मंगलवार, 13 मार्च 2012

छत्तीसगढ़ के इनसाइक्लोपीडिया प्यारेलाल गुप्त

   प्यारेलाल गुप्त जी का जन्म 17 अगस्त 1891 में कबीरधाम जिलान्तर्गत कवर्धा से 15 कि.मी. पर स्थित ग्राम पिपरिया में हुआ। उनके पिता श्री कुशलप्रसाद गुप्त एक शिक्षक थे। नौकरी की तलाश में उनका परिवार पिपरिया से रतनपुर आ गया था। उनकी प्राथमिक शिक्षा रतनपुर में हुई। आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें बिलासपुर आना पड़ा। यहां उन्होंने मेट्रिक पास की लेकिन पारिवारिक समस्या के कारण वे आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सके। परिस्थितियां उन्हें पढ़ाई को अधूरा छोड़कर जीविका के साधन तलाशने पर मजबूर कर दिया। वे 20 वर्ष की अल्पायु में ही सरकारी नौकरी में आ गये थे। उन्होंने अपने पिता के सादगीपूर्ण जीवन को अपनाया। उनमें लेखन का संस्कार पिता से विरासत में मिला। उल्लेखनीय है कि उनके पिता ने ‘राधाकृष्ण विहार‘ नामक काव्य की रचना ब्रजभाषा में की थी, जो प्रकाशित नहीं हो सकी थी। बाल्यावस्था से ही प्यारेलाल जी लिखने लगे थे। उनकी पहली कहानी ‘लाल बैरागिन‘ काशी से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘इन्दु‘ में प्रकाशित हुई। इस कहानी से उन्हें लोगों की सराहना मिली और उनकी लेखनी चलने लगी। गुप्त जी ने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी है। उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ है। रविशकर वि”वविद्यालय रायपुर से सन् 1973 में प्रकाशित इस ग्रंथ में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक युग के पूर्व तक का श्रृंखलाबद्ध इतिहास है। इस ग्रंथ में न केवल प्राचीन छत्तीसगढ़ का इतिहास बल्कि सांस्कृतिक परम्पराओं, लोक कथाओं, पुरातत्व और साहित्य का उल्लेख है। इस ग्रंथ को ‘छत्तीसगढ़ का इनसाइक्लोपीडिया‘ माना जा सकता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ की पदयात्रा करके इस ग्रंथ के लिए सामग्री जुटायी थी। इसके अलावा फ्रांस की राज्यक्रांति का इतिहास, ग्रीस का इतिहास, बिलासपुर वैभव, श्रीविष्णुस्मारकयज्ञ, सुखी कुटुम्ब (उपन्यास), सरस्वती (मराठी से अनुदित उपन्यास), लवंगलता (सामाजिक उपन्यास), पुष्पहार (कहानी संग्रह), एक दिन (नाटक), सहकारी सभा हिसाब किताब दर्पण, स्व. लोचनप्रसाद पांडेय की जीवनी प्रकाशित कृतियां हैं। फ्रांस की राजक्रांति का इतिहास और ग्रीस का इतिहास हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की परीक्षाओं में लगभग 25 वर्षो तक पाठ्य पुस्तक के रूप में अनुशासित थी। समाचार पत्र-पत्रिकाओं और आकाशवाणी से उनकी रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण होता था। पंडित शुकलाल पांडेय ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में श्री प्यारेलाल गुप्त के बारे में लिखते हैं-
        बुधवर रामदयालु, स्वभाषा गौरव केतन।
        ठाकुर छेदीलाल विपुल विद्यादि निकेतन।
        द्विजवर सुन्दरलाल मातृभाषा तम भूषण।
        बाबू प्यारेलाल देश छत्तीसगढ़ भूषण।
        लक्ष्मण गोविन्द रघुनाथ युग महाराष्ट्र नर-कुल-तिलक।
        नृप चतुर चक्रधर लख जिन्हें हिन्दी उठती है किलक।।163।।
    उल्लेखनीय है कि प्यारेलाल गुप्त को ‘छत्तीसगढ़ भूषण‘ कहा जाता है। कदाचित् किसी साहित्यिक संस्था के द्वारा उन्हें यह सम्मान प्रदान किया गया था। इसके अलावा उन्हें हिन्दी ग्रंथमाला कार्यालय वाराणसी से सर्वश्रेष्ठ कहानी लिखने का रजत पदक मिला। सन् 1966 में भारतेन्दु साहित्य समिति बिलासपुर द्वारा अभिनन्दन पत्र प्रदानकर अभिनन्दन ग्रंथ लोकार्पित किया गया। 14 सितंबर 1971 को हिन्दी दिवस के अवसर पर उन्हें हिन्दी साहित्य मंडल देशबंधु संघ रायपुर द्वारा सम्मान पत्र प्रदान किया गया। बेमेतरा के महाविद्यालयीन हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा अभिनन्दन पत्र प्रदान किया गया। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के राजनांदगांव सम्मेलन में उन्हें अभिनन्दन पत्र प्रदान किया गया। इसके अलावा वे कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित हुए।
       ‘धरती के सिंगार‘ की एक बानगी पेश है ः-
        सावन भादों निखर रहे हैं, धरती के सिंगार में
        नूतन पी के पनप रहे हैं, हर पौधे के प्यार में।
‘रत्नपुर महिमा‘ लिखकर वहां की महत्ता को रेखांकित करने का सद्प्रयास किया है-
        मुकुट है जिसका राम पहाड़ी
        विक्रम (भिखमा) दुलहरा जिसके कुंडल
        गले में बसते श्री वृद्ध शंभू
       पश्चिम दिशा में है श्री भवानी
