बिना कोई भूमिका बांधे वे पूछने लगी ``क्या आप अपने बेटे को रोज होमवर्क कराती हैं ?´´ ``जी हां´´ मुस्करा कर सगर्व कहा उन्होंने उन्हें आशा थी की टीचर उनकी जिम्मेदारी के अहसास की प्रशंसा करेगी, लेकिन हुआ इसके विपरीत। टीचर बड़ी गंभीरता से कहने लगी- ``देखिए´´ छोटे बच्चों को पढ़ाना हमारा काम है। हमें इसके लिए ट्रेनिंग दी जाती है। गलत तरीके से पढ़ाने का नतीजा जानती हैं आप ? आपका बच्चा सदा के लिए किताबों से चिढ़ सकता है। उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति नष्ट हो सकती है। उसकी प्रतिभा कुंठित हो सकती है। आपका कर्तव्य केवल इतना है कि आप निश्चित समय पर बेटे को पढ़ने के लिए अवश्य बैठा दें। उसकी पढ़ाई में हस्तक्षेप न करें, यदि उसे कोई कठिनाई हो तो उसे दूर करने में सहायता अवश्य करें।´´
उक्त घटना ने मुझे प्रभावित किया और मैं इस विषय पर विचार करने लगा। आजकल स्कूल विशेषकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई उनके ऊपर और उनके मां-बाप पर एक बोझ है, जिसे कम करने की जिम्मेदारी कम-से-कम अभी तो अभिभावक के हिस्से में आती है। यहां विचार करने की बात यह है कि आखिर ये समस्याएं बनती क्यों हैं ?
बच्चों का पाठ्यक्रम जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से कक्षाओं में बच्चों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन इन दोनों में तालमेल बैठाने के लिए हर टीचर को प्रशिक्षा प्राप्त नहीं हो पाता। कोर्स खत्म करने को ही अधिक महत्व दिया जाता है। बच्चों ने विषय को समझ लिया या नहीं, उसका अभ्यास हुआ या नहीं, इस विषय पर ध्यान नहीं दिया जाता। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को दाखिला दिलाने की होड़ इसलिए बढ़ती जा रही है, क्योंकि इन्हीं स्कूलों से पढ़े बच्चे जीवन में अधिक सफल होते नजर आते हैं। अंग्रेजी माध्यम होने के कारण हर बच्चे पर दोहरा बोझ होता है- एक तो नयी भाषा सीखने और सीख कर उसे लिखने का। इसमें मां-बांप को पढ़ाना आवश्यक हो जाता है।
बच्चों को पढ़ाते वक्त अपना बौिद्धक स्तर बच्चों से ज्यादा न रखें। अगर आप उच्च स्तर से बच्चों की कठिनाइयों को दूर करने लगेंगे, तो वह गड़बड़ा जायेगा। अत: सावधानी रखें। पढ़ाते समय बच्चे से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछे- आज क्या पढ़ाया गया स्कूल में, उसे कौन सा पाठ या कौन सी बात समझ में नहीं आयी। इसके साथ-साथ यह भी जानने की कोशिश करें कि किसी विषय को नहीं समझ पाने के पीछे कुछ भावनात्मक कारण तो नहीं है ? कई बार भावनात्मक कारणों से भी बच्चे पढ़ने से कतराने लगते हैं। एक बार मेरी बिटिया तृप्ति गुस्से में अपने विज्ञान टीचर को कोसते हुए कह रही लगी- ``पता नही ऐसे टीचर को स्कूल में क्यों रखा जाता है? भले मैं कितना भी अच्छा पढ़-लिख लूं ,मगर परीक्षा में उनकी बेटी से कम ही नंबर मिलते हैं। इससे पढने को मन नही करता ...`` मुझे उसकी बातों ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया। मैंने उसके स्कूल के प्रधानाचार्य से मिलकर वस्तुस्थिति पर बात की। प्रधानाचार्य ने दोनों बच्चों की कापी स्वयं चेक की और इस बार तृप्ति को सफलता मिली। यानी ऐसी समस्याओं के लिए बच्चों के टीचर और उनके प्रधानाचार्य से मिलते रहना चाहिए।
बच्चों को नियमित रूप से पढ़ाना चाहिए इससे वह अपने पाठ को अच्छे से समझेगा। मगर ऐसा कभी न करें जो ज्यादतीपूर्ण और बच्चे के अनुकूल न हो। ऐसे अभिभावक बच्चों को ढंग से समझाने के बजाय गुस्सा होकर मारने-पीटने लगते हैं। जिससे बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता और बच्चे की प्रतिभा कुंठित होने लगती है। अत: पढ़ाई का समय निर्धारित करते समय बच्चे की रूचि का भी ध्यान रखें। बच्चों को प्यार से पढ़ाना चाहिए। आपने यदि डांटते हुए पढ़ाना शुरू किया, तो बच्चे को आपके पास बैठने में डर लगेगा, वह सहमा रहेगा। खुलकर अपनी कठिनाइयों को बता नहीं पायेगा। इसी प्रकार यदि किसी कारण से आपका मूड ठीक नहीं है, तो उस दिन बच्चे को न पढ़ायें। अगर आप चिड़चिड़े मन से पढ़ाने लगेंगे, तो आपके मन की सारी खीज बेकसूर बच्चे पर उतरेगी।
