गुरुवार, 30 मार्च 2023

रामनवमी : छत्तीसगढ़ में श्री राम

 छत्तीसगढ़ में श्रीराम

    

छत्तीसगढ़ प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण, वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना तथा अपने गौरवपूर्ण अतीत को गर्भ में समाए हुआ है। प्राचीन काल में यह दंडकारण्य, महाकान्तार, महाकोसल और दक्षिण कोसल कहलाता था। दक्षिण जाने का मार्ग यहीं से गुजरता था इसलिए इसे दक्षिणापथ भी कहा गया और ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से गुजरकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गए। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। उस काल के अवशेष यहां आज भी दृष्टिगोचर होता है। सरगुजा का रामगढ़, श्रीराम की शबरी से भेंट, उनके बेर खाने का प्रसंग का साक्षी शबरी-नारायण, खरदूषण की स्थल खरौद, कबंध राक्षस की शरणस्थल कोरबा, बाल्मीकी आश्रम जहां लव और कुश का जन्म हुआ-तुरतुरिया, राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने वाले श्रृंगि ऋषि के साथ अन्य सप्त ऋषियों का आश्रम सिहावा, मारीच खोल जहां मारीच के साथ मिलकर रावण ने सीताहरण का षडयंत्र रचा, आज ऋषभतीर्थ के नाम से जाना जाता है। रायपुर जिलान्तर्गत चंद्रखुरी जहां माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर है। सुदूर चक्रकोट (बस्तर) और चित्रकोट का वनांचल श्रीराम और लक्ष्मण के दक्षिणपथ गमन के साक्षी हैं।

    श्रीरामचंद्र को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है। अवतार के प्रयोजन और उसके महत्व विशद विवेचन विभिन्न पुराणों में मिलता है लेकिन भगवद्गीता में इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। उसमें बताया गया है कि भगवान विष्णु के अवतारों में सृष्टि के विकास का रहस्य छिपा माना गया है। भगवान विष्णु के अवतारों की तीन श्रेणियां क्रमशः पूर्ण अवतार, आवेशावतार और अंशावतार है। श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूर्णावतार और भगवान परशुराम को आवेशावतार माना गया है। विभिन्न ग्रंथों में उनके 24 और 10 अवतारों का उल्लेख है जिसमें मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि प्रमुख हैं। भगवान विष्णु के अवतारों का सामूहिक या स्वतंत्र निरूपण कुषाणकाल के पूर्व नहीं मिलता। इस काल में वराह, कृष्ण और बलराम की मूर्तियां बननी प्रारंभ हुई। गुप्तकाल में वैष्णव धर्मावलंबी शासकों के संरक्षण में अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। गुप्तकाल के बाद 7 से 13 वीं शताब्दी के मध्य लगभग सभी क्षेत्रों में दशावतार फलकों तथा अवतार स्वरूपों की स्वतंत्र मूर्तियां बनीं। इसमें वराह, नृसिंह और वामन स्वरूपों की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां महाबलीपुरम्, एलोरा, बेलूर, सोमनाथपुर, ओसियां, भुवनेश्वर, खजुराहो तथा अन्य अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त राम, बलराम और कृष्ण की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में मिली हैं। भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में दशरथी राम की लोकमानस से जुड़े होने के कारण ब्राह्मण देवों में विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में गुप्तकाल में लोकप्रिय हुई किंतु विष्णु के एक अवतार के रूप में इनकी कल्पना निःसंदेह प्राचीन है और ब्राह्मण देवों में इनकी विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में बाद में लोकप्रिय हुई। प्रतिमा लक्षण ग्रंथों में आभूषणों और कीरिट मुकुट से सुशोभित द्विभुज श्रीराम के मनोहारी और युवराज के रूप में निरूपण मिलता है। द्विभुज राम के हाथों में धनुष और बाण प्रदर्शित होते हैं, जैसा कि शिवरीनारायण के श्रीराम जानकी मंदिर और खरौद के शबरी मंदिर में मिलता है। कहीं कहीं श्रीरामलक्ष्मणजानकी के साथ भरत और शत्रुघन की मूर्तियां श्रीराम पंचायत के रूप में मिलती है। श्रीराम पंचायत की मूर्तियां रायपुर के दूधाधारी मठ में स्थित हैं। 


    श्रीराम की प्रारंभिक मूर्तियां देवगढ़ के दशावतार मंदिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें श्रीराम धनुष और बाण से युक्त हैं। देवगढ़ में श्रीराम कथा के कई दृश्यों का शिल्पांकन हुआ है। एलोरा के कैलास मंदिर और खजुराहो के मंदिरों से श्रीराम की मूर्तियां मिली हैं। खजुराहो के पाश्र्वनाथ मंदिर की भित्ति में सीताराम की एक नयनाभिराम मूर्ति उत्कीर्ण है और पास में हनुमान की मूर्ति भी है जिनके मस्तक पर श्रीराम का एक हाथ पालित मुद्रा में अनुग्रह के भाव में है। यह मूर्ति भक्त और आराध्य के अंतर्संबंधों का सुखद शिल्पांकन है। श्रीराम की स्वतंत्र मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय रही हैं। उत्तर भारत में राम की मूर्ति मुख्यतः विष्णु के अवतार के रूप में उत्कीर्ण है। कर्नाटक में राम का एक प्राचीनतम मंदिर 867 ई. का हीरे मैगलूर में है। श्रीराम के दोनों ओर लक्ष्मण और सीता स्थित हैं। चोलकालीन कांस्य मूर्तियों में भी श्रीराम का मनोहारी अंकन उपलब्ध है। स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त रामकथा के विविध प्रसंगों के उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, एलोरा, बरम्बा, सोमनाथपुर, खरौद, जांजगीर और सेतगंगा जैसे पुरास्थल में दृष्टिगोचर होता है। इन उदाहरणों में भारतीय जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने वाले प्रसंगों जैसे-सीता हरण, जटायु वध, बालि-सुग्रीव युद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कदाचित् इसीकारण छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय ने भी गाया है:-

रत्नपुर में बसे रामजी सारंगपाणी

हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी

प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम

है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम

शिवरीनारायण में प्रकटे शौरिराम युत हैं लसे

जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहीं फंसे।

    श्री शिवरीनारायण माहात्म्य में श्रीराम जन्म के संबंध में उल्लेख है जिसमें विष्णु भगवान रामावतार के पूर्व देवताओं को कहते हैं:-

मैं निज अंशहि अवध में, रघुकुल हो तनु चार

राम लक्ष्मण भरत अरू शत्रूहन सुकुमार।

कौशल्या के गर्भ में जन्महु निस्संदेह

महात्मा दशरथ नृपति मो पर करत सनेह।।02/128-129

    हे देवों ! मैं अयोध्यापति दशरथ के घर जन्म लेने जा रहा हूँ। आप लोग भी वहां जन्म लेकर अपना जीवन सार्थक बनाएं। मैं वहां माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लूंगा क्योंकि राजा दशरथ का मेरे उपर बहुत स्नेह है। लोमश ऋषि आगे कहते हैं कि श्रीरामचंद्र जी के अनेक अवतार हुए हैं। उनके विस्तार, जन्म-कर्म का लेखा लगाना बड़ा कठिन है। इसमें तिलमात्र भी संदेह नहीं कि हरि माया बलवती है।उससे ज्ञानी, अज्ञानी और गुणवान भी मोहित हो जाते हैं:-

परमात्मा श्रीराम के भये विविध अवतार

जन्म कर्म के भेद अति हैं विविध विस्तार

यामे नहिं संदेह कछु हरि माया बलवान

अज्ञानी गुनवान हूँ मोहि रही जग जान।। 04/5-6

परमात्मा श्रीराम के जब जब  भये अवतार

किये राज्य नगरी अवध बल बंधि नीति विचार

तब तब मैं तोहि कुंड में डारे शालिगराम

रत्नमयी उज्जवल तहां है अनन्त छबिधाम।। 04/7-8

    श्रृंगि ऋषि के पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने पर जो चारू प्राप्त हुआ था उसे महाराजा दशरथ अपनी तीनों रानियों को खिला दिया। कालान्तर में माता कौशल्या के गर्भ से श्रीराम, माता कैकेयी के गर्भ से भरत और माता सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघन का जन्म हुआ। चारों राजकुमारों के जन्म से मानों अयोध्या नगरी को आनंद से भर दिया। सभी अयोध्यावासी आनंद से नाचने गाने लगे जैसे उनकी मुराद पूरी हो गयी हो। देवलोक में भी सभी देवता नाचने गाने लगे और पुष्प वर्षा करने लगे। 

    प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ का वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना और अपने गौरवमयी अतीत को गर्भ में समाया हुआ है। दक्षिण जाने का मार्ग छत्तीसगढ़ से गुजरने के कारण इसे दक्षिणापथ भी कहा जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से होकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गये थे। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं।