        श्री भैरव जिसके द्वार हैं रक्षक
        हृदय पर बसते बिट्ठल प्रभू हैं
        जो था कहाता लहुरी काशी
        विद्वज्जनों की शुभ राजधानी।
    श्री प्यारेलाल गुप्त ने रतनपुर, बिलासपुर, कोरबा और रायपुर में रहकर साहित्यिक साधना किया।      डाॅ. रामकुमार बेहार कहते हैं कि ‘बाबु प्यारेलाल गुप्त रत्नपुर के रत्न, रायपुर के प्यारे और छत्तीसगढ़ के लाल थे। छत्तीसगढ़ को अपने इस लाल पर गर्व है। छत्तीसगढ़ का समाज, धर्म, दर्शन, इतिहास, वन, खनिज सबके बारे में पर्याप्त जानकारी रखने वाले गुप्त जी को सांस्कृतिक चेतना के संवाहकों में गिना जाना ही उनका सही मूल्यांकन होगा।‘ वे पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के बहुत अच्छे मित्र थे। श्री जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ के सानिघ्य में भी आये। बिलासपुर के भारतेन्दु साहित्य समिति के संस्थापकों में से एक हैं और जीवनपर्यन्त प्रधान सचिव रहे। श्री द्वारिकाप्रसाद तिवारी ‘विप्र‘ के निकट सहयोगी थे। विप्र जी उन्हें अपने साहित्यिक सचेतक मानते थे। डाॅ. रमेन्द्रनाथ मिश्र इतिहास के विद्यार्थी होने के नाते गुप्त जी के बहुत निकट रहे। वे छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन बिलासपुर और संभागीय सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। वे महाकोसल इतिहास परिषद के सहायक सचिव और बाद में अध्यक्ष थे। वे 22 वर्षो तक बिलासपुर सहकारी बैंक के व्यवस्थापक रहे।
    ‘प्राचीन छततीसगढ़‘ के प्राक्कथन में रविशंकर विशवविद्यालय रायपुर के तत्कालीन कुलपति    श्री जगदीशचन्द्र दीक्षित ने लिखा है ः-‘प्राचीन काल से लेकर मराठा युग एवं ब्रिटिश काल के आरंभ युग तक के इतिहास को संकलित करके एक कृति में प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास श्री प्यारेलाल गुप्त ने अपने ग्रंथ ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ में किया है। इस ग्रंथ के प्रणयन में लेखक को निरंतर सात वर्ष तक परिश्रम करना पड़ा, गुप्त जी का यह प्रयास निःसंदेह शलाघनीय है।‘ सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री ओ. पी. भटनागर ने श्री प्यारेलाल गुप्त की प्रशंसा में लिख है-‘ गुप्त जी का प्राचीन छत्तीसगढ़ अपने ढंग का अनूठा ग्रंथ है। छत्तीसगढ़ पर अनेक ग्रंथ और लेख लिखे गये हैं मगर गुप्त जी जैसा मेहनत किसी ने नहीं किया है।
    सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री मुकुटधर पांडेय जी गुप्त जी के बारे में लिखते हैं -‘स्व. प्यारेलाल गुप्त जी उन बहुत थोड़े लोगों में से थे जिन्होंने यश या धन के लोभ से नहीं, केवल कर्तव्य बुद्धि से हिन्दी की सेवा की थी। जीविका का साधन मानकर हिन्दी की सेवा करने वालों की संख्या आज कम नहीं है, पर गुप्त जी ने जिस समय हिन्दी की सेवा आरंभ की उस समय समाज की कुछ और ही स्थिति थी। उस समय त्याग और सेवा की भावना को लेकर ही लोग साहित्य के क्षेत्र में कार्य करते थे, आर्थिक लाभ का कोई प्र”न ही नहीं था।‘ वे आगे लिखते हैं -‘वे मेरे स्व. पूज्याग्रज पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के मित्रों में से थे। मैं उनसे सन् 1915 में परिचित हुआ। सन् 1917-18 के लगभग वे श्री दीनानाथ दाऊ के साथ प्रथम बार हमारे गांव बालपुर पधारे थे। 6-7 घंटे लगातार बैलगाड़ी में बैठकर रायगढ़ से लगभग 20 मील दूर बालपुर पहुंचे थे, तब कोई बस सर्विस नहीं थी। आजकल तो लोग इतने आत्म केंद्रित हो रहे हैं कि सबसे पहिले अपना आराम देखते हैं। इतना क’ट उठाकर गांव ंपहुंचना उनके विशुद्ध साहित्य प्रेम का परिचायक था। दूसरी बार वे सन् 1929 में हमारे पूज्य पितृदेव द्वारा स्थापित ग्राम पाठशाला की स्वर्ण जयंती उत्सव पर बालपुर आये थे। उन्होंने आत्मप्रचार व स्वविज्ञापन से दूर अंतिम समय तक हिन्दी की सेवा की और 14 मार्च 1976 को कभी न भरने वाली रिक्तता बनाकर स्वार्गारोहण किये। स्व. गुप्ता जी का आज तक सही मूल्यांकन नहीं हो सका है। आज जब छत्तीसगढ़ पृथक अस्तित्व के साथ एक पूर्ण प्रदेश है तब उनकी दुर्लभ और अप्राप्य ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ का पुर्नप्रकाशन किया जाना समीचीन ही नहीं बल्कि अपरिहार्य है। उनके हिन्दी और छत्तीसगढ़ी काव्य और अन्य कृतियों को संग्रहीत कर ‘प्यारेलाल गुप्त ग्रंथावली‘ प्रकाशित किया जाना चाहिये। साथ ही उनके नाम पर हर साल शासन द्वारा पुरस्कार दिया जाना चाहिये। यही उनके प्रति सही श्रद्धांजलि होगी और उनका ग्रंथ हर पाठक के हाथ में होगा, तभी उनका सही मूल्यांकन हो सकेगा।