बच्चे के मनोबल को बनाये रखने के लिए प्रोत्साहन जरूरी है। इसलिए कठिन पाठ पढ़ाते समय उससे कहिए कि कठिन पाठ को समझने में थोड़ी कठिनाई तो होती ही है। अत: घबराने के बजाय मन लगाओ, सब समझ में आ जायेगा। आपके इस प्रकार धीरज बांधने से उसका मनोबल बना रहेगा। कुछ मांएं ऐसे समय में अपनी शान बघारने लगती हैं। पिछले दिनों ऐसी ही एक महिला से मेरी मुलाकात हुई, जो अपने बच्चे को पढ़ाते समय हमेशा कहती थीं- ``मैं तो हमेशा फस्र्ट आती थी। कोई भी पाठ एक बार में ही समझ में आ जाता था और एक तू है, एकदम बुद्धू।`` उनके लगातार इस प्रकार कहते रहने से उसकी बच्ची का आत्मविश्वास डगमगा गया।
बच्चों को पढ़ाते समय कभी-कभी उनका दोस्त बन जाइए। आपको भी आनंद आयेगा और बच्चों को भी। कल्याणी यही करती हैं। बाजार से विभिन्न पशु-पक्षियों, फूलों, ए.बी.सी.डी. और गिनती का चार्ट और नक्शा ला कर उन्होंने एक कमरे में टांग दिया है। जब भी खाली समय मिलता है, बच्चों की रूचि के अनुसार पढ़ा देती हैं। तृप्ति और टीसू इसे एक खेल समझ कर पढ़ते रहते हैं।
एन.सी.इ.आर.टी. के चाइल्ड स्टडी यूनिट के प्रोफेसर उपदेश बेवली का कहना है कि ``हमारी शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि हम सिर्फ अंतिम लक्ष्य की प्रिाप्त को ही महत्व देते हैं, शिक्षण विधि को नही´´ आवश्यकता इस बात की है कि हम सही शिक्षण विधि अपनायें। अधिकांश अभिभावक बच्चों को गलत ढंग से पढ़ाते है, जिससे बच्चा बिना समझे विषय को रटने की कोशिश करता है। इससे बाद में पढ़ने के प्रति अरूचि पैदा होने लगती है। बच्चों को प्रारंभिक दिनों में प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा सिखाना चाहिए जो कुछ भी सिखाये खेल-खेल में सिखायें ताकि उसे समझकर सीखने का अवसर मिले। अपने आस-पास के वातावरण में ही उसे बहुत सी वस्तुएं दिखा कर तमाम बातें समझायी जा सकती है। इससे बच्चे की चिंतन शक्ति का विकास होता है। अभिभावकों को चाहिए कि घर में इस तरह वातावरण बनायें, जिससे बच्चे की पढ़ने में रूचि बढ़े। इसके लिए प्रशंसा व प्रोत्साहन से बढ़ कर कोई उपाय नही है।

अपंगता जीवन में बाधक नहीं होता : इंद्राणी केशरवानी

मुंगेली के प्रतिष्ठत मालगुजार भवानी साव दानी के परिवार का वहां दबदबा आज भी बरकरार है। जब वे मालगुजार थे तब की बातें हम क्या जाने, लेकिन आज हमें जो किंवदंति के रूप में सुनने को मिलती है उसे ही जानते हैं। भवानी के तीन पुत्र क्रमश: रामलाल साव, शवदयाल साव और अिम्बका साव हुए। रामलाल साव का कोई बच्चा नहीं था इसलिए वे अपनी सम्पत्ति को `रामलाल-भवानी साव धर्मादा ट्रस्ट` बनाकर सामाजिक सेवा में समर्पित कर दिया। लेकिन शिवदयाल साव के तीन पुत्र क्रमश: ओंकारप्रसाद, श्रीराम और अनुजराम हुए जबकि अम्बिका साव के दो पुत्र निरंजन प्रसाद और निर्मल प्रसाद हुए। सभी राजसी ठाठ से जीवन व्यतीत कर रहे थे। सबके अपने शौक थे। कोई संगीत और नृत्य को अपने जीवन का अंग बनाया तो कोई राजा-महाराजा के साथ दोस्ती करके गौरवान्वित होता रहा, तो कोई मालगुजारी का काम देखने में मगन था। 1947 में देश आजाद हुआ और 1952 में देश और प्रदेश में प्रथम आम चुनाव हुए। राजा, जमींदार और मालगुजारों ने रामराज्य परिषद बनाकर चुनाव लड़े और उन्हें सफलता भी मिली। श्री अम्बिका साव भी रामराज्य परिषद से चुनाव लड़कर विधायक बने। तब छत्तीसगढ़ मध्य भारत के अंतर्गत आता था और नागपुर उसकी राजधानी थी। अिम्बका साव का राजधानी नागपुर अक्सर जाना होता था। संयोग से वहां उनकी सुपुत्री निराशा का परिवार था। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों निरंजन और निर्मल को वहां पढ़ने के लिए भेजा। इस प्रकार उनका आधा परिवार नागपुर में रहने लगा। निरंजन प्रसाद तो वहां के मारिश कालेज से लॉ की डिग्री प्राप्त किया। अध्ययन के दौरान एक एक्सीडेंट में उनका एक पैर काटना पड़ा। लेकिन उनका आत्म विश्वास उन्हें राजनीति के शिखर तक ले गया। वे दो बार विधायक, एक बार सांसद, नगरपालिका अध्यक्ष, जिला सहकारी बैंक के संचालक और पार्टी के जिलाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों में रहे।
