मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

छत्तीसगढ़ की पाँच दिवसीय दीपावली


     छत्तीसगढ़ मै पाँच दिन तक चलने वाले इस त्यौहार का आरम्भ धनतेरस यानि धन्वन्तरी त्रयोदस से होता है । मान्यता है की इस दिन भगवान् धन्वन्तरी अपने हाँथ में अमृत कलश लिए प्रकट हुए थे। समुद्र मंथन में जो चौदह रत्न निकले थे, भगवान् धन्वन्तरी उनमे से एक है। वे आरोग्य और समृद्धि के देव है । स्वास्थ्य और सफाई से इनका गहरा सम्बन्ध होता है। इसलिए इस दिन सभी अपने घरों की सफाई करते है और लक्ष्मी जी के आगमन की तयारी करतें है। इस दिन लोग यथाशक्ति सोना- चांदी और बर्तन इत्यादि खरीदते है।दूसरे दिन कृष्ण चतुर्दशी होता है। इस दिन को नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। इस दिन भगवान् श्रीकृष्ण नरकासुर का वध करके, उनकी क़ैद से हजारों राजकुमारियों को मुक्ति दिलाकर उनके जीवन में उजाला किए थे।         राजकुमारियों ने इस दिन दीपों की श्रृंख्ला जलाकर, अपने जीवन में खुशियों को समाहित किया था।तीसरे दिन आता है दीपावली। दीपों का त्यौहार..... लक्ष्मी पूजन का त्यौहार। असत्य पर सत्य की, अन्धकार पर प्रकाश की, और अधर्म पर धर्म की विजय का त्यौहार है दीपावली। इस त्यौहार को मनाने के पीछे अनेक लोक मान्यताएं जुड़ी हुई है। भगवान् श्रीरामचंद्र जी के चौदह वर्ष बनवास काल की समाप्ति और अयोध्या आगमन पर उनके स्वागत में दीप जलाना, अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का इस दिन जन्म हुआ था और इसी दिन उन्होंने जल समाधि ली थी। अहिंसा की प्रतिमूर्ति और जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इसी दिन निर्वाण किया था। सिख धर्म के प्रवर्तक श्री गुरुनानक देव जी का जन्म इसी दिन हुआ था। इस सत्पुरुषों के उच्च आदर्शों और अमृतवाणी से हमे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इसी अमावास को भगवान् विष्णु जी ने धन की देवी लक्षी जी का वरण किया था। इसीलिए इस दिन सारा घर दीपों के प्रकाश से जगमगा उठता है। पटाखे और आतिशबाजी की गूँज उनके स्वागत में होती है। इस दिन धन की देवी माँ लक्ष्मी की पूजा अर्चना करके प्रसन्न किया जाता है, और घर को श्री संपन्न करने की उनसे प्रार्थना की जाती है। :-
     जय जय लक्षी !
     हे रमे ! रम्य ! हे देवी ! सदय हो,
     शुभ वर दो ! प्रमुदित हो, सदा निवास करो
     सुख संपत्ति से पूरित कर दो,
     हे जननी ! पधारो भारत में कटु कष्ट हरो,
     कल्याण करो भर जावे कोषागार
     शीघ्र दुर्भाग्य विवश जो है खाली
     घर घर में जगमग दीप जले आई है देखो दीपावली.... !
     चौथे दिन आती है गोवर्धन पूजा। यह दिन छत्तीसगढ़ में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इसे छोटी दीपावली भी कहा जाता है। मुंगेली क्षेत्र में इस दिन को पान बीडा कहतें है और अपने घरों में मिलने आए लोगों का स्वागत पान बीडा देकर करतें है। इस दिन गोबर्धन पहाड़ बनाकर उसमे श्रीकृष्ण और गोप गोपियाँ बनाकर उनकी पूजा की जाती है।पाँचवे दिन आता है भाई दूज का पवित्र त्यौहार। यमराज के वरदान से बहन इस दिन अपने भाई का स्वागत करके मोक्ष की अधिकारी बनती है। पाँच दिन तक चलने वाले इस त्यौहार को लोग बड़े धूमधाम और आत्मीय ढंग से मनाते है।यह सच है की दीपावली के आगमन से खर्च में बढोत्तरी हो जाती है और पाँच दिन तक मनाये जाने वाले इस त्यौहार के कारण आपका पाँच माह का बजट फेल हो जाता है। उचित तो यही होगा की आप इसे अपने बजट के अनुसार ही मनाएं । हर वर्ष आने वाला दीपावली अपने चक्र के अनुसार इस वर्ष भी आया है और भविष्य में भी आयेगा पर इससे घबराएँ नहीं और सादगीपूर्ण और सौहार्द के वातावरण में मनाएं । दूरदर्शिता से काम ले, इतनी फिजूलखर्ची ना करें की आपका दिवाला ही निकल जाए और ना ही इतनी कंजूसी करें की दीपावली का आनंद ही न मिल पाए..।
    हे दीप मालिके ! फैला दो आलोक तिमिर सब मिट जाए....

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

छत्तीसगढ़ में दशहरा की अद्भूत परंपराएं


 दशहरा भारत का एक प्रमुख लोकप्रिय त्योहार है। इसे देश के कोने कोने में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार असत्य के उपर सत्य का और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। श्रीराम सत्य के और रावण असत्य के प्रतीक हैं। विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और हमें शक्ति मां भवानी की पूजा-अर्चना से मिलती है। इसके लिए अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमीं तक मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं और दसमीं को दस सिर वाले रावण के उपर विजय प्राप्त करते हैं। कदाचित् इसी कारण दशहरा को ``विजयादशमी`` कहा जाता है। वास्तव में रावण अजेय योद्धा के साथ साथ प्रकांड विद्वान भी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से देवताओं, किन्नरों, किरातों और ब्रह्मांड के समस्त राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था। मगर वे अपनी इंद्रियों को नहीं जीत सके तभी तो वे काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर कार्य करते थे। यही उन्हें असत्य के मार्ग में चलने को मजबूर करते थे। इसी के वशीभूत होकर उन्होंने माता सीता का हरण किया और श्रीराम के हाथों मारे गये। श्रीराम की विजय की खुशी में ही लोग इस दिन को ``दशहरा`` कहने लगे और प्रतिवर्ष रावण के प्रतीक का दहन कर दशहरा मनाने लगे। अधिकांश स्थानों में रावण दहन के पूर्व `गढ़ भेदन` करने और पुरस्कृत करने की परंपरा है। कुछ स्थानों में रावण की आदमकद सीमेंट की प्रतिमा बनाकर लोग उसकी पूजा करते हैं और मनौती मानते हैं। आज हम गांव गांव और शहर में इस दिन रावण की आदमकद प्रतिमा बनाकर जलाकर दशहरा मनाते हैं। इस दिन रावण की प्रतिमा को जलाकर घर लौटने पर मां अपने पति, बेटे और नाती-पोतों तथा रिश्तेदारों की आरती उतारकर दही और चांवल का तिलक लगाती है और मिष्ठान खाने के लिए पैसे देती है। कई घरों में नारियल देकर पान-सुपारी खिलाने का रिवाज है। इस दिन अपने मित्रों, बड़े बुजुर्गों, छोटे भाई-बहनों, माताओं आदि सबको ``सोनपत्ति`` देकर यथास्थिति आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग अपने मित्रों से गले मिलकर रावण मारने की बधाई देते हैं। कहीं कहीं दशहरा के पहले `रामलीला` का मंचन होता है और रामराज्य की कल्पना की जाती है। छत्तीसगढ़ में दशहरा मनाने की अलग अलग परंपरा है आइये एक नजर डालें :- संबलपुर के राजा ने हरि और गुजर को लकड़ी की तलवार से भैंस की बलि एक ही वार से दिये जाने पर उनके शौर्य से प्रसन्न होकर सक्ती की जमींदारी प्रदान की थी। दशहरे के दिन आज भी सक्ती पैलेश में लकड़ी के तलवार की पूजा होती है। सारंगढ़ में शिवरीनारायण रोड में नगर से 4 कि।मी. दूरी पर खेलभाठा में दशहरा के दिन गढ़ भेदन किया जाता है। यहां चिकनी मिट्ठी का प्रतीकात्मक गढ़ (मिट्ठी का ऊंचा टीला) बनाया जाता है और उसके चारों ओर पानी भरा होता है। गढ़ के सामने राजा, उसके सामंत और अतिथियों के बैठने के लिए स्टेज बनाया जाता था, जिसके अवशेष यहां आज भी मौजूद है। विभिन्न ग्रामों से दशहरा मनाने आये ग्रामीण जन इस गढ़ भेदन में प्रतियोगी होते थे। वे इस मिट्ठी के गढ़ में चढ़ने का प्रयास करते और फिसल कर पानी में गिर जाते हैं। पानी में भीगकर पुन: गढ़ में चढ़ने के प्रयास में गढ़ में फिसलन हो जाता था। बहुत प्रयत्न के बाद ही कोई गढ़ के शिखर में पहुंच पाता था और विजय स्वरूप गढ़ की ध्वज को लाकर राजा को सौंपता था। करतल ध्वनि के बीच राजा उस विजयी प्रतियोगी को तिलक लगाकर नारियल और धोती देकर सम्मानित करते थे। फिर राजा की सवारी राजमहल में आकर रबारेआम में बदल जाती थी जहां दशहरा मिलन होता था। ग्रामीणजन अपने राजा को इतने करीब से देखकर और उन्हें सोनपत्ती देकर, उनके चरण वंदन कर आल्हादित हो उठते थे। सहयोगी सामंत, जमींदार और गौटिया नजराना पेश कर अपने को धन्य मानते थे। अंत में मां समलेश्वरी देवी की पूजा अर्चना करके खुशी खुशी घर को लौटते थे। चंद्रपुर में जमींदार परिवार के द्वारा भैंस (पड़वा) की नवमीं को बलि देकर दशहरा मनाया जाता है। अंबिकापुर में दशहरा के दिन राजा की सवारी देवी दर्शन कर नगर भ्रमण करती हुई राजमहल परिसर में पहुंचकर ``मिलन समारोह`` में परिवर्तित हो जाता था। उस समय राज परिवार के सभी सदस्य, अन्य सामंत, जमींदार, ओहदेदार विराजमान होते थे। ग्रामीणजन सोनपत्ती देकर उन्हें बधाई देते थे। बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहां दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकलती है। इसीप्रकार शिवरीनारायण में दशहरा को विजियादशमी के रूप में मनाया जाता है। मठ के महंत शाम को बाजे-गाजे के साथ जनकपुर जाकर सोनपत्ती की पूजा करके वापस लौटते हैं और गादी चौरा पूजा करते हैं। महंत के द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है तत्पश्चात् वे गादी में विराजमान होते हैं। उपस्थित जन समुदाय महंत जी को भेंट देकर सम्मानित करते हैं। वास्तव में यह एक तांत्रिक परंपरा है। प्राचीन काल में यहीं पर तांत्रिकों से स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके पराजिक किया और इस क्षेत्र को छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। तब से यहां प्रतिवर्ष गादी चौरा पूजा उनके प्रभाव को शांत करने के लिए किया जाता है।

