मंगलवार, 26 जुलाई 2011

शिवरीनारायण में महानदी की विनाश लीला


मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारंभिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति में ये जीवनदायिनी मां की तरह पूजनीय हैं। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा है। सभी नदियां भले ही अलग अलग नामों से प्रसिद्ध हैं लेकिन उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी, ताप्ती, क्षिप्रानदी के समान पवित्र और मोक्षदायी मानी गयी है। कदाचित् इन्हीं नदियों के तट पर स्थित धार्मिक स्थल तीर्थ बन गये..। सूरदास भी गाते हैं :-
                      हरि-हरि-हरि सुमिरन करौं। 
                      हरि चरनार विंद उर धरौं।
                      हरि की कथा होई जब जहां,
                      गंगा हू चलि आवै तहां।।
                      जमुना सिंधु सरस्वति आवै,
                      गोदावरी विलंबन लावै।
                      सब तीरथ की बासा तहां,
                      सूर हरि कथा होवै जहां।।

             भारत की प्रमुख नदियों में महानदी भी एक है। इसे ''चित्रोत्पला-गंगा'' भी कहा जाता है। इसका उद्गम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेशवर महादेव और अंतिम छोर में चित्रा-माहेश्वरी देवी स्थित हैं। कदाचित् इसी कारण महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गयी है :-
                      उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा महेश्वरी।
                      चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी।।

            सोमेश्वरदेव के महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला-गंगा कहा गया है :-
                      यस्पाधरोधस्तन चन्दनानां
                      प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
                      चित्रोत्पला स्वर्णावती गता पि
                      गंगोर्भि संसक्तभिवाविमाति।।

महानदी के उद्गम स्थल को ''विंध्यपाद'' कहा जाता है। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर संकेत करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपापहरा, शुभा आदि कहा गया है :-
                      नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
                      चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा शुभा।।

            महानदी को ''गंगा'' कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी। कौशलेन्द्र महाशिवगुप्त ययाति ने एक ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला के नाम से संबोधित किया है :-
                      चित्रोत्पला चरण चुम्बित चारूभूमो
                      श्रीमान कलिंग विषयेतु ययातिषुर्याम्।
                      ताम्रेचकार रचनां नृपतिर्ययाति
                      श्री कौशलेन्द्र नामयूत प्रसिद्ध।।

            १७ वीं शताब्दी के महाकवि गोपाल ने भी महानदी को ''अति पुण्या चित्रोत्पला'' माना है
                      पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
                      अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।

            इसी प्रकार स्कंध पुराण में ''पुरूषोत्तम क्षेत्र'' की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए महानदी को माध्यम बनाया गया है :-
                      ऋषिकुल्या समासाद्या दक्षिणोदधिगामिनीम्।
                      स्वर्णरेखा महानद्यो मध्ये देश: प्रतिष्ठित: ।।

            अर्थात् पुरूषोत्तम क्षेत्र स्वर्णरेखा से महानदी तक विस्तृत रूप से फैला है, उसके दक्षिण में ऋषिकुल्या नदी स्थित है।
            महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर लिखते हैं :- ''चित्रोत्पला शब्द में दो युग्म शब्द है-चित्रा और उप्पल। उप्पल का शाब्दिक अर्थ है- नीलकमल, और चित्रा गायत्री स्वरूपा महाशक्ति का नाम है। चित्रा को ऐश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। राजिम क्षेत्र कमल या पदम क्षेत्र के रूप में विख्यात् है। राजिम को ''श्री संगम'' कहा जाता है। ''श्री'' का अर्थ ऐश्वर्य या महालक्ष्मी जिसका कमल आसन है। महानदी के तट पर ''श्रीसंगम'' राजिम में स्थित विष्णु भगवान का प्रतिरूप ''राजीवलोचन'' या राजीवनयन विराजमान हैं। राजीव का अर्थ भी कमल या उप्पल होता है। यहां स्थित ''कुलेश्वर महादेव'' उत्पलेश्वर कहलाते हैं। शब्द कल्पदुम के अनुसार महानदी के उद्गम को ''पद्मा'' कहा गया है- ''सा पद्मया विनिसृता राम पुराख्याग्रामात पश्चिम उत्तर दिग्गता।''
मार्कण्डेय और वायुपुराण में महानदी को ''मंदवाहिनी'' कहा गया है और उसे शुक्तिमत पर्वत से निकली बताया गया है। लेकिन महानदी धमतरी जिलान्तर्गत सिहावा (नगरी) से निकलकर ९६५ कि. मी. की दूरी तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी है। इस नदी के उपर गंगरेल और हीराकुंड बांध बनाया गया है। इन बांधों के पानी से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है, साथ ही बुरला-संबलपुर में बिजली का उत्पादन भी होता है। महानदी के रेत में सोना मिलने का भी उल्लेख मिलता है। इस नदी में अस्थि विसर्जन भी होता है। गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है। गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली बाल्मिकी आश्रम स्थित था। इसी प्रकार चंद्रपुर में मां चंद्रसेनी और संबलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई ''रोहिणी कुंड'' है जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिद्ध प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसकी महिमा गाते हैं :-
                       रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
                      योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।

            प्राचीन कवि बटुकसिंह चौहान ने तो रोहिणी कुंड को ही एक धाम माना है। देखिए एक बानगी :-
                      रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर,
                      बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।
                      जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम,
                      बटुक सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण।।

            भारतेन्दु युगीन रचनाकार पंडित हीराराम त्रिपाठी ''शिवरीनारायण माहात्म्य'' में लिखते हैं
                      चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
                      बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम।।

 शिवरीनारायण में प्रलय और ठाकुर जगमोहनसिंह :-
महानदी के तट पर अवस्थित पवित्र नगर शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से ६० कि. मी., बिलासपुर से ६४ कि. मी., कोरबा से ११० कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ ११० कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार १२० कि. मी. की दूरी पर स्थित है और ''गुप्तधाम'' के रूप में ''पांचवां धाम'' कहलाता है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग और जगन्नाथ पुरी कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहां भगवान जगन्नाथ पधारते हैं। इस दिन महानदी स्नान कर उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। इसी प्रकार राजिम में भगवान राजीव लोचन का दर्शन ''साक्षी गोपाल'' के रूप में किया जाता है। खरौद में भगवान लक्ष्मणेश्वर का दर्शन काशी के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार चंद्रपुर की चंद्रसेनी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी का दर्शन शक्ति दायक होता है।
            प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले के अनेक ग्रामों में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस, औरेलियस और अन्टीनियस के शासन काल के सोने के सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार महानदी सोना और हीरा प्राप्ति के लिए विख्यात् रही है। आज भी ''सोनाहारा'' जाति के लोग महानदी के रेत से सोना निकालते हैं। सोनपुर नगर का नामकरण सोना मिलने के कारण है। संबलपुर के हीरकुंड क्षेत्र में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है। वराहमिहिर की बृहद संहिता में कोसल में हीरा मिलने का उल्लेख है जो शिरीष के फूल के समान होते हैं :- ''शिरीष कुसुमोपम च कोसलम्'' मिश्र के प्रख्यात् ज्योतिषी टालेमी ने कोसल के हीरों का उल्लेख किया है। रोम में महानदी के हीरों की ख्याति थी।.... तभी तो पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय छत्तीसगढ़ की वंदना करते हुए लिखते हैं :-
                      महानदी बोहै जहां होवै धान बिसेस।
                      जनमभूम सुन्दर हमर अय छत्तीसगढ़ देस।।
                      अय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
                      राज रतनपुर जहां रहिस जस दूसर कासी।।
                      सोना-हीरा के जहां मिलथे खूब खदान।
                      हैहयवंसी भूप के वैभव सुजस महान।।

            छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी महानदी में हर साल बाढ़ आती है जिससे जन-धन और फसल नष्ट होता है, चारों तरफ बाढ़ से विनाश ही विनाश दिखाई देता है। हालांकि इस नदी में गंगरेल, रूद्री और हीराकुंड बहुउद्देशीय बांध बनाया गया है लेकिन अत्याधिक वर्षा से बांधों से पानी छोड़े जाने के कारण भी कृत्रिम बाढ़ आ जाती है। इससे जन जीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। सन् १८८५ में महानदी में आई बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हों गया था। तब शिवरीनारायणके तत्कालीन तहसीलदार और भारतेन्दुकालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह ने उन दृश्यों को समेटकर 'प्रलय' खंडकाव्य की रचना की थी। उन्होंने लिखा है :-
                      प्रलय कथा शवरीनारायण की विस्तार सुनायो।
                      जो प्रतच्छ मन सुच्छ देखि निज नैनन सो प्रकटायो।। ११० ।।
                      जेठ शुक्ल शिव वासर गनपति तिथि पुनि अहि सेनानी।
                      क्रम सो अम्ब सुमार वार मुनि सम्बत दल पहिचानी।। १११ ।।
                      पक्ष वेद ग्रह इन्दु प्रलय दिन जो वा पुर में होई।
                      इकइस बाइस तेइस जूनहिं अंगरेजी तिथि सोई।। ११२ ।।
                      एक सहस वसुशत पच्चासी सन ईसा को जानो।
                      द्यौस तीन विकराल विपति गुनि संकट विकट बखानो।। ११३ ।।

            २१, २२ और २३ जून १८८५ को हुई बरसात से महानदी में आई बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा      दृश्य उपस्थित हो गया था। ठाकुर साहब लिखते हैं कि हमने जो दृश्य देखा उसी का यह वर्णन है, इसमें कोई       अतिश्योक्ति नहीं है। सार छंद की एक बानगी पेश है :-
                      ऐसी दशा विचित्र हाय हम आंखिन देखी पूरी।
                      महानदी निज नाम प्रेम यह दिखरायो न अधूरी।। ९८ ।।
                      इक धारा बाजार में आई दक्खिन सौं अति भारी।
                      दूजी पिचम सो बहि मिल कै वेग जासु अविचारी।। ९९ ।।
                      तीजी धार उतरतै चलिकै संगम इनसो भयो।
                      मनहु त्रिवेनी तीरथ पावन बिनु प्रयाग इत आयो ।। १०० ।।

            इस बाढ़ से जन और धन की बड़ी हानि हुई थी। देखिये इस दृश्य को ठाकुर साहब ने सार छंद में प्रस्तुत किया है :-
                      कैयक सहस हानि मुद्रा की पुरजन ओ व्यापारी।
                      सह्यो कलेस द्वार घर नसकै रोवत फिरैं दुखारी ।।
                      दिन तीजे दस बजे रात सौं घट्यो सलिल क्रम क्रम सों।
                      गयो प्रात लो थिर संसारा छूटे सब जिय भ्रम सों।।
                      लगे बटोरन निज सामग्री टूटी फटी हिरानी।
                      मनहु उतरि मद गयौ छिनक में प्रकृति पाय सुख सानी।।
                      बह्यो गल्यौ मिटि गयो नीर बिच सोन मिलै अब हेरे।
                      भयौ काल कवलित सब भाई अजब करम गति पेरे।।
                      कहँ लौं कहौं हानि दुख जो कुछ प्रजा सुगन जिय झेले।
                      कहँ लौं कहौं विलाप ताप तिन विपति भई वग मेले।।
                      रहो आस मन गावन सारी दशा जोन मैं देखी।
                      जब शबरीनारायण वासी पुरवासिन की पेखी।। १०६ ।।

            बाढ़ के कारण शिवरीनारायणकी गली मुहल्लों में नाव चलने लगी और जिस प्रकार काशमीर की झील में हाउस बोट होते हैं और वहां जाने के लिए नाव होता है, ठीक वैसा ही दृश्य यहां भी देखने को मिला। देखिये एक कुंडलियां की बानगी :-
                      धाई चलत बाजार में नांव पोत २ जल सोत
                      तनक छिनक को रह्यो काशमीर छवि होत
                      काशमीर छवि होत द्वार द्वारन पह डोंगा
                      अरत करत पुकार कंपत तन धन गत सोगा
                      मठ दरवाजे, पैठ लहर मंदिर बिच आई
                      जहँ छाती लौ नीर धार सुइ तीरहिं धाई।। ५१ ।।

            इस बाढ़ से यहां का जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया, घर-द्वार टूट फूट गये और अपनी जान बचाने के लिए यहां के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा और महंत अर्जुनदास की शरण में जाने लगे। देखिये एक बानगी-
                      पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस
                      त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास
                      छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी
                      काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी
                      तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी
                      धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी।। ५२ ।।
                      कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह
                      कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह
                      शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टार्यौ
                      भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबार्यौ
                      श्रोवत कोठ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ
                      कोउ निज धन वार नास लखि बिलपति कोऊ।। ५३ ।।

            बाढ़ से तहसील कार्यालय भी डूब गया और वहां के कागजात बह गये, तब अंग्रेज सरकार ने शिवरीनारायणको ''बाढ़ क्षेत्र'' घोषित कर पूरा गांव खाली करने का आदेश दे दिया। गांव तो खाली नहीं हुआ अलबत्ता सन् १८९१ में तहसील कार्यालय शिवरीनारायण से उठकर जांजगीर जरूर आ गया।
                      भूपर कूप जगत के ऊपर हाथक है जल आयो।
                      टोरि फोर दीवार मध्य गृह फाटक को खटकाओ।। ३६ ।।
                      पुनि तसहसील बीच जहँ बैठत न्यायाधीश अधीशा।
                      कोश कूप (क) पर भूप रूप लो तहँ पैठ्यो जलधीशा।। ३७ ।।

