मंगलवार, 26 जुलाई 2011

शिवरीनारायण में महानदी की विनाश लीला


मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारंभिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति में ये जीवनदायिनी मां की तरह पूजनीय हैं। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा है। सभी नदियां भले ही अलग अलग नामों से प्रसिद्ध हैं लेकिन उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी, ताप्ती, क्षिप्रानदी के समान पवित्र और मोक्षदायी मानी गयी है। कदाचित् इन्हीं नदियों के तट पर स्थित धार्मिक स्थल तीर्थ बन गये..। सूरदास भी गाते हैं :-
                      हरि-हरि-हरि सुमिरन करौं। 
                      हरि चरनार विंद उर धरौं।
                      हरि की कथा होई जब जहां,
                      गंगा हू चलि आवै तहां।।
                      जमुना सिंधु सरस्वति आवै,
                      गोदावरी विलंबन लावै।
                      सब तीरथ की बासा तहां,
                      सूर हरि कथा होवै जहां।।

             भारत की प्रमुख नदियों में महानदी भी एक है। इसे ''चित्रोत्पला-गंगा'' भी कहा जाता है। इसका उद्गम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेशवर महादेव और अंतिम छोर में चित्रा-माहेश्वरी देवी स्थित हैं। कदाचित् इसी कारण महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गयी है :-
                      उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा महेश्वरी।
                      चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी।।

            सोमेश्वरदेव के महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला-गंगा कहा गया है :-
                      यस्पाधरोधस्तन चन्दनानां
                      प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
                      चित्रोत्पला स्वर्णावती गता पि
                      गंगोर्भि संसक्तभिवाविमाति।।

महानदी के उद्गम स्थल को ''विंध्यपाद'' कहा जाता है। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर संकेत करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपापहरा, शुभा आदि कहा गया है :-
                      नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
                      चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा शुभा।।

            महानदी को ''गंगा'' कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी। कौशलेन्द्र महाशिवगुप्त ययाति ने एक ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला के नाम से संबोधित किया है :-
                      चित्रोत्पला चरण चुम्बित चारूभूमो
                      श्रीमान कलिंग विषयेतु ययातिषुर्याम्।
                      ताम्रेचकार रचनां नृपतिर्ययाति
                      श्री कौशलेन्द्र नामयूत प्रसिद्ध।।

            १७ वीं शताब्दी के महाकवि गोपाल ने भी महानदी को ''अति पुण्या चित्रोत्पला'' माना है
                      पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
                      अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।

            इसी प्रकार स्कंध पुराण में ''पुरूषोत्तम क्षेत्र'' की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए महानदी को माध्यम बनाया गया है :-
                      ऋषिकुल्या समासाद्या दक्षिणोदधिगामिनीम्।
                      स्वर्णरेखा महानद्यो मध्ये देश: प्रतिष्ठित: ।।

            अर्थात् पुरूषोत्तम क्षेत्र स्वर्णरेखा से महानदी तक विस्तृत रूप से फैला है, उसके दक्षिण में ऋषिकुल्या नदी स्थित है।
            महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर लिखते हैं :- ''चित्रोत्पला शब्द में दो युग्म शब्द है-चित्रा और उप्पल। उप्पल का शाब्दिक अर्थ है- नीलकमल, और चित्रा गायत्री स्वरूपा महाशक्ति का नाम है। चित्रा को ऐश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। राजिम क्षेत्र कमल या पदम क्षेत्र के रूप में विख्यात् है। राजिम को ''श्री संगम'' कहा जाता है। ''श्री'' का अर्थ ऐश्वर्य या महालक्ष्मी जिसका कमल आसन है। महानदी के तट पर ''श्रीसंगम'' राजिम में स्थित विष्णु भगवान का प्रतिरूप ''राजीवलोचन'' या राजीवनयन विराजमान हैं। राजीव का अर्थ भी कमल या उप्पल होता है। यहां स्थित ''कुलेश्वर महादेव'' उत्पलेश्वर कहलाते हैं। शब्द कल्पदुम के अनुसार महानदी के उद्गम को ''पद्मा'' कहा गया है- ''सा पद्मया विनिसृता राम पुराख्याग्रामात पश्चिम उत्तर दिग्गता।''
मार्कण्डेय और वायुपुराण में महानदी को ''मंदवाहिनी'' कहा गया है और उसे शुक्तिमत पर्वत से निकली बताया गया है। लेकिन महानदी धमतरी जिलान्तर्गत सिहावा (नगरी) से निकलकर ९६५ कि. मी. की दूरी तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है। यह नदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी है। इस नदी के उपर गंगरेल और हीराकुंड बांध बनाया गया है। इन बांधों के पानी से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है, साथ ही बुरला-संबलपुर में बिजली का उत्पादन भी होता है। महानदी के रेत में सोना मिलने का भी उल्लेख मिलता है। इस नदी में अस्थि विसर्जन भी होता है। गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है। गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली बाल्मिकी आश्रम स्थित था। इसी प्रकार चंद्रपुर में मां चंद्रसेनी और संबलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई ''रोहिणी कुंड'' है जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिद्ध प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसकी महिमा गाते हैं :-
                       रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
                      योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।