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर


महानदी के तट पर रायगढ़-सारंगढ़ मार्ग के चंद्रपुर से 7 कि.मी. की दूरी पर बालपुर ग्राम स्थित है। यह ग्राम पूर्व चंद्रपुर जमींदारी के अंतर्गत पंडित शालिगराम, पंडित चिंतामणि और पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय की मालगुजारी में खूब पनपा। पांडेय कुल का घर महानदी के तट पर धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से युक्त था। यहां का एक मात्र निजी पाठशाला पांडेय कुल की देन थी। इस पाठशाला में पांडेय कुल के बच्चों के अतिरिक्त साहित्यकार पंडित अनंतराम पांडेय ने भी शिक्षा ग्रहण की। धार्मिक ग्रंथों के पठन पाठन और महानदी के प्रकृतिजन्य तट पर इनके साहित्यिक मन को केवल जगाया ही नहीं बल्कि साहित्याकाश की ऊँचाईयों तक पहुंचाया...और आठ भाइयों और चार बहनों का भरापूरा परिवार साहित्य को समर्पित हो गया। पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद, पंडित लोचनप्रसाद, बंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर सभी उच्च कोटि के साहित्यकार हुए। साहित्य की सभी विधाओं में इन्होंने रचना की। पंडित लोचनप्रसाद जहां इतिहास, पुरातत्व और साहित्य के ज्ञाता थे वहां पंडित मुकुटधर जी पांडेय साहित्य जगत के मुकुट थे। छायावाद के वे प्रवर्तक माने गये हैं। वे छत्तीसगढ़ के ऐसे एक मात्र साहित्यकार हैं जिन्हें भारत सरकार द्वारा ''पद्मश्री'' अलंकरण प्रदान किया गया है। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रांत के गौरव हैं। धीरे धीरे पांडेय कुल का घर महानदी में समाता गया और उनका परिवार रायगढ़ में बसता गया। इस प्रकार रायगढ़ नगर साहित्य कुल से जगमगाने लगा।
     सन् 1982 में जब मेरी नियुक्ति रायगढ़ के किरोड़ीमल शासकीय कला और विज्ञान महाविद्यालय में हुई थी तब रायगढ़ जाने की इच्छा नहीं हुई थी। लेकिन ''नौकरी करनी है तो कहीं भी जाना है'' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए मैंने रायगढ़ ज्वाइन कर लिया। कुछ दिन तो भागमभाग में गुजर गये। जब मन स्थिर हुआ और सपरिवार रायगढ़ में रहने लगा तब मेरा साहित्यिक मन जागृत हुआ। दैनिक समाचार पत्रों में मेरी रचनाएं नियमित रूप से छपने लगी। नये नये विषयों पर लिखने की मेरी लालसा ने मुझे रायगढ़ की साहित्यिक और संगीत परंपरा की पृष्ठभूमि को जानने समझने के लिए प्रेरित किया। यहां के राजा चक्रधरसिंह संगीत और साहित्य को समर्पित थे। उनके दरबार में साहित्यिक पुरूषों का आगमन होते रहता था। पंडित अनंतराम पांडेय और पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय उनके दरबार के जगमगाते नक्षत्र थे। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र जैसे साहित्यकार उनके दीवान और पंडित मुकुटधर पांडेय जैसे साहित्यकार दंडाधिकारी थे। ऐसे साहित्यिक पृष्ठभूमि में मेरी लेखनी फली फूली। हमारे स्टॉफ के प्रो. अम्बिका वर्मा, डॉ. जी. सी. अग्रवाल, डॉ. बिहारी लाल साहू, प्रो. मेदिनीप्रसाद नायक, कु. शिखा नंदे, प्रो. दिनेशकुमार पांडेय से मेरा न केवल सामान्य परिचय हुआ बल्कि मैं उनके स्नेह का भागीदार बना। प्रो. दिनेशकुमार पांडेय साहित्यिक पितृ पुरुष पं. मुकुटधर पांडेय के चिरंजीव हैं। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया....और मेरी लेखनी सतत् चलने लगी।
     मेरे लिए एक सुखद संयोग बना और एक दिन मुझे श्रद्धेय मुकुटधर जी के चरण वंदन करने का सौभाग्य मिला। मेरे मन में इस साहित्यिक पितृ पुरूष से इस तरह से कभी भेंट होगी, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। उन्हें जानकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि मैं शिवरीनारायण का रहने वाला हूं। थोड़े समय के लिए वे कहीं खो गये। फिर कहने लगे-'शिवरीनारायण तो एक साहित्यिक तीर्थ है, मैं वहां की भूमि को सादर प्रणाम करता हूं जहां पंडित मालिकराम भोगहा और पंडित शुकलाल पांडेय जैसे प्रभृति साहित्यिक पुरूषों ने जन्म लिया और जो ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित हीराराम त्रिपाठी, नरसिंहदास वैष्णव और बटुकसिंह चौहान जैसे साहित्यिक महापुरूषों की कार्य स्थली है। मेरे पुज्याग्रज पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद और पंडित लोचनप्रसाद नाव से अक्सर शिवरीनारायण जाया करते थे। उस समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी ठाकुर जगमोहनसिंह वहां के तहसीलदार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सुषमा से प्रेरित होकर अनेक ग्रंथों की रचना ही नहीं की बल्कि यहां के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर लेखन की नई दिशा प्रदान की। उन्होंने काशी के ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर शिवरीनारायण में ''जगमोहन मंडल'' बनाया था। उस काल के साहित्यकारों में पंडित अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, पं. हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, बटुकसिंह चौहान, आदि प्रमुख थे। मेरे अग्रज पंडित लोचनप्रसाद भी शिवरीनारायण जाने लगे थे और उन्होंने मालिकराम भोगहा जी की अलंकारिक शैली को अपनाया भी था। मैं भी उनके साथ शिवरीनारानायण गया तो भगवान जगन्नाथ के नारायणी रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वहां के साहित्यिक परिवेश ने मुझे भी प्रेरित किया..।'
बालपुर और शिवरीनारायण सहोदर की भांति महानदी के तट पर साहित्यिक तीर्थ कहलाने का गौरव हासिल किया है। यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। शिवरीनारायण की पवित्र भूमि में जन्म लेकर मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। महानदी का संस्कार मुझे भी मिला। जब मैं लेखन की ओर उद्यत हुआ तब मुझे महानदी का कलकल निनाद प्रफुल्लित कर देता था। महानदी का सुन्दर वर्णन पांडेय जी के शब्दों में :-
कितना सुंदर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।
कल कलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप॥
     इसके बाद श्रध्देय पांडेय जी से मैं जितने बार भी मिला, मेरा मन उनके प्रति श्रध्दा से भर उठा। उन्होंने भी मुझे बड़ी आत्मीयता से सामीप्य प्रदान किया। संभव है मुझमें उन्हें शिवरीनारयण के साहित्यिक पुरूषों की झलक दिखाई दी हो ? रायगढ़ में ऐसे कई अवसर आये जब मुझे उनका स्नेह भरा सान्निध्य मिला। 01 और 02 मार्च 1986 को पंडित मुकुटधर जी पांडेय के सम्मान में रायगढ़ में गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा छायावाद पुनर्मूल्यांकन गोष्ठी में डॉ. विनयमोहन शर्मा, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, श्री शरदचंद्र बेहार आदि अन्यान्य साहित्यकारों का मुझे सान्निध्य लाभ मिला। इस अवसर पर विश्वविद्यालय द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी को डी.लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक प्रकार से साहित्यिक उत्सव था।
पांडेय जी के सुपुत्र प्रो. दिनेशप्रसाद पांडेय के परिवार का मैं एक सदस्य हो गया। उनके घर अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकारों के पत्र पं. मुकुटधर पांडेय के नाम देखने को मिला जिसमें साहित्य के अनेक बिंदुओं पर चर्चा की गई थी। डॉ. बल्देवसाव, डॉ. बिहारीलाल, ठाकुर जीवनसिंह, प्रो. जी.सी. अग्रवाल आदि के पास श्रध्देय पांडेय जी की रचनाओं को पढ़ने का सुअवसर मिला। पांडेय जी की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह ''विश्वबोध'' और ''छायावाद एवं श्रेष्ठ निबंध'' का संपादन डॉ. बल्देव साव ने किया है और श्री शारदा साहित्य सदन रायगढ़ ने इसे प्रकाशित किया है। इसी प्रकार उनकी कालिदास कृत मेघदूत का छत्तीसगढ़ी अनुवाद छत्तीसगढ़ लेखक संघ रायगढ़ द्वारा प्रकाशित की गई है। पांडेय जी की ''छायावाद एवं अन्य निबंध'' शीर्षक से म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा श्री सतीश चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित कर स्तुत्य कार्य किया है। इसी कड़ी में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा श्रद्धेय पांडेय जी के जन्म शताब्दी वर्ष 1995 के अवसर पर प्रभृति साहित्यकारों की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित कर एक अच्छी परम्परा की शुरूवात की है।
     मुझे हाई स्कूल में मधुसंचय में पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविता ''विश्वबोध'' पढ़ने को मिली थी। इस कविता में ईश्वर का दर्शन और शास्त्रों के अध्ययन का बहुत अच्छा चित्रण मिलता है :-
खोज में हुआ वृथा हैरान।
यहां भी था तू हे भगवान॥
गीता ने गुरू ज्ञान बखाना।
वेद पुराण जनम भर छाना॥
दर्शन पढ़े, हुआ दीवाना।
मिटा न पर अज्ञान ॥
जोगी बन सिर जटा बढ़ाया।
द्वार द्वार जा अलख जगाया॥
जंगल में बहु काल बिताया।
हुआ न तो भी ज्ञान ॥
     ईश्वर को कहां नहीं ढूंढ़ा, मिला तो वे कृषकों और श्रमिकों के श्रम में, दीन दुखियों के श्रम में, परोपकारियों के सात्विक जीवन में और सच्चे हृदय की आराधना में..। कवि की एक बानगी पेश है :-
दीन-हीन के अश्रु नीर में।
पतितो की परिताप पीर में॥
संध्या की चंचल समीर में।
करता था तू गान॥
सरल स्वभाव कृषक के हल में।
पतिव्रता रमणी के बल में॥
श्रम सीकर से सिंचित धन में।
विषय मुक्त हरिजन के मन में॥
कवि के सत्य पवित्र वचन में।
तेरा मिला प्रणाम ॥
     ईश्वर दर्शन पाकर कवि का मन प्रफुल्लित हो उठता है। तब उनके मुख से अनायास निकल पड़ता है:-
देखा मैंने यही मुक्ति थी।
यही भोग था, यही भुक्ति थी॥
घर में ही सब योग युक्ति थी।
घर ही था निर्वाण ॥