    

सहस्त्राब्दियों पूर्व घटित त्रेतायुग का प्रमाण मिलना दुर्लभ ही नहीं असंभव भी है। नदियों ने अपने मार्ग बदले, पर्वतों ने अपने स्वरूप और अरण्यों ने दिशायें बदली, नहीं बदली तो केवल मनुष्यों की आस्था और उनका विश्वास। रामायण के विविध प्रसंग, उस काल की घटनाएं और पात्रों के उपाख्यान तब से लेकर आज तक जनमानस में वाचिक परंपरा के रूप में आज भी विद्यमान हैं। मनुष्य अपनी अनुभूतियों के साथ जनश्रुतियों को जोड़कर इतिहास की रचना करता है। लोककथा, लोकगीत, लोककला, कहावतें और मुहावरें एक दिन लोकवाणी बनकर इतिहास बन जाती है। इनमें जन मान्यताओं और आस्थाओं को स्थापित करने के लिए मंदिरों, गुफाओं आदि का निर्माण करके धन्य होता है। ऐसा ही प्रयास छत्तीसगढ़ में सदियों से होता आ रहा है। आज भी उस काल की अनेक स्मृतियां यहां देखने सुनने को मिलती है। बस्तर के लोकगीत, लोकनाट्य, शिल्पकला आदि में श्रीराम की झलक मिलती है। समूचा छत्तीसगढ़वासी रामनवमीं को बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। इस दिन शुभ लग्न मानकर सभी शुभकार्य करते हैं। शादियां और गृह प्रवेश आदि शुभ कार्य सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ के रामरमिहा लोग अपने पूरे शरीर में राम नाम गुदवाकर श्रीराम नाम की पूजा-अर्चना करते हैं। वे निर्गुण राम को मानते हैं। उनका कहना है के राम से बड़ा राम का नाम है। 

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मंगलवार, 21 मार्च 2023

छत्तीसगढ़ में शाक्त परंपरा

 छत्तीसगढ़ में शाक्त परंपरा

नवरात्रि पर्व- नौ दिन तक देवियों की पूजा-अर्चना का सात्विक पर्व, ग्रामदेवी, ईष्टदेवी और कुलदेवी को प्रसन्न करने का पर्व। शक्ति साधक जगत की उत्पत्ति के पीछे ‘‘शक्ति’’ को ही मूल तत्व मानते हैं और माता के रूप में उनकी पूजा करते हैं। समस्त देव मंडल शक्ति के कारण ही बलवान है, उसके बिना वे शक्तिहीन हो जाते हैं। यहां तक कि सृष्टि के निर्माण में शक्ति ईश्वर की प्रमुख सहायिका होती हैं। शक्ति ही समस्त तत्वों का मूल आधार है। शक्ति को समस्त लोक की पालिका-पोषिता माना गया है। वह प्रकृति का स्वरूप है। इस प्रकार शाक्तों अथवा शक्ति पूजकों ने प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति को पारलौकिक पवित्रता और ब्रह्मवादिता प्रदान की है। अतः शक्ति सृजन और नियंत्रण की पारलौकिक शक्ति है। वह समस्त विश्व का संचालन भी करती है। इसीकारण वह जगदंबा और जगन्माता है। छत्तीसगढ़ में शिवोपासना के साथ शक्ति उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है। मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिषासुर मर्दिनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र शक्ति की प्ररणास्रोत बनीं। शैव धर्म के प्रभाव में वृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय समय पर अलग अलग रूप ग्रहण करती हैं। शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके हाथों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमर्दिनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या शव (चामुण्डा) गर्दभ (शीतला) होते हैं। 

देवी की मूर्तियों को मुख्यतः सौम्य तथा उग्र या संहारक रूपों में बांटा जा सकता है। संहारक रूपों में देवी के हाथों में त्रिशूल, धनुष, बाण, पाश, अंकुश, शंख, चक्र, खड्ग और कपाल जैसे आयुध होते हैं। उनका दूसरा हाथ अभय या वरद मुद्रा में होता है। इसी प्रकार संहारक रूपों में अभय या वरद मुद्रा देवी के सर्वकल्याण और असुरों एवं दुष्टात्माओं के संहार द्वारा भक्तों को अभयदान और इच्छित वरदान देने का भाव व्यक्त होता है। उग्र रूपों में महिषमर्दिनी, दुर्गा, काली, चामुण्डा, भूतमाता, कालरात्रि, रौद्री, शिवदूती, भैरवी, मनसा एवं चैसठ योगिनी मुख्य हैं। देवी के सौम्य रूपों में लक्ष्मी एवं क्षमा (पद्मधारिणी), सरस्वती (वीणाधारिणी), गौर, पार्वती और गंगा-यमुना (कलश और पद्मधारिणी) तथा अन्नपूर्णा प्रमुख हैं। भारतीय शिल्प में लगभग सातवीं शताब्दी के बाद से शक्ति के विविध रूपों का शिल्पांकन मिलता है। इसके उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, भेड़ाघाट, हिंगलाजगढ़, हीरापुर, एलोरा, कांचीपुरम्, महाबलीपुरम्, तंजौर, बेलूर, सोमनाथ आदि जगहों में मिलता है। हमारे देश में गंगा, यमुना, नवदुर्गा, द्वादश गौरी, पार्वती, महिषमर्दिनी, सप्तमातृका, सरस्वती एवं लक्ष्मी की मर्तियों की पूजा अर्चना प्रचलित है।

दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डी, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धदात्री का उल्लेख मिलता है। भारतीय शिल्प में सभी नौ दुर्गा के अलग अलग उदाहरण नहीं मिलते लेकिन चतुर्भुजा या अधिक भुजाओं वाली सिंहवाहिनी की मूर्ति खजुराहो के लक्ष्मण और विश्वनाथ मंदिर में, एलोरा, हिंगलाजगढ़, महाबलीपुरम् एवं ओसियां में मिले हैं। दुर्गा का एक विशेष रूप चित्तौड़गढ़ में मिला है जो क्षेमकरी के रूप में भारतीय शिल्प में लोकप्रिय था। दक्षिण भारत के मंदिरों में द्वादश गौरी की मूर्ति मिलती है जिनमें प्रमुख रूप से उमा, पार्वती, रम्भा, तोतला और त्रिपुरा उल्लेखनीय है। द्वादश गौरी के नाम और उनके आयुध निम्नानुसार है:-

1. उमा:- अक्षसूत्र, पद्म, दर्पण, कमंडलु।

2. पार्वती:- वाहन सिंह और दोनों पाश्र्वो में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु।

3. गौरी:- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु।

4. ललिता:- शूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु।

5. श्रिया:- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा।

6. कृष्णा:- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड।

7. महेश्वरी:- पद्म और दर्पण।

8. रम्भा:- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश।

9. सावित्री:- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु।

10. त्रिषण्डा या श्रीखण्डा:- अक्षसूत्र, वज्र, शक्ति और कमण्डलु।

11. तोतला:- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर।

12. त्रिपुरा:- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।

    द्वादश गौरी के सामूहिक उत्कीर्णन का उदाहरण मोढेरा के सूर्य मंदिर की वाह्यभित्ति की रथिकाओं में देखा जा सकता है। अभी केवल दस आकृतियां ही सुरक्षित हैं। इसी प्रकार हिंगलाजगढ़ में द्वादश रूपों में केवल नौ रूप की दृष्टब्य है। परमार कालीन ये मूर्तियां वर्तमान में इंदौर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ऐलोरा से पार्वती की 14 मूर्तियां मिली हैं जिनमें रावणनुग्रह, शिव के साथ चैपड़ खेलती पार्वती और स्वतंत्र मूर्तियां मिली हैं। इसीप्रकार भुवनेश्वर में महिषमर्दिनी की 21, ऐलोरा में 10, खजुराहो, वाराणसी और छत्तीसगढ़ के चैतुरगढ़ और मदनपुरगढ़ में मूर्तियां हैं।