            महानदी की विनाश लीला की एक बानगी पेश है :-
                      शिवरीनारायण सुमरि भाखौं चरित रसाल।
                      महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।। १ ।।
                      अस न भयो आगे कबहुं भाखैं बूढ़े लोग।
                      जैसो वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।। २ ।।
                      शिव के जटा विहारिनी वही सिहावा आय।
                      गिरि कंदर मंदर सबै टोरि फोरि जल जाय।। ३ ।।

            कुल मिलाकर इस बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हो गया। सक्षम मालगुजार, महंत और भोगहा जी प्रजा के सहायतार्थ अपने भंडार खोल दिये। एक सामंत का अपने प्रजा के प्रति ऐसी उदारता बहुत कम देखने को मिलती है। तब यहां के तत्कालीन तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह ने पंडित यदुनाथ भोगहा को पुरस्कृत करने के लिए प्रशासन को लिखा था।
                      पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय।
                      अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय।। ६३ ।।
                      बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस।
                      गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबार्यौ ईश।। ६४ ।।
                      प्रजा पास तव नाव चलाई। यदूनाथ चहुँचो तहँ जाई।
                      त्राहि त्राहि सब कह्यो बनाई। भल अवसर तुम आयो भाई।। ७१ ।।
                      दु:ख भंजन उपकार घनेरे। करे कौन जग तुअ सम मेरे।
                      कौन दरद दुख दारून दारै। कौन कलेस करोर पछारै।। ७२ ।।
                      इमि कहि परे चरन अकुलाई। तब भोगहा तिन बोध्यौ आई।
                      करहु न तुरा धरहु मन धीरा। रमानाथ सुमिरहु बलबीरा।। ७३ ।।
                      सो समरथ सब लायक ईशा। जाके चार होत अवनीशा।
                      मनुज हाथ है कह जग करई। भाशक पात जल उदर जु भरई।। ७४ ।।
                      धन्य धन्य महिमा असुरारी। धन्य धन्य भुजबल जग भारी।
                      सो समरथ सब हरत कलेशा। भजत रहत नहिं पुनि दुख लेशा।। ७५ ।।
                      जय जय रमानाथ जग पालन। जय दुख हरन करन सुख भावन।
                      जय शिवरीनारायण जय जय। जय कमलासन त्रिभुवनपति जय।। ७६ ।।

            जगमोहनसिंह, विजयराघवगढ़ के राजकुमार थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारस में हुई, भारतेन्दु         हरिशचंद्र उनके सहपाठी और मित्र थे। वे एक उत्कृष्ट कवि, उपन्यासकार और आलोचक थे। छत्तीसगढ़ में वे सन् १८८० से १८८७ तक थे। धमतरी के बाद शिवरीनारायणमें वे पांच साल रहे। यहां उन्होंने लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी है। सज्जनाष्टक, प्रलय, श्यामा सरोजनी, श्यामालता, श्यामा स्वप्न आदि उनकी बहुचर्चित किताबें हैं।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

हसदो नदी के तीर में, कालेश्वरनाथ भगवान

          छत्तीसगढ़ प्रांत में भी ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग सदृश्य काल कालेश्वर महादेव के मंदिर हैं जिनके दर्शन, पूजन और अभिषेक आदि करने से सब पापों का नाश हो जाता है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से 11 कि.मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र 8 कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर स्थित पीथमपुर का कालेश्वरनाथ भी एक है। जांजगीर के कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल ने ‘‘शिवरीनारायण और सात देवालय‘‘ में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्ष में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चूंकि राजा अंगराज बहुत ही सहिष्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अतः उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत शरीर की ऋषि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूष का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋषि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूष महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतध्र्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूष ने जिस कालेश्वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृश्य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को दर्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन 1954 में प्रकाशित श्री कलेश्वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-                  
                      तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।
                     शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।

                      प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।
                      बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।
                      सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।
                      यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।
                      यही विघि शिक्षा देते आवत।
                      सकल वंश शिवभक्त कहावत।।
              कहना न होगा हीरासाय का पूरा वंश शिवभक्त हुआ और मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार पाया।  श्री प्यारेलाल गुप्त ने भी ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ में हीरासाय को पीथमपुर के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना कर पेट रोग से मुक्त होना बताया हैं। उन्होंने खरियार (उड़ीसा) के राजा को भी पेट रोग से मुक्त करने के लिए पीथमपुर यात्रा करना बताया हैं। बिलासपर वैभव और बिलासपुर जिला गजेटियर में भी इसका उल्लेख हैं। लेकिन जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के काले”वरनाथ (अपभ्रंष कलेश्वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिषेक करने से वंश की अवश्य वृद्धि होती है। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर कालेश्वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश  वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व 36 वर्ष की अल्पायु में सन् 1912 में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी।
             यहां एक किंवदंति और प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्ष अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्ष जमीन पर लोट मारते दर्शन करने यहां जाते हैं। पीथमपुर के काल कालेश्वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चैहान ने ‘शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा‘ नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है ः-
                       हसदो नदी के तीर में, कलेश्वरनाथ भगवान।
                       दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।
                       फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।
                       काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।
                       बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।
                       सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चैहान।।
              पीथमपुर के कालेश्वरनाथ मंदिर की दीवार में लगे शिलालेख के अनुसार श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार कच्छ कुम्भारीआ ने इस मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदि 2, संवत् 1755 (सन् 1698) को गोकुल धनजी मिस्त्री से कराया था। चांपा के पडित छविनाथ द्विवेदी ने सन् 1897 में संस्कृत में ‘‘कलिश्वर महात्म्य स्त्रोत्रम‘‘ लिखकर प्रकाशित कराया था। इस ग्रंथ में उन्होंने कालेश्वरनाथ का उद्भव चैत्र कृष्ण प्रतिपदा संवत् 1940 (अर्थात् सन् 1883 ई.) को होना बताया है। मंदिर निर्माण संवत् 1949 (सन् 1892) में शुरू होकर संवत् 1953 (सन् 1896) में पूरा होने, इसी वर्ष मूर्ति की प्रतिष्ठा हीरासाय तेली के हाथों कराये जाने तथा मेला लगने का उल्लेख है। इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ‘‘पीथमपुर के श्री शंकर माहात्म्य‘‘ लिखकर सन् 1953 में प्रकाशित कराया था। 36 “लोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल कालेश्वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला की शाखा खोले जाने, सन् 1953 में ही तिलभांडेश्वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्ष से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके 50 वर्षो में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् 1914 में जबलपुर से प्रकाशित ‘‘पीथमपुर माहात्म्य‘‘ को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा। इसके 19 वें श्लोक में उन्होंने लिखा है कि वि.सं. 1945, फाल्गुन पूर्णमासी याने होली के दिन से इस शंकर देव स्थान पीथमपुर की ख्याति हुई। इसी प्रकार श्री तुलसीराम पटेल ने पीथमपुर : श्री कलेश्वर महात्म्य में लिखा है कि तीर्थ पुरोहित पंडित काशीप्रसाद पाठक पीथमपुर निवासी के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् 1945 को हीरासाय तेली को शिवलिंग स्थापित कराया था।
              तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् 1755 में मंदिर निर्माण कराया है तो अवश्य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए 185 वर्षो का अंतराल पर्याप्त होता है। अतः यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि 185 वर्षो बाद उसका पुनः उद्भव संवत् 1940 में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले शिलालेख को पुनः दीवार में जड़ दिया गया होगा।
    पीथमपुर में काल कालेश्वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना शुरू हो गया था। प्रारंभ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार 10 दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋषिकेश, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल कालेश्वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् शिव बारात के इस शोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उडि़या में शिवायन लिखा। शिवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में शिव बारात की कल्पना को साकार किया है।
                  आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,
                  देखे जाबे चला गियां संगी ल जगाव रे।
                  डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,
                  गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।
                  हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,
                  एक बार हहा करि, सबे कहुं घिघियावा रे।
                  पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,
                  नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगावा रे।
                  कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े,
                  कोऊ कोलिहा म चढि़, चढि़ आवत।
                  कोऊ बघुवा म चढि़, कोऊ बछुवा म चढि़,
                  कोऊ घुघुवा म चढि़, हांकत उड़ावत,
                  सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।
                  हांव हांव कुकुर करे, कोलिहा हुहुवावत,
                  कहे नरसिंहदास शंभू के बरात देखि।
              इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान शैव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस शैव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धाराशिव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के शिव मंदिर के अवशेष हैं और धाराशिव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री शंकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्षो तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूषोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री शिवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंद जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज, और स्वामी दयानंद जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडेश्वर मठ काशी से संबंधित  थे। स्वामी दयानंद भारती जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडेश्वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंद जी महाराज ने 20.02.1953 को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक ‘सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला‘ की स्थापना सन् 1923 में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च शिक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक शाखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वषों तक नहीं चल सकी; लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और शिवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाषा में विशेष रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।
              सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख शिलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फर्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। कालेश्वरनाथ की महत्ता अपरम्पार है, तभी तो कवि तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है ः-