     शिवरीनारायण की पावन धरा पर जन्म लेकर मेरा जीवन धन्य हो गया। मेरा यह भी सौभाग्य है कि मैं स्व. गोविंदसाव जैसे साहित्यकार का छोटा पौध हूं। महानदी का स्नेह संस्कार, महेश्वर महादेव की कुलछाया और भगवान नारायण की प्रेरणा से ही मेरी लेखनी आज तक प्रवाहित है। मुझे ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और पं. शुकलाल पांडेय का साहित्य अगर पढ़ने को नहीं मिला होता तो शायद मैं लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता। मित्र श्री वीरेन्द्र तिवारी का मैं अत्यंत आभारी हूं जिनके सहयोग से मैं उनके सत्साहित्य को पढ़ने का सौभाग्य पा सका। पंडित शुकलाल पांडेय ने ''छत्तीसगढ़ गौरव'' में मेरे पितृ पुरूष गोविंदसाव का उल्लेख किया है :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन ।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट छवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि॥
    इसी प्रकार उन्होंने पंडित मुकुटधर पांडेय जी के बारे में भी छत्तीसगढ़ गौरव में उल्लेख किया है -
जगन्नाथ है भानु चंद्र बल्देव यशोधर।
प्रतिभाशाली मुकुट काव्य के मुकुट मनोहर।
पदुमलाल स्वर्गीय सुधा सुरसरी प्रवाहक।
परमकृति शिवदास आशुकवि बुध उर शासक।
ज्वालाप्रसाद सत्काव्यमणी तम मोचन लोचन सुघर।
श्री सुन्दरलाल महाकृति कविता कान्ता वर॥
     आज जब मैं पंडित मुकुटधर जी पांडेय के बारे में लिखने बैठा हूं तो अनेक विचार-संस्मरण मेरे मन मस्तिष्क में उभर रहे हैं।...फिर वह दिन भी आया जब जीवन के शाश्वत सत्य के सामने सबको हार माननी पड़ती है। 06 नवंबर 1989 को प्रात: 6.20 बजे 95 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया। यह मानते हुये भी कि जीवन नश्वर है, मन अतीव वेदना से भर उठा। विगत अनेक वर्षों से रूग्णता और वृद्धावस्था ने उनकी अविराम लेखनी को यद्यपि विराम दे दिया था। फिर भी उनकी सकाय उपस्थिति से साहित्य जगत अपनी सार्थकता देखता था। एक काया के नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु साहित्य मनीषी पंडित मुकुटधर पांडेय किसी भी मायने में एक सामान्य व्यक्ति नहीं थे। पुराना दरख्त किसी को कुछ नहीं देता परन्तु उनकी उपस्थिति मात्र का एहसास मन को सांत्वना का बोध अवश्य करा देता है। साहित्य जगत में श्रद्धेय पांडेय जी की मौजूदगी प्रेरणा का अलख जगाने जैसी नि:शब्द सेवा का विधान किया था। कोई भी यहां अमरत्व का वरदान लेकर नहीं आया है लेकिन केवल देह त्याग ही अमरत्व का अवसान नहीं होता। श्रद्धेय पांडेय जी के महाप्रयाण के संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं होता। शोकातुर करती है तो यह बात कि हिन्दी काव्य में इस मायने में समस्त भारतीय भाषाओं के काव्य में छायावाद की ओजस्वी धारा को सर्जक जनक के नाते पांडेय जी के चिर मौन होने के साथ ही हमारे बीच से छायावाद का अंतिम प्रकाश सदैव के लिए बुझ गया। उन्हीं के शब्दों में :-
जीवन की संध्या में अब तो है केवल इतना मन काम
अपनी ममतामयी गोद में, दे मुझको अंतिम विश्राम
चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर
प्राण प्रतीक्षारत् लूटेंगे, मृत्यु पर्व को सुख भरपूर।
     मैं सोचने लगा -
जिसे हो गया आत्म तत्व का ज्ञान
जीवन मरण उसे है एक समान।
     पांडेय जी ने तो एक एक को जीया है, भोगा है। देखिये उनकी कुछ मुक्तक :-
जीवन के पल पल का रखे ख्याल,
कोई पल कर सकता हमें निहाल।
चलने वाली सांसें है अनमोल,
काश समझ सकते हम इनके बोल।
माना नश्वर है सारा संसार,
पर अविनश्वर का ही यह विस्तार।
     इसी प्रकार उनसे पूर्व छायावाद की अप्रतिम कवयित्री महादेवी वर्मा हमसे छिन जाने वाली इस कड़ी की अंतिम से पहले की कड़ी थी। पहले होने का गौरव तो केवल पांडेय जी का ही था। लेकिन वही अंतिम कड़ी होंगे किसने सोचा और जाना था ? निश्चय ही पांडेय जी ने भी कभी इसकी कल्पना तक नहीं की होगी। छत्तीसगढ़ की माटी से उन्हें अगाध प्रेम था। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नदी-पहाड़, पशु-पक्षी सबसे लगाव था। देखिये छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी की एक बानगी :-
कितना सुंदर और मनोहर महानदी यह तेरा रूप
कलकल मय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप
तुझे देखकर शैशव की है स्मृतियां उर में उठती जाग
लेता है कैशोर काल का, अंगड़ाई अल्हड़ अनुराग
सिकता मय आंचल में तेरे बाल सखाओं सहित समोद
मुक्तहास परिहास युक्त कलक्रीडा कौतुक विविध विनोद।
     इसीलिए अपना ऋण उन्होंने काव्य साधना की दिव्य विधा का संस्थापक बनकर उतारा था। इस धरती ने उन्हें जो कुछ भी दिया उसे उन्होंने साहित्य जगत को लौटाया है। प्रणय की यही संवेदना उनकी कविता का सम्पुट वरदान बनी थी, जिसने भी उसे पढ़ा-सुना उसने दिल से सराहा और स्वीकार किया।
''कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:'' कवि का स्थान बहुत ऊँचा है, ऐसा स्वीकारने वाले इस साहित्य वाचस्पति का कहना है-'' कविता तो हृदय का सहज उद्गार है। वाद तो बदलते रहते हैं पर कविता में एक हृदयवाद होता है जो कभी नहीं बदलता।'' मानव मन में जो भावानुभूति होती है, वही सार्वजनीन है, सर्वकालिक है। ऐसे मानने वाले इस साहित्यानुरागी का जन्म नवगठित जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर चंद्रपुर से मात्र 07 कि.मी. दूर बालपुर में 30 सितंबर 1895 ईसवीं को पंडित चिंतामणी पांडेय के आठवें पुत्र के रूप में हुआ। अन्य भाईयों में क्रमश: पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोेचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे। अत: माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा...?
     पांडेय जी की पहनी कविता ''प्रार्थना पंचक'' 14 वर्ष की आयु में स्वदेश बांधव नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। फिर ढेर सारी कविताओं का सृजन हुआ। यहीं से उनकी काव्य यात्रा निर्बाध गति से चलने लगी और उनकी कविताएं हितकारणी, इंदु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत और सरस्वती जैसे श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई। सन् 1909 से 1915 तक की उनकी कविताएं ''मुरली-मुकुटधर पांडेय'' के नाम से प्रकाशित होती थी। उनकी पहली कविता संग्रह ''पूजाफूल'' सन् 1916 में इटावा के ब्रह्यप्रेस से प्रकाशित हुई। तत्कालीन साहित्य मनीषियों-आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी की प्रशंसा से उन्हें संबल मिला और उनकी काव्यधारा बहने लगी। इसी वर्ष पांडेय जी प्रयाग विश्वविद्यालय की प्रवेशिका में उत्तीर्ण होकर इलाहाबाद चले गये। कवि का किशोर मन बाल्यकाल के छूट जाने से अधीर हो उठता है :-
बाल्यकाल तू मुझसे ऐसी आज विदा क्यों लेता है,
मेरे इस सुखमय जीवन को दुखमय से भर देता है।
     तीन माह के अल्प प्रवास के बाद पांडेय जी अस्वस्थ होकर बालपुर लौट आते हैं और यहीं स्वाध्याय से अंग्रेजी, बंगला और उड़िया भाषा पढ़ना और लिखना सीखा। गांव में रहकर उन्होंने सादगी भरा जीवन अपनाया
छोड़ जन संकुल नगर निवास किया क्यों विजन ग्राम गेह,
नहीं प्रसादों की कुछ चाह, कुटीरों से क्यों इतना नेह।
     उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेम सहज रूप में दर्शनीय है। ''किंशुक कुसुम'' में प्रकृति से उनके अंतरंग लगाव की पद्यबद्दता ने कविता में एक अनोखे भावलोक की सर्जना की है। किंशुक कुसुम से उनकी बातचीत ने प्रकृति का जैसे मानवीकरण ही कर दिया। पांडेय जी महानदी से सीधे बात करते लगते हैं :-
शीतल स्वच्छ नीर ले सुंदर बता कहां से आती है,
इस जल में महानदी तू कहां घूमने जाती है।
    ''कुररी के प्रति'' में एक विदेशी पक्षी से अपनत्व भाव जगाने उनसे वार्तालाप करने लगते हैं। देखिये उनकी एक कविता :-
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप
ऐसी दारूण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप
बता तुझे कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप।
    सामाजिक मूल्यों के उत्थान पतन को भी उन्होंने निकट से देखा और जाना है। ग्रामीण जीवन की झांकी उनकी कविताओं में दृष्टव्य है। उनके मुक्तकों में दार्शनिकता का बोध होता है। त्योहारों को सामान्य लोगों के बीच आकर्षक बनाने का भी उन्होंने प्रयास किया है :-
कपट द्वेष का घट फोड़ेंगे, होली के संग आज
बड़े प्रेम से नित्य रहेंगे हिन्द हिन्द समाज
फूट को लूट भगावेंगे, ऐता का सुख पावेंगे..।
     इस प्रकार मुकुटधर जी का समूचा लेखन जनभावना और काव्य धारा से जुड़ा है। छायावादी कवि होने के साथ साथ उन्होंने छायावादी काव्यधारा से जुड़कर अपनी लेखनी में नयापन लाने की साधना जारी रखी और सतत् लेखन के लिए संकल्पित रहे। यही कारण है कि मृत्युपर्यन्त वे चुके नहीं। उन्होंने सात दशक से भी अधिक समय तक मां सरस्वती की साधना की है। इस अंतराल में पांडेय जी ने जीवन की गति को काफी नजदीक से देखा और भोगा है। उनकी रचनाओं में पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है।
     अनेक दृष्टांत हैं जो मुकुटधर जी को बेहतर साहित्यकार और कवि के साथ साथ मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं। उनका समग्र जीवन उपलब्धियों की बहुमूल्य धरोहर है जिससे नवागंतुक पीढ़ी नवोन्मेष प्राप्त करती रही है। उनकी प्रदीर्घ साधना ने उन्हें ''पद्म श्री'' से ''भवभूति अलंकरण'' तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया है। सन् 1956-57 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ''साहित्य वाचस्पति'' से विभूषित किया गया। सन् 1974 में पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और सन् 1987 में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया है। 26 जनवरी सन् 1976 को भारत सरकार द्वारा ''पद्म श्री'' का अलंकरण प्रदान किया गया। सन् 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ''भवभूति अलंकरण'' प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अंचल के अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया गया है। वास्तव में ये पुरस्कार और सम्मान उनके साहित्य के प्रति अवदान को है, छत्तीसगढ़ की माटी को है जिन्होंने हमें मुकुटधर जी जैसे माटी पुत्र को जन्म दिया है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन....
काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य,
जीवन जिसका एक काव्य, वह धन्य।