वे छत्तीसगढ़ में `अलख निरंजन` के रूप में जन सेवा को अंजाम दिये। राजनीति की शिक्षा उन्हें अपने पिता के चुनाव संचालन से मिली थी। लेकिन निर्मलप्रसाद की सैद्धांतिक पढ़ाई में कम रूचि थी और वे तकनीकी बारीकियों को बड़ी गंभीरता से समझने का प्रयास करते थे। पिता और भाई की राजनीति में रहने से चौपट हो रहे अपने पैत्रिक व्यवसाय को सम्हालने के लिए पढ़ाई को अधूरा छोड़कर मुंगेली लौट आये। यहां उन्होंने एक मोटर गेरेज खोला लेकिन ज्यादा दिन इसमें उनका मन नहीं लगा और इलेिक्ट्रशयन का काम सम्हालने लगे। इसमें भी उनका मन नहीं लगा और वे मजगांव की खेती देखने लगे। उनका विवाह भी जल्द कर दिया गया। शहर की भागम भाग से दूर वे गांव की प्राकृतिक सौंदर्य में जैसे रम से गये थे। एक एक करके विमल, कला, प्रदीप, कल्याणी, इंद्राणी और राजेश का आगमन सहज ही हुआ। इंद्राणी जब छ: माह की थी तब इस क्षेत्र में हैजा का प्रकोप हुआ। मजगांव भी उसके प्रकोप से नहीं बच सका। सम्हलते सम्हलते भी इंद्राणी को उल्टी-दस्त होने लगा। छोटी सी बच्ची और उपर से उल्टी-दस्त, गांव में इलाज तो संभव नहीं था, बाबु जी की दवा भी असर नहीं किया। मां तो एकदम परेशान हो गयी। उस समय 10-12 कि. मी. दूर मुगेली तक आने जाने का कोई साधन जल्दी नहीं मिलता था। एक बैल गाड़ी में मां इंद्राणी को लेकर मुंगेली आ गयी। तत्काल डॉक्टर को दिखाया गया। परीक्षण के बाद डॉक्टर ने इंजेक्शन लगा दिया और खाने को दवाई भी दे दिया। हप्ते दिन बाद इंद्राणी ठीक हो गयी। जब वह चलने योग्य हुई तब उसे चलने में कठिनाई होने लगी। उम्र बढ़ने के साथ जब वह नहीं चल सकी तो उसकी पुन: डॉक्टरी परीक्षण हुआ। दिल्ली, बंबई और नागपुर सभी जगह परीक्षण के बाद पता चला कि बचपन में उल्टी दस्त रोकने के लिए जो इंजेक्शन लगाई गई थी वह एक्सपाइरी डेट की थी जिसके कारण उन्हें पोलियो हो गया। लड़की और उपर से चलने के अयोग्य,मालगुजार परिवार को बड़ा अघात लगा। पर्याप्त इलाज कराया गया, उसके पैर का कई बार आपरेशन किया गया लेकिन सब बेकार। उम्र बढ़ने लगा और परेशानियां बढ़ने लगी। डॉक्टरों का आश्वासन अब मन को ज्यादा दिन धीरज नहीं दे सका और इसे ईश्वर की मर्जी समझकर सभी आत्मसात करने लगे। उनसे सभी स्नेह करने लगे, उन्हें कभी किसी बात की कमी न हो, इसका सभी ख्याल रखते थे। एक वाकिये का जिक्र करते हुए इंद्राणी बताने लगी कि एक बार दूसरे बच्चों को अच्छी सेंडिल पहनते देखकर उन्हें भी लगने लगा कि वह भी ऐसे ही सेंडिल पहनेगी। फिर एक बार दूसरे की साइकिल में चलाने के लिए बैठने पर गिर गयी और रोने लगी तब उनके बाबु जी उनके लिए तत्काल एक नई साइकिल खरीदी। बचपन से ही उनके मन में सभी काम करने की ललक थी, इसके लिए उनमें आत्म विश्वास की कमी नहीं थी। धीरे धीरे इंद्राणी स्कूल जाने लगी। पढ़ने में वह होिशयार थी, क्लास में हमेशा अव्वल आती थी। जब वह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली और कालेज की पढ़ाई के लिए बिलासपुर में दाखिला ली तो शुरू शुरू में उन्हेंं घर की बहुत याद आती थी। कमरे में बैठकर खूब रोती थी। धीरे धीरे सब ठीक हो गया और वह ग्रेजुएट हो गयी। फिर अपने कल्याणी दीदी के पास रायगढ़ एम.एस-सी. करने आ गयी। यहां से एम.एस-सी करके रविशंकर विश्व विद्यालय रायपुर से एम. फिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार जीवन के अनमोल क्षण उन्होंने पढ़ाई करते गुजार दी। अपने भाई के साथ रहते हुए उन्होंने समाजशास्त्र में एम. ए. की। अ. जा. हायर सेकंडरी स्कूल नारायणपुर, जशपुर में उनकी व्याख्याता के पद पर नियुक्ति हो गयी। वह अकेली जाने को तैयारी थी लेकिन परिवार के लोग दूर वनांचल में उन्हें अकेली नौकरी करने के लिए भेजने के पक्ष में नहीं थे। बाद में उनका स्थानान्तरण कोरबा के पास कराने के लिए प्रयास किया गया फलस्वरूप उनका स्थानान्तरण रामपुर हो गया। लेकिन यहां भी वही समस्या थी। कुल मिलाकर उन्हें इस नौकरी से वंचित होना पड़ा। उन्हें थोड़ी निराशा अवश्य हुई मगर उन्होंने हार नहीं मानी। फिर वह क्षण भी आया जब उन्हें शासकीय कन्या हायर सेकंडरी स्कूल मुंगेली में