रविवार, 11 मार्च 2012

छत्तीसगढ़ में देवी उपासना

    छत्तीसगढ़ में देवी उपासना 
                                                                       प्रो अश्विनी केशरवानी  
    छत्तीसगढ़ में अनादि काल से शिवोपासना के साथ साथ देवी उपासना भी प्रचलित थी। शक्ति स्वरूपा मां भवानी यहां की अधिष्ठात्री हैं. यहां के सामंतो, राजा-महाराजाओं, जमींदारों आदि की कुलदेवी के रूप में प्रतिष्ठित आज श्रद्धा के केंद्र बिंदु हैं. छत्तीसगढ़ में देवियां अनेक रूपों में विराजमान हैं. श्रद्धालुओं की बढ़ती भीढ़ इन स्थलों को शक्तिपीठ की मान्यता देने लगी है. प्राचीन काल में देवी के मंदिरों में जवारा बोई जाती थी और अखंड ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती थी जो आज भी अनवरत जारी है. ग्रामीणों द्वारा माता सेवा और ब्राह्मणों द्वारा दुर्गा सप्तमी का पाठ और भजन आदि की जाती है. श्रद्धा के प्रतीक इन स्थलों में सुख, शांति और समृद्धि के लिये बलि दिये जाने की परंपरा है.