                  युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी,
                  कलियुग में भी है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।
                  जहां स्वप्न देकर शंकर जी पुर्नप्रकट हो आये,
                  यह मनुष्य का काम कि उससे पुरा लाभ उठाये।।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

चांपा का कोसा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में


    चाम्पा का कोसा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में      
     चांपा, छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 200 में स्थित दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे का ऊर्जा नगरी के जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो 22.2 अंश उत्तरी अक्षांश और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र सतह से 500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहाड़ियां, मदनपुर की झांकियां, बिछुलवा नाला, केरा झरिया, हनुमान धारा और पीथमपुर के छोटे-बड़े मंदिर चांपा को दर्शनीय बनाते हैं। यहां का रामबांधा देव-देवियों के मंदिरों से सुशोभित और विशाल वृक्षों से परिवेष्ठित और राजमहल का मनोरम दृश्य है। यहां मित्रता के प्रतीक समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ उड़िया संस्कृति की साक्षी हैं। डोंगाघाट स्थित श्रीराम पंचायत, वीर बजरंगबली, राधाकृष्ण का भव्य मंदिर, तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया और मनिकादेवी, हनुमान धारा में हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कलेश्वरनाथ का मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी का मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति कर जीता जागता उदाहरण है। कवि श्री विद्याभूषण मिश्र की एक बानगी पेश है :-                                       
                                       जहां रामबांधा पूरब में लहराता है
                                       पश्चिम में केराझरिया झर झर गाता है।
                                       जहां मूर्तियों को हसदो है अर्ध्य चढ़ाती
                                       भक्ति स्वयं तपसी आश्रम में है इठलाती
                                       सदा कलेश्वरनाथ मुग्ध जिस पर रहते हें
                                       तपसी जी के आशीर्वचन जहां पलते हैं
                                       वरद्हस्त समलाई देवी का जो पाते
                                       ऐसी नगर की महिमा क्या भूषण गाये।
          प्राचीन काल में चांपा एक जमींदारी थी। जमींदार स्व. नेमसिंह के वंशज अपनी जमींदारी का सदर मुख्यालय मदनपुरगढ़ से चांपा ले आये थे। रामबांधा, लच्छीबांधा और दोनों ओर से हसदो नदी से घिरा सुरक्षित महल का निर्माण के साथ चांपा जमींदारी का अपना एक उज्जवल इतिहास है।
चांपा में कोसा व्यवसाय :-

          चांपा, छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक महत्वपूर्ण नगर है। आज इसे कोसा, कांसा, कंचन की नगरी कहा जाता है। मध्य भारत पेपर मिल की स्थापना और कागज के उत्पादन से एक नाम और जुड़ गया है। प्रकाश स्पंज आयरन लिमिटेड के अलावा चांपा के आसपास अनेक औद्योगिक प्रतिष्ठान के आने से यह औद्योगिक नगर बन गया है। यहां के गलियों में जहां कोसे की लूम की खटर पिटर सुनने को मिलता है वहीं सोने-चांदी के जेवरों के व्यापारी अवश्य मिल जायेंगे। यहां की तंग और संकरी गलियों में भव्य और आलीशान भवन से यहां की भव्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। चांपा जमींदार के द्वारा आर्थिक सम्पन्नता के लिए व्यवसायी परिवारों को यहां आमंत्रित कर बसाया गया था। इनमें श्री गंगाराम श्रीराम देवांगन, श्री पतिराम लखनलाल देवांगन, श्री गणेशराम शालिगराम देवांगन, श्री नंदकुमार देवांगन, श्री रामगुलाम नोहरलाल देवांगन, श्री बहोरनलाल महेशराम देवांगन, श्री चतुर्भुज मनोहरलाल देवांगन, श्री मोतीराम माखनलाल देवांगन, श्री सदाशिव तिलकराम देवांगन, श्री दाऊराम देवांगन, श्री बिहारीलाल रंजीतराम देवांगन, श्री नारायण प्रसाद बेनीराम देवांगन और श्री परागराम पीलाराम देवांगन का परिवार प्रमुख है। इसके अलावा अनेक देवांगन परिवार भी यहां आकर बसे। इनमें प्राय: सभी कोसा बुनकरी का कार्य करते थे। बुनकर परिवारों का सही आंकड़ा देवांगन समाज के लोग भी नहीं बता सके। लेकिन एक अनुमान है कि नगरपालिका क्षेत्र में लगभग 1300 से 1500 परिवार निवास करते हैं और लगभग 5000 मतदाता हैं। हर मुहल्ले का मुखिया 'मेहर' कहलाता है। कुछ लोगों का बुनकरी के साथ कोसा का व्यवसाय अच्छा चलने लगा और वे महाजन कहलाने लगे और जैसे कहावत है कि 'पैसा पैसा कमाता है.. पैसे की आवक हुई और वे 'साव' कहलाने लगे। ऐसे लोग पैतृक बुनकरी के बजाय दुकान चलाने लगे। वे कोसे बुनकरी का कच्चा समान बुनकर परिवारों को देकर ग्राहकों की आवश्यकतानुसार कपड़ा बनवाकर बाजार में बेचने लगे। धीरे धीरे कपड़ों के डिजाइन में परिवर्तन होने लगा... सिंथेटिक कपड़ों के समान रंगीन, कसीदाकारी युक्त, उड़िया बार्डर और ब्लीच्ड कपड़ों का आकर्षण लोगों को कोसा कपड़ों की ओर खींचने लगा। आज सभी मौसम में कोसा सूटिंग, शटिंग, धोती-कुर्ता, सलवार सूट और साड़ियों का विशाल कलेक्शन बाजार में उपलब्ध है। इन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचकर आर्थिक सम्पन्नता हासिल की जा रही है। आज देश के सभी बड़े शहरों कलकत्ता, मुम्बई, नेपाल, चेन्नई, बेंगलोर, हैदराबाद, सिकंदराबाद, अहमदाबाद, नागपुर, जबलपुर, इंदौर, भोपाल, विशाखापट्टनम, दिल्ली, जयपुर, आदि में चांपा के कोसे का व्यवसाय फैला हुआ है।
कोसा व्यवसाय और श्री बिसाहूदास महंत :-