        देवी पूजन की परंपरा मुख्यतः दो रूपों में मिलती है- एक मातृदेवी के रूप में और दूसरी शक्ति के रूप में। प्रारंभ में देवी की उपासना माता के रूप में अधिक लोकप्रिय थी। पुराणों में दुर्गा स्तुतियों में जगन्माता या जगदम्बा स्वरूप की अवधारणा में देवी के माता स्वरूप का स्पष्ट संकेत मिलता है। भारत, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में धर्म की अवधारणा के साथ ही मातृपूजन की परंपरा आरंभ हुई। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने में योगदान के कारण ही मातृ देवियों का पूजन प्रारंभ हुआ। माता की प्रजनन शक्ति जो सभ्यता की निरंतरता का मूलाधार है, मातृदेवी के रूप में उनके पूजन का मुख्य कारण रही है। सिंधु सभ्यता के समय से मातृदेवियों की पूजा प्रचलित थी। शक्ति वस्तुतः क्र्रियाशीलता का परिचायक और उसी का मूर्तरूप है। शक्ति पूजन के अंतर्गत विभिन्न देवताओं की क्रियाशीलता उनकी शक्तियों में निहित मायी गयी। तद्नुरूप सभी प्रमुख देवताओं की शक्तियों की कल्पना की गयी। देवताओं की शक्तियों की कलपना सांख्यदर्शन की प्रकृति और पुरूष तथा दोनों के अंतरावलंबन के भाव से संबंधित है। इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनिपट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की परिकल्पना वस्तुतः शिवशक्ति या प्रकृति पुरूष की समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने की अनंत इच्छा ने शक्ति की उपासना को व्यापक आयाम दिया है।

        छत्तीसगढ़ में देवियां ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। विभिन्न स्थानों में देवियां या तो समलेश्वरी या महामाया देवी के रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित हो रही हैं। राजा-महाराजाओं, जमींदारों और मालगुजार भी शक्ति उपासक हुआ करते थे। वे अपनी राजधानी में देवियों को ‘‘कुलदेवी’’ के रूप में स्थापित किये हैं। देवियों को अन्य राजाओं से मित्रता के प्रतीक के रूप में भी अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। यहां देवियों की अनेक चमत्कारी किंवदंतियां प्रचलित हैं। ..चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है। नवरात्रि में देवियों की कृपा प्राप्त करने के लिए देवि दर्शन की जाती हैं। ग्रामीणजनों में देवियों की प्रसन्न करने के लिए ‘‘बलि’’’ दिये जाने और मातासेवा गीत गाकर किये जाने की परंपरा है। उड़ियान राज से जुड़े चंद्रपुर में चंद्रसेनी माता के दरबार में ग्रामीणजनों द्वारा बलि देकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। देवी मंदिरों में श्रद्धालुओं की बढ़ती भीढ़ बढ़ती जा रही है और देवी स्थल शक्तिपीठ के रूप में विकसित होते जा रहे हैं।

रतनपुर की महामाया:-

दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन और जिला मुख्यालय से लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर महामाया की नगरी रतनपुर स्थित है। यह हैहहवंशी कलचुरी राजाओं की विख्यात् राजधानी रही है। इस वंश के राजा रत्नदेव ने महामाया के निर्देश पर ही रत्नपुर नगर बसाकर महामाया देवी की कृपा से दक्षिण कोसल पर निष्कंटक राज किया। उनके अधीन जितने राजा, जमींदार और मालगुजार रहे, सबने अपनी राजधानी में महामाया देवी की स्थापना की और उन्हें अपनी कुलदेवी मानकर उनकी अधीनता स्वीकार की। उनकी कृपा से अपने कुल-परिवार, राज्य में सुख शांति और वैभव की वृद्धि कर सके। पौराणिक काल से लेकर आज तक रतनपुर में महामाया देवी की सŸाा स्वीकार की जाती रही है। राजा रत्नदेव भटकते हुए जब यहां के घनघोर वन में आये और सांझ होनें के कारण एक पेड़ पर चढ़कर रात्रि गुजारी। पेड़ की डगाल को पकड़कर सोते रहे। अचानक अर्द्धरात्रि में पेड़ के नीचे देवी महामाया की सभा लगी दिखाई दी। उनके निर्देश पर ही उन्होंने यहां अपनी राजधानी स्थापित थी। यही देवी आज जन आस्था का केंद्र बनी हुई है। मंत्र शक्ति से परिपूर्ण दैवीय कण यहां के वायुमंडल में बिखरे हैं जो किसी भी उद्दीग्न व्यक्ति को शांत करने के लिए पर्याप्त हैं। यहां के भग्नावशेष हैहहवंशी कलचुरी राजवंश की गाथा सुनाने के लिए पर्याप्त है। महामाया देवी और बूढ़ेश्वर महादेव की कृपा यहां के लिए कवच बना हुआ है। पंडित गोपालचंद्र ब्रह्मचारी भी यही गाते हैं:-

रक्षको भैरवो याम्यां देवो भीषण शासनः

तत्वार्थिभिःसमासेव्यः पूर्वे बृद्धेश्वरः शिवः।।

नराणां ज्ञान जननी महामाया तु नैर्ऋतै

पुरतो भ्रातृ संयुक्तो राम सीता समन्वितः।।

देवी महामाया मंदिर ट्रस्ट बनाकर अराधकों द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया है। दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए धर्मशाला, यज्ञशाला, भोगशाला और अस्पताल आदि की व्यवस्था की गयी है। नवरात्र में श्रद्धालुओं की भीड़ ‘‘ चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है...’’ का गायन करती चली आती है।

सरगुजा की महामाया और समलेश्वरी देवी:-

वनांचल प्रांत झारखंड की सीमा से लगा छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य वनाच्छादित जिला मुख्यालय अम्बिकापुर चारों ओर से सड़क मार्ग और अनुपपुर से विश्रामपुर तक रेल्वे लाईन से जुड़ा पूर्व फ्यूडेटरी स्टेट्स है। यहां की पवित्र पहाड़ी पर महाकवि कालिदास का आश्रम था। विश्व की प्राचीनतम् नाट्यशाला भी यहां की रामगढ़ पहाड़ी में स्थित है। त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण लंका जाते देवियों की इस भूमि को प्रणाम करने यहां आये थे। यहां आज भी महामाया और समलेश्वरी देवी एक साथ विराजित हैं। तभी तो छत्तीसगढ़ गौरव के कवि पंडित शुकलाल पांडेय गाते हैं:-

यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को

क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?

काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा

चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा

दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये

लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।

कवि की बातों में सच्चाई है तभी तो सरगुजा आज अद्वितीय शक्ति उपासना का केंद्र है। छŸाीसगढ़ ही नहीं बल्कि सुदूर उड़ीसा के संबलपुर तक समलेश्वरी देवी, रतनपुर में महामाया देवी और चंद्रपुर में चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि से ही ले जायी गयी। मराठा शासकों के सैनिक और सामंतों द्वारा महामाया को नहीं ले सकने पर उसके सिर को काटकर रतनपुर ले आये लेकिन आगे नहीं ले जा सके और रतनपुर में ही प्रतिष्ठित कर दिये। 

चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी:-

 

महानदी और मांड नदी से घिरा चंद्रपुर, जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत रायगढ़ से लगभग 32 कि.मी., सारंगढ़ से 22 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां चंद्रसेनी देवी का वास है। किंवदंति है कि चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ होते हुये चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ जाती हैं। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर यहां पर वह विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहां से गुजरी और अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और उनकी नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहां मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। देवी की आकृति चंद्रहास जैसे होने के कारण उन्हें ‘‘चंद्रहासिनी देवी’’ भी कहा जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था का भार उन्होंने यहां के जमींदार को सौंप दिया। यहां के जमींदार ने उन्हें अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना करने लगा। आज पहाड़ी के चारों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों, देवी-देवताओं, वीर बजरंग बली और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा, सर्वधर्म सभा और चारों धाम की आकर्षक झांकी लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कवि तुलाराम गाोपाल की एक बानगी पेश है:-

खड़ी पहाड़ी की सर्वोच्च शिला आसन पर

तुम्हें देख बराह रूप में चंद्राकृति पर

जब मन ही में प्रश्न किया सरगुजहीन बाली 

                        महानदी की बीच धार की धरती डोली।

बस्तर की दंतेश्वरी देवी:- 

 

विशाल भूभाग में फैले बस्तर को यदि देवी-देवताओं की भूमि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां के हर गांव के अपने देवी-देवता हैं। हर गोव में ‘‘देव गुड़ी’’ होती है, जहां किसी न किसी देवी-देवता का निवास होता है। लकड़ी की पालकी में सिंदूर से सने और रंग बिरंगी फूलों की माला से सजे विभिन्न आकृतियों वाली आकर्षक मूर्तियां प्रत्येक देव गुड़ी में देखने को मिल जायेगी। ये यहां के गांवों के आस्था के केंद्र हैं। सम्पूर्ण बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी हैं जो यहां के काकतीय वंशीय राजाओं की कुलदेवी है। इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में दंतेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। भारत के शक्तिपीठों में एक दंतेवाड़ा में शक्ति का दांत गिरने के कारण यहां की देवी दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रतिष्ठित हुई, ऐसा विश्वास किया जाता है। देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी गयी जो आज दंतेवाड़ा जिला का मुख्यालय है। 