       छत्तीसगढ़ में शक्ति पीठ और देवियों की स्थापना को लेकर अनेक किंवदंतियां प्रचलित है. देवियों की अनेक चमत्कारी गाथाओं का भी उल्लेख मिलता है. इसमें राजा-महाराजाओं की कुलदेवी द्वारा पथ प्रदर्शन और शक्ति प्रदान करने से लेकर लड़ाई में रक्षा करने तक की किंवदंतियां यहां सुनने को मिलती है. ग्राम्यांचलों में देवी के प्रकोप से बचने के लिये पूजा-अर्चना और बलि दिये जाने की प्रथा का भी प्रमुखता से उल्लेख मिलता है. सती प्रथा को भी इससे जोड़ा जाता है. आज भी अनेक स्थानों में सती चैरा देखा जा सकता है. सुख और दुख में उसकी पूजा-अर्चना करने से कार्य निर्विघ्नता से सम्पन्न हो जाते हैं, ऐसी मान्यता हैं. इसके लिए मनौतियां मानने का भी रिवाज है.

      छत्तीसगढ़ के प्रमुख शक्तिपीठों में रतनपुर, चंद्रपुर, डोंगरगढ़, खल्लारी और दंतेवाड़ा प्रमुख है. रतनपुर में महामाया, चंद्रपुर में चंद्रसेनी, डोंगरगढ़ में बमलेश्वरी और दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी विराजमान हैं. लेकिन अम्बिकापुर में महामाया और समलेश्वरी देवी विराजित हैं और ऐसा माना जाता है कि पूरे छत्तीसगढ़ में महामाया और समलेश्वरी देवी का विस्तार अम्बिकापुर से ही हुआ है. शाक्त धर्म में आदि तत्व को मातृरूप मानने की सामाजिक मान्यता है. उसके अनुसार नारी पूजनीय माने जाने लगी, विशेषतः माताओं और कुवांरी बालिकाओं का शाक्त धर्म में बहुत ऊंचा स्थान है. दबिस्तां नामक फारसी ग्रंथ के मुस्लिम लेखक ने भी लिखा है कि आगमों में नारियों को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है.

       गढ़ों के गढ़ छत्तीसगढ़ अनेक देशी राजवंशों के राजाओं की कार्यस्थली रही है. यहां अनेक प्रतापी राजा और महाराजा हुए जो विद्वान, शक्तिशाली, प्रजावत्सल और देवी उपासक थे. यही कारण है कि यहां अनेक मंदिर और शक्तिपीठ उस काल के साक्षी हैं. ये देवियां उनकी कुलदेवी थीं. यहां देवी रियासतों की स्थापना से लेकर उसके उत्थान पतन से जुड़ी अनेक कथाएं पढ़ने और सुनने को मिलती है. यहां प्रमुख रूप से दो देवियां रतनपुर की महामाया और सम्बलपुर की समलेश्वरी देवी पूजी जाती है, शेष देवियां उनकी प्रतिरूप हैं और क्षेत्र विशेष का बोध कराती हैं. इनमें सरगुजा की सरगुजहीन दाई, खरौद की सौराईन दाई, कोरबा की सर्वमंगला देवी, अड़भार की अष्टभूजी देवी, मल्हार की डिडिनेश्वरी देवी, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, बलौदा की गंगा मैया, जशपुर की काली माता, मड़वारानी की मड़वारानी दाई प्रमुख हैं. सुप्रसिद्ध कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव’’ में की है ः-

            यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को
            क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?
            काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा
            चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा
            दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये
            लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।

