शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

छत्तीसगढ़ में रथयात्रा

 रथयात्रा के अवसर पर

छत्तीसगढ़ में रथयात्रा

                   प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्तीसगढ़ प्रदेश का अधिकांश भाग बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा से जुड़ा है। अतः इन सीमावर्ती क्षेत्रों में उन प्रदेशों की परम्पराएं देखने को मिलती है। वहां का खानपान, रहन सहन और बोल चाल भी प्रभावित होती है। ऐसी अनेक परम्पराएं छत्तीसगढ़ की पूर्वी सीमा जो उड़ीसा से जुड़ा है, में देखने को मिलती है। रथयात्रा उनमें से एक बहु प्रचलित और बहु चर्चित परम्परा है। इसे उड़ीसा के साथ ही छत्तीसगढ़ में भी बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। उड़ीसा में प्रचलित है ‘‘..मोर गौरव जगन्नाथ’’ (जगन्नाथ जी हमारे गौरव हैं) समुद्र तट पर स्थित पुरी भागवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की के कारण ‘‘जगन्नाथ पुरी’’ कहलाती है जो चारों धाम में एक है। रथयात्रा यहां का एक प्रमुख पर्व है। इस पर्व में देश विदेश के हजारों-लाखों दर्शनार्थी और पर्यटक बड़ी श्रद्धा के साथ सम्मिलित होते हैं। यहां की मूर्ति और स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क को अद्भूत सूर्य मंदिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौलगिरि और उदयगिरि की गुफाएं, जैन मुनियों की तपस्थली खंडगिरि की गुफाएं, लिंगराज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ मंदिर दर्शनीय है। पुरी और चंद्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चंदन तालाब, जनकपुर और नंदनकानन अभ्यारण्य बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। ‘‘...सब मनिसा मोर परजा’’ (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित पावन हैं।


आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की जनकपुर यात्रा रथ में बिठा कर करायी जाती है। जगन्नाथपुरी में तीनों को अलग अलग रथ में बिठाकर यात्रा कराया जाता है। भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘‘नंदीघोष’’ कहते हैं जो 65 फीट लंबा, 65 फीट चैड़ा और 45 फीट ऊँचा होता है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे होते हैं। इसीप्रकार बलभद्र जी के रथ को ‘‘तालध्वज’’ और सुभद्रा जी के रथ को ‘‘देवलन’’ कहा जाता है जो जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे होते हैं। इन रथों को खींचने के लिए गांव-गांव से हजारों-लाखों लोग आते हैं। पुरी में प्रथम पूजा और रथ को खींचने का प्रथम अधिकार वहां के तत्कालीन राजा को था। आज भी उनके वंशज इस परम्परा को निभाते हैं। विशाल जनसमुदाय इस रथयात्रा का आनंद और पुण्य लाभ लेते हैं। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है। तीनों रथ गुंडिचा मंदिर (मौसी के घर, जिसे जनकपुर भी कहते हैं) में आकर रूक जाती है। यहां भगवान आठ दिन रहकर विजियादसमीं को मंदिर लौट आते हैं। जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं..विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है।

मौसी के घर अच्छे अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहां पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढुढ़ते यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाजा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और ‘‘हेरा गोहिरी साही’’ पुरी का एक मुहल्ला जहां लक्ष्मी जी का मंदिर है, में लक्ष्मी जी लौट आती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा मांगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैतापति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस रूठन और मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठते हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ... के नारों से गंूज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को ‘‘विजयादशमी’’ और वापसी को ‘‘बोहतड़ी गोंचा’’ कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भूत समन्वय देखने को मिलता है।

कल्पना और किंवदंतियों में जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है..उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भूत समन्वय है। जगन्नाथ मंदिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहां तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मंदिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गयी है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मंदिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की र्मूिर्तयां हैं। यहां जैन और बुद्ध की भी मूर्तियां हैं पुरी का जगन्नाथ मंदिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भूत उदाहरण है। मंदिर कि पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहां पशुओं की बलि दी जाती है, वहीं मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियों चैंकाने वाली है। यहां तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य भी हैं।

सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के उपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पांच तंत्र माताएं, दस इंद्रियों और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चिŸा और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोकशक्ति की आवश्यकता होती है।

