23 जुलाई को
पुण्यतिथि के अवसर
पर
कर्मठ, दूरदर्शी
और और कुशल मार्गदर्शक स्व. बिसाहूदास
महंत
प्रो. अश्विनी
केशरवानी
छत्तीसगढ़
की पावन भूमि
में अनेक सपूतों
ने जन्म लिया
है जिनके कर्मों
से अंचल ही नहीं बल्कि
समूचा प्रदेश गौरवान्वित
हुआ है। जिनके
कार्य आज किंवदन्ति
बनकर रह गये हैं और
जिन्हें लोग याद करते अघाते
नहीं हैं। यहाँ
अनेक स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी, समाज सुधारक
और राजनीतिज्ञ हुए
हैं जो जनता के बीच
अत्यंत लोकप्रिय थे।
ऐसे ही लोकप्रिय
नेताओं में नवगठित
जांजगीर चांपा के
एक छोटे से गांव सारागांव
के श्री बिसाहूदास
महंत भी थे जिन्हें काल के क्रूर हाथों
ने हमसे 23 जुलाई
1978 को छिन लिया
था। चांपा के
शासकीय चिकित्सालय में
उन्होंने अंतिम सांस
ली थी। जनता
की मांग पर अविभाजित मध्यप्रदेश शासन
के द्वारा उस
चिकित्सालय का नामकरण
‘‘बिसाहूदास महंत शासकीय
चिकित्सालय” (बी. डी.
एम. शासकीय चिकित्सालय)
कर उनकी स्मृतियों
को चिरस्थायी बना
दिया गया। हम उन्हें कबीर
जी के शब्दों
में श्रद्धा सुमन
अर्पित करते हैं:-
कुमुदनी जलहर बसै,
चन्दा बसै अकास।
जो जाही
की भावना, सो
वाही के पास।।
लोगों
ने उन्हें अपनी
भावना के अनुसार
देखा, परखा और खरा पाया।
क्योंकि वे संकीर्णता,
वर्ग भेद और जाति बंधन
से परे थे। वे तो
सबको साथ लेकर
चलने वाले व्यक्ति
थे। किसी ने उन्हें निराश
होते नहीं देखा,
प्रसन्नचित, धीर-गंभीर
और विवेकी आत्मना
थे वे। व्यवहार
में सादगी और
विचारों में उच्चता
उन्हें अपने पिता
से विरासत में
मिला था। गांधीवादी
विचारधारा से वे
पूरी तरह सम्पृक्त
थे। प्राचीन वांग्मय
में एक वाक्य
है -‘‘पुरूषों वै
समुद्रः” अर्थात् ‘‘पुरूष वही
है जो समुद्र
की तरह अथाह
हो।“ पहाड़ की तरह ऊंचा
उठ जाना अलग
बात है और समुद्र की
तरह सर्वव्याप्त हो
जाना दूसरी बात।
पहाड़ की ऊंचाई
तक पहुँचने में
व्यक्ति का एकांतिक
अहंकार शिखर पर पहुँच सकता
है, किंतु समुद्र
की तरह फैलने
में सबको एकाकार
कर लेने की प्रबल क्षमता
जागृत होती है।
इसमें अस्तित्व का
तिरोहन पूर्णता के
संतोष को प्राप्त
होता है। ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे-‘श्री
बिसाहूदास जी।‘ उनके
सानिघ्य में जो भी आया,
उसे अपना अस्तित्व
विलोपित होने पर भी परम
संतोष प्राप्त हुआ।
यह संतोष यूंहीं किसी
से मिलने पर प्राप्त
नहीं होता, सरलता
और तरलता पहाड़
की ऊंचाईयों की
ओर नहीं ढल सकती। कठोर
चट्टानें मिलकर पहाड़
अवश्य बनाती है,
लेकिन पहाड़ों का
गौरव इसी बात में निहित
है कि उसकी चट्टानी छाती को चीरकर कोई
सरल तरल धारा
प्रवाहित हुई हो।
स्व. श्री महंत
जी के जीवन का वेशकीमती
और सर्वाधिक उज्जवल
पक्ष यह है कि संवेदनाओं