    रतनपुर में महामाया देवी का सिर है और उसका धड़ अम्बिकापुर में है. प्रतिवर्ष वहां मिट्टी का सिर बनाये जाने की बात कही जाती है. इसी प्रकार संबलपुर के राजा द्वारा देवी मां का प्रतिरूप संबलपुर ले जाकर समलेश्वरी देवी के रूप में स्थापित करने की किंवदंती प्रचलित है. समलेश्वरी देवी की भव्यता को देखकर दर्शनार्थी डर जाते थे अतः ऐसी मान्यता है कि देवी मंदिर में पीठ करके प्रतिष्ठित हुई. सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में जितने भी देशी राजा-महाराजा हुए उनकी निष्ठा या तो रतनपुर के राजा या संबलपुर के राजा के प्रति थी. कदाचित् मैत्री भाव और अपने राज्य की सुख, समृद्धि और शांति के लिए वहां की देवी की प्रतिमूर्ति अपने राज्य में स्थापित करने किये जो आज लोगों की श्रद्धा के केंद्र हैं. चंद्रसेनी या चद्रहासिनी देवी सरगुजा से आकर सारंगढ़ और रायगढ़ के बीच महानदी के तट पर विराजित हैं. उन्हीं के नाम पर कदाचित् चंद्रपुर नाम प्रचलित हुआ. पूर्व में यह एक छोटी जमींदारी थी. चंद्रसेन नामक राजा ने चंद्रपुर नगर बसाकर चंद्रसेनी देवी को विराजित करने की किंवदंती भी प्रचलित है. तथ्य जो भी हो, मगर आज चंद्रसेनी देवी अपने नव कलेवर के साथ लोगों की श्रद्धा के केंद्र बिंदु है. नवरात्री में और अन्य दिनों में भी यहां बलि दिये जाने की प्रथा है. पहाड़ी में सीढ़ी के दोनों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों का शिल्पांकन है. हनुमान और अद्र्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है. रायगढ़, सारंगढ़, चाम्पा, सक्ती में समलेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा है. बस्तर की कुलदेवी दंतेश्वरी देवी हैं जो यहां के राजा के साथ आंध्र प्रदेश के वारंगल से आयी और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में विराजित हुई और बाद में दंतेवाड़ा नगर उनके नाम पर बसायी गयी. बस्तर का राजा नवरात्री में नौ दिन तक पुजारी के रूप में मंदिर में निवास करते थे. देवी की उनके उपर विशेष कृपा थी. जगदलपुर महल परिसर में भी दंतेश्वरी देवी का एक भव्य मंदिर है.

      छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में देवी को ग्राम देवी कहा जाता है और शादी-ब्याह जैसे शुभ अवसरों पर आदर पूर्वक न्योता देने की प्रथा है. भुखमरी, महामारी, और अकाल को देवी का प्रकोप मानकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है. प्राचीन काल में यहां नर बलि दिये जाने का उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है. आज पशु बलि दिये जाते हैं. बहरहाल, शक्ति संचय असुर और नराधम प्रवृत्ति के नाश के लिये मां भवानी की उपासना आवश्यक है. इससे सुख, शांति और समृद्धि मिलने से इंकार नहीं किया जा सकता. ऐसी ममतामयी मां भवानी को हमारा शत् शत् नमन...

        या देवी सर्व भूतेषु मातृ रूपेण संस्थितः।
        नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