          अविभाजित मध्यप्रदेश में तहसील स्तर में केवल चांपा में ही इंडस्ट्रियल ईस्टेट बनाया गया था। तब यहां छोटे मोटे उद्योग के अलावा कोसा, कांसा और सोने-चांदी के जेवर बनाने का कार्य कुटीर उद्योग के रूप में प्रचलित था। लोग अपने घरों में कोसे की साड़ियां, धोती और कुर्ते का कपड़ा बनाकर बाजार में बेचते थे। उस समय कोसा कपड़े के खरीददार नहीं होते थे। कुछ सेठ-महाजन ही पूजा-पाठ के समय इसका उपयोग करते थे। कदाचित इसी कारण इसका ज्यादा प्रचलन नहीं था। चांपा से 14 कि. मी. की दूरी पर स्थित सारागांव के श्री बिसाहूदास महंत चांपा विधानसभा के पहले विधायक फिर मध्यप्रदेश शासन में केबिनेट मंत्री बने। चांपा की गलियों और घरों में कोसा कपड़ों को बनते उन्होंने देखा था। कुछ देवांगन (बुनकर) परिवार से उनका बहुत ही अच्छा सम्बंध था। वे अक्सर उन्हें कोसा व्यवसाय को अन्य शहरों में भी फैलाने की सलाह दिया करते थे। लेकिन बुनकर परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे और कोसा कपड़ा की बनावट उतना आकर्षक भी नहीं था जिसे वे अन्य शहरों में ले जाते ? हां कुछ लोग कोसा कपड़ा/धोती और साड़ी को पवित्र तथा पूजा-पाठ में प्रयुक्त होने वाला कपड़ा मानने के कारण चांपा से खरीदकर अवश्य ले जाते थे। लेकिन श्री बिसाहूदास महंत जी के सद्प्रयास से ही चांपा के कोसा व्यवसायी यहां के कोसा कपड़ों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ले जाने में सफल हो गये। इसके लिए मध्यप्रदेश शासन में टेक्टाइल कारपोरेशन की स्थापना भी करायी थी जिसके माध्यम से कोसा कपड़ों को बाजार मिला और यह पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। यहां के व्यवसायी नवीनतम तकनीक को अपनाकर कोसा के कपड़ों को आकर्षक डिजाइनों में बाजार में प्रस्तुत किया जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया। आज कोसा अनेक आकर्षक डिजाइनों में सिंथेटिक कपड़ों के समान चांपा के बाजार में मिलने लगा है। आज कोसा कपड़ा न केवल पूजा-पाठ के समय पहनने वाला कपड़ा रह गया है वरन अनेक अवसरों, आयोजनों में पहनने का कपड़ा हो गया है।
चांपा के बुनकर परिवार :-

          आज चांपा में अपना देवांगन समाज है। जांजगीर-चांपा जिले के चांपा, सिवनी, उमरेली, सक्ती, बाराद्वार, ठठारी, बेलादुला, मालखरौदा, जांजगीर, बलौदा, आदि में देवांगन परिवार रहते हैं। केवल चांपा में ही लगभग एक हजार देवांगन (बुनकर) परिवार निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश परिवार कोसा कपड़े का बुनकरी का कार्य करते हैं। यहां के हर गली-मुहल्ले में हाथ करघे की खट खट सुनने को मिल जायेगी। बुनकर लोग पान ठेला, सब्जी, दूध, गल्ला-किराना, सोने-चांदी और कपड़े आदि का व्यवसाय करने लगे हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि इस व्यवसाय में उन्हें उतनी आमदनी नहीं होती जिससे उनके परिवार का गुजारा चल सके। कुछ लोग नौकरी भी करने लगे हैं और अच्छे पदों पर पदस्थ हैं। श्री संतोष कुमार देवांगन अनुविभागीय अधिकारी, राजस्व के पद पर पत्थलगांव में पदस्थ हैं। श्री छतराम देवांगन बलौदा विधानसभा के विधायक और छ. ग. शासन में संसदीय सचिव और श्री मोतीलाल देवांगन चांपा विधानसभा के विधायक हैं। श्री कमल देवांगन छत्तीसगढ़ राज्य हाथकरघा विकास एवं विपणन सहकारी संघ मर्यादित, रायपुर के अध्यक्ष हैं। कुछ लोग अपने पैतृक व्यवसाय के अलावा अन्य व्यवसाय को अपनाने लगे हैं। इसके बावजूद चांपा के कोसा कपड़ों की मांग अमरीका, यूरोप, जर्मनी, इटली, फ्रांस, चीन, नेपाल, कनाडा, इंग्लैंड और स्विटजरलैंड आदि में बहुतायत में हैं। कुछ व्यापारी यहां से सीधे कोसा के कपड़े सीधे विदेश भेजते हैं और कुछ दूसरे व्यापारी के माध्यम से भेजते हैं।
बदहाल बुनकर :-