को अंगीकार करते
हुए वे द्रवित
होते रहु और दीन दुखियों
के दुःख से दुःखी होकर
उनके आँसुओं को
पोंछने का हर संभव उपाय
करते रहे। मध्यप्रदेश
के पूर्व मंत्री
श्री झुमुकलाल भेड़िया
के अनुसार-‘‘सामाजिक
और रानीतिक शोषण
के विरोध की
आवाज का मूल स्वर बिसाहूदास
जी ने ही दिया। पिछड़े
वर्ग के हित एवं विकास
की बात भी महंत जी
की मानसिकता की
उपज थी। उन दिनों जातीयता
का बोलबाला था।
उसके विरूद्ध हमने
आवाज उठायी । हम सबने
संघर्ष किया और सफल भी
रहे। सत्ता में
भागीदारी करने का
और अनुसूचित जाति,
जनजाति और पिछड़े
वर्गो की सामाजिक
समानता दिलाने का
श्रेय महंत जी को है।
आगे चलकर यह एक मिशन
में परिणित हो
गया। यह छत्तीसगढ़
में ही सीमित
नहीं रहा बल्कि
पूरे प्रदेश में
इस विचारधारा को
सार्थक प्रभाव पड़ा।
इस तरह छत्तीसगढ़
के विकास, हित
एवं सामाजिक समानता
के इस विचार
युद्ध ने एक नई संस्कृति
को जन्म दिया।
इस सबका श्रेय
छत्तीसगढ़ के उस
लाड़ले सपूत के सर्वमान्य जननेता बना
दिया। सही मायने
में वे इसके हकदार भी
थे। इन्हीं सब
गुणों से वे संत पुरूष
कहलाये। तुलसीदास जी
ने कहा है:-
संत हृदय
नवनीत समाना, कहा
कविन्ह पर कहऊ न जाना।
निज परिताप
द्रवहिं नवनीता, परहित
द्रवहिं सुसाधु पुनीता।।
छात्र
जीवन में खेल के मैदान
पर खींची गई
चूने की लकीरें
यदि संयम और अनुशासन की शिक्षा
देती है तो जीवन के
मैदान में भी उत्कृष्ट खिलाड़ी वही
कहलाता है जो मर्यादाओं की अदृश्य
लकीरों का पग पग पर
पालन करते हुए
प्रतिस्पर्धाओं में अपनी
मौजूदगी को रेखांकित
करता है। छात्र
जीवन में हाकी,
फुटबाल, बालीबाल और
टेनिस के अच्छे
खिलाड़ी के रूप में स्थापित
होकर महंत जी ने भावी
जीवन की प्रतिस्पाधाओं
में अपनी विजयगाथा
की कुशल क्षमता
अर्जित कर ली थी। हाकी
में गवर्नमेंट हाई
स्कूल बिलासपुर की
टीम में लैफ्ट
फुट बेक की पोजिशन डिफेंस
लाईन पर चट्टान
की तरह डटे हुए श्री
बिसाहुदास जी राजनीतिक
झंझावातों के मध्य
अपनी टीम की डिफेन्स के प्रति
आरूस्त महंत जी की मुद्राएं
एक सिक्के के
दो पहलू हैं।
प्रतिस्पर्धाओं में जो
लोग बौने होते
हैं वे कटुता
के शिकार हो
जाते हैं। किंतु
उसकी विशेषता यही
थी कि सौम्यता
और आत्मीयता का
भाव कभी तिरोहित
न हो। यह सौम्यता और विनयशीलता
उनकी विवशता नहीं
बल्कि स्वभाव था।
यही कारण है िकवे
अपने मित्रों, सहयोगियों
और अधिकारियों, कर्मचारियों
तथा जन सामान्य
के बीच अत्यंत
लोकप्रिय थे। उन्होंने
व्यक्तिगत स्वार्थो को कभी महत्व नहीं
दिया। सार्वजनिक हित
और नीतिगत मामलों
पर दृढ़ता के
साथ अपना पक्ष
प्रस्तुत करना और
उस पर अटल रहना उनके
व्यक्तित्व का एक
दूसरा पहलू भी है। आपत्ती,
सामंजस्य और मत
भिन्नता रखने वालों
के प्रति समादर
का भाव महंत