उच्च श्रेणी िशक्षिका के रूप में पदस्थापना मिली। वह तत्काल वहां कार्यभार ग्रहण की और विवाहोपरांत कोरबा आ गयी। ईश्वर की लीला देखिये कि उनकी शादी में भी भरी बरसात रूकावट बनी और बारात दूसरे दिन पहुंची। बहरहाल, विवाहोपरांत उनका दाम्पत्य जीवन कोरबा में अच्छे से चलने लगा। उन्होंने कम्प्यूटर की ट्रेनिंग ली। इस प्रकार अच्छी से अच्छी िशक्षा प्राप्त कर उन्होंने अपना दाम्पत्य जीवन की शुरूवात की। अपने जीजा के संपर्क में रहकर उन्होंने लेखन की शुरूवात की। उनके सामाजिक, पारिवारिक लेख आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। एक नन्ही सी गुडि़या के आगमन से उसकी जिंदगी जैसे बदल सी गयी। उनका नाम समृद्धि रखा गया। नाम के अनुरूप समृद्धि के आगमन से उनके छोटे से परिवार में सुख और समृद्धि आ गयी। फिर वह सामाजिक संस्थाओं से जुड़ने लगी और सर्वप्रथम उन्हें छत्तीसगढ़ केशरवानी वैश्य सभा में महिला प्रतिनिधि के रूप में प्रदेश उपाध्यक्ष मनोनित किया गया। उन्होंने कोरबा नगर केशरवानी वैश्य सभा और महिला सभा के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही और तब से वह नगर केशरवानी वैश्य महिला सभा की अध्यक्ष हैं। वह प्रदेश केशरवानी वैश्य महिला सभा की महामंत्री की जिम्मेदारी सम्हालने के बाद वर्तमान में समाज की राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हैं। यही नहीं बल्कि वह नारी संचेतना समिति कोरबा की सचिव पद पर कार्य करते हुए आज पुलिस विभाग के साथ मिलकर बालिकाओं को आत्म सुरक्षा के लिए माशल आर्ट्स का प्रिशक्षण का आयोजन करवाकर प्रशंसा का पात्र बन चुकी हैं। इसी प्रकार स्वास्थ्य शिविर और छात्र-अभिभावकों में मोबाइल तथा गािड़यों के दुरूपयोग आदि पर जन जागृति अभियान चलाकर लोगों से प्रशस्ति प्राप्त कर चुकी है। आज वह लायंस क्लब कोरबा एवरेस्ट की सचिव रहकर सेवाकार्य कर रही हैं। उनका मानना है कि शारीरिक अपंगता जीवन की सफलता में कभी बाधक नहीं होता बशर्ते मन में विश्वास और कार्य करने की लगन हो। जीवन के इस पड़ाव में मुझे मेरे माता-पिता, भाई-भाभी और दीदी-जीजा के साथ मेरे पति का साथ मिला। मैं सोचती हूं कि जीवन तो ईश्वर की देन है, माता-पिता जननी हैं लेकिन उसे सफलता पूर्वक जीने के लिए आत्म विश्वास, धैर्य और लगन बहुत जरूरी है। यही कारण है कि आज मैं पैदल भी चलती हूं, हल्की गाड़ी (स्कूटी) भी चलाती हूं और ईश्वर ने साथ दिया और मैं कार चलाने लगी।
जीवन परिचय :-
नाम : श्रीमती इन्द्राणी केशरवानी
1. माता-पिता : श्रीमती शुकवारा-निर्मल केशरवानी
2. पति : अश्वनी कुमार केशरवानी
3. िशक्षा : एम. एस-सी. (प्राणीशास्त्र), एम. फिल. एम. ए. (समाजशास्त्र), बी. एड.
4. जन्म : 02. 10. 1965 (दो अक्टूबर उन्नीस सौ पैंसठ), मुंगेली के प्रतिष्ठित मालगुजार स्व. अम्बिका साव की पौत्री एवं स्व. निरंजन केशरवानी की भतीजी)
5. पद :
  • प्रभारी प्राचार्य, शासकीय आदिमजाति हाई स्कूल गोपालपुर, कोरबा (छत्तीसगढ़) 
  • सचिव, नारी संचेतना समिति कोरबा 
  • सचिव, लायंस क्लब कोरबा एवरेस्ट 
  • राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष, अखिल भारतीय केशरवानी वैश्य महिला महासभा 
  • अध्यक्ष, केशरवानी वैश्य महिला सभा कोरबा
6. पूर्व धारित पद :
  • उपाध्यक्ष, लायंस क्लब कोरबा एवरेस्ट 
  • उपाध्यक्ष, छत्तीसगढ़ प्रदेश केशरवानी वैश्य सभा 
  • महामंत्री, छत्तीसगढ़ प्रदेश केशरवानी वैश्य महिला सभा
7. अभिरूचि : पत्र-पत्रिकाओं में समाजिक एवं पारिवारिक लेख, कहानी एवं कविता प्रकाशित।
8. आयोजन : 
  • युवतियों में आत्म रक्षा के लिए "पुलिस-छात्र संचेतना कार्यक्रम" के अंतर्गत का लड़कियों को मार्सल आट्स का प्रिशक्षण का आयोजन। 
  • छात्र-छात्राओं के द्वारा मोबाइल एवं गाड़ी का दुरूपयोग न करने के लिए जागृति कार्यक्रम।
9. पुरस्कार/सम्मान विभिन्न सामाजिक एवं स्वैच्छिक संस्थाओं से सम्मानित और पुरस्कृत।
10. संदेश : शारीरिक अपंगता जीवन में किसी प्रकार बाधक नहीं होता बशर्शे आत्म विश्वास हो। 
11. संपर्क : पायल इंटरप्राइजेज, विकास काम्पलेक्स के पास, पावर हाउस रोड कोरबा (छ.्ग.)

भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद साव

भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद साव
भारतेन्दु युगीन साहित्यकार गोविंद सावप्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ में भारतेन्दु युगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार ठाकुर जगमोहनसिंह का साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने सन~ 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन~ 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया है। यही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल कांशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के साहित्यकार शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने लगे। उस काल के अन्यान्य साहित्यकारों के शिवरीनारायण में आकर साहित्य साधना करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुआ है। इनमें रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय, रायगढ़-परसापाली के पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, बलौदा के पं. वेदनाथ श्‍वर्मा, बालपुर के मालगुजार पं. पुरूसोत्तम प्रसाद पांडेय, बिलासपुर के जगन्नाथ प्रसाद भानु, धमतरी के काव्योपाध्याय हीरालाल, बिलाईगढ़ के पं. पृथ्वीपाल तिवारी और उनके अनुज पं. गणेश तिवारी और शिवरीनारायण के पं. मालिकराम भोगहा, पं. हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, महंत अर्जुनदास, महंत गौतमदास, पं. विश्‍वेस्‍वर वर्मा, पं. ऋषि श्‍वर्मा और दीनानाथ पांडेय आदि प्रमुख थे। शिवरीनारायण में जन्में, पले बढ़े और बाद में सरसींवा निवासी कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में ऐसे अनेक साहित्यकारों का नामोल्लेख किया है :-
                               नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
                               बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
                               हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
                               विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, बज गिरधर।
                               विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छत्‍तीस कोट कवि।
                               हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।

इस प्रकार उस काल में शिवरीनारायण सांस्कृतिक के साथ ही साहित्यिक तीर्थ भी बन गया था। द्विवेदी युग के अनेक साहित्यकारों- पं. लोचनप्रसाद पांडेय, पं. शुकलाल पांडेय, नरसिंहदास वैष्‍णव, सरयूप्रसाद तिवारी मधुकर, ज्वालाप्रसाद, रामदयाल तिवारी, प्यारेलाल गुप्त, छेदीलाल बैरिस्टर, पं. रविशंकर शुक्ल, सुंदरलाल आदि ने शिवरीनारायण की सांस्कृतिक-साहित्यिक भूमि को प्रणाम किया है। मेरा जन्म इस पवित्र नगरी में ऐसे परिवार में हुआ है जो लक्ष्मी और सरस्वती पुत्र थे। पं. शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में मेरे पूर्वज गोविंदसाव को भारतेन्दु युगीन कवि के रूप में उल्लेख किया है-
                                रामदयाल समान यहीं हैं अनुपम वाग्मी।
                               हरीसिंह से राज नियम के ज्ञाता नामी।
                               गोविंद साव समान यहीं हैं लक्ष्मी स्वामी।
                               हैं गणेश से यहीं प्रचुर प्रतिभा अनुगामी।
                               श्री धरणीधर पंडित सदृश्‍य यहीं बसे विद्वान हैं।
                               हे महाभाग छत्तीसगढ़ ! बढ़ा रहे तब मान हैं।।

हालांकि गोविंद साव की कोई रचना आज उपलब्ध नहीं है लेकिन शिवरीनारायण के साहित्यिक परिवेश में उन्होंने कोई न कोई रचना अवश्‍य लिखी होगी। मुझे साहित्यिक अभिरूचि उनकी विरासत में मिला है। मैं भगवान शबरीनारायण, हमारे कुलदेव महेश्‍वरनाथ महादेव और कुलदेवी माता शीतला का आशीर्वाद तथा चित्रोत्पलागंगा के संस्कार को प्रमुख मानता हूं। उन्हीं के आशीर्वाद से आज प्रदेश के साहित्य जगत में मैं अपनी पहचान बना सकने में समर्थ हो सका हूं। शिवरीनारायण का साहित्यिक परिवेश ठाकुर जगमोहनसिंह की ही देन थी। उन्होंने यहां दर्जन भर पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी। शबरीनारायण जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल के लोग, उनका रहन-सहन और व्यवहार उन्हें सज्जनाष्टक आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय लिखने को बाध्य किया। भारत जीवन प्रेस बनारस से सन~ 1884 में सज्जनाष्टक प्रकाशित हुआ। वे यहां के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा से अत्याधिक प्रभावित थे। भोगहा जी के पुत्र मालिकराम भोगहा ने तो ठाकुर जगमोहनसिंह को केवल अपना साहित्यिक गुरू ही नहीं बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनके संरक्षण में भोगहा जी ने हिन्दी, अंगेजी, बंगला, उड़िया और उर्दू और मराठी साहित्य का अध्ययन किया, अनेक स्थानों की यात्राएं की और प्रबोध चंद्रोदय, रामराज्यवियोग और सती सुलोचना जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिसका सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया। इसके मंचन के लिए उन्होंने यहां एक नाटक मंडली भी बनायी थी। माखन वंश के श्री बलभद्र साव के सुपुत्र और श्री सूरजदीन साव के अनुज श्री विद्याधर साव के नेतृत्व में यहां एक ष्‍केशरवानी नवयुवक नाटक मंडली बना था जिसके माध्यम से न केवल माखन वंश के नवयुवकों बल्कि नगर के नवोदित कलाकारों मंच मिला और अनेक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया गया। ठाकुर जगमोहनसिंह ने सज्जनाष्‍टक में माखन साव के बारे में लिखा है :-
                               माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
                               दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुविधि तिनहो मुरारी।।
                               लच्छपती मुइ शरन जनन को टारत सकल कलेशा।
                               द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।
                               दुओधाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।
                               चार बीस शरदहु के बीते रीते गोलक नैना।
                               लखि अंसार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि नैना।।

छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित मालगुजारों में माखनसाव की गिनती होती थी। इस उद्धरण से स्पष्‍ट है कि वे एक महाजन थे जिनके घर में लक्ष्मी जी और कुबेर जी का वास था। वे न केवल धीर-गंभीर और प्रजाप्रिय थे बल्कि धार्मिक और भक्तवत्सल भी थे। उन्होंने महानदी के तट पर अपने कुलदेव महेश्‍वरनाथ महादेव का एक भव्य मंदिर का संवत~ 1890 में निर्माण कराया था। इस मंदिर के बारे में ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपने खंडकाव्य प्रलय में लिखा है :-
                               बाढ़त सरित बारि छिन-छिन में।
                               चढ़ि सोपान घाट वट दिन मे।
                               शिवमंदिर जो घाटहिं सौहै।
                               माखन साहु रचित मन मोहै।।84।।
                               चटशाला जल भीतर आयो।
                               गैल चक्रधर गेह बहायो।
                               पुनि सो माखन साहु निकेता।।
                               पावन करि सो पान समेता।।87।।

उनकी धार्मिकता और भक्ति को डां. भालचंद राव तैलंग ने "छत्तीसगढ़ी, हल्बी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन" के अर्थतत्व पृ. 200 मे उल्लेख किया है। विशेष घटना के कारण "खिच्रकेदार" को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है- रतनपुर का मंदिर जहां पहले माखन साव ने एक साधु को खिचड़ी परोसी थी और जहां पकी हुई खिचड़ी से भरी पत्तल को फोड़कर शिवजी प्रकट हुए थे। इस उद्धरण को रामलाल वर्मा द्वारा लिखित रायरतनपुर महात्म्य पृ 22 से लिया गया है। ऐसे पवित्र आत्मा माखन साव के अनुज श्री गोविंद साव के जगन्नाथपुरी की यात्रा और मनौती के रूप में जन्में उनके एकलौते पुत्र जगन्नाथ साव की धर्मप्रियता पर भी किसी को संदेह नहीं है। कदाचित~ यही कारण है कि आज भी गोविंदसाव के वंशजों का मुंडन संस्कार जगन्नाथपुरी में किये जाने का विधान है। मेरे पिता जी, मेरा और मेरे बच्चों का मुंडन संस्कार भी पुरी में हुआ था। जगन्नाथ साव के एक मात्र पुत्र पचकौड़ साव हुए। माखन वंश में उनकी विद्वता की साख थी और इस वंश के लंबरदार आत्माराम भी उनकी दबंगता से प्रभावित थे। उन्हें साजापाली और दौराभाटा में खेती-किसानी का दायित्व सौंपा गया था जिसे उन्होंने अपने चचेरे भाई महादेव साव के सहयोग से बखूबी निभाया। शिवरीनारायण में महादेव-पचकौड़ साव के नाम से व्यापार होता था और जब गांवों में व्यापार की शुरूवात हुई तब 05 वर्ष बाद शिवरीनारायण का खाता बंद कर साजापाली-दौराभाठा में महादेव-पचकौड़ साव के नाम से खाता शुरू किया गया जो मालगुजारी उन्मूलन तक चलता रहा। गलत बातों का वे दबंगता से विरोध करते थे साथ ही मांगने पर उचित सलाह भी देते थे। आजादी के कुछ महिने बाद 17.10.1947 को उन्होंने स्वर्गारोहण किया। पचकौड़ साव के एक मात्र पुत्र राघव साव का जन्म चैत्र शुक्ल 2, संवत~ 1972 को रात्रि 10 बजकर 33 मिनट को हुआ। उनका राशि नाम दुर्गाप्रसाद रखा गया था। परिवार की धार्मिकता का संस्कार उन्हें मिला और इसी परिवेश में परवरिश होने के कारण धार्मिकता उनके जीवन का एक अंग हो गया। उन्होंने अपने जीवन में लगभग दो घंटे पूजा अवश्‍य किया करते थे। चारों धाम-बद्रीनाथ, द्वारिकाधाम, रामेश्‍वरम~ और जगन्नाथपुरी की पूरी यात्रा उन्होंने की थी। गया श्राद्ध, प्रयाग और काशी श्राद्ध करने के साथ गंगासागर और बाबाधाम की यात्रा भी उन्होंने की। जीवन भर वे सात्विक रहे- सादा जीवन और उच्च विचार को उन्होंने अपनाया।...