देवी उपासना का महापर्व नवरात्र


नवरात्र- नौ दिनों तक देवी उपासना का महापर्व है। गांव और शहरों में जगह जगह शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की आकर्षक प्रतिमा भव्य पंडालों में स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना की जाती है। ग्राम देवी, देवी मंदिरों और ठाकुरदिया में जवारा बोई जाती है, मनोकामना ज्योति प्रज्वलित की जाती है .. हजारों लीटर तेल और घी इसमें खप जाता है। लोगों का विश्वास है कि मनोकामना ज्योति जलाने से उनकी कामना पूरी होती है और उन्हें मानसिक शांति मिलती है। इस अवसर पर देवी मंदिरों तक आने-आने के लिए विशेष बस और ट्रेन चलायी जाती है। इसके बावजूद दर्शनार्थियों की अपार भीड़ सम्हाले नहीं सम्हलता, मेला जैसा दृश्य होता है। कहीं कहीं नवरात्र मेला लगता है। गांव में तो नौ दिनों तक धार्मिक उत्सव का माहौल होता है। शहरों में भी मनोरंजन के अनेक आयोजन होते हैं। कोलकाता और बिलासपुर का दुर्गा पूजा प्रसिद्ध है। दूर दूर से लोग यहां आते हैं। छत्तीसगढ़ में शिवोपासना के साथ शक्ति उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है। मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिषासुर मिर्दनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र शक्ति की प्ररणास्रोत बनीं। शैव धर्म के प्रभाव में बृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय समय पर अलग अलग रूप ग्रहण करती हैं। शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके हाथों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमिर्दनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या शव (चामुण्डा) गर्दभ (शीतला) होते हैं। छत्तीसगढ़ में राजा-महाराजा और जमींदार देवी की प्रतिष्ठा अपने कुल देवी के रूप में कराया था जो आज शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। उनकी कुल देवियां उन्हें न केवल शक्ति प्रदान करती थीं बल्कि उनका पथ प्रदर्शन भी करती थी। छत्तीसगढ़ के राजा-महाराजा और जमींदारों की निष्ठा या तो रत्नपुर या फिर संबलपुर के शक्तिशाली महाराजा के प्रति थी। कदाचित् यही कारण है कि यहां या तो रत्नपुर की महामाया देवी या फिर संबरपुर की समलेश्वरी देवी विराजित हैं। कुछ स्थानीय देवियां भी हैं जैसे- सरगुजा की सरगुजहीन देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, कोसगढ़ की कोसगई देवी, अड़भार की अष्टभुजी देवी, चंद्रपुर की चंद्रहासिनी देवी प्रमुख है इसके अलावा डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, कोरबा की सर्वमंगला, शिवरीनारायण की अन्नपूर्णा, खरौद की सौराइन दाई, केरा, पामगढ़ और दुर्ग की चण्डी देवी, बालोद की गंगा मैया, खल्लारी की खल्लाई देवी, खोखरा और मदनपुर की मनका दाई, मल्हार की डिडनेश्वरी देवी, जशपुर की काली माई, रायगढ़ की बुढ़ी माई, चैतुरगढ़ की महिषासुर मिर्दनी, रायपुर की बंजारी देवी शक्ति उपासना के केंद्र बने हुए हैं। अनेक स्थानों पर ``शक्ति चौरा`` भी बने हुए हैं। शाक्त परंपरा में आदि भवानी को मातृरूप में पूजने की सामाजिक मान्यता है। माताओं और कुंवारी कन्या का शाक्त धर्म में बहुत ऊंचा स्थान है। शादी-ब्याह जैसे मांगलिक अवसरों में देवी-देवताओं को आदरपूर्वक न्यौता देने के लिए देवालय यात्रा का विधान है। इसीप्रकार अकाल, महामारी, भुखमरी आदि को दैवीय प्रकोप मानकर उसकी शांति के लिए धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। तत्कालीन साहित्य में ``बलि`` दिये जाने का उल्लेख मिलता है। आज भी कहीं कहीं पशु बलि दिया जाता है। बहरहाल, शक्ति संचय, असुर और नराधम प्रवृत्ति के लिए मां भवानी की उपासना और पूजा-अर्चना आवश्यक है। इससे सुख, शांति और समृिद्ध मिलती है। ऐसे ममतामयी मां भवानी को हमारा शत् शत् नमन..। 
या देवी सर्व भूतेषु, शक्तिरूपेण संस्थित:। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