जी के स्वभसाव
में रच बस गया था।
यही कारण है कि पक्ष
और विपक्ष के
सभी समकालीन लोगों
के बीच वे अत्यंत लोकप्रिय
थे। विपक्षी नेता
और अविभाजित मध्यप्रदेश
के पूर्व मुख्य
मंत्री श्री सुन्दरलाल
पटवा कहते थे-‘‘
राजनीति में रहते
हुए महंत जी के जीवन
में मैंने हमेशा
सादगी, निराभिमानी, जनसेवा
और चरित्र की
सुचिता को ही हमेशा अनुभव
किया। अपने राजनीतिक
जीवन में कई महत्वपूर्ण पदों पर उन्होंने कार्य किया।
उनकी कार्य प्रणाली
से वे पद महत्वपूर्ण हो गये।“
यहीं के एक अन्य पूर्व
मुख्यमंत्री श्री अर्जुनसिंह
कहते हैं-‘‘महंत
जी किसी पद के लिए
नहीं बने थे, बहुत से
पद उनके कारण
सुशोभित हुए थे। सच्चाई यही
है कि मान, पद और
अधिकार इनके व्यक्तित्व
को नहीं दबा
सके। जो लोग महंत जी
के चरित्र की
खूबियों को समझना
चाहते हैं उन्हें
यह स्मरण रखना
चाहिए कि कोई भी संस्कार
मिट्टी की गंध से उत्पनन
होता है। कहना
न होगा कि वे पूरी
तरह छत्तीसगढ़िया थे।
छत्तीसगढ़ियापन की झलक
उनके जीवन के हर पहलू
में देखी जा सकती है।
अनुशासन और मर्यादा
का निर्वाह ये
दोनों संस्कार श्री
बिसाहूदास में बचपन
में ही प्रस्फुटित
हो चुके थे।
अविभाजित मध्यप्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़ के जांजगीर चांपा जिलान्तर्गत दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से 14 कि. मी., जिला मुख्यालय जांजगीर से 24 कि.मी. की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग 49 में एक छोटे से गांव ‘‘सारागांव” (अब नगर पंचायत) में कस्बाई गलियों के बीच श्री कुजराम महंत जी का घर है जिसे संवारने में श्रीमती गायत्री देवी का भी बराबर का साथ है। इसमें दो पुत्र और चार पुत्रियों क्रमशः श्री बहरता दास, श्री बिसाहूदास, सोन कुंवर, रूप कुंवर, वेद कुंवर और सफेद कुंवर का भरापूरा परिवार रहता था। इसमें बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री बिसाहूदास का जन्म 01 अप्रेल सन् 1924 को द्वितीय पुत्ररत्न के रूप में हुआ। कठोर अनुशासप्रिय पिता और शांतिप्रिय धार्मिक माता की ममतामयी गोद में उनका लालन पालन हुआ। प्राथमिक शिक्षा सारागांव में पूरी करके आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए वे बिलासपुर आ गए। यहाँ वे शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के छात्रावास में रहकर प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास कर छात्रवृत्ति के हकदार हुए। यहाँ उन्हें ‘‘अंग्रेजी का डिक्शनरी” कहा जाता था। आगे की पढ़ाई में कई प्रकार की बाधाएं आने लगी, आर्थिक कष्ट का दौर चला, बड़े भाई अस्वस्थ हो गये और पिताजी कमाई के लिए आसाम की ओर जाने को उद्यत हुये। ऐसे में बाराद्वार के निकट