            प्राचीन कवि बटुकसिंह चौहान ने तो रोहिणी कुंड को ही एक धाम माना है। देखिए एक बानगी :-
                      रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर,
                      बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।
                      जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम,
                      बटुक सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण।।

            भारतेन्दु युगीन रचनाकार पंडित हीराराम त्रिपाठी ''शिवरीनारायण माहात्म्य'' में लिखते हैं
                      चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
                      बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम।।

 शिवरीनारायण में प्रलय और ठाकुर जगमोहनसिंह :-
महानदी के तट पर अवस्थित पवित्र नगर शिवरीनारायण जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से ६० कि. मी., बिलासपुर से ६४ कि. मी., कोरबा से ११० कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ ११० कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार १२० कि. मी. की दूरी पर स्थित है और ''गुप्तधाम'' के रूप में ''पांचवां धाम'' कहलाता है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग और जगन्नाथ पुरी कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहां भगवान जगन्नाथ पधारते हैं। इस दिन महानदी स्नान कर उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। इसी प्रकार राजिम में भगवान राजीव लोचन का दर्शन ''साक्षी गोपाल'' के रूप में किया जाता है। खरौद में भगवान लक्ष्मणेश्वर का दर्शन काशी के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार चंद्रपुर की चंद्रसेनी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी का दर्शन शक्ति दायक होता है।
            प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। बिलासपुर और जांजगीर-चांपा जिले के अनेक ग्रामों में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस, औरेलियस और अन्टीनियस के शासन काल के सोने के सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार महानदी सोना और हीरा प्राप्ति के लिए विख्यात् रही है। आज भी ''सोनाहारा'' जाति के लोग महानदी के रेत से सोना निकालते हैं। सोनपुर नगर का नामकरण सोना मिलने के कारण है। संबलपुर के हीरकुंड क्षेत्र में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है। वराहमिहिर की बृहद संहिता में कोसल में हीरा मिलने का उल्लेख है जो शिरीष के फूल के समान होते हैं :- ''शिरीष कुसुमोपम च कोसलम्'' मिश्र के प्रख्यात् ज्योतिषी टालेमी ने कोसल के हीरों का उल्लेख किया है। रोम में महानदी के हीरों की ख्याति थी।.... तभी तो पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय छत्तीसगढ़ की वंदना करते हुए लिखते हैं :-
                      महानदी बोहै जहां होवै धान बिसेस।
                      जनमभूम सुन्दर हमर अय छत्तीसगढ़ देस।।
                      अय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
                      राज रतनपुर जहां रहिस जस दूसर कासी।।
                      सोना-हीरा के जहां मिलथे खूब खदान।
                      हैहयवंसी भूप के वैभव सुजस महान।।

            छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी महानदी में हर साल बाढ़ आती है जिससे जन-धन और फसल नष्ट होता है, चारों तरफ बाढ़ से विनाश ही विनाश दिखाई देता है। हालांकि इस नदी में गंगरेल, रूद्री और हीराकुंड बहुउद्देशीय बांध बनाया गया है लेकिन अत्याधिक वर्षा से बांधों से पानी छोड़े जाने के कारण भी कृत्रिम बाढ़ आ जाती है। इससे जन जीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। सन् १८८५ में महानदी में आई बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हों गया था। तब शिवरीनारायणके तत्कालीन तहसीलदार और भारतेन्दुकालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह ने उन दृश्यों को समेटकर 'प्रलय' खंडकाव्य की रचना की थी। उन्होंने लिखा है :-
                      प्रलय कथा शवरीनारायण की विस्तार सुनायो।
                      जो प्रतच्छ मन सुच्छ देखि निज नैनन सो प्रकटायो।। ११० ।।
                      जेठ शुक्ल शिव वासर गनपति तिथि पुनि अहि सेनानी।
                      क्रम सो अम्ब सुमार वार मुनि सम्बत दल पहिचानी।। १११ ।।
                      पक्ष वेद ग्रह इन्दु प्रलय दिन जो वा पुर में होई।
                      इकइस बाइस तेइस जूनहिं अंगरेजी तिथि सोई।। ११२ ।।
                      एक सहस वसुशत पच्चासी सन ईसा को जानो।
                      द्यौस तीन विकराल विपति गुनि संकट विकट बखानो।। ११३ ।।

            २१, २२ और २३ जून १८८५ को हुई बरसात से महानदी में आई बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा      दृश्य उपस्थित हो गया था। ठाकुर साहब लिखते हैं कि हमने जो दृश्य देखा उसी का यह वर्णन है, इसमें कोई       अतिश्योक्ति नहीं है। सार छंद की एक बानगी पेश है :-
                      ऐसी दशा विचित्र हाय हम आंखिन देखी पूरी।
                      महानदी निज नाम प्रेम यह दिखरायो न अधूरी।। ९८ ।।
                      इक धारा बाजार में आई दक्खिन सौं अति भारी।
                      दूजी पिचम सो बहि मिल कै वेग जासु अविचारी।। ९९ ।।
                      तीजी धार उतरतै चलिकै संगम इनसो भयो।
                      मनहु त्रिवेनी तीरथ पावन बिनु प्रयाग इत आयो ।। १०० ।।

            इस बाढ़ से जन और धन की बड़ी हानि हुई थी। देखिये इस दृश्य को ठाकुर साहब ने सार छंद में प्रस्तुत किया है :-
                      कैयक सहस हानि मुद्रा की पुरजन ओ व्यापारी।
                      सह्यो कलेस द्वार घर नसकै रोवत फिरैं दुखारी ।।
                      दिन तीजे दस बजे रात सौं घट्यो सलिल क्रम क्रम सों।
                      गयो प्रात लो थिर संसारा छूटे सब जिय भ्रम सों।।
                      लगे बटोरन निज सामग्री टूटी फटी हिरानी।
                      मनहु उतरि मद गयौ छिनक में प्रकृति पाय सुख सानी।।
                      बह्यो गल्यौ मिटि गयो नीर बिच सोन मिलै अब हेरे।
                      भयौ काल कवलित सब भाई अजब करम गति पेरे।।
                      कहँ लौं कहौं हानि दुख जो कुछ प्रजा सुगन जिय झेले।
                      कहँ लौं कहौं विलाप ताप तिन विपति भई वग मेले।।
                      रहो आस मन गावन सारी दशा जोन मैं देखी।
                      जब शबरीनारायण वासी पुरवासिन की पेखी।। १०६ ।।

            बाढ़ के कारण शिवरीनारायणकी गली मुहल्लों में नाव चलने लगी और जिस प्रकार काशमीर की झील में हाउस बोट होते हैं और वहां जाने के लिए नाव होता है, ठीक वैसा ही दृश्य यहां भी देखने को मिला। देखिये एक कुंडलियां की बानगी :-
                      धाई चलत बाजार में नांव पोत २ जल सोत
                      तनक छिनक को रह्यो काशमीर छवि होत
                      काशमीर छवि होत द्वार द्वारन पह डोंगा
                      अरत करत पुकार कंपत तन धन गत सोगा
                      मठ दरवाजे, पैठ लहर मंदिर बिच आई
                      जहँ छाती लौ नीर धार सुइ तीरहिं धाई।। ५१ ।।