सोमवार, 5 मार्च 2012

खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली

होली के अवसर पर 
खेलूंगी कभी न होली , उससे जो नहीं हमजोली 
प्रो अश्विनी केशरवानी 
     फागुन का त्योहार होली हंसी-ठिठोली और उल्लास का त्योहार है। रंग गुलाल इस त्योहार में केवल तन को ही नही रंगते बल्कि मन को भी रंगते हैं। प्रकृति की हरीतिमा, बासंती बहार, सुगंध फेलाती आमों के बौर और मन भावन टेसू के फूल होली के उत्साह को दोगुना कर देती है। प्रकृति के इस रूप को समेटने की जैसे कवियों में होड़ लग जाती है। देखिए कवि सुमित्रानंदन पंत की एक बानगी:
              चंचल पग दीपि शिखा के घर
              गृह भग वन में आया वसंत।
              सुलगा फागुन का सूनापन
              सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
              सैरभ की शीतल ज्वाला से
              फैला उर उर में मधुर दाह
              आया वसंत, भर पृथ्वी पर
              स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह।
     प्रकृति की इस मदमाती रूप को निराला जी कुछ इस प्रकार समेटने का प्रयास करते हैं :-
              सखि वसंत आया
              भरा हर्श वन के मन
              नवोत्कर्श छाया।
              किसलय बसना नव-वय लतिका
              मिली मधुर प्रिय उर तरू पतिका
              मधुप वृन्द बंदी पिक स्वर नभ सरसाया
              लता मुकुल हार गंध मार भर
              बही पवन बंद मंद मंदतर
              जागी नयनों में वन
              यौवनों की माया।
              आवृत सरसी उर सरसिज उठे
              केसर के केश कली के छूटे
              स्वर्ण भास्य अंचल, पृथ्वी का लहराया।
     मानव मन इच्छाओं का सागर है और पर्व उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। ये पर्व हमारी भावनाओं को प्रदर्शित करने में सहायक होते हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में शौर्य के लिए द शहरा, श्रद्धा के लिए दीपावली, और उल्लास के लिए होली को उपयुक्त माना गया है। यद्यपि हर्श हर पर्व और त्योहार में होता है मगर उन्मुक्त हंसी-ठिठोली और उमंग की अभिव्यक्ति होली में ही होती है। मस्ती में झूमते लोग फाग में कुछ इस तरह रस उड़ेलते हैं :-
              फूटे हैं आमों में बौर
              भौंर बन बन टूटे हैं।
              होली मची ठौर ठौर
              सभी बंधन छूटे हैं।
              फागुन के रंग राग
              बाग बन फाग मचा है।
              भर गये मोती के झाग
              जनों के मन लूटे हैं।
              माथे अबीर से लाल
              गाल सिंदूर से देखे
              आंखें हुई गुलाल
              गेरू के ढेले फूटे हैं।
     ईसुरी अपने फाग गीतों में कुछ इस प्रकार रंगीन होते हैं :-
              झूला झूलत स्याम उमंग में
              कोऊ नई है संग में।
              मन ही मन बतरात खिलत है
              फूल गये अंग अंग में।
              झोंका लगत उड़त और अंबर
              रंगे हे केसर रंग में।
              ईसुर कहे बता दो हम खां
              रंगे कौन के रंग में।