के गांव बेलहाडीह के एक सामान्य कृषक परिवार की सुकन्या जानकी बाई से उनका परिणय हुआ। इधर जिम्मेदारियों का बोझ और उधर उच्च शिक्षा ग्रहण करने की ललक उन्हें परेशान कर रहा था। अंत में बड़े भाई श्री बहरतादास की सलाह और आश्वासन लेकर वे उच्च शिक्षा के लिए नागपुर के मारिस कालेज में प्रवेश ले लिया। बड़े भाई के उपर ज्यादा आर्थिक बोझ न पड़े सोंचकर उन्होंने यहां ट्यूशन करने लगा। कालेज में उन्हें छात्रवृत्ति भी मिलती थी। मेहनत करके उन्होंने यहां बी. ए.. और एल.एल.बी. की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। अध्ययन काल में उनके जूनियर और सीनियर्स उनसे प्रभावित रहते थे। कईयों के वे प्रेरणास्रोत भी थे।
पढ़ाई
पूरी करके वे अपने गांव
लौट आये। कल का बिसाहूदास
अब छरहरे बदन,
धीर गम्भीर और
आकर्षक व्यक्तित्व वाला
नवयुवक था। नौकरी
तो उन्हें कुछ
भी मिल सकता
था लेकिन उन्होंने
घर के समीप रहने का
निश्चय किया और नगरपालिका उच्चतर माध्यमिक
विद्यालय चांपा में अध्यापन कार्य करने
लगे। एक शिक्षक
के रूप में उनका जीवन
बड़ा आदर्शपूर्ण था।
उनके स्कूल के
प्राचार्य लाला दीनानाथ
का उनके उपर
गहरा प्रभाव था
जो जीवनकाल के
अंत तक बना रहा। साहित्यिह
रूचियों के कारण सारागांव में उन्होंने
एक लाईब्रेरी की
स्थापना की। आज उस लाईब्रेरी
की क्या स्थिति
है, यह तो मैं नहीं
जानता मगर ऐसी सार्वजनिक लाईब्रेरी सब
जगह होनी चाहिये।
श्री
बिसाहूदास जी आजाद
हिन्दुस्तान के सन्
1952 के प्रथम आम
चुनाव में कांग्रेस
की टिकट पर बाराद्वार विधानसभा से
विधायक बने। उसके
बाद स् 1957 औ
1962 में नवागढ़ बिधानसभा
से चुने गये। सन्
1967 में वे चांपा
विधानसभा से चुने
गये और जीवन के अंतिम
क्षण तक इस क्षेत्र के विधायक
रहे। उन्हें इस
क्षेत्र के लोगों
ने असीम स्नेह
दिया। उन्होंने भी
इस क्षेत्र के
विकास में पूरा
सहयोग दिया। कांग्रेसी
नेता और पूर्व
विधायक श्री शिवप्रसाद
शर्मा के अनुसार
‘‘ अविभाजित बिलासपुर जिला और वर्तमान जांजग़ीर चांपा
जिले के सर्वमुखी
विकास के प्रति
उनकी गहरी रूचि
होती थी। उनकी
दूरदर्शिता के कारण
कोरबा औद्योगिक क्षेत्र
की स्थापना और
विकास के साथ इस क्षेत्र
के अनेक गांव
जो अब शहर में तब्दिल
हो चुके हैं,
के विकास में
कोई कसर नहीं
छोड़ी थी। इसी प्रकार चांपा,
सक्ती, बाराद्वार, रायगढ़,
चंद्रपुर और सारंगढ़
क्षेत्र में बुनकरों
की संख्या अत्यधिक
है। ये बुनकर
सूती और कोसा कपड़ा बुनते
हैं। इसमें उन्हें
रियायत दिलवाकर न
केवल बुनकरों को
रोजगार दिलवाया बल्कि
चांपा के कोसा को विदेश
तक पुहँचा दिया।
इस व्यवसाय से
संबंधित एक विभाग
“सेरीकल्चर विभाग” उन्हीं
की देन है। कोई माने
या ना माने,
आज देश के अनेक मेट्रो
सिटी में यहां