छत्तीसगढ़ में गणेश उत्सव की प्राचीन परम्परा

विघ्ननाशक और गणेश या गणपति की सििद्ध विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यों के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुिद्ध के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृिद्ध के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सििद्ध दायक देवता के रूप में मिलती है। गणेश जी के अनेक नाम निम्नानुसार हैं :- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन। सििद्ध सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवत्र्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहुंचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुवा था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने नि:शंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया। ...और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विव्हल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ``गणेश´´ के रूप में जाना जाता है। गणेश चतुर्थी को पूरे देश में गणेश जी प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। गणेश जी ही ऐसे देवता हैं जिनकी घरों में और सार्वजनिक रूप से प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। चतुर्थी से लेकर अनंत चौदस तक उत्सव जैसा माहौल होता है। सभी स्थानों में आर्कस्ट्रा, नाच-गाना, गम्मत आदि अनेक कार्यक्रम कराये जाते हैं। छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं होता। पहले रायपुर में गणेश पूजन और सांस्कृतिक कार्यक्रम बृहद स्तर पर होता था। लोग यहां के आयोजन को महाराष्ट्र के गणेश पूजन से तुलना करतते थे और दूर दूर से यहां गणेश पूजन देखने आते थे। लेकिन अब छत्तीसगढ़ के प्राय: सभी स्थानों में गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा है। छत्तीसगढ़ प्राचीन काल से त्यौहारों और पर्वो में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए विख्यात् रहा है। यहां के राजे-रजवाड़ों में सार्वजनिक गणेश पूजन और आयोजन से उत्सव जैसा माहौल हुआ करता था। रायगढ़ का गणेश पूजन पूरे छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश में विख्यात् था। छत्तीसगढ़ के पूर्वी छोर पर उड़ीसा राज्य की सीमा से लगा आदिवासी बाहुल्य जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थित है। दक्षिण पूर्वी रेल लाइन पर बिलासपुर संभागीय मुख्यालय से 133 कि. मी. और राजधानी रायपुर से 253 कि. मी. की दूरी पर स्थित यह नगर उड़ीसा और बिहार प्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य, नदी-नाले, पर्वत श्रृंखला और पुराताित्वक सम्पदाएं पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र हैं। रायगढ़ जिले का निर्माण 01 जनवरी 1948 को ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के पूर्व पांच रियासतों क्रमश: रायगढ़, सारंगढ़, जशपुर, उदयपुर और सक्ती को मिलाकर किया गया था। बाद में सक्ती रियासत को बिलासपुर जिले में सिम्मलित किया गया। केलो, ईब और मांड इस जिले की प्रमुख नदियां है। इन पहािड़यों में में प्रागैतिहासिक कान के भिित्त चित्र सुरक्षित हैं। आजादी और सत्ता हस्तांतरण के बाद बहुत सी रियासतें इतिहास के पन्नों में कैद होकर गुमनामी के अंधेरे में खो गये। लेकिन रायगढ़ रियासत के राजा चक्रधरसिंह का नाम भारतीय संगीत कला और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। राजसी ऐश्वर्य, भोग विलास और झूठी प्रतिष्ठा की लालसा से दूर उन्होंने अपना जीवन संगीत, नृत्यकला और साहित्य को समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्हें कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन रहना पड़ा। लेकिन 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे भारत में फैल गयी। यहां के निष्णात् कलाकार अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिताओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर पुरस्कृत होते रहे। इससे पूरे देश में छत्तीसगढ़ जैसे सुदूर वनांचल राज्य की ख्याति फैल गयी।गणेश मेले की शुरूवात :- रायगढ़ में ``गणेश मेले´´ की शुरूवात कब हुई इसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता। मुझे मेरे घर में रायगढ़ के राजा विश्वनाथ सिंह का 8 सितंबर 1918 को लिखा एक आमंत्रण पत्र माखनसाव के नाम मिला है जिसमें उन्होंने गणेश मेला उत्सव में सिम्मलित होने का अनुरोध किया गया है। इस परम्परा का निर्वाह राजा भूपदेवसिंह भी करते रहे। पंडित मेदिनी प्रसाद पांडेय ने `गणपति उत्सव दर्पण` लिखा है। 20 पेज की इस प्रकािशत पुस्तिका में पांडेय जी ने गणेश उत्सव के अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों को छंदों में समेटने का प्रयास किया है। गणेश चतुर्थी की तिथि तब स्थायी हो गयी जब कुंवर चक्रधरसिंह का जन्म गणेश चतुर्थी को हुआ। बालक चक्रधरसिंह के जन्म को चिरस्थायी बनाने के लिए `चक्रधर पुस्तक माला` के प्रकाशन की शुरूवात की थी। इस पुस्तक माला के अंतर्गत पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय के कुशल संपादन में पंडित अनंतराम पांडेय की रचनाओं का संग्रह `अनंत लेखावली` के रूप में नटवर प्रेस रायगढ़ से प्रकािशत किया गया था। कहते हैं रायगढ़ रियासत के राजा जुझारसिंह ने अपने शौर्य और पराक्रम से राज्य को सुदृढ़ किया, राजा भूपदेवसिंह ने उसे श्री सम्पन्न किया और राजा चक्रधरसिंह ने उसे संगीत, कला, नृत्य और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में ख्याति दिलायी।नान्हे महाराज से चक्रधर सिंह तक का सफर :- दरअसल रायगढ़ दरबार को संगीत, नृत्य और कला के क्षेत्र में ख्याति यहां बरसों से आयोजित होने वाले गणेश मेला उत्सव में मिली। बाद में यह जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। क्योंकि इस दिन (19 अगस्त सन् 1905 को) रायगढ़ के आठवें राजा भूपदेवसिंह के द्वितीय पुत्र रत्न के रूप में चक्रधरसिंह का जन्म हुआ। वे तीन भाई क्रमश: श्री नटवरसिंह, श्री चक्रधरसिंह और श्री बलभद्रसिंह थे। चक्रधरसिंह को सभी ``नान्हे महाराज´´ कहते थे। उनका लालन पालन यहां के संगीतमय और साहिित्यक वातावरण में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा रायगढ़ के मोती महल में हुई। आठ वर्ष की आयु में सन् 1914 में उन्हें रायपुर के राजकुमार कालेज में दखिल कराया गया। नौ वर्ष तक वहां के कड़े अनुशासन में विद्याध्ययन करने के बाद सन 1923 में प्रशासनिक ट्रेनिंग के लिए छिंदवाड़ा चले गये। कुशलता पूर्वक वहां की प्रशासनिक ट्रेनिंग पूरा करके रायगढ़ लौटने पर उनका विवाह बिंद्रानवागढ़ के जमींदार की बहन से हुआ। जिनके गर्भ से श्री ललित कुमार सिंह, श्री भानुप्रताप सिंह, मोहिनी देवी और गंधर्वकुमारी देवी का जन्म हुआ। 15 फरवरी 1924 को राजा नटवरसिंह की असामयिक मृत्यु हो गयी। चूंकि उनका कोई पुत्र नहीं था अत: रानी साहिबा ने चक्रधरसिंह को गोद ले लिया। इस प्रकार श्री चक्रधरसिंह रायगढ़ रियासत की गद्दी पर आसीन हुए। 04 मार्च सन् 1929 में सारंगढ़ के राजा जवाहरसिंह की पुत्री कुमारी बसन्तमाला से राजा चक्रधरसिंह का दूसरा विवाह हुआ जिसमें शिवरीनारायण के श्री आत्माराम साव सिम्मलित हुए। मैं उनका वंशज हूं और मुझे इस विवाह का निमंत्रण पत्र मेरे घर में मिला। उनके गर्भ से सन 1932 में कुंवर सुरेन्द्रकुमार सिंह का जन्म हुआ। उनकी मां का देहांत हो जाने पर राजा चक्रधरसिंह ने कवर्धा के राजा धर्मराजसिंह की बहन से तीसरा विवाह किया जिनसे कोई संतान नहीं हुआ।नृत्य, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी के रूप में :- राजा बनने के बाद चक्रधरसिंह राजकीय कार्यों के अतिरिक्त अपना अधिकांश समय संगीत, नृत्य, कला और साहित्य साधना में व्यतीत करने लगे। वे एक उत्कृष्ट तबला वादक, कला पारखी और संगीत प्रमी थे। यही नहीं बल्कि वे एक अच्छे साहित्यकार भी थे। उन्होंने संगीत के कई अनमोल ग्रंथों, दर्जन भर साहिित्यक और उर्दू काव्य तथा उपन्यास की रचना की। उनके दरबार में केवल कलारत्न ही नहीं बल्कि साहित्य रत्न भी थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री भगवतीचरण वर्मा, पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, श्री रामेश्वर शुक्ल ``अंचल´´, डॉ. रामकुमार वर्मा और पं. जानकी बल्लभ शास्त्री को यहां अपनी साहिित्यक प्रतिभा दिखाने और पुरस्कृत होने का सौभाग्य मिला। अंचल के अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार जिनमें पं. अनंतराम पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. लोचनप्रसाद पांडेय, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और ``पद्मश्री´´ पं. मुकुटधर पांडेय आदि प्रमुख थे, ने यहां साहिित्यक वातावरण का सृजन किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र रायगढ़ दरबार में दीवान रहे। श्री आनंद मोहन बाजपेयी उनके निजी सचिव और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके पथ प्रदर्शक थे। इनके सानिघ्य में राजा चक्रधर सिंह ने कई पुस्तकों की रचना की। उनमें बैरागढ़िया राजकुमार, अल्कापुरी और मायाचक्र (सभी उपन्यास), रम्यरास, रत्नहार, रत्नमंजूषा (सभी काव्य), काव्य कानन (ब्रज काव्य), जोशे फरहत और निगारे फरहत (उर्दू काव्य) आदि प्रमुख है। इसके अलावा नर्तन सर्वस्वम, तालतोयनिधि, रागरत्नमंजूषा और मुरजपरन पुष्पाकर आदि संगीत की अनमोल कृतियों का उन्होंने सृजन किया है।रायगढ़ कत्थक घराने के साक्षी :- जयपुर घराने के पंडित जगन्नाथ प्रसाद पहले गुरू थे जिन्होंने यहां तीन वर्षो तक कत्थक नृत्य की शिक्षा दी। इसके पश्चात् पं. जयलाल सन् 1930 में यहां आये और राजा चक्रधर सिंह के मृत्युपर्यन्त रहे। कत्थक के प्रख्यात् गुरू और लखनऊ घराने से सम्बद्ध पं. कालिकाप्रसाद के तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज यहां बरसों रहे। बिंदादीन महाराज के शिष्य सीताराम जी भी यहां रहे। उस्ताद कादर बख्श, अहमद जान थिरकवा जैसे सुप्रसिद्ध तबला वादक यहां बरसों रहे। इसके अतिरिक्त मुनीर खां, जमाल खां, करामत खां और सादिक हुसैन आदि ने भी तबले की शिक्षा देने रायगढ़ दरबार में आये थे। कत्थक गायन के लिये हाजी मोहम्मद, अनाथ बोस, नन्हें बाबू, धन्नू मिश्रा और नासिर खां भी यहां रहे। इसके अलावा राजा बहादुर ने अपने दरबार में देश-विदेश के चोटी के निष्णात कलाकारों और साहित्यकारों को यहां आमंत्रित करते थे। उनके कुशल निर्देशन में यहां के अनेक बाल कलाकारों को संगीत, नृत्यकला और तबला वादन की शिक्षा मिली और वे देश विदेश में रायगढ दरबार की ख्याति को फैलाये। इनमें कार्तिकराम, कल्याणदास, फिरतूदास और बर्मनलाल की जोड़ी ने कत्थक के क्षेत्र में रायगढ़ दरबार की ख्याति पूरे देश में फैलाये। निश्चित रूप से ``रायगढ़ कत्थक घराना´´ के निर्माण में इन कलाकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। शासन द्वारा प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी से `चक्रधर समारोह` का आयोजन किया जाता है। इस समारोह में देश के कोने कोने से कलाकारों का आमंत्रित कर सांस्कृतिक कार्यक्रम कराये जाते हैं।चांपा में रहस से गम्मत तक का सफर :-इसी प्रकार चांपा में भी गणेश उत्वस मनाये जाने का उल्लेख मिलता है जिसका बिखरा रूप आज भी यहां अनेत चौदस को देखा जा सकता है। चाम्पा, छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत दक्षिण पूर्वी रेल्वे का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो 22 अंश उत्तरी अक्षांश और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र सतह से 500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहािड़यां, मदनपुर की झांकियां, बिछुलवा नाला, केरा झरिया, हनुमानधारा और पीथमपुर के छोटे-बड़े मंदिर चाम्पा को दर्शनीय बनाते हैं। यहां का रामबांधा देव-देवियों के मंदिरों से सुशोभित और विशाल वृक्षों से परिवेिष्ठत और राजमहल का मनोरम दृश्य है। यहां मित्रता के प्रतीक समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ उिड़या संस्कृति की साक्षी हैं। डोंगाघाट स्थित श्रीराम पंचायत, वीर बजरंगबली, राधाकृष्ण का भव्य मंदिर, तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया और मनिकादेवी, हनुमानधारा में हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कलेश्वरनाथ का मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी का मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति कर जीता जागता उदाहरण है। चांपा जमींदारी का अपना एक उज्जवल इतिहास है। यहां के जमींदार शांतिप्रिय, प्रजावत्सल और संगीतानुरागी थे। धार्मिक और उत्सवप्रिय तो वे थे ही, कदाचित् यही कारण है कि चांपा में नवरात्रि में समलेश्वरी, मदनपुर में महामाया देवी और मनिका माई, रथ द्वितीया में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की रथयात्रा, जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, रासलीला और गणेश चतुर्थी से गणेश पूजा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। गणेश पूजा उत्सव रायगढ़ के गणेश मेला के समान होेता है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अनूठा होता है। यहां का ``रहस बेड़ा´´ उस काल की कलाप्रियता का साक्षी है। पहले गणेश उत्सव रहसबेड़ा में ही होता था। यूं तो रहसबेड़ा चांपा के आसपास अनेक गांव में है जहां भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन होता है। लेकिन जमींदारी का सदर मुख्यालय होने के कारण यहां का रहसबेड़ा कलाकारों को एक मंच प्रदान करता था जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होता था। यहां पर अनेक प्रकार के गम्मत, रामलीला, रासलीला, नाटक, नृत्य आदि का आयोजन किया जाता था। आज इस प्रकार के आयोजन गली-मुहल्ले, चौराहों में बेतरतीब ढंग से होता है। आपपास के गांवों से हजारों लोग इसे देखने आते हैं। भीड़ इतनी अधिक होती है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। खासकर अनंत चौदस को तो रात भर अन्यान्य कार्यक्रम होते हैं। चाम्पा में गणेश उत्सव की शुरूवात जमींदार श्री नारायण सिंह के शासन काल में शुरू हुआ। वे संगीतानुरागी, धर्मप्रिय और प्रजावत्सल थे। उन्होंने ही यहां जगन्नाथ मंदिर का निर्माण आरंभ कराया जिसे उनके पुत्र प्रेमसिंह ने पूरा कराया। इनके शासनकाल में ही यहां रायगढ़ के गणेश मेला के बाद सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा गणेश उत्सव होता था। नारायण सिंह के बाद प्राय: सभी जमींदारों ने इस उत्सव को जारी रखा। उस काल के गणेश उत्सव का बखान लोग आज भी करते नहीं अघाते। महल परिसर में गणेश जी की भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती थी। इसके अलावा सोनारपारा, देवांगनपारा के चौराहों में गणेश जी की प्रतिमा रखी जाती थी। आसपास के गांवों की गम्मत पार्टी, नृत्य मंडली, रामलीला और रासलीला की मंडली यहां आती थी। अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। लगभग 15 दिन तक उत्सव का माहौल होता था। उस समय यहां दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर, कमरीद, बलौदा, अकलतरा, नरियरा, कोसा, कराईनारा, रायखेड़ा, गौद, पिसौद और शिवरीनारायण आदि अनेक स्थानों से सांस्कृतिक मंडलियां यहां आती थी। कमरीद के बिजली बेलन गम्मत मंडली के प्रमुख धरमलाल गीतकार ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। वे अक्सर गाते थे :- ` ए हर नोहे कछेरी, हाकि मन बैठे बैठे खेलत हेगरि...।´ इस प्रकार उनकी गीतों में व्यंग्य का पुट होता था। दादू सिंह का रासलीला और गम्मत यहां बहुत सराहे जाते थे। नरियरा के ठाकुर विशेश्वरसिंह, रायगढ़ के भीखमसिंह, पंडित कार्तिकराम और बर्मनलाल जैसे चोटी के कलाकार, कत्थक नर्तक, तबला वादक और संगीतकार यहां शिरकत करने आते थे। इस आयोजन का पूरा खर्च जमींदार अपने खजाने से वहन करते थे। चाम्पा के जमींदार श्री रामशरणसिंह के शासनकाल में यहां का गणेश उत्सव चरम सीमा पर था। इस आयोजन में इतना खर्च हुआ कि सन् 1926 में चाम्पा जमींदारी को ``कोर्ट ऑफ वार्ड्स´´ घोषित कर दिया गया। उन्होंने ही यहां `रहस बेड़ा´ का निर्माण कराया था। अनंत चतुर्दशी को विसर्जन पूजा के बाद नगर की सभी गणेश प्रतिमाएं महल में लायी जाती थी और एक साथ बाजे-गाजे और करमा नृत्य मंडली के नृत्य के साथ पूरे नगर का भ्रमण करती हुई डोंगाघाट पहुंचकर हसदो नदी में विसर्जित कर दी जाती थी। आज भी यहां बहुत संख्या में नृत्य मंडली, गम्मत पार्टी, आर्केष्ट्रा और छत्तीसगढ़ी नाचा आदि का आयोजन होता है। इस आयोजन से आवागमन पूरी तरह से अवरूद्ध हो जाता है। स्थानीय सांस्कृतिक, सामाजिक संस्थाएं और प्रशासन के संयुक्त प्रयास से इसका व्यवस्थित रूप से आयोजन एक सार्थक प्रयास होग....।