अषाण महिना के अधिमास में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी 

का कलेवर बदला जाता है

आश्चर्यजनक तथ्य है कि जब आषाण मास में अधिमास आता है तब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की नई मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठित की जाती है। आषाण मास में अधिमास लगभग हर 12 वर्ष के अंतराल में आता है। इसके पूर्व सन् 1994 में आषाण मास में अधिमास पड़ा था और मूर्तियों का कलेवर बदला गया था। इस बार 19 वर्ष बाद आषाण मास में अधिमास आया है और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी का कलेवर बदला जायेगा और नवकलेवर  के साथ रथयात्रा मनायी जायेगी। मूर्तियों को बदलने के लिए पहले भगवान बीमार हो जाते हैं और पूरे मृतक कर्म विधिवत किये जाते हैं। नई मूर्तियों के लिए पूजा अर्चना किये जाते हैं तब स्वप्न में निर्देश प्राप्त होता है कि अमुख जगह में ऐसा नीम का पेड़ है जिसमें भगवान जगन्नाथ के शंख, चक्र, पद्म और गदा के निशान बने हुए हैं। पंडे वहां जाकर पेड़ की शिनाक्त की जाती है और उस पेड़ की पूजा अर्चना करने के बाद उसे काटकर मूर्ति बनाई जाती है। फिर उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। उड़ीसा प्रदेश से जुड़े छŸाीसगढ़ के अनेक गांवों, कस्बों और शहरों में रथयात्रा बड़े धूमधाम, श्रद्धा और भक्तिभाव के साथ मनाया जाता है। जिस प्रकार राजा-महाराजा, जमींदार, मालगुजार रत्नपुर की महामाया देवी और सम्बलपुर की समलेश्वरी देवी को अपने नगरों में ‘‘कुलदेवी’’ के रूप में प्रतिष्ठित किये हैं, वैसे ही जगन्नाथ धाम की यात्रा करके भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों को अपने नगरों में स्थापित कर पुण्य लाभ प्राप्त करते रहें हैं। यहां के हर गांवों में और घरों में जगन्नाथ जी का मंदिर अवश्य मिलेगा। छत्तीसगढ़ प्रांत के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत महानदी के तट पर स्थित शिवरीनारायण को  भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना जाता है। आज भी यहां भगवान जगन्नाथ गुप्त रूप से विराजमान होते हैं जिसके कारण शिवरीनारायण को ‘‘गुप्तधाम’’ कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं। 

चाम्पा में रथयात्रा के अवसर पर विशेष रूप से मालपुआ बनता है

हसदेव नदी के तट पर स्थित चाम्पा में रथयात्रा बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन बड़े मठ से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी को रथ में बिठाकर पूरे नगर में भ्रमण कराया जाता है। सभी अपने अपने घर और दुकान के सामने उनकी पूजा अर्चना की जाती है। लोग रथ को खींचकर पुण्य के भागीदार बनते हैं। इस दिन विशेष रूप से मालपुआ बनाया जाता है। मालपुआ का भोग लगाकर और एक दूसरे को खिलाकर इस पर्व को मनाते हैं। छत्तीसगढ़ में रथयात्रा की तिथि को बड़ा शुभ दिन माना जाता है। इस दिन कोई भी शुभ कार्य किया जाता है। बेटी बिदा और बहू को लिवा लाने की विशेष परम्परा है। बच्चे, बूढ़े सब नये कपड़े पहनकर रथयात्रा में सम्मिलित होते हैं। इस दिन नाते-रिश्तेदारों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की प्रथा है। यह लोक भावना से जुड़ी परंपरा है। इससे सद्भावना का विकास होता है। इसमें जात-पात का भेद नहीं होता। इसीलिए कवि गाता है:-

मास आषाढ़ रथ दुतीया, रथ के किया बयान।
दर्शन रथ को जो करे, पावे पद निर्वान।।

रथ को खींचकर नारियल, लाई और गजामूंग का प्रसाद ग्रहण करते हैं। चाम्पा में इस दिन विशेष रूप से मालपुआ बनाकर खाने की परम्परा है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। इस दिन सभी अपने स्वजनों, परिजनों और ईष्ट मित्रों के घर मेवा मिष्ठान आदि भेजकर सद्भाव प्रदर्शित करते हैं। सुदूर बस्तर में तो इसे ‘‘गोन्चा परब’’ के रूप में  विशेष रूप से मनाया जाता है।

शिवरीनारायण में रथयात्रा (भगवान जगन्नाथ को शिवरीनारायण से ही पुरी ले जाया गया था):-