            इस बाढ़ से यहां का जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया, घर-द्वार टूट फूट गये और अपनी जान बचाने के लिए यहां के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा और महंत अर्जुनदास की शरण में जाने लगे। देखिये एक बानगी-
                      पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस
                      त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास
                      छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी
                      काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी
                      तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी
                      धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी।। ५२ ।।
                      कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह
                      कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह
                      शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टार्यौ
                      भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबार्यौ
                      श्रोवत कोठ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ
                      कोउ निज धन वार नास लखि बिलपति कोऊ।। ५३ ।।

            बाढ़ से तहसील कार्यालय भी डूब गया और वहां के कागजात बह गये, तब अंग्रेज सरकार ने शिवरीनारायणको ''बाढ़ क्षेत्र'' घोषित कर पूरा गांव खाली करने का आदेश दे दिया। गांव तो खाली नहीं हुआ अलबत्ता सन् १८९१ में तहसील कार्यालय शिवरीनारायण से उठकर जांजगीर जरूर आ गया।
                      भूपर कूप जगत के ऊपर हाथक है जल आयो।
                      टोरि फोर दीवार मध्य गृह फाटक को खटकाओ।। ३६ ।।
                      पुनि तसहसील बीच जहँ बैठत न्यायाधीश अधीशा।
                      कोश कूप (क) पर भूप रूप लो तहँ पैठ्यो जलधीशा।। ३७ ।।

            महानदी की विनाश लीला की एक बानगी पेश है :-
                      शिवरीनारायण सुमरि भाखौं चरित रसाल।
                      महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।। १ ।।
                      अस न भयो आगे कबहुं भाखैं बूढ़े लोग।
                      जैसो वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।। २ ।।
                      शिव के जटा विहारिनी वही सिहावा आय।
                      गिरि कंदर मंदर सबै टोरि फोरि जल जाय।। ३ ।।

            कुल मिलाकर इस बाढ़ से शिवरीनारायणमें प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हो गया। सक्षम मालगुजार, महंत और भोगहा जी प्रजा के सहायतार्थ अपने भंडार खोल दिये। एक सामंत का अपने प्रजा के प्रति ऐसी उदारता बहुत कम देखने को मिलती है। तब यहां के तत्कालीन तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह ने पंडित यदुनाथ भोगहा को पुरस्कृत करने के लिए प्रशासन को लिखा था।
                      पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय।
                      अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय।। ६३ ।।
                      बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस।
                      गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबार्यौ ईश।। ६४ ।।
                      प्रजा पास तव नाव चलाई। यदूनाथ चहुँचो तहँ जाई।
                      त्राहि त्राहि सब कह्यो बनाई। भल अवसर तुम आयो भाई।। ७१ ।।
                      दु:ख भंजन उपकार घनेरे। करे कौन जग तुअ सम मेरे।
                      कौन दरद दुख दारून दारै। कौन कलेस करोर पछारै।। ७२ ।।
                      इमि कहि परे चरन अकुलाई। तब भोगहा तिन बोध्यौ आई।
                      करहु न तुरा धरहु मन धीरा। रमानाथ सुमिरहु बलबीरा।। ७३ ।।
                      सो समरथ सब लायक ईशा। जाके चार होत अवनीशा।
                      मनुज हाथ है कह जग करई। भाशक पात जल उदर जु भरई।। ७४ ।।
                      धन्य धन्य महिमा असुरारी। धन्य धन्य भुजबल जग भारी।
                      सो समरथ सब हरत कलेशा। भजत रहत नहिं पुनि दुख लेशा।। ७५ ।।
                      जय जय रमानाथ जग पालन। जय दुख हरन करन सुख भावन।
                      जय शिवरीनारायण जय जय। जय कमलासन त्रिभुवनपति जय।। ७६ ।।

            जगमोहनसिंह, विजयराघवगढ़ के राजकुमार थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारस में हुई, भारतेन्दु         हरिशचंद्र उनके सहपाठी और मित्र थे। वे एक उत्कृष्ट कवि, उपन्यासकार और आलोचक थे। छत्तीसगढ़ में वे सन् १८८० से १८८७ तक थे। धमतरी के बाद शिवरीनारायणमें वे पांच साल रहे। यहां उन्होंने लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखी और प्रकाशित करायी है। सज्जनाष्टक, प्रलय, श्यामा सरोजनी, श्यामालता, श्यामा स्वप्न आदि उनकी बहुचर्चित किताबें हैं।

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