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

शिवरीनारायण में महानदी की विनाश लीला


मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारंभिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति में ये जीवनदायिनी मां की तरह पूजनीय हैं। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा है। सभी नदियां भले ही अलग अलग नामों से प्रसिद्ध हैं लेकिन उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी, ताप्ती, क्षिप्रानदी के समान पवित्र और मोक्षदायी मानी गयी है। कदाचित् इन्हीं नदियों के तट पर स्थित धार्मिक स्थल तीर्थ बन गये..। सूरदास भी गाते हैं :-
                      हरि-हरि-हरि सुमिरन करौं। 
                      हरि चरनार विंद उर धरौं।
                      हरि की कथा होई जब जहां,
                      गंगा हू चलि आवै तहां।।
                      जमुना सिंधु सरस्वति आवै,
                      गोदावरी विलंबन लावै।
                      सब तीरथ की बासा तहां,
                      सूर हरि कथा होवै जहां।।

             भारत की प्रमुख नदियों में महानदी भी एक है। इसे ''चित्रोत्पला-गंगा'' भी कहा जाता है। इसका उद्गम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेशवर महादेव और अंतिम छोर में चित्रा-माहेश्वरी देवी स्थित हैं। कदाचित् इसी कारण महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गयी है :-
                      उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा महेश्वरी।
                      चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी।।

            सोमेश्वरदेव के महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला-गंगा कहा गया है :-
                      यस्पाधरोधस्तन चन्दनानां
                      प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
                      चित्रोत्पला स्वर्णावती गता पि
                      गंगोर्भि संसक्तभिवाविमाति।।

महानदी के उद्गम स्थल को ''विंध्यपाद'' कहा जाता है। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर संकेत करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपापहरा, शुभा आदि कहा गया है :-
                      नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
                      चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा शुभा।।

            महानदी को ''गंगा'' कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी। कौशलेन्द्र महाशिवगुप्त ययाति ने एक ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला के नाम से संबोधित किया है :-
                      चित्रोत्पला चरण चुम्बित चारूभूमो
                      श्रीमान कलिंग विषयेतु ययातिषुर्याम्।
                      ताम्रेचकार रचनां नृपतिर्ययाति
                      श्री कौशलेन्द्र नामयूत प्रसिद्ध।।

            १७ वीं शताब्दी के महाकवि गोपाल ने भी महानदी को ''अति पुण्या चित्रोत्पला'' माना है
                      पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
                      अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।

            इसी प्रकार स्कंध पुराण में ''पुरूषोत्तम क्षेत्र'' की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए महानदी को माध्यम बनाया गया है :-
                      ऋषिकुल्या समासाद्या दक्षिणोदधिगामिनीम्।
                      स्वर्णरेखा महानद्यो मध्ये देश: प्रतिष्ठित: ।।