     ब्रज में होली की तैयारी सब जगह जोरों से हो रही है। सखियों की भारी भीड़ लिये प्यारी राधिका संग में है। वे गुलाल हाथ में लिए गिरधर के मुख में मलती है। गिरधर भी पिचकारी भरकर उनकी साड़ी पर छोड़ते हैं। देखो ईसुरी, पिचकारी के रंग के लगते ही उनकी साड़ी तर हो रही है। ब्रज की होली का अपना ढंग होता है। देखिए ईसुरी द्वारा लिखे दृश्‍य की एक बानगी-
              ब्रज में खेले फाग कन्हाई
              राधे संग सुहाई
              चलत अबीर रंग केसर को
              नभ अरूनाई छाई
              लाल लाल ब्रज लाल लाल बन
              वोथिन कीच मचाई।
              ईसुर नर नारिन के मन में
              अति आनंद अधिकाई।
     सूरदास भी भक्ति के रस में डूबकर अपने आत्मा-चक्षुओं से होली का आनंद लेते हुए कहते हैं :-
              ब्रज में होरी मचाई
              इतते आई सुघर राधिका
              उतते कुंवर कन्हाई।
              हिल मिल फाग परस्पर खेले
              भाोभा बरनिन जाई
              उड़त अबीर गुलाल कुमकुम
              रह्यो सकल ब्रज छाई।
     कवि पद्यमाकर की भी एक बानगी पेश है :-
              फाग की भीढ़ में गोरी
              गोविंद को भीतर ले गई
              कृश्ण पर अबीर की झोली औंधी कर दी
              पिताम्बर छिन लिया, गालों पर गुलाल मल दी।
              और नयनों से हंसते हुए बाली-
              लला फिर आइयो खेलन होली।
     होली के अवसर पर लोग नशा करने के लिए भांग-धतुरा खाते हैं। ब्रज में भी लोग भांग-धतूरा खाकर होली खेल रहे हैं। ईसुरी की एक बानगी पेश है :-
              भींजे फिर राधिका रंग में
              मनमोहन के संग में
              दब की धूमर धाम मचा दई
              मजा उड़ावत मग में
              कोऊ माजूम धतूरे फांके
              कोऊ छका दई भंग में
              तन कपड़ा गए उधर
              ईसुरी, करो ढांक सब ढंग में।
     तब बरबस राधिका जी के मुख से निकल पड़ता है :-
              खेलूंगी कभी न होली
              उससे नहीं जो हमजोली।
              यहां आंख कहीं कुछ बोली
              यह हुई श्‍याम की तोली
              ऐसी भी रही ठिठोली।
     यूं देश के प्रत्येक हिस्से में होली पूरे जोश-खरोश से मनाई जाती है। किंतु सीधे, सरल और सात्विक ढंग से जीने की इच्छा रखने वाले लागों को होली के हुड़दंग और उच्छृंखला से थोड़ी परेशानी भी होती है। फिर भी सब तरफ होली की धूम मचाते हुए हुरियारों की टोलियां जब गलियों और सड़कों से होते हुए घर-आंगन के भीतर भी रंगों से भरी पिचकारियां और अबीर गुलाल लेकर पहुंचते हैं, तब अच्छे से अच्छे लोग, बच्चे-बूढ़े सभी की तबियत होली खेलने के लिए मचल उठती है। लोग अपने परिवार जनों, मित्रों और यहां तक कि अपरिचितों से भी होली खेलने लगते हैं। इस दिन प्राय: जोर जबरदस्ती से रंग खेलने, फूहड़ हंसी मजाक और छेड़ छाड़ करने लगते हैं जिसे कुछ लोग नापसंद भी करते हैं। फिर भी 'बुरा न मानो होली है...` के स्वरों के कारण बुरा नहीं मानते। आज समूचा विश्‍व स्वीकार करता है कि होली वि व का एक अनूठा त्योहार है। यदि विवेक से काम लेकर होली को एक प्रमुख सामाजिक और धार्मिक अनुष्‍्ठान के रूप में शालीनता से मनाएं तो इस त्योहार की गरिमा अवश्‍य बढ़ेगी।