और इलाहाबाद के महाकुंभ में एक माह का कल्पवास करने के बाद अपने भरे पूरे परिवार को शुक्रवार, दिनांक 24.11.1989 को दोपहर एक बजे 74 वर्ष जीवन का सुख भोगकर स्वर्गारोहण किया। उन्होंने मुझे रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाकर धार्मिक वृत्ति से न केवल जोड़ा बल्कि मुझे रचनात्मक लेखन की प्रेरणा दी। मुझे इस दिशा में प्रेरित करने वाले माखन वंश के अंतिम लंबरदार श्री सूरजदीन साव भी थे। सर्व प्रथम विश्‍व हिंदु परिषद द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में गीता के प्रसंगों पर निबंध लिखकर पुरस्कृत होकर लेखन की मैंने शुरूवात की। इस निबंध के लेखन में मुझे मेरे दादा श्री राधवप्रसाद के साथ ही श्री सूरजदीन साव का पूर्ण सहयोग मिला। वृद्ध प्रपितामह के साहित्यिक विरासत और महानदी का संस्कार पाकर मेरी लेखनी अविचल चलने लगी।ऐसा पहली बार हुआ और गोविंदसाव के वंश में एक-एक पुत्र की परंपरा टूटी और राघवप्रसाद के चार पुत्र क्रमश: देवालाल, सेवकलाल, होलीदास और हेमलाल हुए। होलीदास तो बचपन में ही काल कवलित हो गए लेकिन शेष तीनों पुत्रों ने अपने वंश को बढ़ाने में सफल हुए। देवालाल के एक मात्र पुत्र अश्विनी कुमार और पुत्री मीना बाई हुई। सेवकलाल के दो पुत्र संजय कुमार और नरेन्द्र कुमार तथा चार पुत्री मंजुलता, अंजुलता, स्नेहलता और मधुलता हुई। हेमलाल के दो पुत्र अतीत और अमित कुमार और एक मात्र पुत्री अल्पना हुई। इस प्रकार राघवप्रसाद के तीन पुत्र और पांच पौत्र हुए और उनकी वंश परंपरा बढ़ी। राघवप्रसाद के ज्येष्‍ठ पुत्र के रूप में देवालाल का 05. 07. 1934 को जन्म हुआ। उनकी प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण में और हाई स्कूल की शिक्षा सारंगढ़ और बिलासपुर में हुई। उच्च शिक्षा न कर पाने का उन्हें अफसोस अवश्‍य हुआ था लेकिन मात्र 17 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने घर-परिवार की जिम्मेदारी उठा लिए थे। अपने भाई-बहनों की शिक्षा दीक्षा से लेकर उनके विवाह और नौकरी लगाने तक तथा उनके बच्चों के भी विवाह आदि में पूरा सहयोग देकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। देवालाल धीर, गंभीर और सुलझे हुए व्यक्ति थे। कदाचित~ उनके इसी व्यक्तित्व के कारण वे न केवल माखन वंश के बल्कि समाज और शिवरीनारायण, बेलादूला और साजापाली में अत्यंत लोकप्रिय थे। उन्होंने न जाने कितने परिवार को टूटने से बचाया और टूटे परिवार को जोड़ा है। वे अपनी पीढ़ी के एक मात्र व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी पैत्रिक वृत्ति महाजनी को अपनाया। उन्होंने शिवरीनारायण के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। आज की पीढ़ी उनके योगदान को शायद न समझ सके। लेकिन यह सत्य है कि शिवरीनारायण में गाम पंचायत के सफलतम सरपंच जहां माखन वंश के श्री तिजाउप्रसाद थे वहीं उनकी इस सफलता के पीछे यहां के उदितनारायण सुलतानिया, देवालाल केशरवानी, गोवर्धन शर्मा, सेवकराम श्रीवास और मोहम्मद अहमद खां का विशेष योगदान था। उनके कार्यकाल में ही यहां शिक्षा का विस्तार हुआ, अनेक स्कूल भवन बने, बिजली और सड़कें बनी, सब्जी बाजार लगने की शुरूवात हुई और जनपद पंचायत जांजगीर से साप्ताहिक मवेशी बाजार और छत्तीसगढ़ के महाकुंभ कहाने वाले मेले की व्यवस्था गाम पंचायत की मिली। इस नगर में चिकित्सा सुविधा के लिए देवालाल ने मंत्रियों और अधिकारियों से मिलकर अपने बहनोई श्री बलदाउ प्रसाद केशरवानी को प्रेरित कर जहां 'प्रयाग प्रसाद केशरवानी शासकीय चिकित्सालय' की स्थापना करायी और डाक्टरों के रहने-खाने की सुविधा उपलब्ध करायी। इस चिकित्सालय में विद्युत व्यवस्था उन्होंने अपने दादा श्री पचकौड़ साव की स्मृति में कराया था। शासकीय प्राथमिक कन्या शाला को मात्र अपने मित्र श्री गणेश प्रसाद नारनोलिया से शर्त लगाकर खुलवाया था जो आज शासकीय मिडिल कन्या स्कूल के रूप में संचालित है। मध्यप्रदेश शासन के मंत्रियों सर्वश्री डा. रामाचरण राय, श्री वेदराम, श्री बिसाहूदास महंत, श्री चित्रकांत जायसवाल, श्री बी. आर. यादव, भंवरसिंह पोर्ते, डा. कन्हैयालाल