            अर्थात् पुरूषोत्तम क्षेत्र स्वर्णरेखा से महानदी तक विस्तृत रूप से फैला है, उसके दक्षिण में ऋषिकुल्या नदी स्थित है।
            महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर लिखते हैं :- ''चित्रोत्पला शब्द में दो युग्म शब्द है-चित्रा और उप्पल। उप्पल का शाब्दिक अर्थ है- नीलकमल, और चित्रा गायत्री स्वरूपा महाशक्ति का नाम है। चित्रा को ऐश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। राजिम क्षेत्र कमल या पदम क्षेत्र के रूप में विख्यात् है। राजिम को ''श्री संगम'' कहा जाता है। ''श्री'' का अर्थ ऐश्वर्य या महालक्ष्मी जिसका कमल आसन है। महानदी के तट पर ''श्रीसंगम'' राजिम में स्थित विष्णु भगवान का प्रतिरूप ''राजीवलोचन'' या राजीवनयन विराजमान हैं। राजीव का अर्थ भी कमल या उप्पल होता है। यहां स्थित ''कुलेश्वर महादेव'' उत्पलेश्वर कहलाते हैं। शब्द कल्पदुम के अनुसार महानदी के उद्गम को ''पद्मा'' कहा गया है- ''सा पद्मया विनिसृता राम पुराख्याग्रामात पश्चिम उत्तर दिग्गता।''
मार्कण्डेय और वायुपुराण में महानदी को ''मंदवाहिनी'' कहा गया है और उसे शुक्तिमत पर्वत से निकली बताया गया है। लेकिन महानदी धमतरी जिलान्तर्गत सिहावा (नगरी) से निकलकर ९६५ कि. मी. की दूरी तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी है। इस नदी के उपर गंगरेल और हीराकुंड बांध बनाया गया है। इन बांधों के पानी से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है, साथ ही बुरला-संबलपुर में बिजली का उत्पादन भी होता है। महानदी के रेत में सोना मिलने का भी उल्लेख मिलता है। इस नदी में अस्थि विसर्जन भी होता है। गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है। गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली बाल्मिकी आश्रम स्थित था। इसी प्रकार चंद्रपुर में मां चंद्रसेनी और संबलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई ''रोहिणी कुंड'' है जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिद्ध प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसकी महिमा गाते हैं :-
                       रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
                      योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।

            प्राचीन कवि बटुकसिंह चौहान ने तो रोहिणी कुंड को ही एक धाम माना है। देखिए एक बानगी :-
                      रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर,
                      बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।
                      जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम,
                      बटुक सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण।।

            भारतेन्दु युगीन रचनाकार पंडित हीराराम त्रिपाठी ''शिवरीनारायण माहात्म्य'' में लिखते हैं
                      चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
                      बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम।।

 शिवरीनारायण में प्रलय और ठाकुर जगमोहनसिंह :-
महानदी के तट पर अवस्थित पवित्र नगर शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से ६० कि. मी., बिलासपुर से ६४ कि. मी., कोरबा से ११० कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ ११० कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार १२० कि. मी. की दूरी पर स्थित है और ''गुप्तधाम'' के रूप में ''पांचवां धाम'' कहलाता है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग और जगन्नाथ पुरी कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहां भगवान जगन्नाथ पधारते हैं। इस दिन महानदी स्नान कर उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। इसी प्रकार राजिम में भगवान राजीव लोचन का दर्शन ''साक्षी गोपाल'' के रूप में किया जाता है। खरौद में भगवान लक्ष्मणेश्वर का दर्शन काशी के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार चंद्रपुर की चंद्रसेनी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी का दर्शन शक्ति दायक होता है।
            प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले के अनेक ग्रामों में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस, औरेलियस और अन्टीनियस के शासन काल के सोने के सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार महानदी सोना और हीरा प्राप्ति के लिए विख्यात् रही है। आज भी ''सोनाहारा'' जाति के लोग महानदी के रेत से सोना निकालते हैं। सोनपुर नगर का नामकरण सोना मिलने के कारण है। संबलपुर के हीरकुंड क्षेत्र में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है। वराहमिहिर की बृहद संहिता में कोसल में हीरा मिलने का उल्लेख है जो शिरीष के फूल के समान होते हैं :- ''शिरीष कुसुमोपम च कोसलम्'' मिश्र के प्रख्यात् ज्योतिषी टालेमी ने कोसल के हीरों का उल्लेख किया है। रोम में महानदी के हीरों की ख्याति थी।.... तभी तो पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय छत्तीसगढ़ की वंदना करते हुए लिखते हैं :-
                      महानदी बोहै जहां होवै धान बिसेस।
                      जनमभूम सुन्दर हमर अय छत्तीसगढ़ देस।।
                      अय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
                      राज रतनपुर जहां रहिस जस दूसर कासी।।
                      सोना-हीरा के जहां मिलथे खूब खदान।
                      हैहयवंसी भूप के वैभव सुजस महान।।

            छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी महानदी में हर साल बाढ़ आती है जिससे जन-धन और फसल नष्ट होता है, चारों तरफ बाढ़ से विनाश ही विनाश दिखाई देता है। हालांकि इस नदी में गंगरेल, रूद्री और हीराकुंड बहुउद्देशीय बांध बनाया गया है लेकिन अत्याधिक वर्षा से बांधों से पानी छोड़े जाने के कारण भी कृत्रिम बाढ़ आ जाती है। इससे जन जीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। सन् १८८५ में महानदी में आई बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हों गया था। तब शिवरीनारायणके तत्कालीन तहसीलदार और भारतेन्दुकालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह ने उन दृश्यों को समेटकर 'प्रलय' खंडकाव्य की रचना की थी। उन्होंने लिखा है :-
                      प्रलय कथा शवरीनारायण की विस्तार सुनायो।
                      जो प्रतच्छ मन सुच्छ देखि निज नैनन सो प्रकटायो।। ११० ।।
                      जेठ शुक्ल शिव वासर गनपति तिथि पुनि अहि सेनानी।
                      क्रम सो अम्ब सुमार वार मुनि सम्बत दल पहिचानी।। १११ ।।
                      पक्ष वेद ग्रह इन्दु प्रलय दिन जो वा पुर में होई।
                      इकइस बाइस तेइस जूनहिं अंगरेजी तिथि सोई।। ११२ ।।
                      एक सहस वसुशत पच्चासी सन ईसा को जानो।
                      द्यौस तीन विकराल विपति गुनि संकट विकट बखानो।। ११३ ।।

            २१, २२ और २३ जून १८८५ को हुई बरसात से महानदी में आई बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा      दृश्य उपस्थित हो गया था। ठाकुर साहब लिखते हैं कि हमने जो दृश्य देखा उसी का यह वर्णन है, इसमें कोई       अतिश्योक्ति नहीं है। सार छंद की एक बानगी पेश है :-
                      ऐसी दशा विचित्र हाय हम आंखिन देखी पूरी।
                      महानदी निज नाम प्रेम यह दिखरायो न अधूरी।। ९८ ।।
                      इक धारा बाजार में आई दक्खिन सौं अति भारी।
                      दूजी पिचम सो बहि मिल कै वेग जासु अविचारी।। ९९ ।।
                      तीजी धार उतरतै चलिकै संगम इनसो भयो।
                      मनहु त्रिवेनी तीरथ पावन बिनु प्रयाग इत आयो ।। १०० ।।

            इस बाढ़ से जन और धन की बड़ी हानि हुई थी। देखिये इस दृश्य को ठाकुर साहब ने सार छंद में प्रस्तुत किया है :-
                      कैयक सहस हानि मुद्रा की पुरजन ओ व्यापारी।
                      सह्यो कलेस द्वार घर नसकै रोवत फिरैं दुखारी ।।
                      दिन तीजे दस बजे रात सौं घट्यो सलिल क्रम क्रम सों।
                      गयो प्रात लो थिर संसारा छूटे सब जिय भ्रम सों।।
                      लगे बटोरन निज सामग्री टूटी फटी हिरानी।
                      मनहु उतरि मद गयौ छिनक में प्रकृति पाय सुख सानी।।
                      बह्यो गल्यौ मिटि गयो नीर बिच सोन मिलै अब हेरे।
                      भयौ काल कवलित सब भाई अजब करम गति पेरे।।
                      कहँ लौं कहौं हानि दुख जो कुछ प्रजा सुगन जिय झेले।
                      कहँ लौं कहौं विलाप ताप तिन विपति भई वग मेले।।
                      रहो आस मन गावन सारी दशा जोन मैं देखी।
                      जब शबरीनारायण वासी पुरवासिन की पेखी।। १०६ ।।

            बाढ़ के कारण शिवरीनारायणकी गली मुहल्लों में नाव चलने लगी और जिस प्रकार काशमीर की झील में हाउस बोट होते हैं और वहां जाने के लिए नाव होता है, ठीक वैसा ही दृश्य यहां भी देखने को मिला। देखिये एक कुंडलियां की बानगी :-
                      धाई चलत बाजार में नांव पोत २ जल सोत
                      तनक छिनक को रह्यो काशमीर छवि होत
                      काशमीर छवि होत द्वार द्वारन पह डोंगा
                      अरत करत पुकार कंपत तन धन गत सोगा
                      मठ दरवाजे, पैठ लहर मंदिर बिच आई
                      जहँ छाती लौ नीर धार सुइ तीरहिं धाई।। ५१ ।।

            इस बाढ़ से यहां का जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया, घर-द्वार टूट फूट गये और अपनी जान बचाने के लिए यहां के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा और महंत अर्जुनदास की शरण में जाने लगे। देखिये एक बानगी-
                      पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस
                      त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास
                      छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी
                      काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी
                      तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी
                      धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी।। ५२ ।।
                      कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह
                      कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह
                      शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टार्यौ
                      भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबार्यौ
                      श्रोवत कोठ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ
                      कोउ निज धन वार नास लखि बिलपति कोऊ।। ५३ ।।

