सोमवार, 5 मार्च 2012

खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली

होली के अवसर पर 
खेलूंगी कभी न होली , उससे जो नहीं हमजोली 
प्रो अश्विनी केशरवानी 
     फागुन का त्योहार होली हंसी-ठिठोली और उल्लास का त्योहार है। रंग गुलाल इस त्योहार में केवल तन को ही नही रंगते बल्कि मन को भी रंगते हैं। प्रकृति की हरीतिमा, बासंती बहार, सुगंध फेलाती आमों के बौर और मन भावन टेसू के फूल होली के उत्साह को दोगुना कर देती है। प्रकृति के इस रूप को समेटने की जैसे कवियों में होड़ लग जाती है। देखिए कवि सुमित्रानंदन पंत की एक बानगी:
              चंचल पग दीपि शिखा के घर
              गृह भग वन में आया वसंत।
              सुलगा फागुन का सूनापन
              सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
              सैरभ की शीतल ज्वाला से
              फैला उर उर में मधुर दाह
              आया वसंत, भर पृथ्वी पर
              स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह।
     प्रकृति की इस मदमाती रूप को निराला जी कुछ इस प्रकार समेटने का प्रयास करते हैं :-
              सखि वसंत आया
              भरा हर्श वन के मन
              नवोत्कर्श छाया।
              किसलय बसना नव-वय लतिका
              मिली मधुर प्रिय उर तरू पतिका
              मधुप वृन्द बंदी पिक स्वर नभ सरसाया
              लता मुकुल हार गंध मार भर
              बही पवन बंद मंद मंदतर
              जागी नयनों में वन
              यौवनों की माया।
              आवृत सरसी उर सरसिज उठे
              केसर के केश कली के छूटे
              स्वर्ण भास्य अंचल, पृथ्वी का लहराया।
     मानव मन इच्छाओं का सागर है और पर्व उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। ये पर्व हमारी भावनाओं को प्रदर्शित करने में सहायक होते हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में शौर्य के लिए द शहरा, श्रद्धा के लिए दीपावली, और उल्लास के लिए होली को उपयुक्त माना गया है। यद्यपि हर्श हर पर्व और त्योहार में होता है मगर उन्मुक्त हंसी-ठिठोली और उमंग की अभिव्यक्ति होली में ही होती है। मस्ती में झूमते लोग फाग में कुछ इस तरह रस उड़ेलते हैं :-
              फूटे हैं आमों में बौर
              भौंर बन बन टूटे हैं।
              होली मची ठौर ठौर
              सभी बंधन छूटे हैं।
              फागुन के रंग राग
              बाग बन फाग मचा है।
              भर गये मोती के झाग
              जनों के मन लूटे हैं।
              माथे अबीर से लाल
              गाल सिंदूर से देखे
              आंखें हुई गुलाल
              गेरू के ढेले फूटे हैं।
     ईसुरी अपने फाग गीतों में कुछ इस प्रकार रंगीन होते हैं :-
              झूला झूलत स्याम उमंग में
              कोऊ नई है संग में।
              मन ही मन बतरात खिलत है
              फूल गये अंग अंग में।
              झोंका लगत उड़त और अंबर
              रंगे हे केसर रंग में।
              ईसुर कहे बता दो हम खां
              रंगे कौन के रंग में।
     ब्रज में होली की तैयारी सब जगह जोरों से हो रही है। सखियों की भारी भीड़ लिये प्यारी राधिका संग में है। वे गुलाल हाथ में लिए गिरधर के मुख में मलती है। गिरधर भी पिचकारी भरकर उनकी साड़ी पर छोड़ते हैं। देखो ईसुरी, पिचकारी के रंग के लगते ही उनकी साड़ी तर हो रही है। ब्रज की होली का अपना ढंग होता है। देखिए ईसुरी द्वारा लिखे दृश्‍य की एक बानगी-
              ब्रज में खेले फाग कन्हाई
              राधे संग सुहाई
              चलत अबीर रंग केसर को
              नभ अरूनाई छाई
              लाल लाल ब्रज लाल लाल बन
              वोथिन कीच मचाई।
              ईसुर नर नारिन के मन में
              अति आनंद अधिकाई।
     सूरदास भी भक्ति के रस में डूबकर अपने आत्मा-चक्षुओं से होली का आनंद लेते हुए कहते हैं :-
              ब्रज में होरी मचाई
              इतते आई सुघर राधिका
              उतते कुंवर कन्हाई।
              हिल मिल फाग परस्पर खेले
              भाोभा बरनिन जाई
              उड़त अबीर गुलाल कुमकुम
              रह्यो सकल ब्रज छाई।
     कवि पद्यमाकर की भी एक बानगी पेश है :-
              फाग की भीढ़ में गोरी
              गोविंद को भीतर ले गई
              कृश्ण पर अबीर की झोली औंधी कर दी
              पिताम्बर छिन लिया, गालों पर गुलाल मल दी।
              और नयनों से हंसते हुए बाली-
              लला फिर आइयो खेलन होली।
     होली के अवसर पर लोग नशा करने के लिए भांग-धतुरा खाते हैं। ब्रज में भी लोग भांग-धतूरा खाकर होली खेल रहे हैं। ईसुरी की एक बानगी पेश है :-
              भींजे फिर राधिका रंग में
              मनमोहन के संग में
              दब की धूमर धाम मचा दई
              मजा उड़ावत मग में
              कोऊ माजूम धतूरे फांके
              कोऊ छका दई भंग में
              तन कपड़ा गए उधर
              ईसुरी, करो ढांक सब ढंग में।
     तब बरबस राधिका जी के मुख से निकल पड़ता है :-
              खेलूंगी कभी न होली
              उससे नहीं जो हमजोली।
              यहां आंख कहीं कुछ बोली
              यह हुई श्‍याम की तोली
              ऐसी भी रही ठिठोली।
     यूं देश के प्रत्येक हिस्से में होली पूरे जोश-खरोश से मनाई जाती है। किंतु सीधे, सरल और सात्विक ढंग से जीने की इच्छा रखने वाले लागों को होली के हुड़दंग और उच्छृंखला से थोड़ी परेशानी भी होती है। फिर भी सब तरफ होली की धूम मचाते हुए हुरियारों की टोलियां जब गलियों और सड़कों से होते हुए घर-आंगन के भीतर भी रंगों से भरी पिचकारियां और अबीर गुलाल लेकर पहुंचते हैं, तब अच्छे से अच्छे लोग, बच्चे-बूढ़े सभी की तबियत होली खेलने के लिए मचल उठती है। लोग अपने परिवार जनों, मित्रों और यहां तक कि अपरिचितों से भी होली खेलने लगते हैं। इस दिन प्राय: जोर जबरदस्ती से रंग खेलने, फूहड़ हंसी मजाक और छेड़ छाड़ करने लगते हैं जिसे कुछ लोग नापसंद भी करते हैं। फिर भी 'बुरा न मानो होली है...` के स्वरों के कारण बुरा नहीं मानते। आज समूचा विश्‍व स्वीकार करता है कि होली वि व का एक अनूठा त्योहार है। यदि विवेक से काम लेकर होली को एक प्रमुख सामाजिक और धार्मिक अनुष्‍्ठान के रूप में शालीनता से मनाएं तो इस त्योहार की गरिमा अवश्‍य बढ़ेगी।

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