बस्तर के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टिपात करने से पता चलता है कि राजा प्रताप रूद्रदेव के साथ दंतेश्वरी देवी आंध्र प्रदेश के वारंगल राज्य से यहां आयी। मुगलों से परास्त होकर राजा प्रताप रूद्रदेव वारंगल को छोड़कर इधर उधर भटकने लगे। देवी अराधक तो वे थे ही, वे उन्हीं के शरण में गये। तब देवी मां का निर्देश हुआ कि ‘‘ मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन घोड़े पर सवार होकर तुम अपनी विजय यात्रा आरंभ करो, जहां तक तुम्हारी विजय यात्रा होगी वहां तक तुम्हारा एकछत्र राज्य होगा...।’’ राजा के निवेदन पर देवी मां उनके साथ चलना स्वीकार कर ली। लेकिन शर्त थी कि राजा पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। अगर राजा पीछे मुड़कर देखेंगे, तब देवी मां आगे नहीं बढ़ेंगी। राजा को उनके पैर की घुंघरूओं की आवाज से उनके साथ चलने का आभास होता रहेगा। राजा प्रताप रूद्र्र्रदेव ने विजय यात्रा आरंभ की और देवी मां उनकी विजय यात्रा के साथ चलने लगी। जब राजा की सवारी शंखिनी डंकनी नदी को पार करने लगी तब देवी मां के पैर की घुंघरू सुनायी नहीं देता है तब राजा पीछे मुड़कर देखने लगे जिससे देवी आगे बढ़ने से इंकार कर दी और वहीं प्रतिष्ठित हुई। बाद में राजा ने उनके लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और उनके नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी। बस्तर में कोई भी पूजा-अर्चना और त्योहार दंतेश्वरी देवी की पूजा के बिना पूरा नहीं होता। दशहरा के दिन यहां रावण नहीं मरता बल्कि दंतेश्वरी देवी की भव्य शोभायात्रा निकलती है जिसमें बस्तर के सभी देवी-देवता शामिल होते हैं। नवरात्र में बस्तर का राजा दंतेश्वरी देवी के प्रथम पुजारी के रूप में नौ दिन मंदिर में निवास करके पूजा-अर्चना करते थे। इसी प्रकार खैरागढ़ में दंतेश्वरी देवी की काष्ठ प्रतिमा स्थापित है जो खैरागढ़ राज परिवार की कुलदेवी है।

डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी:-

राजनांदगांव जिलान्तर्गत 25 कि.मी पर स्थित दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के डोंगरगढ़ स्टेशन में ट्रेन से उतरते ही सुन्दर पहाड़ी उसमें छोटी छोटी सीढ़ियां और उसके उपर बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर का दर्शन कर मन प्रफुल्लित हो श्रद्धा से भर उठता है। प्राचीन काल में यह कामावती नगर के नाम से विख्यात् था। यहां के राजा कामसेन बड़े प्रतापी और संगीत कला के प्रेमी थे। राजा कामसेन के उपर बमलेश्वरी माता की विशेष कृपा थी। उन्हीं की कृपा से वे सवा मन सोना प्रतिदिन दान किया करते थे। उनके राज दरबार में कामकंदला नाम की अति सुन्दर राज नर्तकी थी। कामकंदला वास्तव में एक अप्सरा थी जो शाप के कारण पृथ्वी में अवतरित हुई थी। राजनर्तकी को यहां कुंवारी रहना पड़ता था। इस राज दरबार में माधवानल जैसे कला और संगीतकार भी थे। एक बार राजदरबार में दोनों का अनोखा समन्वय देखने को मिला और राजा कामसेन उनकी संगीत साधना से इतने प्रभावित हुए कि वे माधवानल को अपने गले का हार दे दिये। मगर माधवानल ने इसका श्रेय कामकंदला को देते हुए उस हार को उसे पहना देता है। इससे राजा अपने को अपमानित महसूस किये और गुस्से में आकर माधवानल को देश निकाला दे दिया। इधर कामकंदला उनसे छिप छिपकर मिलती रही। दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे लेकिन राजा के भय से सामने नहीं आ सकते थे। फिर उन्होंने उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की शरण में गया और उनका मन जीतकर उनसे पुरस्कार में कामकंदला को राजा कामसेन से मुक्त कराने की बात कही। राजा विक्रमादित्य ने दोनों के प्रेम की परीक्षा ली और दोनों को खरा पाकर कामकंदला की मुक्ति के लिए पहले राजा कामसेन के पास संदेश भिजवाया। उसने कामकंदला को मुक्त करने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप दोनों के बीच घमासान युद्ध होने लगा। दोनों वीर योद्धा थे और एक महाकाल के भक्त थे तो दूसरा विमला माता के भक्त। दोनों अपने अपने इष्टदेव का आव्हान करते हैं। तब एक तरफ महाकाल और दूसरी ओर भगवती विमला मां अपने अपने भक्त को सहायता करने पहुंचे। फिर महाकाल विमला माता से राजा विक्रमादित्य को क्षमा करने की बात कहकर कामकंदला और माधवानल को मिला देते हैं और दोनों अंतर्ध्यान हो जाते हैं। बाद में राजा कामसेन की नगरी काल के गर्त में समा जाती है। वही आज बमलेश्वरी देवी के रूप में छत्तीसगढ़ वासियों की अधिष्ठात्री है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे बमलेश्वरी पहाड़ी अविचल खड़ा है। यह अनादिकाल से जग जननी मां बमलेश्वरी अंतर्ध्यान देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी है। लगभग एक हजार सीढ़ियों को चढ़कर माता के दरबार में पहुंचने पर जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रद्धा से भर उठकर गा उठता है:-

तेरी होवे जै जैकार, नमन करूं मां करो स्वीकार।

तेरी महिमा अनुपम न्यारी जग में सबसे बलिहारी है।

तू ही अम्बे, तू ही दुर्गा, बमलेश्वरी तेरी सिंह की सवारी।

नैया सबकी पार लगे मां तरी जै जैकार.....।

इसी प्रकार रायगढ़, सारंगढ़, उदयपुर, चांपा में समलेश्वरी देवी, कोरबा जमींदारी में सर्वमंगला देवी, जशपुर रियासत में चतुर्भुजी काली माता, अड़भार में अष्टभुजी देवी, झलमला में गंगामैया, केरा, पामगढ़ और दुर्ग और कुरूद में चंडी दाई, खरौद में सौराईन दाई, शिवरीनारायण में अन्नपूर्णा माता, मल्हार में डिडनेश्वरी देवी, रायपुर में बिलासपुर रोड में तथा पंडित रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय के पीछे बंजारी देवी का भव्य मंदिर है। छुरी की पहाड़ी में कोसगई देवी, बलौदा के पास खम्भेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा पहाड़ी में स्थित हैं। नवरात्र में यहां दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।


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सोमवार, 6 मार्च 2023

होली के अवसर पर : देवताओं की होली

होली के अवसर पर : देवताओं की होली 

 खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली

      प्रो. अश्विनी केशरवानी

 

होली हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भारतीय संस्कृति का अनूठा संगम उनकी त्योहारों और पर्वो में दिखाई देता है। इन पर्वो में न जात होती है न पात, राजा और रंक सभी एक होकर इन त्योहारों को मनाते हैं। सारी कटुता को भूलकर अनुराग भरे माधुर्य से इसे मनाते हैं। इसीलिए होली को एकता, समन्वय और सदभावना का राष्ट्रीय पर्व कहा जाता है। होली के आते ही धरती प्राणवान हो उठती है, प्रकृति खिल उठती है और कवियों का भावुक नाजुक मन न जाने कितने रंग बिखेर देता है अपनी गीतों में। देखिये इसकी एक बानगी पेश है:-

होली का त्योहार मनायें

ले लेकर अबीर होली में

निकलें मिल जुलकर टोली में

बीती बातों को बिसराकर

सब गले मिलें होली में

पिचकारी भर भरकर

सबको हंसकर तिलक लगायें

आओं मिलकर होली मनायें।

  गांवों में बसा हमारा भारत ग्राम्य संस्कृति में घुले मिले रचे बसे लोग मांगलिक प्रसंगों पर लोकगीत गाकर वातावरण को लुभावना बना देते हैं। गांवों में नगरीय सभ्यता से जुड़े मंच नहीं होता। यहां के लोग धरती के गीत गाते हैं और उन्हीं में हमारे पर्व और त्योहारों की झांकी होती है। संभवतः समूचे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां के पर्व और मांगलिे प्रसंग आपस में जोड़ने का काम करते हैं। होली का पर्व या दीपावली का, उसमें भारतीयता झलकती है। हसरत रिसालपुरी के शब्दों में-