हसदो नदी के तीर में, कालेश्वरनाथ भगवान

      छत्तीसगढ़ प्रांत में भी ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग सदृश्‍य काल कालेश्‍वर महादेव के मंदिर हैं जिनके दर्शन, पूजन और अभिशेक आदि करने से सब पापों का नाश हो जाता है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से ११ कि.मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र ८ कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर स्थित पीथमपुर का काले वरनाथ भी एक है। जांजगीर के कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल ने ''शिवरीनारायण और सात देवालय'' में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्ष में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चंूकि राजा अंगराज बहुत ही सहिश्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अत: उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत भारीर की ऋशि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूश का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋशि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूश महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतर्ध्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूश ने जिस काले वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृ य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को द र्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन १९५४ में प्रकाशित श्री कालेश्‍वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-
          तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।
          शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।
          प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।
          बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।
          सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।
          यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।
          यही विघि शिक्षा देते आवत।
          सकल वंश शिवभक्त कहावत।।
     कहना न होगा हीरासाय का पूरा वंश शिवभक्त हुआ और मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार पाया। श्री प्यारेलाल गुप्त ने भी 'प्राचीन छत्तीसगढ़' में हीरासाय को पीथमपुर के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना कर पेट रोग से मुक्त होना बताया हैं। उन्होंने खरियार (उड़ीसा) के राजा को भी पेट रोग से मुक्त करने के लिए पीथमपुर यात्रा करना बताया हैं। बिलासपर वैभव और बिलासपुर जिला गजेटियर में भी इसका उल्लेख हैं। लेकिन जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के कालेश्‍वरनाथ (अपभ्रंश कलेश्‍वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिशेक करने से वंश की अवश्‍य वृद़्धि होती है। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर काले वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमश: आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और श्‍kभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व ३६ वर्श की अल्पायु में सन् १९१२ में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी।
     यहां एक किंवदंति और प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्ष अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्श जमीन पर लोट मारते द र्शन करने यहां जाते हैं। पीथमपुर के काल काले वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चौहान ने 'शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा' नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है :-
          हसदो नदी के तीर में, कलेश्‍वरनाथ भगवान।
          दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।
          फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।
          काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।
          बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।
          सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चौहान।।
     पीथमपुर के कालेश्‍वरनाथ मंदिर की दीवार में लगे शिलालेख के अनुसार श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार कच्छ कुम्भारीआ ने इस मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदि २, संवत् १७५५ (सन् १६९८) को गोकुल धनजी मिस्त्री से कराया था। चांपा के पडित छविनाथ द्विवेदी ने सन् १८९७ में संस्कृत में ''कलिश्‍वर महात्म्य स्त्रोत्रम'' लिखकर प्रकाशित कराया था। इस ग्रंथ में उन्होंने कालेश्‍वरनाथ का उद्भव चैत्र कृश्ण प्रतिपदा संवत् १९४० (अर्थात् सन् १८८३ ई.) को होना बताया है। मंदिर निर्माण संवत् १९४९ (सन् १८९२) में शुरू होकर संवत् १९५३ (सन् १८९६) में पूरा होने, इसी वर्श मूर्ति की प्रतिश्ठा हीरासाय तेली के हाथों कराये जाने तथा मेला लगने का उल्लेख है। इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ''पीथमपुर के श्री भांकर माहात्म्य'' लिखकर सन् १९५३ में प्रकाशित कराया था। ३६ श्‍लोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल कालेश्‍वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशला की शखा खोले जाने, सन् १९५३ में ही तिलभांडेश्‍ वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्ष से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके ५० वर्शों में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् १९१४ में जबलपुर से प्रकाशित ''पीथमपुर माहात्म्य'' को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा। इसके १९ वें भलोक में उन्होंने लिखा है कि वि.सं. १९४५, फाल्गुन पूर्णमासी याने होली के दिन से इस भांकर देव स्थान पीथमपुर की ख्याति हुई। इसी प्रकार श्री तुलसीराम पटेल ने पीथमपुर : श्री कालेश्‍वर महात्म्य में लिखा है कि तीर्थ पुरोहित पंडित काशीप्रसाद पाठक पीथमपुर निवासी के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् १९४५ को हीरासाय तेली को शिवलिंग स्थापित कराया था।
     तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् १७५५ में मंदिर निर्माण कराया है तो अव य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए १८५ वर्श का अंतराल पर्याप्त होता है। अत: यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि १८५ वर्ष बाद उसका पुन: उद्भव संवत् १९४० में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले शिलालेख को पुन: दीवार में जड़ दिया गया होगा।
     पीथमपुर में काल काले वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना भाुरू हो गया था। प्रारंभ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार १० दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋशिकेश, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल काले वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् शिव बारात के इस शोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उड़िया में शिवायन लिखा। शिवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में शिव बारात की कल्पना को साकार किया है।
          आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,
          देखे जाबे चला गियां संगी ल जगाव रे।
          डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,
          गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।
          हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,
          एक बार हहा करि, सबे कहुं घिघियावा रे।
          पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,
          नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगावा रे।
          कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े,
          कोऊ कोलिहा म चढ़ि, चढ़ि आवत।
          कोऊ बघुवा म चढ़ि, कोऊ बछुवा म चढ़ि,
          कोऊ घुघुवा म चढ़ि, हांकत उड़ावत,
          सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।
          हांव हांव कुकुर करे, कोलिहा हुहुवावत,
          कहे नरसिंहदास भांभू के बरात देखि।
     इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान भौव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस भौव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धाराशिव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के शिव मंदिर के अवशेष हैं और धाराशिव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री भांकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्ष तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूशोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री शिवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंद जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज, और स्वामी दयानंद जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडेश्वर मठ काशी से संबंधित थे। स्वामी दयानंद भारती जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडेश्वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंद जी महाराज ने २०.०२.१९५३ को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक 'सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला' की स्थापना सन् १९२३ में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च शिक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक भाशखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वर्शो तक नहीं चल सकी; लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और शिवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाशा में विषेश रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।
सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख शिलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फ र्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। कालेश्वरनाथ की महत्ता अपरम्पार है, तभी तो कवि तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है :-
          युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी,
          कलियुग में भी है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।
          जहां स्वप्न देकर भांकर जी पुर्नप्रकट हो आये,
          यह मनुश्य का काम कि उससे पुरा लाभ उठाये।।