          इतने अच्छे कोसा के कपड़ों को बनाने वाले बुनकरों की हालत बहुत अच्छी नही है। रात दिन कड़ी मेहनत करने वाले बुनकर अपने परिवार के पेट की आग को शांत करने में अक्षम हैं। ऐसे एक बुनकर ने बताया कि रेशम संचालनालय के सिवनी कार्यालय से आम बुनकरों को कोसे का धागा नहीं मिल पाता क्योंकि वहां भी महाजनों का कब्जा है। मजबूरी में उन्हें महाजनों से धागा खरीदकर कपड़ा बुनना पड़ा है। पिछले साल सिवनी में पंद्रह लाख कोसा फल आया था लेकिन आम बुनकर को एक भी फल नहीं मिल पाया, उसे महाजन और उनके संपर्क में रहने वाले बुनकर खरीद लिए। दलालों के माध्यम से कोसा फल खरीदने पर उन्हें शासन की दर से तीन गुने अधिक दर में कोसा फल खरीदना पड़ता है। आज अधिकांश कोसे के व्यवसायी कोसा फल अथवा धागा वजन करके देता है और ग्राहकों की मांग के अनुरूप बुनकर कपड़े की बुनाई करके केवल मजदूरी पाता है। एक अन्य बुनकर ने बताया कि उन्हें पैंतीस मीटर कपड़े की मजदूरी सिर्फ सात सौ रूपये, एक शाल की बुनाई मात्र सत्तर रूपये, एक साड़ी की बुनाई सिर्फ ढाई सौ रूपये मिलता है। यही कपड़े राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चार से दस गुने अधिक दामों में बेचे जाते हैं।
कोसे की इल्लियां :-

          शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय चांपा में टसर टेक्नालॉजी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. अश्विनी केशरवानी ने बताया कि सामान्यतया कोसा की इल्लियां साल, सागौन, शहतूत और अर्जुन की पत्तियों को खाकर ककून बनाती हैं। ककून से धागा निकालकर कपड़े की बिनाई की जाती है। ये निम्न प्रकार के होते हैं :-
1- मलबरी कोसा :- यह छोटे आकार का मुलायम कोसा होता है। इसका रंग सफेद, पिला, केसरिया और हल्का पीला होता है।
2- तसर कोसा :- इसके रेशे का रंग भूरा, पीला, काला व सफेद होता है।
3- मूंगा कोसा :- यह मलबरी कोसे के समान होता है। इसके रेशे का रंग सुनहरा होता है। इसका सर्वाधिक उत्पादन आसाम में होता है। रंग के आधार पर इसे गोल्डन सिल्क भी कहा जाता है।
4- ऐरी कोसा :- इसका रंग पीला व सफेद होता है। इसका उत्पादन देश के पूर्वी प्रदेश आसाम, त्रिपुरा, मेघालय के अलावा उत्तरप्रदेश, में होता है।
5- पोली कोसा :- यह सामान्य आकार से बड़े व छोटे आकार में पाये जाते हैं। जब कोसा की तितली के द्वारा कोसा फल (ककून) बनाने के बाद वह उसे छेदकर बाहर निकल आती है जिससे ककून पोली हो जाती है। इसीलिए इसे पोली कोसा कहा जाता है।
6- रैली कोसा :- इसका रंग काला और आकार बड़ा होता है। इसके धागे को ही रैली धागा कहा जाता है। साल, महुवा आदि पेड़ों पर इसका उत्पादन किया जाता है।
7- मोमरा कोसा :- जिसमें कोसे का धागे कम मात्रा में और बड़ी मुश्किल से निकलता है उसे मोमरा कोसा कहते हैं।
कोसा और रोजगार :-

          रोजगार की दृष्टि से कृषि के बाद हाथ करघा उद्योग को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या पूरे देश में लगभग दो करोड़ है। इसी प्रकार कुल राष्ट्रीय आय में हाथ करघा उद्योग का लगभग सात प्रतिशत होता है। पूरे देश में लगभग एक करोड़ हाथ करघा और पावर लूम हैं। इससे लगभग दो करोड़ व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त है। पूरे छत्तीसगढ़ में रायगढ़, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, जगदलपुर, बिलासपुर, कोरबा और जांजगीर-चांपा और पाली में ककून का उत्पादन होता है। कोसे के फल (ककून) से लगभग 1000 से 1200 मीटर धागा निकलता है। आजकल कोसे के धागे की जगह कोरिया से एक विशेष प्रकार के धागा जो कोसे के धागे के समान होता है, उपयोग किया जाता है।
सरकारी योजनाएं :-

          राज्य और केंद्रीय शासन की ऐसी बहुत सी योजनाएं हैं जिनकी जानकारी सहकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम लोगों को देने का प्रावधान है लेकिन बुनकरों का कहना है कि ऐसा नहीं होता। जो उनके संपर्क में रहता है उन्हें ही इसकी जानकारी मिल पाती है। इसीलिए वे इस योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते। ऐसी संस्थाओं में भी बड़े महाजनों और दलालों का कब्जा होता है। श्री कमल देवांगन, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ राज्य हाथकरघा विकास एवं विपणन सहकारी संघ मर्यादित, रायपुर ने एक साक्षात्कार में बताया कि जांजगीर-चांपा जिला में 25 और पूरे प्रदेश में पहले केवल 80-85 बुनकर सहकारी समितियां विपणन संघ से जुड़ी थी लेकिन अभी 127 समितियां कार्यरत हैं। चांपा में पांच समिति क्रमश: तपसी बाबा कोसा बुनकर सहकारी समिति, जय अम्बे कोसा बुनकर सहकारी समिति, गंगा यमुना कोसा बुनकर सहकार समिति, कबीर कोसा बुनकर सहकारी समिति और जागृति कोसा बुनकर सहकारी समिति कार्यरत हें। इन समितियों के माध्यम से बुनकरों को शासन से मिलने वाली सुविधाएं बुनकरों को प्रदान की जाती हैं। उन्होंने बताया कि पूरे देश में चांपा से 5वीं, 8वीं, 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं में 60 से 90 प्रतिशत अंक पाने वाले विद्यार्थियों को माननीय डॉ. रमनसिंह के कर कमलों से पुरस्कार प्रदान किया जावेगा। प्रदेश का विपणन संघ न केवल कोसा बुनकर बल्कि सभी प्रकार के हाथकरघा बुनकरों के उत्थान के लिए प्रयास कर रही है। उनका प्रयास है कि प्रदेश का कोई भी बुनकर खाली न रहे।
कोसे की तकनीकी एवं शिक्षा देने वाली संस्थाएं :-
          चांपा में हेंडलूम टेक्नालॉजी का एक राष्ट्रीय संस्थान खोला गया है। इसी प्रकार यहां के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में बी. एस-सी. टसर टेक्नालॉजी और एड आन कोर्स के रूप में सेरीकल्चर विषय में सर्टिफिकेट कोर्स खोला गया है। इन संस्थानों एवं विषयों को खुलवाने में चांपा विधानसभा के पूर्व विधायक श्री मोतीलाल देवांगन एवं मध्यप्रदेश शासन के पूर्व मंत्री श्री बलिहार सिंह का योगदान रहा है। निश्चित रूप से इन संस्थानों और विषयों के खुलने से न केवल चांपा बल्कि छत्तीसगढ़ प्रदेश के विद्यार्थियों को लाभ होगा। उन्हें डिग्री के साथ नई तकनालॉजी का ज्ञान होगा जिससे कोसा कपड़ों की बुनकरी में नयापन आयेगा।
कोसा व्यवसाय और पुरस्कार :-