के कोसा व्यवसायियों
का कोसा का शो रूम
हैं। यहां का कोसा न
केवल अपने देश
में बल्कि विदेश
में भी पसंद किये जाते
हैं। एक विधायक
से लेकर केबिनेट
मंत्री और फिर कांग्रेस अध्यक्ष के
रूप में जनता
उनके व्यक्तित्व और
उनकी प्रतिभा का
दोहन करती रही. कई
नवयुवक उनकी प्रेरणा
से राजनीति के
चरम शिखर तक भी पहुँचे।
अब तक उनका व्यक्तित्व दलितों, शोषितों
और गरीबों के
आवारा मसीहा के
रूप में निखर
चुका था। वे प्रतिभाओं को हमेशा
प्रोत्साहित किया करते
थे। उन्होंने किसी
की टांग खिंचने
जैसी स्थिति को
कभी उचित नहीं
माना। वे दलित और शोषित
वर्ग से नेतृत्व
करने की बात करने वाले
पहले व्यक्ति थे।
दलित वर्ग से कांग्रेस अध्यक्ष के
रूप में कार्य
करने वाले वे पहले नेता
थे। इसके बावजूद
वे अपने क्षेत्र
के लिये बिसाहूदास
ही बने रहे।
वे अपने मित्रों
और सहयोगियों को
कभी नहीं भूले
और श्री रमाशंकर
मिश्र जैसे के घर उनका
दरबार आखिरी समय
तक लगता रहा।
वे कांग्रेस के
विश्वस्त सैंनिक रहे
और उनकी निष्ठा
सदा एक सी रही। वे
कर्मठ, दूरदर्शी और
और कुशल मार्गदर्शक
थे। स्वावतहः मिलनसार,
सेवापरायण, त्यागी और
कुशल प्रशासक के
नाते उनका समुचित
जीवन नवोदित समाज
के लिये प्रेरक
और अनुकरणीय है।
मैं कई सभाओं
में उनके भाषण
को सुना हूँ।
उन्हें मैं बहुत
करीब से देखा हूँ । लोगों
के बीच उन्हें
बतियाते देखा हूँ।
उनकी सादगी की
जीवंत तस्वीर आज
भी मेरे मन में अंकित
है। जीवन में
आये कठिनाईयों से
वे कभी विचलित
नहीं हुये। वे
हमेशा कहते थे-‘‘वास्तविक आनंद इसी
में है कि कठिनाईयों का संयोग
आता रहे और उन पर
विजय प्राप्त की
जाये। हलचल बिना
जीवन सूना और नीरस हो
जाता है।‘‘
मेरे बाबूजी स्व देवालाल केशरवानी हमेशा कहा करते थे कि ऐसी
सोच वाले लोग
अब कहाँ मिलते
हैं। वे मृदुभाषी,
सहनशील, कटुताहीन, परोपकारी
और उदारमना थे।
विद्यार्थी काल से
जीवनपर्यन्त आगे की
पंक्ति में रहने
के बावजूद हमने
कभी उन्हें गुस्सा
करते नहीं देखा।
उनके पास आने वाले सभी
का यथासंभव उचित
सम्मान करना उनका
विशेष गुण था। विरोधी भी
उनके इस गुण के कायल
थे। बहरहाल आज
उनके पदचिन्हों में
चलकर उनकी विरासत
को उनके ज्येष्ठ
सुपुत्र डाॅ. चरणदास
महंत सम्हाल रहे
हैं। इनमें भी
उन्हीं की तरह सरलता, विनम्रता
और सौम्यता के
साथ जनसेवा में
तत्पर हैं।
अंत
में यही कहना
चाहूंगा कि मनुष्य
के लिये पूर्णता
दुर्लभ है, खामियां
और खूबियां मनुष्य
में अवश्य होती
है किन्तु अपनी
खामियों में अनुभवों
की छेनी से तराशकर जो
लोग उन्हें भी
सौन्दर्य प्रदान करते
हैं उन्हें नकली
मुखौटे लगाने की
आवश्यकता नहीं होती।
महंत जी अंत तक सहज
बने रहे। सचमुख
वे छत्तीसगढ़ के
सच्चे सपूत थे।
उन्हें हमारी विनम्र
आदरांजलि।