            बाढ़ से तहसील कार्यालय भी डूब गया और वहां के कागजात बह गये, तब अंग्रेज सरकार ने शिवरीनारायणको ''बाढ़ क्षेत्र'' घोषित कर पूरा गांव खाली करने का आदेश दे दिया। गांव तो खाली नहीं हुआ अलबत्ता सन् १८९१ में तहसील कार्यालय शिवरीनारायण से उठकर जांजगीर जरूर आ गया।
                      भूपर कूप जगत के ऊपर हाथक है जल आयो।
                      टोरि फोर दीवार मध्य गृह फाटक को खटकाओ।। ३६ ।।
                      पुनि तसहसील बीच जहँ बैठत न्यायाधीश अधीशा।
                      कोश कूप (क) पर भूप रूप लो तहँ पैठ्यो जलधीशा।। ३७ ।।

            महानदी की विनाश लीला की एक बानगी पेश है :-
                      शिवरीनारायण सुमरि भाखौं चरित रसाल।
                      महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।। १ ।।
                      अस न भयो आगे कबहुं भाखैं बूढ़े लोग।
                      जैसो वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।। २ ।।
                      शिव के जटा विहारिनी वही सिहावा आय।
                      गिरि कंदर मंदर सबै टोरि फोरि जल जाय।। ३ ।।

            कुल मिलाकर इस बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हो गया। सक्षम मालगुजार, महंत और भोगहा जी प्रजा के सहायतार्थ अपने भंडार खोल दिये। एक सामंत का अपने प्रजा के प्रति ऐसी उदारता बहुत कम देखने को मिलती है। तब यहां के तत्कालीन तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह ने पंडित यदुनाथ भोगहा को पुरस्कृत करने के लिए प्रशासन को लिखा था।
                      पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय।
                      अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय।। ६३ ।।
                      बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस।
                      गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबार्यौ ईश।। ६४ ।।
                      प्रजा पास तव नाव चलाई। यदूनाथ चहुँचो तहँ जाई।
                      त्राहि त्राहि सब कह्यो बनाई। भल अवसर तुम आयो भाई।। ७१ ।।
                      दु:ख भंजन उपकार घनेरे। करे कौन जग तुअ सम मेरे।
                      कौन दरद दुख दारून दारै। कौन कलेस करोर पछारै।। ७२ ।।
                      इमि कहि परे चरन अकुलाई। तब भोगहा तिन बोध्यौ आई।
                      करहु न तुरा धरहु मन धीरा। रमानाथ सुमिरहु बलबीरा।। ७३ ।।
                      सो समरथ सब लायक ईशा। जाके चार होत अवनीशा।
                      मनुज हाथ है कह जग करई। भाशक पात जल उदर जु भरई।। ७४ ।।
                      धन्य धन्य महिमा असुरारी। धन्य धन्य भुजबल जग भारी।
                      सो समरथ सब हरत कलेशा। भजत रहत नहिं पुनि दुख लेशा।। ७५ ।।
                      जय जय रमानाथ जग पालन। जय दुख हरन करन सुख भावन।
                      जय शिवरीनारायण जय जय। जय कमलासन त्रिभुवनपति जय।। ७६ ।।

            जगमोहनसिंह, विजयराघवगढ़ के राजकुमार थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारस में हुई, भारतेन्दु         हरिशचंद्र उनके सहपाठी और मित्र थे। वे एक उत्कृष्ट कवि, उपन्यासकार और आलोचक थे। छत्तीसगढ़ में वे सन् १८८० से १८८७ तक थे। धमतरी के बाद शिवरीनारायणमें वे पांच साल रहे। यहां उन्होंने लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी है। सज्जनाष्टक, प्रलय, श्यामा सरोजनी, श्यामालता, श्यामा स्वप्न आदि उनकी बहुचर्चित किताबें हैं।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

हसदो नदी के तीर में, कालेश्वरनाथ भगवान

          छत्तीसगढ़ प्रांत में भी ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग सदृश्य काल कालेश्वर महादेव के मंदिर हैं जिनके दर्शन, पूजन और अभिषेक आदि करने से सब पापों का नाश हो जाता है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से 11 कि.मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र 8 कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर स्थित पीथमपुर का कालेश्वरनाथ भी एक है। जांजगीर के कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल ने ‘‘शिवरीनारायण और सात देवालय‘‘ में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्ष में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चूंकि राजा अंगराज बहुत ही सहिष्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अतः उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत शरीर की ऋषि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूष का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋषि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूष महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतध्र्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूष ने जिस कालेश्वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृश्य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को दर्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन 1954 में प्रकाशित श्री कलेश्वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-                  
                      तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।
                     शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।

                      प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।
                      बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।
                      सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।
                      यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।
                      यही विघि शिक्षा देते आवत।
                      सकल वंश शिवभक्त कहावत।।
              कहना न होगा हीरासाय का पूरा वंश शिवभक्त हुआ और मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार पाया।  श्री प्यारेलाल गुप्त ने भी ‘प्राचीन छत्तीसगढ़‘ में हीरासाय को पीथमपुर के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना कर पेट रोग से मुक्त होना बताया हैं। उन्होंने खरियार (उड़ीसा) के राजा को भी पेट रोग से मुक्त करने के लिए पीथमपुर यात्रा करना बताया हैं। बिलासपर वैभव और बिलासपुर जिला गजेटियर में भी इसका उल्लेख हैं। लेकिन जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के काले”वरनाथ (अपभ्रंष कलेश्वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिषेक करने से वंश की अवश्य वृद्धि होती है। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर कालेश्वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश  वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व 36 वर्ष की अल्पायु में सन् 1912 में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी।
             यहां एक किंवदंति और प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्ष अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्ष जमीन पर लोट मारते दर्शन करने यहां जाते हैं। पीथमपुर के काल कालेश्वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चैहान ने ‘शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा‘ नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है ः-
                       हसदो नदी के तीर में, कलेश्वरनाथ भगवान।
                       दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।
                       फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।
                       काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।
                       बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।
                       सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चैहान।।
              पीथमपुर के कालेश्वरनाथ मंदिर की दीवार में लगे शिलालेख के अनुसार श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार कच्छ कुम्भारीआ ने इस मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदि 2, संवत् 1755 (सन् 1698) को गोकुल धनजी मिस्त्री से कराया था। चांपा के पडित छविनाथ द्विवेदी ने सन् 1897 में संस्कृत में ‘‘कलिश्वर महात्म्य स्त्रोत्रम‘‘ लिखकर प्रकाशित कराया था। इस ग्रंथ में उन्होंने कालेश्वरनाथ का उद्भव चैत्र कृष्ण प्रतिपदा संवत् 1940 (अर्थात् सन् 1883 ई.) को होना बताया है। मंदिर निर्माण संवत् 1949 (सन् 1892) में शुरू होकर संवत् 1953 (सन् 1896) में पूरा होने, इसी वर्ष मूर्ति की प्रतिष्ठा हीरासाय तेली के हाथों कराये जाने तथा मेला लगने का उल्लेख है। इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ‘‘पीथमपुर के श्री शंकर माहात्म्य‘‘ लिखकर सन् 1953 में प्रकाशित कराया था। 36 “लोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल कालेश्वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला की शाखा खोले जाने, सन् 1953 में ही तिलभांडेश्वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्ष से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके 50 वर्षो में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् 1914 में जबलपुर से प्रकाशित ‘‘पीथमपुर माहात्म्य‘‘ को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा। इसके 19 वें श्लोक में उन्होंने लिखा है कि वि.सं. 1945, फाल्गुन पूर्णमासी याने होली के दिन से इस शंकर देव स्थान पीथमपुर की ख्याति हुई। इसी प्रकार श्री तुलसीराम पटेल ने पीथमपुर : श्री कलेश्वर महात्म्य में लिखा है कि तीर्थ पुरोहित पंडित काशीप्रसाद पाठक पीथमपुर निवासी के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् 1945 को हीरासाय तेली को शिवलिंग स्थापित कराया था।
              तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् 1755 में मंदिर निर्माण कराया है तो अवश्य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए 185 वर्षो का अंतराल पर्याप्त होता है। अतः यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि 185 वर्षो बाद उसका पुनः उद्भव संवत् 1940 में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले शिलालेख को पुनः दीवार में जड़ दिया गया होगा।
    पीथमपुर में काल कालेश्वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना शुरू हो गया था। प्रारंभ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार 10 दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋषिकेश, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल कालेश्वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् शिव बारात के इस शोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उडि़या में शिवायन लिखा। शिवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में शिव बारात की कल्पना को साकार किया है।
                  आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,
                  देखे जाबे चला गियां संगी ल जगाव रे।
                  डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,
                  गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।
                  हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,
                  एक बार हहा करि, सबे कहुं घिघियावा रे।
                  पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,
                  नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगावा रे।
                  कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े,
                  कोऊ कोलिहा म चढि़, चढि़ आवत।
                  कोऊ बघुवा म चढि़, कोऊ बछुवा म चढि़,
                  कोऊ घुघुवा म चढि़, हांकत उड़ावत,
                  सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।
                  हांव हांव कुकुर करे, कोलिहा हुहुवावत,
                  कहे नरसिंहदास शंभू के बरात देखि।
              इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान शैव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस शैव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धाराशिव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के शिव मंदिर के अवशेष हैं और धाराशिव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री शंकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्षो तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूषोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री शिवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंद जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज, और स्वामी दयानंद जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडेश्वर मठ काशी से संबंधित  थे। स्वामी दयानंद भारती जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडेश्वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंद जी महाराज ने 20.02.1953 को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक ‘सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला‘ की स्थापना सन् 1923 में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च शिक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक शाखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वषों तक नहीं चल सकी; लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और शिवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाषा में विशेष रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।
              सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख शिलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फर्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। कालेश्वरनाथ की महत्ता अपरम्पार है, तभी तो कवि तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है ः-

                  युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी,
                  कलियुग में भी है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।
                  जहां स्वप्न देकर शंकर जी पुर्नप्रकट हो आये,
                  यह मनुष्य का काम कि उससे पुरा लाभ उठाये।।