शबरीनारायण के मठ परिसर में संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार श्री राजसिंह ने जगन्नाथ मंदिर की नींव डाली जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों की स्थापना करायी। संवत् 1927 में ही उन्होंने महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से महानदी के तट पर योगियों के निवासार्थ एक भवन का निर्माण कराया। इसे ‘‘जोगीडीपा’’ कहते हैं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और तत्कालीन शबरीनारायण तहसील के तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह ने अपनी पुस्तक ‘‘प्रलय’’ में लिखा हैः-‘‘जोगीडिपा श्री मान् बाबा गौतमदास जी का सुंदर बगीचा एक ऊँची भूमि पर जो किसी समय में एक पहाड़ी थी, है। बाबा जी यहां के महंत और प्रतिष्ठित हैं।’’ रथयात्रा के बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहां एक सप्ताह विश्राम करते हैं। इस कारण इसे ‘‘जनकपुर’’ भी कहा जाता है। इसी प्रकार पंडित कौशलप्रसाद द्विवेदी के घर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की मूर्ति स्थापित है। पहले रथयात्रा में यहीं की मूर्तियों को रथ में निकाला जाता था। बाद में जब मठ की मूर्तियों को रथ में निकाला जाने लगा तब दो रथ में दोनों जगहों की मूर्तियां निकाली जाने लगी। आगे चलकर केवल मठ की मूर्तियां ही निकाली जाने लगी। यह परम्परा आज भी जारी है।

रथयात्रा यहां का एक प्रमुख त्योहार है। प्राचीन काल से यहां रथयात्रा का आयोजन मठ के द्वारा किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार महंत गौतमदास ने यहां रथयात्रा की शुरूवात की और महंत लालदास ने उसे सुव्यवस्थित किया। मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी को हमेशा स्मरण किया जायेगा। उन्होंने ही यहां रामलीला, रासलीला, नाटक, रथयात्रा, और माघी मेला को सुव्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। रथयात्रा के लिए जगन्नाथ पुरी की तरह यहां भी प्रतिवर्ष लकड़ी का रथ निर्माण कराया जाता था जिसे बाद में बंद कर दिया गया और एक लोहे का रथ बनवाया गया है जिसमें आज रथयात्रा निकलती है। शिवरीनारायण और आसपास के हजारों-लाखों श्रद्धालु यहां आकर रथयात्रा में शामिल होकर और रथ खींचकर पुण्यलाभ के भागीदार होते हैं। जगह जगह रथ को रोककर पूजा-अर्चना की जाती है। प्रसाद के रूप में नारियल, लाई और गजामूंग दिया जाता है। मेला जैसा दृश्य होता है। इस दिन को सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में बड़ा पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन बेटी को बिदा करने, बहू को लिवा लाने, नये दुकानों की शुरूवात और गृह प्रवेश जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं। इस दिन अपने स्वजनों, परिजनों और मित्रों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की परम्परा है। बच्चे नये कपड़े पहनते हैं और उन्हें खर्च करने के लिए पैसा दिया जाता है। उनके लिए यह एक विशेष दिन होता है। सद्भाव के प्रतीक रथयात्रा आज भी यहो श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। शिवरीनारायण को ‘‘छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी’’ कहा जाता है। राजिम में भगवान साक्षी गोपाल विराजमान हैं और ऐसी मान्यता है कि शिवरीनारायण के बाद राजिम की यात्रा और भगवान साक्षी गोपाल का दर्शन करना आवश्यक है अन्यथा उनकी यात्रा निरर्थक होता है। इसी लिए प्राचीन कवि श्री बटुसिंह शिवरीनारायण माहात्म्य में गाते हैं-

                        मास अषाढ़ रथ दुतीया, रथ के किया बयान।
दर्शन रथ को जो करे, पावे पद निर्वान ।।

जिस प्रकार जगन्नाथ पुरी को ‘‘स्वर्गद्वार‘‘ कहा जाता है और कोढ़ियों का उद्धार होता है। उसी प्रकार शिवरीनारायण की भी महत्ता है। कवि बटुकसिंह श्रीशिवरीनारायण-सिंदूरगिरि माहात्म्य में लिखते हैं 

क्वांर कृष्णों सुदि नौमि के होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले निर्धन को धनवान।।

शिवरीनारायण में बिलासपुर रोड में एक पुराना कोढ़ि खाना है और यहां एक लेप्रोसी विशेषज्ञ के रूप में डाॅ. एम. एम. गौर की नियुक्ति भी हुई थी। बाद में उन्हीं के सलाह पर प्रयागप्रसाद केशरवानी चिकित्सालय की स्थापना की गयी थी। शिवरीनारायण से पांच कि. मी. की दूरी पर स्थित दुरपा गांव को अंग्रेज सरकार द्वारा ‘‘लेप्रोसी गांव‘‘ घोषित किया गया था। इस गांव में आना-जाना पूर्णतः प्रतिबंधित था। शिवरीनारायण से 70 कि.मी. पर चांपा में सोंठी कुष्ठ आश्रम है। इसी प्रकार बिलासपुर रायपुर रोड में बैतलपुर में भी एक कुष्ठ आश्रम है, जहां कोढ़ियों का ईलाज होता है और अनेक प्रकार के उद्योग उनके द्वारा चलाये जाते हैं। उनके बच्चों के रहने और पढ़ने आदि का पूरा इंतजाम किया जाता है। सरकार इस संस्था को हर प्रकार का सहयोग प्रदान करती है। ऐसे मुक्तिधाम को पुरी क्षेत्र कहा गया है:-

शिवरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान।
याज्ञवल्क्य व्यासादि ऋषि निजमुख करत बखान।।

यहां भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती रोहिणीकुंड की महिमा अपार है। कवियों ने उसे साक्षात् मोक्ष देने वाला बताया है। उस कुंड के कारण इसे बैकुंठ द्वार माना गया है। देखिये कवि की एक बानगी:-     

                        नारायण के कलाश्रित जानिय धामहि एक
प्रथम विष्णुपुरि नाम पुनि रामपुरि हूँ नेक
चित्रोत्पल नदि तीर महि मंडित अति आराम
बस्यो यहां बैकुंठपुर नारायणपुर धाम
भासति तहं सिंदूरगिरि श्रीहरि कीन्ह निवास
कुंड रोहिणी चरण तल भक्त अभीष्ट प्रकास।

बस्तर का गोंचा परब:-

बस्तर जिला मुख्यालय जगदलपुर में भी रथयात्रा पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। बस्तर के आदिवासी इसे ‘गोंचा परब‘ कहते हैं। यहां इस पर्व को मनाने के बारे में एक जनश्रुति प्रचलित है जिसके अनुसार सन् 1431-32 में बस्तर के राजा पुरूषोत्तम देव बने। वे भगवान विष्णु के अनन्य उपासक थे। राजगद्दी प्राप्त करने के बाद उन्होंने जगन्नाथपुरी की यात्रा की। कहा जाता है उन्होंने लोट मारते जगन्नाथ मंदिर तक गये थे। उनकी अनन्य भक्ति को देखकर भगवान जगन्नाथ बहुत प्रसन्न हुए और पुजारी को स्वप्न देकर निर्देशित किया कि राजा को एक चक्र प्रदान करें। पुजारी ने राजा को ‘रथपति‘ घोषित करके एक चक्र प्रदान किया जिसे वे बस्तर ले आये और यहां अपनी कुलदेवी दंतेश्वरी देवी के सम्मान में 12 चक्कों का रथयात्रा आयोजित करने लगे। पुरी से लौटते समय वे 360 उड़िया ब्राह्यण परिवारों को साथ ले आये। ये ब्राह्यण परिवार उन्हें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों की स्थापना का सुझाव दिया जिसे मानकर उन्होंने एक मंदिर बनवाकर उसमें भगवान जगन्नाथ के विग्रह मूर्तियों की स्थापना कराया। यहीं से रथयात्रा की शुरूवात यहां हुई। बस्तर में इसे ‘गोंचा परब‘ कहते हैं। राजा पुरूषोत्तम देव की रानी का नाम गुंडिचा था जिसे स्थायी बनाने के लिए उन्होंने एक गुंडिचा मंडप बनवाया जहां भगवान जगन्नाथ रथयात्रा के बाद नौ दिन विश्राम करते हैं। गोंचा को गुंडिचा का अपभ्रंश माना जाता है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की प्रतिमाओं के छः समूह घुमाये जाते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि छः शताब्दियों के बीच अनेक राजाओं ने एकाधिक ब्राह्यण परिवारों को प्रभु की पूजा करने की आज्ञा दी थी। इस प्रकार समय समय पर नई मूर्तियां बनती गयी। जगदलपुर के सिरहा सार चैंक पर स्थित जगन्नाथ मंदिर के छः आगारों में इन मूर्तियों के छः अलग अलग समूह स्थापित हैं जिन्हें रथयात्रा में घुमाया जाता है। राजवंश की समाप्ति के बाद रथयात्रा का आयोजन शासकीय तौर पर किया जाने लगा और छः के बजाय तीन रथ निकाले जाने लगे। बस्तर में दशहरा के बाद रथयात्रा दूसरा बड़ा आयोजन होता है। गोंचा परब में आदिवासी ‘तुपकी‘ याने एक प्रकार के बांस का बंदूक द्वारा जंगली फल से रथयात्रा के दौरान खेलते हैं। लगभग आधे इंच के व्यास वाले बांस के पोंगली में चने के दाने आकार के वन फल ‘पेंग‘ भरकर एक हेंडिल से पिचकारी चलाने की मुद्रा में निशाना साधा जाता है। पोला होने और अवरोध बल के कारण पेंग दूर जाकर गिरता है। इससे आदिवासी स्त्री पुरूष एक दूसरे के ऊपर निशाना लगाते हैं। उनमें वर्ग भेद नहीं होता। उल्लास को प्रकट करते हुए हंसी-ठिठोली का यह क्षण देखते ही बनता है। 

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