मुख पर गुलाल लगाओ

नयनयन को नयनों से मिलाओ

  बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ

                सबको आत्मज्ञान सिखाओ

             आओ प्यार की बोली बोलें

             हौले हौले होली खेलें।

  भारत में वैसे पर्व और त्योहार इतने हैं उतने कहीं नहीं है। यहां हर दिन किसी न किसी उत्सव से जुड़ा है। इनमें हमारा धर्म, हमारी सभ्यता और संस्कृति के साथ साथ आध्यात्म जुड़ा होता है। ब्रज की होली या कहीं और की, उनमें समूचा भारतीय समाज रचा बसा है। कवि इन पर्व प्रसंगों को अपने जीवन का सहचर मानता है। कवि पद्माकर का यह छंद अनूठा और होली को रंगमय बनाने वाला है:-

एकै संग धाये नंदलाल अउ गुलाल दोउ 


दृगन नये ते भरि आनंद मढ़ै नहीं।

धोय धोय हारी पद्माकर तिहारी सोय

अब तो उपजाऊ एकौ चित में चढ़ै नहीं।

कैसे करौं, कहां जाओंष् कासे कहां बावरी

कोउ तो निकारो जाओ दरद बढ़ै नहीं।

ऐरी मेरी बोर जैसे तैसे इन आंखिन में

कढ़ियोे अबीर पै अहीर तो कढ़ै नहीं। 

ऐसे रंगों से सराबोर होली को खेेेेलने में भला देवतागण भला पीछे क्यों रहे ? राधा-कृष्ण की होली के रंग ही कुछ और है। ब्रज की होली का रंग ही निराला है। अपने श्यामा श्याम के संग रंग में रंगोली बनाकर ब्रजवासी भी होली खेलने के लिये हुरियार बन जाते हैं और ब्रज की नारियां हुरियारिनें के रूप में साथ होते हैं और चारों ओर एक ही स्वर सुनाई देता है-

आज बिरज में होली रे रसिया

होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया।

उड़त गुलाल लाल भए बादर

केसर रंग में बोरी रे रसिया।

बाजत ताल मृदंग झांझ ढप

और मजीरन की जोरी रे रसिया।

फेंक गुलाल हाथ पिचकारी

मारत भर भर पिचकारी रे रसिया।

इतने आये कुंवरे कन्हैया

उतसों कुंवरि किसोरी रे रसिया।

नंदग्राम के जुरे हैं सखा सब

बरसाने की गोरी रे रसिया।

दौड़ मिल फाग परस्पर खेलें

कहि कहि होरी होरी रे रसिया।

इतना ही नहीं वह श्याम सखाओं को चुनौती देती है कि होली में जीतकर दिखाओ। उनमें ऐसा अद्भूत उत्साह जागृत होता है कि सब ग्वाल-बालों को अपना चेला बनाकर बदला चुकाना चाहती हैं। जिन ब्रज बालों ने अटारी में चढ़ी हुई ब्रज गोपियों को संकोची समझा था, आज वे ही होली खेलने को तैयार हैं। पेश है इस दृश्य की एक बानगी:-

होरी खेलूंगी श्याम तोते नाय हारूं

उड़त गुलाल लाल भए बादर

भर गडुआ रंग को डारूं

होरी में तोय गोरी बनाऊं लाला

पाग झगा तरी फारूं

औचक छतियन हाथ चलाये

तोरे हाथ बांधि गुलाल मारूं।

फिर क्या था ब्रज में होली की ऐसी धूम मची कि सब रंग में सराबोर हो गये। जिसका जैसा वश चला उसने वैसी ही होली खेली। श्रीकृष्ण ने भी घाघर में केसर रंग घोला है और झोली में अबीर भरा है। उड़ते गुलाल से लाल बादल सा छा गया है। रंग से भरी यमुना बह रही है। ब्रज की गलियों में राधिका होली खेल रही है, रंग से भरे ग्वाल-बाल लाल हो गये हैं:-

होरी खेलत राधे किसोरी बिरिजवा के खोरी।

केसर रंग कमोरी घोरी कान्हे अबीरन झोरी।

उड़त गुलाल भये बादर रंगवा कर जमुना बहोरी।

बिरिजवा के खोरी।

लाल लाल सब ग्वाल भये, लाल किसोर किसोरी।

भौजि गइल राधे कर सारी, कान्हर कर भींजि पिछौरी।

बिरिजवा के खोरी।


अयोध्या में श्रीराम सीता जी के संग होली खेल रहे हैं। एक ओर राम लक्ष्मण भरत और शत्रृघन हैं तो दूसरी ओर सहेलियों के संग सीता जी। केसर मिला रंग घोला गया है। दोनों ओर से रंग डाला जा रहा है। मुंह में रोरी रंग मलने पर गोरी तिनका तोड़ती लज्जा से भर गई है। झांझ, मृदंग और ढपली के बजने से चारों ओर उमंग ही उमंग है। दंवतागण आकाश से फूल बरसा रहे हैं। देखिए इस मनोरम दृश्य की एक झांकी 

खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी

इत राम लखन भरत शत्रुहन,

उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।

छिरकत जुगल समाज परस्पर

मलत मुखन में रोरी, बाजत तृन तोरी।

बाजत झांझ, मिरिदंग, ढोेलि ढप

गृह गह भये चंहु ओरी, नवसात संजोरी।

साधव देव भये, सुमन सुर बरसे

जय जय मचे चंहु ओरी, मिथलापुर खोरी।

होली के दूसरे दृश्य में, रघुवर और जनक दुलारी सीता अवधपुरी में होली खेल रहे हैं। भरत, शत्रुघन, लक्ष्मण और हनुमान की अलग अलग टोली बन गयी है। पखावज का अपूर्व राग बज रहा है, प्रेम उमड़ रहा है और सभी गीत गा रहे हैं। थाली में अगर, चंदन और केसरिया रंग भर रहे हैं। सभी अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुम रख रहे हैं। माथे पर पगड़ी रंग गयी है और गलियों में केसर से कीचड़ बन गया है। इस दृश्य की एक बानगी पेश है:-

खेलत अवधपुरी में फाग, रघुवर जनक लली

भरत, शत्रुहन, लखन, पवनसुत, जूथ जूथ लिए भाग।

बजत अनहद ताल पखावज, उमगि उमगि अनुराग

गावत गीत भली।

भरि भरि थार, अगरवा, केसर, चंदन, केसरिया भरि थार

अबरख, अबीर, गुलाल, कुमकुमा, सीस रंगा लिए पाग।

केसर कीच गली।

तीसरे दृश्य में जानकी, श्रुति, कीर्ति, उर्मिला और मांडवी के साथ होली खेल रही हैं:-

जानकी होरी खेलन आई

श्रुति, कीरति, उरमिला, मांडवी, संग सहेली सुलाई

केसर रंग भरे घर केचन चंदर गंध मिलाई

पीत मधु छिरकत आयी है, संग लिये सभ भाई

कर कंचन पिचुकारी हाथ लिये चलि आयी।

जब राधा-कृष्ण ब्रज में और सीता-राम अयोध्या में होली खेल रहे हैं तो भला हिमालय में उमा-महेश्वर होली क्यों न खेलें ? हमेशा की तरह आज भी शिव जी होली खेल रहे हैं। उनकी जटा में गंगा निवास कर रही है और पूरे शरीर में भस्म लगा है। वे नंदी की सवारी पर हैं। ललाट पर चंद्रमा, शरीर में लिपटी मृगछाला, चमकती हुई आंखें और गले में लिपटा हुआ सर्प। उनके इस रूप को अपलक निहारती पार्वती अपनी सहेलियों के साथ रंग गुलाल से सराबोर हैं। देखिए इस अद्भूत दृश्य की झांकी:-

     आजु सदासिव खेलत होरी

जटा जूट में गंग बिराजे अंग में भसम रमोरी

वाहन बैल ललाट चरनमा, मृगछाला अरू छोरी।

तीनि आंखि सुन्दर चमकेला, सरप गले लिपटोरी

उदभूत रूप उमा जे दउरी, संग में सखी करोरी

हंसत लजत मुस्कात चनरमा सभे सीधि इकठोरी

लेई गुलाल संभु पर छिरके, रंग में उन्हुके नारी

भइल लाल सभ देह संभु के, गउरी करे ठिठोरी।

शिव जी के साथ भूत-प्रेतों की जमात भी होली खेल रही है। देखिए इसकी एक झांकी:-

सदासिव खेलत होरी, भूत जमात बटोरी

गिरि कैलास सिखर के उपर बट छाया चंहुओरी

पीत बितान तने चंहु दिसि के, अनुपम साज सजोरी

छवि इंद्रासन सोरी।

आक धतूरा संखिया माहुर कुचिला भांग पीसोरी

नहीं अघात भये मतवारे, भरि भरि पीयत कमोरी

अपने ही मुख पोतत लै लै अद्भूत रूप बनोरी

हंसे गिरिजा मुंह मोरी।

औघड़ बाबा शिव जी की होली को देखकर सभी स्तुति करने लगते हैं कि हे बाबा ! हमारे नगर में निवास करो ओर हमारे दुख हरो:-