शर्मा, श्री रेशमलाल जांगड़े, श्रीधर मिश्रा, मुख्य मंत्री श्री श्‍यामाचरण शुक्ल, और केंदिय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल से उनकी गहरी पहचान थी। आये दिन उनका कार्यक्रम शिवरीनारायण में कराकर नगर को विकास के मार्ग में ले जाना उनका ध्येय था। खरौद को नगर पालिका बनाये जाने पर नगरवासियों के अनुरोध पर उन्होंने मंत्रियों से अपनी पहचान का लाभ उठाकर शिवरीनारायण को भी नगरपालिका दर्जा तीन बनवाने में सफलता हासिल की। महानदी के रेत में महाराष्‍ट्र के किसानों को तरबूज बोने के लिए उन्होंने बुलवाया जिससे पंचायत की आमदनी बढ़ी। पूरे छत्तीसगढ़ में एकलौता शिवरीनारायण नगर था जहां बिजली के खम्भों में मरकरी बल्ब लगे थे। यही नहीं बल्कि उन्होंने शबरीनारायण मंदिर के गर्भगृह में 'केशरवानी महिला समाज' द्वारा संकल्पित चांदी के पत्तर से बना दरवाजा को सन 1960 में जीवन मिस्त्री के सहयोग से कलकत्ता से बनवाया था। अपने कुलदेव महेश्‍वरनाथ मंदिर में भोगराग की व्यवस्था करायी। सारंगढ़ और शिवरीनारायण में केशरवानी धर्मशाला के निर्माण में अर्थसंचय में उनका अमूल्य सहयोग था। अपने भाईयों, बहनों को उन्होंने न केवल सत्पथ पर चलने की प्रेरणा दी बल्कि समाज के लिए भी एक मिशाल स्थापित की। अपने परिवार के श्री सूरजदीन साव, श्री विद्याधर साव, श्री तिजाउ प्रसाद, श्री साधराम साव, श्री रामचंदसाव, श्री ईतवारी साव, श्री गिरीचंद साव, श्री मुरीतराम साव, श्री जगदीश प्रसाद, श्री गौटियाराम के प्रिय पात्र रहे वहीं श्री पराउराम, श्री गोरेलाल, श्री शोभाराम के गहरे मित्र रहे। जीवन भर सत्पथ रहकर नि:स्वार्थ सेवा भाव से कार्य करते हुए जीवन के अंतिम समय में उन्होंने भगवत्भजन में अपना मन लगाया... और 67 वर्ष की अवस्था में भौतिक सुख सुविधा का परित्याग कर 16. 04. 2001 को पंच तत्व में विलीन हो गये।राघव साव के द्वितीय पुत्र सेवकलाल ने जहां बैंकिंग सेवा में अपना जीवन सफर तय किया वहीं तृतीय पुत्र हेमलाल ने व्यापार को अपनाया जिसे उन्होंने पुत्र अतीत कुमार के सहयोग से संचालित कर रहे हैं। सेवकलाल के दोनों पुत्र संजय और नरेन्द कुमार टेंट हाउस के व्यापार में संलग्न हैं। देवालाल के पुत्र अश्विनी कुमार शासकीय महाविद्यालय चांपा में प्राध्यापक हैं। उन्होंने अपनी अभिरूचि के अनुसार छत्तीसगढ़ के इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं के उपर लिखकर प्रादेशिक और राष्‍ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित किया और अपने वंश को गौरवान्वित किया है। धर्मयुग, अणुवत और नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट जैसे राष्‍ट्रीय पत्रिका में बाल मनोविज्ञान विषय पर और कादम्बिनी, दैनिक हिन्दुस्तान में स्वतंत्र स्तम्भ लेखन किया। देश और प्रदेश के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है। वे जांजगीर-चांपा जिले और प्रदेश के गिने चुने राष्‍ट्रीय लेखकों में से एक हैं। अपने क्षेत्र के उपर लिखकर अपने जन्म को सार्थक बनाने का प्रयास उन्होंने किया है। शिवरीनारायण, पीथमपुर के उपर शोध गंथ लिखकर वहां के माहात्म्य को प्रकाशित कर सद~कार्य किया है। छत्तीसगढ़ के बिखरे और खंडहर होते मंदिरों और लुप्त हो रही परंपराओं पर कलम चलाकर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन गुमनाम साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का उनका सराहनीय प्रयास है। उनके इस रचनात्मक और सार्थक लेखन के लिए विभिन्न संगठनों से सम्मानित होकर अपने वंश को गौरवान्वित करने वाले अकेले हैं। आज वे छत्तीसगढ़ राज्य केशरवानी वैश्‍य सभा के अध्यक्ष रहे और सम्प्रति प्रदेश सभा के संरक्षक हैं। प्रदेश के अनेक नगर सभाओं के द्वारा उन्हें 'समाज के गौरव' के रूप में सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। उनकी धर्मपत्नी कल्याणी देवी भी एक स्वतंत्र लेखिका हैं और लायनेस क्लब चांपा और नगर केशरवानी महिला सभा की अध्यक्ष, प्रदेश केशरवानी महिला सभा की कोषाध्यक्ष और अखिल भारतीय केशरवानी वैश्‍य महिला महासभा की राष्‍ट्रीय  अध्यक्ष हैं। उनके दो पुत्र प्रांजल कुमार कम्प्यूटर साफ~टवेयर इंजीनियर के रूप में टाटा कंसलटेन्सी सर्विसेस मुम्बई में पदस्थ है वहीं अंजल कुमार नेट प्वाइंट के संचालक है। हेमलाल के दो पुत्रों में अतीत कुमार जहां अपने पिता जी के साथ व्यापार में संलग्न हैं वहीं अमित कुमार मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके अपने पिता के साथ उनके व्यवसाय में संलग्न है। सेवकलाल के पुत्र संजय कुमार के दो पुत्री सृष्टि और साक्षी और एक पुत्र सृजन कुमार है वहीं नरेन्द कुमार के दो पुत्र पियुष और प्रीतुल है। दोनों भाई टेंट व्यवसाय कर रहे हैं।