          देश के सिध्दहस्त बुनकरों को राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किये जाते हैं। खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ के लगभग एक दर्जन बुनकरों को राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। श्री सुखराम देवांगन को कोसा दुपट्टा बनाने की कला में उल्लेखनीय योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके पूर्व श्री पूरनलाल देवांगन को 1993 में एवं उनके पुत्र        श्री नीलांबर प्रसाद देवांगन को 2002 में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। कोसा कपड़े पर उत्कृष्ट डिजाइन के लिए       श्री ओमप्रकाश देवांगन को मुख्य मंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक लाख रूपये नगद, शील्ड और प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया है।

बुनकरों के लिए क्या करें :-

  1. बुनकरों के उत्थान के लिए निम्नलिखित कार्य किया जाना समीचीन होगा :-


  1. छत्तीसगढ़ के हाथ करघा उद्योग के विकास एवं विस्तार हेतु देश के प्रमुख शहरों में विक्रय केंद्र (एम्पोरियम) खोला जाना चाहिए।
  2. छत्तीसगढ़ में सूती एवं कोसा कपड़ों के निर्यात की अपार संभावनाएं हैं। इसे ध्यान में रखते हुए एक विकसित रंगाई, छपाई एवं प्रोसेसिंग इंस्टीटयूट खोला जाना चाहिए।
  3. छत्तीसगढ़ के अधिकांश बुनकर आज भी अपने परंपरागत तरीके से बुनाई करते हैं जबकि आज के वैज्ञानिक युग में फिनिशिंग वर्क की मांग अधिक है। अत: यहां के बुनकरों के लिए उन्नत किस्म के उपकरणों की आवश्यकता है। समय समय पर बुनकरों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा जाना चाहिए।
  4. स्वदेशी और निर्यात बाजार में चांपा के कोसा और हाथ करघा वस्त्रों को नई तकनीक देने के लिए बुनकर सेवा संघ चांपा में स्थापित की जानी ताकि बुनकरों में कलस्तर तकनीक को विकसित किया जा सके।
  5. केंद्रीय योजनाओं की सही जानकारी सर्व सुलभ कराते हुए उसके सफल क्रियान्वयन कर हाथ करघा उद्योग को अधिकाधिक रोजगारमूलक बनाया जाये।
  6. हाथ करघा बुनकरों को यार्न की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु सूती हाथ करघा सघन क्षेत्र रायपुर में एन. एच. डी. सी. के सूती यार्न बैंक की स्थापना की जानी चाहिए।
  7. छत्तीसगढ़ में निर्यात संभावनाओं को देखते हुए रायपुर में हैंडलूम एक्सपोर्ट प्रमोशन काऊंसिल कार्यालय शीघ्र की जानी चाहिये।
  8. कोसा उत्पादों की बिक्री के लिए नियमित बाजार की आवश्यकता को देखते हुए रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ और दुर्ग आदि शहरों में दिल्ली हाट के तर्ज पर छत्तीसगढ़ हाट की स्थापना की जानी चाहिये।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी

          मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारंभिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति में ये जीवनदायिनी मां की तरह पूजनीय हैं। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा है। सभी नदियां भले ही अलग अलग नामों से प्रसिध्द हैं लेकिन उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी, ताप्ती, क्षिप्रानदी के समान पवित्र और मोक्षदायी मानी गयी है। कदाचित् इन्हीं नदियों के तट पर स्थित धार्मिक स्थल तीर्थ बन गये..। सूरदास भी गाते हैं :

                    हरि-हरि-हरि सुमिरन करौं।
                    हरि चरनार विंद उर धरौं।
                    हरि की कथा होई जब जहां,
                    गंगा हू चलि आवै तहां॥
                    जमुना सिंधु सरस्वति आवै,
                    गोदावरी विलंबन लावै।
                    सब तीरथ की बासा तहां,
                    सूर हरि कथा होवै जहां॥
          भारत की प्रमुख नदियों में महानदी भी एक है। इसे ''चित्रोत्पला-गंगा'' भी कहा जाता है। इसका उद्गम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेशवर महादेव और अंतिम छोर में चित्रा-माहेश्वरी देवी स्थित हैं। कदाचित् इसी कारण महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गयी है :-

                    उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा महेश्वरी।
                    चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी॥
          सोमेश्वरदेव के महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला-गंगा कहा गया है :-
                    यस्पाधरोधस्तन चन्दनानां
                    प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
                    चित्रोत्पला स्वर्णावती गताऽपि
                    गंगोर्भि संसक्तभिवाविमाति॥
          महानदी के उद्गम स्थल को ''विंध्यपाद'' कहा जाता है। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर संकेत करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपापहरा, शुभा आदि कहा गया है :-

                    नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
                    चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा शुभा॥

          महानदी को ''गंगा'' कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी। कौशलेन्द्र महाशिवगुप्त ययाति ने एक ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला के नाम से संबोधित किया है :-

                    चित्रोत्पला चरण चुम्बित चारूभूमो
                    श्रीमान कलिंग विषयेतु ययातिषुर्याम्।
                    ताम्रेचकार रचनां नृपतिर्ययाति
                    श्री कौशलेन्द्र नामयूत प्रसिध्द॥
          17 वीं शताब्दी के महाकवि गोपाल ने भी महानदी को ''अति पुण्या चित्रोत्पला'' माना है
                    पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
                    अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।
          इसी प्रकार स्कंध पुराण में ''पुरूषोत्तम क्षेत्र'' की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए महानदी को माध्यम बनाया गया है :-
                    ऋषिकुल्या समासाद्या दक्षिणोदधिगामिनीम्।
                    स्वर्णरेखा महानद्यो मध्ये देश: प्रतिष्ठित: ॥

          अर्थात् पुरूषोत्तम क्षेत्र स्वर्णरेखा से महानदी तक विस्तृत रूप से फैला है, उसके दक्षिण में ऋषिकुल्या नदी स्थित है।

           महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर लिखते हैं :- ''चित्रोत्पला शब्द में दो युग्म शब्द है-चित्रा और उप्पल। उप्पल का शाब्दिक अर्थ है- नीलकमल, और चित्रा गायत्री स्वरूपा महाशक्ति का नाम है। चित्रा को ऐश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। राजिम क्षेत्र कमल या पदम क्षेत्र के रूप में विख्यात् है। राजिम को ''श्री संगम'' कहा जाता है। ''श्री'' का अर्थ ऐश्वर्य या महालक्ष्मी जिसका कमल आसन है। महानदी के तट पर ''श्रीसंगम'' राजिम में स्थित विष्णु भगवान का प्रतिरूप ''राजीवलोचन'' या राजीवनयन विराजमान हैं। राजीव का अर्थ भी कमल या उप्पल होता है। यहां स्थित ''कुलेश्वर महादेव'' उत्पलेश्वर कहलाते हैं। शब्द कल्पदुम के अनुसार महानदी के उद्गम को ''पद्मा'' कहा गया है- ''सा पद्मया विनिसृता राम पुराख्याग्रामात पश्चिम उत्तर दिग्गता।''

             मार्कण्डेय और वायु पुराण में महानदी को ''मंदवाहिनी'' कहा गया है और उसे शुक्तिमत पर्वत से निकली बताया गया है। लेकिन महानदी धमतरी जिलान्तर्गत सिहावा (नगरी) से निकलकर 965 कि. मी. की दूरी तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी है। इस नदी के उपर गंगरेल और हीराकुंड बांध बनाया गया है। इन बांधों के पानी से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है, साथ ही बुरला-संबलपुर में बिजली का उत्पादन भी होता है। महानदी के रेत में सोना मिलने का भी उल्लेख मिलता है। इस नदी में अस्थि विसर्जन भी होता है। गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण्ा, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है। गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली बाल्मिकी आश्रम स्थित था। इसी प्रकार चंद्रपुर में मां चंद्रसेनी और संबलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई ''रोहिणी कुंड'' है जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिध्द प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसकी महिमा गाते हैं :-
                    रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
                    योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय॥
          प्राचीन कवि बटुकसिंह चौहान ने तो रोहिणी कुंड को ही एक धाम माना है। देखिए एक बानगी :-
                    रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर,
                    बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।
                    जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम,
                    बटुक सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण॥
          भारतेन्दु युगीन रचनाकार पंडित हीराराम त्रिपाठी ''शिवरीनारायण महात्म्य'' में लिखते हैं
                    चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
                    बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम॥

          ऐसे पवित्र नगर शिवरीनारयण, जांजगीर-चाम्पा जिलान्तर्गत महानदी के तट पर स्थित है और''गुप्तधाम'' कहलाता है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग और जगन्नाथ पुरी भी कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहां भगवान जगन्नाथ पधारते हैं। इस दिन महानदी स्नान कर उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। इसी प्रकार राजिम में भगवान राजीव लोचन का दर्शन ''साक्षी गोपाल'' के रूप में किया जाता है। खरौद में भगवान लक्ष्मणेश्वर का दर्शन काशी के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार चंद्रपुर की चंद्रसेनी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी का दर्शन शक्ति दायक होता है।

          प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले के अनेक ग्रामों में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस, औरेलियस और अन्टीनियस के शासन काल के सोने के सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार महानदी सोना और हीरा प्राप्ति के लिए विख्यात् रही है। आज भी ''सोनाहारा'' जाति के लोग महानदी के रेत से सोना निकालते हैं। सोनपुर नगर का नामकरण सोना मिलने के कारण है। संबलपुर के हीरकुंड क्षेत्र में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है। वराहमिहिर की बृहद संहिता में कोसल में हीरा मिलने का उल्लेख है जो शिरीष के फूल के समान होते हैं :- ''शिरीष कुसुमोपम च कोसलम्'' मिश्र के प्रख्यात् ज्योतिषी टालेमी ने कोसल के हीरों का उल्लेख किया है। रोम में महानदी के हीरों की ख्याति थी।.... तभी तो पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय छत्तीसगढ़ की वंदना करते हुए लिखते हैं :-

                    महानदी बोहै जहां होवै धान बिसेस।
                    जनमभूम सुन्दर हमर अय छत्तीसगढ़ देस॥
                    अय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
                    राज रतनपुर जहां रहिस जस दूसर कासी॥
                    सोना-हीरा के जहां मिलथे खूब खदान।
                    हैहयवंसी भूप के वैभव सुजस महान॥
          कहा गया है कि महानदी के जल का स्पर्श करके पितृ देवों का तर्पण करना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है और उसके कुल का उध्दार हो जाता है। सुप्रसिध्द कवि बुटु सिंह चौहान भी गाते हैं :-

                    दोहा शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
                    पिण्ड दान वहां जो करे, तरो बैकुण्ठ जाय॥
                    चौपाई वहां स्नान कर यह फल होई।
                    विद्या वान गुणी नर सोई॥
                    एक सौ पितरन वहां पर तारे।
                    पितरन पिण्ड तहां नर पारै॥
                    गाया समान ताही फल जानो।
                    पितरन पिण्ड तहां तुम मानो॥
                    मानो पितर गाया करि आवे।
                    पितरन भूरि सबै फल पाये॥
                    जो कोई जायके पिण्ड ढरकावहीं।
                    ताकर पितर बैकुण्ठ सिधावहीं॥
                    दोहा क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के, होत तहां स्नान।
                    कोढ़िन को काया मिले, निर्धन को धनवान॥
                    महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
                    सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान॥

          शिवरीनारायण में महानदी के तट पर स्थित माखन साव घाट और राम घाट में अस्थि विसर्जन के लिए कुंड बने हुए हैं। माखन साव घाट में रेत के नीचे दबे चट्टान में भी एक अस्थि विसर्जन के लिए कुंड है लेकिन यह कुंड रेत के हटने के बाद दृष्टिगोचर होता है। कदाचित यही कारण है कि यहां सज्जन व्यक्तियों का वास है जो सदा हरि कीर्तन में रत रहते हैं। भारतेन्दु कालीन कवि पंडित हीराराम त्रिपाठी भी गाते हैं :-

                                             दोहा
                    चित्रउतपला के निकट श्रीनारायण धाम॥
                    बसत सन्त सज्जन सदा शिवरीनारायणग्राम॥ 1 ॥
                                             सवैया
                    होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
                    अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
                    शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
                    जहां जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं॥ 1 ॥

          महानदी से संस्कारित मेरी यह काया शिवरीनारायण और छत्तीसगढ़ का ऋणी है। जब भी मैं महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में चित्रित भित्ति चित्र को देखता हूं तो पत्रकार भाई श्री सतीश जायसवाल की बात याद आती है। इसे उन्होंने ''महानदी घाटी की सभ्यता'' कहा है। कदाचित् महानदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्परा को जोड़ने का एक माध्यम है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राजिम और शिवरीनारायण को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लेकर उचित और स्वागतेय कदम उठाया है।