बम भोला बाबा, कहवां रंगवत पागरिया

कहवां बाबा के जाहा रंगइले और कहवां रंगइलें पागरिया

कासी बाबा के जाहा रंगइले आरे बैजनाथ पागरिया

तोहरा बयल के भ्ूासा देवो भंगिया देइबि भर गागरिया

बसे हमारी नगरिया हो बाबा, बसे हमारी नगरिया।

देवताओं की होली को देखकर मन उनकी भक्ति में रम जाता है। ईश्वर का गुणगान करो, ताली बजाओ और सभी के संग होली खेलो। चित चंचल है अपने रंगीले मन को ईश्वर की भक्ति में रंग लोकृ

रसिया रस लूटो होली में,

राम रंग पिचुकारि, भरो सुरति की झोली में।

हरि गुन गाओ, ताल बजाओ, खेलो संग हमजोली में

मन को रंग लो रंग रंगिले कोई चित चंचल चोली में

होरी के ई धूमि मची है, सिहरो भक्तन की टोली में।

       


       

शुक्रवार, 3 मार्च 2023

मेला के अवसर पर : पीथमपुर के कालेश्वरनाथ

 धूलपंचमी को मेला के अवसर पर

पीथमपुर के कालेश्वरनाथ

इतिहास इस बात का साक्षी है कि छत्तीसगढ़ की भूमि अनादि काल से ही अपनी परंपरा, समर्पण की भावना, सरलता और कलाओं की विपुलता के कारण सारे देश के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन, यहां के शासकों की वचनबद्धता, दानशीलता और प्रकृति के निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख को भी बांट लेते हैं। यही कारण है कि सुख और दुख में विचलित न होकर यहां के लोग हर समय एक उत्सव का सा माहौल बनाए रखते हैं। किसी प्रकार का बवाल उनकी उत्सवप्रियता में कमी नहीं ला पाती। झुलसती गर्मी में उनके चैपाल गुंजित होते हैं, मुसलाधार बारिस में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खेत और खलिहान झूमते हैं। ‘धान का कटोरा‘ कहे जाने वाले इस प्रदेश की रग रग में उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होती है। मेला और मड़ई इनमें से एक है। कृषि संस्कृति का प्रतीक छत्तीसगढ़ का मड़ई यहां के लोगों की सहृदयता, मिलजुलकर रहने की प्रकृति तथा इनकी सांस्कृतिक परंपरा को सहज ही प्रदर्शित करती है। इसी प्रकार माघ-फाल्गुन के महिने में मेले का आयोजन होता है। मेला की तिथि पूर्व निर्धारित होती है जबकि मड़ई की तिथि सुविधानुसार तय की जाती है।

छत्तीसगढ़ में मेले की परंपरा बहुत पुरानी है। जब से मानव सभ्यता का विकास हुआ है तब से किसी घटना अथवा अवसर पर एकत्र होकर धार्मिक उत्सव का आयोजन से ही मेले की शुरूवात हुई है। प्रारंभिक दौर में दर्शनार्थियों की भीड़ होती है..स्नान, ध्यान और पूजा-पाठ होती है फिर चार-छै फूल, अगरबत्ती और नारियल की दुकानें लगने लगती है और लोगों की बढ़ती भीड़ को देखकर चार पैसा कमाने की दृष्टि से व्यापारियों का आना शुरू हो जाता है। इस प्रकार धीरे धीरे यह प्रक्रिया चलती है और यह मेले का रूप लेने लगता है। इसे मेले का रूप देने, वहां की व्यवस्था आदि उस क्षेत्र के राजा, जमींदार, मालगुजार और गौंटिया किया करते थे। जब तक उनका प्रभुत्व रहा तब तक वे इस परंपरा को निभाते रहे लेकिन देश की आजादी के साथ ही उनका प्रभुत्व समाप्त हो गया और प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तार हुआ तब मेले की व्यवस्था का दायित्व जनपद पंचायत और बाद में नगर पालिका करने लगी। जनता भी राजा, जमींदार, मालगुजार और गौंटिया लोगों को अपने सिर-आंखों में बिठाकर उन्हें प्रथम पूजा का अधिकार प्रदान करती रही है। इस परंपरा के कई उदाहरण आज भी देखे जा सकते हैं। सेंसस आॅफ इंडिया के फेयर एण्ड फेस्टिवल अंक 1961 के अनुसार सन् 1908 ईसवीं में गवर्नर जनरल इन कौंसिल ने एक जिल्यूशन पास किया कि समूचे हिन्दुस्तान में क्षेत्रीय परंपरा को ध्यान में रखकर वहां आयोजित होने वाले फेयर एण्ड फेस्टिवल को एकत्र करके उसकी पूरी व्यवस्था की जाये। इस तारतम्य में सन् 1880 और 1910 में इम्पिरियल गजेटियर का प्रकाशन किया गया है। इसी समय डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का भी प्रकाशन किया गया। इस गजेटियर में उस जिले के त्योहारों और मेलों के उपर प्रकाश डाला गया है। संेसस आॅफ इंडिया 1961 के फेयर एण्ड फेस्टिवल ऑफ मध्यप्रदेश में क्षेत्रीय त्योहारों और मेलों के औचित्य पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि ‘‘उत्सव और मेले का महत्व क्षेत्र के पशुओं, कृषि उत्पादकों और संसाधनों की प्राप्ति हेतु एकत्रीकरण के लिए मेला और उत्सव समीपवर्ती औी दूरवर्ती, अनेक संस्कृतियों एवं धर्मो, कला कौशल, विचारों और प्रकारों तथा हस्त कौशल आदि के प्रदर्शन स्थल होते हैं जहां भविष्य के व्यापारिक, उत्कृष्ट औजार, साधन सामग्री एवं भूतकाल की लुप्त होती जा रही व्यवहार की सामग्री का स्थानीय परिवर्तनों के साथ अनुकूल कल्पना और कौशल की अभिव्यक्ति प्रदर्शित होती है। ईस्ट इंडिया कम्पनी के आदिम निर्यात नीतियों से विचलित तथा मशीनों से निर्मित सामानों की प्रतिबंधित आयात के कारण विगत शताब्दी की समाप्ति तक मेला और उत्सव लोक स्वास्थ विभाग के रूचि के विषय रहे, वे अब व्यापार और वाण्ज्यि के महत्वपूर्ण केंद्र बने नहीं रह सके लेकिन प्रशासकीय दृष्टिकोण में मेला और उत्सव महामारी और बिमारियों का जड़ मात्र बनकर रह गया है।‘‘


छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण, पीथमपुर और राजिम मेले का अलग महत्व है। शिवरीनारायण और राजिम में जहां वैष्णव परंपरा के देव प्रमुख हैं वहां पीथमपुर में शैव परंपरा के देव विराजमान हैं। शासकीय अभिलेखों के अनुसार इस क्षेत्र में लगने वाला लगभग 100 से 200 वर्ष पुरानी है। इन स्थानों में प्रशासनिक व्यवस्था के पूर्व मेला एक-एक माह तक लगता था। 1961 में प्रकाशित सेंसस ऑफ इंडिया के अनुसार इन  नगरों का मेला 10 दिनों तक लगता था और यहां लगभग एक लाख दर्शनार्थी आते थे। शिवरीनारायण और राजिम का मेला जहां माघ पूर्णिमा को लगता है जबकि पीथमपुर का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से शुरू होता है।

पीथमपुर, नवगठित छत्तीसगढ़ प्रांत के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से 13 कि.मी., दक्षिण पूर्व मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र 08 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 173 कि. मी. रेल मार्ग से नैला होकर स्थित है। यह नगर दक्षिण में 21ं 55‘ उत्तरी अंक्षांश और 82ं 35‘ पूर्वी देशांश पर हसदेव नदी के तट पर स्थित है। यहां छत्तीसगढ़ के ज्योतिर्लिंग काल कालेश्वरनाथ का सुप्रसिद्ध मंदिर है। यहां प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा याने होली के दूसरे दिन से चैत्र अमावस्या तक 15 दिवसीय मेला लगता है। धूल पंचमी की संध्या यहां काल कालेश्वरनाथ की बहुचर्चित और परंपरागत बारात निकलती है जो पूरे गांव का भ्रमण करके मंदिर परिसर में लाकर उसकी पूजा अर्चना करके पूरी होती है। शिव जी की इस बारात में नंगे बदन वाले नागा साधु बिखरे बाल, शरीर पर भभूत लगाये औा हाथ मे त्रिशूल लिए नाचते गाते सम्मिलित होते हैं। उनकी उपस्थिति से शिव बारात का यह दृश्य जीवंत हो उठता है। मौसम भी बौरा जाता है, चारों ओर हवाएं चलने लगती है, धूल उड़ने लगता है..ग्रामीणों की भजन मंडली के गाने का स्वर ऊंचा हो जाता है और फिर जैसे ही कालेश्वरनाथ की पालकी मंदिर से बाहर निकलती है, चारों ओर गुलाल बिखरने लगता है और हर हर महादेव गुंजायमान होने लगता है। दर्शनार्थियों की अपार भीड़ के बीच वैष्णव साधु भी इसमें सम्मिलित होते हैं। घिवरा-तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास वैष्णव ने तो इस दृश्य से अभिभूत होकर रामायण की तर्ज में ‘‘शिवायन‘‘ की रचना कर डाली। इस खंडकाव्य में उन्होंने शिवजी के दृश्य की जीवंत झांकी पुस्तुत करते हुए लिखा है:-


आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,

देखे जाबो चला गियां संगी ला जगाव रे।

 डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,

 गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।

 हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,

 एक बार हहा करि, सबे कहुँ घिघियावा रे।

पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,

नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगाव रे।

कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े।

कोऊ कोलिहा म चढ़ि चढ़ि आवत।

कोऊ बिघवा म चढ़ि बछुवा म चढ़ि।

कोऊ घुघुवा म चढ़ि हांकत उड़ावत।

सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।

हांव हांव कुत्ता करे, कोलिहा हुवावत।

कहे नरसिंह दास शंभू के बरात देखि।

गिरत परत सब लरिका भगावत।।

करीब डेढ़-दो कि. मी. की कछारी भूमि में बेतरतीब फैले किसिम किसिम की दुकानों की श्रृंखला होती हैं जिसे जनपद पंचायत जांजगीर प्रति वर्ष कभी आड़ी, कभी तिरछी और कभी गोलागार लगाने का प्रयास करती है। कुछ लोग पीथमपुर को ‘‘प्रियमपुर’’ कहते हैं। उनका मानना है कि यहां के मेले में लाखों लोग आते हैं और अपने सगे-सम्बंधियों से मिलते हैं। कुशलक्षेम पूछते हैं और चर्चा के बाद विवाह तय हो जाते हैं बाद में वे इस रिश्ते को कालेश्वर महादेव का प्रसाद मानकर ग्रहण कर लेते हैं। मेले में सामानों की खरीददारी करके हंसी खुशी घर को लौटते हैं।

पीथमपुर के नामकरण और महत्ता के बारे में आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल ने अपनी पुस्तक ‘‘शिवरीनारायण और सात देवालय’’ में लिखते हैं-‘‘पौराणिक काल में एक बार धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र बेन प्रजा की मार से भागते भागते हसदेव नदी के तट पर आये और अंततः मारे गये। चूंकि राजा अंगराज बड़े ही दयालु, सहिष्णु और धार्मिक प्रकृति के थे अतः उनके वंश की रक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने बेन के मृत शरीर का मंथन किया। पापी होने के कारण उसकी जांघ से एक कुरूप और बौने पुरूष का जन्म हुआ। चिंचित ऋषियों ने पुनः उसकी भुजाओं का मंथन किया। तब एक नर-नारी का जोड़ा निकला जिसे क्रमशः पृथु और अर्चि नाम दिया गया:- 

तब युग भुग से निकला नर-नारी का वह जोड़ा

नर नारीश्वर ने अनादि का गुरू आलिंगनतोड़ा।

रूप राशि के द्वैत कलश में दो सुंदरतम बानी

जली एक ही ज्योति प्राण में पुलका लोक बिछाती।

प्रमंथनों से प्रगठित प्रभु का नाम रखे पृथु यह कह

प्रथन करेंगे यश का पृथु सम्राट, अर्चि के पति रह..

और कहलायेगा ‘पीथमपुर‘ यह सुरम्य सुंदर वन

जहां पराजित हुआ पाप प्रभु प्रकटे पृथु का धर तन।।

ऋषि मुनियों ने उन्हें पति-पत्नि के रूप में स्वीकार करके विदा किया गया। राजा पृथु सबको साथ लेकर राजधानी को चले गये। इधर बौना कुरूप पुरूष शोक विहल होकर महादेव की शरण में जाता है। यहां उन्होंने महादेव की घोर तपस्या की तब महादेव जी उन्हें दर्शन देकर लिंग पूजा करने का आदेश देकर अंतध्र्यान हो गये। लिंग पूजा से बौना पुरूष कृतार्थ होकर बैकुण्ठ धाम को चला जाता है और शिव लिंग काल के गर्त में समा जाता है। कालान्तर में जब यहां मानव बस्ती बसी और यहां घूरा बना। उसी घूरे में दबे शिवजी ने हीरासाय को स्वप्न देकर पुनर्प्रतिष्ठित हुए और यहां मेले की शुरूवात हुई।

पीथमपुर में मेला लगने के पीछे एक किंवदंती प्रचलित है जिसका वर्णन ‘‘सेंसस ऑफ इंडिया ’’ के फेयर एण्ड फेस्टिवल अंक में है। उसके अनुसार पीथमपुर चांपा जमींदारी के अंतर्गत आता था। यहां हीरासाय नाम का एक तेली रहता था जो आगे चलकर शिवजी का बड़ा भक्त हुआ। कुछ वर्षो से वह पेट रोग से पीड़ित था। हर तरह के इलाज कराने के बाद भी उसे कोई फायदा नहीं हुआ। एक बार तो स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि बिस्तर से उठना मुश्किल हो गया। ईश्वर आराधना के अलावा और कोई चारा नहीं था, इसी बीच एक रात उसने एक स्वप्न देखा। सपने में स्वयं भगवान शिव उनसे कह रहे थे-‘‘ उठो हीरासाय, पास के घूरे में मेरा एक पार्थिव लिंग बरसों से दबा पड़ा है। उसे वहां से निकालकर प्रतिष्ठित करो और गांजा, भांग, चीलम, धतूरा और नारियल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करो इससे तुम्हें इस रोग से मुक्ति मिल जायेगी।’’ सुबह जब उसकी नींद खुली तब उसके मस्तिष्क में शिवजी का स्वप्नादेश गूंज रहा था। हीरासाय जो पेट रोग से पीड़ित था और बिस्तर से उठने में असमर्थ था, ने अपनी सुधबुध खोकर सारे गांव को इकठ्ठा किया और शिवजी के स्वप्नादेश को कह सुनाया। सबकी उपस्थिति में पास के उस घूरे को खोदा गया। वहां शिवजी का एक लिंग मिला। उसे वहां से निकालकर प्रतिष्ठित किया गया और पूजा-अर्चना की गयी। सबने देखा कि हीरासाय पेट रोग से मुक्त हो गया। सारागांव हीरासाय की शिव भक्ति से प्रसन्न हो गया। इस प्रकार गांव को रक्षक देव के रूप में स्वयंभू शिव मिला और हीरासाय जैसा शिवभक्त। इससे गांव का कलेवर ही बदल गया, चारों ओर से लोग यहां आते और पूजा-अर्चना करने से उनकी मनोकामना पूरी हो जाती। शिवभक्तों की भीड़ से गांव सराबोर हो गया। ऐसे शिवलिंग के मिलने से जिससे गांव का कलेवर ही बदल जाये उसे ‘‘कलेश्वरनाथ’’ कहना अतिश्योक्ति नहीं है ? स्व. श्री तुलाराम गोपान ने भी लिखा है:-

शंकर जी सिर छू बौने को अभयदान दे बोले

इसी धरा पर यहीं खोद, निकलूंगा मैं बम भोले।

मेरे उस पाषाण रूप का एक लिंग का लघु तन

जा तेरा कल्याण करेगा अरे अभागा निर्धन।

खुदी भूमि निकले शंकर जी लिंग रूप धारण कर

बौना बहल उठा, फाल्गुन का पूर्ण चंद्र मुसकाया।

मेला भरा महान, शिव गणों ने आनंद मनाया

पीथमपुर ने पृथ्वीं में अपना यश कमाया।।

इस घटना के तीसरे दिन हीरासाय को पुनः स्वप्नादेश हुआ कि यहां के जमींदार से भोगराग आदि के लिए अनुरोध करो। चांपा के जमींदार प्रेमसिंह तब तक इस घटना से अवगत हो चुके थे, हीरासाय के अनुरोध पर उन्होंने तुरंत अपने भाई कुंवर नेवाससिंह को पीथमपुर में व्यवस्था करने का आदेश दिया। उन्होंने एक ऊंचे टिले में छतरी बनवा दिया। आगे चलकर जगमाल गांगजी नामक एक ठेकेदार ने इसे मंदिर का रूप दिया।

चांपा के पंडित छविनाथ द्विवेदी ने संस्कृत भाषा में ‘‘कलिश्वर माहात्म्य स्त्रोत्रम’’ संवत् 1987 में लिखकर प्रकाशित कराया था। उसके अनुसार पीथमपुर के शिवलिंग का उद्भव चैत कृष्ण प्रतिप्रदा संवत् 1940 को हुआ था। मंदिर का निर्माण काल संवत् 1949 में शुरू होकर संवत् 1953 में पूरा हुआ और इसी वर्ष इसकी प्रतिष्ठा हुई। पीथमपुर के श्री तुलसीराम पटेल कृत ‘श्री कलेश्वर महात्म्य‘ के अनुसार पंडित काशीप्रसाद पाठक के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् 1945 में हीरासाय तेली से शिवलिंग की प्रतिष्ठा कराया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन 1954 में प्रकाशित श्री कलेश्वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-

तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।

शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।

प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।

बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।

सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।

यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।

यही विघि शिक्षा देते आवत।

सकल वंश शिवभक्त कहावत।।

पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा प्रकाशित और डाॅ. प्यारेलाल गुप्त द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘‘ में भी उक्त घटना के अलावा एक अन्य घटना का भी उल्लेख है। उसके अनुसार खरियार के जमींदार भी पेट रोग से मुक्ति पाने पीथमपुर आये थे। यहां की मानता के बाद उन्हें पेट रोग से मुक्ति मिली। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर कालेश्वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व 36 वर्ष की अल्पायु में सन् 1912 में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी। लेकिन आज भी यहां पेट रोग से मुक्ति पाने वालों और वंश वृद्धि का आशीर्वाद पाने वालों की भीड़ होती है। जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के कालेश्वरनाथ (अपभ्रंश कलेश्वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिषेक करने से वंश की अवश्य वृ़िद्ध होती है। यहां एक किंवदंति प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्ष अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्ष जमीन पर लोट मारते दर्शन करने यहां आते हैं। पीथमपुर के काल कालेश्वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चैहान ने ‘शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा‘ नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है:-

हसदो नदी के तीर में, कलेश्वरनाथ भगवान।

दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।

फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।

काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।

बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।

सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चैहान।।

इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ‘‘पीथमपुर के श्री शंकर माहात्म्य‘‘ लिखकर सन् 1953 में प्रकाशित कराया था। 36 श्लोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल कालेश्वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशला की शाखा खोले जाने, सन् 1953 में ही तिलभांडेश्वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्ष से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके 50 वर्षों में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् 1914 में जबलपुर से प्रकाशित ‘‘पीथमपुर माहात्म्य‘‘ को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा है और ग्रंथ का पुनप्र्रकाशन प्रो. अश्विनी केशरवानी के कुशल संपादन में ‘‘पीथमपुर के कालेश्वरनाथ‘‘ शीर्षक से बिलासा प्रकाशन बिलासपुर द्वारा किया गया है।

फाल्गुन पूर्णिमा याने होली के दूसरे दिन से यहां 15 दिवसीय मेला लगता है। विभिन्न प्रकार की दुकानें, झूला, सिनेमा और सर्कस यहां आते हैं। यहां भी उड़िया परंपरा को प्रदर्शित करने वाली स्वादिष्ट ‘उखरा‘ बहुतायत में बिकने आता है। उखरा उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं को जोड़ती है। यहां के ग्राम्यांचलों में उड़ीसा के भाट कलाकारों द्वारा बनाया गया भित्तिचित्र देखने को मिला है। इन चित्रों के रंग भगवान जगन्नाथ के रंगों जैसा होता है। इन भित्तिचित्रों को खोजी पत्रकार श्री सतीश जायसवाल ने ‘महानदी घाटी के भित्तिचित्र‘ कहकर उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं को जोड़ने वाला बताया है।

धूल पंचमी को यहां का मेला अपनी चरम सीमा पर होती है। इस दिन संध्या में काल कालेश्वर महादेव की परंपरागत बारात निकलती है। शिवजी की बारात में नागा साधुओं की उपस्थिति उसे जीवंत बना देती है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानों चैकी पर सवार पंचमुखी शिवजी दुल्हे के रूप में सवार है और अलमस्त नंग धड़ंग नागा साधु बाराती बनकर यहां उतर आए हों...? पीथमपुर के मेले में नागा साधुओं का आगमन कब और कैसे हुआ, इसका स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। परन्तु वर्षो से यहां नागा साधुओं का आगमन होता आ रहा है। वे इस मेले के आकर्षण होते हैं। कोई योगासन, कोई हट योग, तो कोई गांजे की चीलम फूंककर अलमस्त समाधिस्थ होता है। इधर मेला चंद्रमा की घटती कलाओं के साथ साथ अपना आकार बदलने लगता है, वहीं सिनेमा, सर्कस, प्रदर्शिनी, होटल, बर्तन कपड़ा और मनिहारी दुकान से वैवाहिक सामग्री की खरीददारी करके वापसी के लिए उद्यत ग्रामीणों की झांकी देखते ही बनती है। इसे देखकर कवि श्री तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है:-

युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी

कलयुग में है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।

जहां स्वप्न देकर शंकर जी पुनप्र्रकट हो आये

यह मनुष्य का काम कि उससे पूरा लाभ उठाये।।

    पीथमपुर में आये नागा साधुओं के अनुसार आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार में लगे जनों की रक्षा का भार नागा सम्प्रदाय को सौंप दिया जिसे उन्होंने जिम्मेदारियों के साथ निभाया। उनकी धारणा है कि माता अनसुइया और उत्तर ऋषि के पुत्र दत्तात्रे के द्वारा इस पंथ का सृजन हुआ। नागा साधु सात प्रमुख अखाड़ों से सम्बद्ध होते हैं। इनमें पंचजना अखाड़ा, पंचशंभू अखाड़ा, अमान अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, निर्माण अखाड़ा, महा निर्माणी अखाड़ा और निरंजनी अखाड़ा प्रमुख है। नागा साधु इस मेले में शामिल होने के लिए अमरकंटक, ऋषिकेश, हरिद्वार, नासिक, इलाहाबाद, बनारस, पशुपतिनाथ, असाम, आदि स्थानों से आते हैं। यात्रा के दौरान उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे निर्वस्त्र होते हैं। ठंड से बचने के लिए वे भभूत को अपने पूरे शरीर में मल लेते हैं। गांजा और भांग तो जैसे उनके लिए शिवजी का प्रसाद है। नागा साधुओं ने एक साक्षात्कार में बताया कि निर्वस्त्र होने से वे अपने को प्रकृति के निकट पाते हैं। इससे उन्हें मानसिक शांति मिलती है। अश्लीलता के बारे में पूछने पर वे बताते हैं-‘इसमें अश्लीलता क्या है ? दिगंबर जैनियों के गुरू भी तो निर्वस्त्र थे। वास्तव में यह काम पर संयम की विजय का प्रतीक है।

    वास्तव में यहां का मेला फाल्गुन की विदाई और चैत्र मास के आगमन के साथ शुरू होता है। मौसम की संधि काल के कारण आंधी-पानी का प्राकृतिक प्रकोप अक्सर होता है। कभी कभी आग लग जाती है जिससे दुकानें जलकर भस्म हो जाती है। इस आपाधापी में बच्चे, बूढ़े, औरत, मर्द अपने स्वजनों से बिछुड़ जाते हैं। इसके बावजूद उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आती। काल कालेश्वर महादेव के इस मंदिर में मन्नतें मानने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है और मनौती पूरी होने पर अगले वर्ष के मले में जमीन में ‘लोट मारते‘ आने की परंपरा का विस्तार होता जा रहा है। महाशिवरात्रि के दिन चांपा के डोंगाघाट और मदनपुरगढ़ से जल लेकर कांवरियों के द्वारा कालेश्वरनाथ में चढ़ाया जाता है।

    इन सबके बावजूद पीथमपुर जाने का मार्ग जर्जर है, हसदेव नदी का पानी औद्योगिक प्रदूषण के कारण पूरी तरह से प्रदूषित हो गया है। इससे यहां की नैसर्गिक, पुरातात्विक धरोहर के नष्ट होने की संभावना बढ़ती जा रही है। हसदेव नदी को कभी शिवगंगा कहा जाता था लेकिन आज प्रदूषण के कारण यह केवल पुस्तक की शोभा बन गयी है। छत्तीसगढ़ प्रदेश बनने के बाद इस नगर में भी पर्यटन स्थल की सुविधाएं होनी चाहिए। कवि श्री तुलाराम गोपाल भी गाते हैं:-

फाल्गुन की पूर्णिमा आज भी गौरव से कहती है

पीथमपुर में हसदो के संग शिवगंगा बहती है।

लोभ लाभ को त्याग, शरण शंकर की जाने वालों

पीथमपुर में बैठ ध्यानकर शिव को पास बुला लो।।



                प्रस्तुति,


प्रो. अश्विनी केशरवानी

राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)