बुधवार, 29 जून 2011

क्या सोंचते हैं हम बच्चों का रिजल्ट देखकर

पिछले दिनों मै अपने एक मित्र के घर गया तो देखा कि उनका दस वर्षीय बेटा प्रियतोष स्कूल से आया था और वह सिर झुकाये खड़ा हो गया जैसे उससे कुछ अपराध किया हो। उसकी मम्मी ने पूछा- ``क्या बात है´´ ? प्रियतोष ने डरते-डरते परीक्षा परिणाम अपनी मम्मी के हाथ में दे दिया। देखते ही वे गुस्से से कांपने लगी- ``ये मार्कस आये हैं तुम्हारे ? किसी में चालीस, किसी में पचास, और किसी में अड़तालीस, बस ? तुम्हें पढ़ाकर मैं अपना दिमाग खराब करती थी। वहां जाकर न जाने तुम्हें क्या हो जाता है। भगवान ने तुम्हें अच्छा-खासा दिमाग दिया है, पर तुम उसका इस्तेमाल ही नही करो तो मैं इसमें क्या कर सकती हूं। डांट सुनते ही प्रियतोष रोने लगा, लेकिन उसकी मम्मी का गुस्सा कम नहीं हुआ और तड़ से एक चांटा प्रियतोष के गाल पर पड़ गया। ``... अब रोते क्यों हो ? रोज तो आकर कहते थे कि पेपर अच्छा हुआ है। और इतने खराब नंबर!´´ चांटा पड़ते ही प्रियतोष का रोना बढ़ गया हिचकियों के बीच वह कहने लगा-´´... तो क्या करता, तुमसे कहता कि पेपर बिगड़ गया तो और डांटती। तुम्हीं तो रात के बारह बजे तक पढ़ाती थी। तब मैं पढ़ता नहीं था क्या? अच्छे मार्कस नहीं आये तो, मैं क्या करूं? स्कूल में टीचर डांटती है और घर पर तुम´´ और प्रियतोष रोते-रोते बेहाल हो गया। हिचकियों से असकी सांस रूकने लगी। उसकी जवाब सुनकर उसकी मां स्तंभित रह गयीं।
इस पूरी घटना के दौरान में मूक दर्शक बना खड़ा रहा। शुरू से ही मैं प्रियतोष और उसकी मां को देख रहा हूं।ं प्रियतोष के स्कूल जाने से लेकर आज तक। जब प्रियतोष ढाई साल का था, उसकी मम्मी उसे जो कुछ सिखाती, उसे वह बहुत जल्दी सीख जाता था। कालोनी के बच्चों को रोज स्कूल जाते देखकर वह भी स्कूल जाने को मचल जाता। उसके स्कूल जाने के प्रति उत्सुकता और कुछ अपनी महत्वाकांक्षा के बीच आखिरकार उसकी उम्र तीन वर्ष बता कर उसे एल. के. जी. में दाखिल करवाया गया। तब उसके पापा-मम्मी बहुत खुश थे। रोज समय निकालकर दोनों उसे पढ़ाते। धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया। प्रियतोष स्कूल से आया नहीं कि उसकी मम्मी उसे पढ़ाने बैठ जाती। न उसे खेलने दिया जाता, न टी. वी. देखने। उसके जिद करने पर या तो कोई ऊंची सीख मिलती या फिर मार, इम्तिहान के समय ही नहीं, अक्सर उसकी मम्मी उसे पढ़ाती थी। जब खुद नही पढ़ा पाती तो उसके पापा पढ़ाने बैठ जाते। औसत से भी ऊंचा बौद्धिक स्तर था प्रियतोष का। याददाश्त में भी कोई कमी नही थी, फिर भी स्कूल से जब भी प्रोगेस रिपोर्ट आती तो घर में रोना-धोना अवश्य होता। पता नहीं दोष किसका था ? भारी भरकम पाठ्यक्रम का, स्कूल के स्तर का या घर में पढ़ने-पढ़ाने के लिए मां-पिता के रवैये का ? प्रियतोष के पहले तो अच्छे नंबर आये। मगर उसके माता-पिता चाहते थे कि उसके नंबर में आशातीत वृद्धि होनी चाहिए और इसके लिए वे स्कूल से आने के बाद उसे खाने-खेलने का समय भी न देते और पढ़ने-पढ़ाने पर जोर देते। धीरे-धीरे प्रियतोष का दिल पढ़ाई से उचटने लगा। मां के सामने वह पढ़ने का नाटक करने लगा। और आज उसी का परिणाम सामने था।
आज प्राय: सभी घरों में बच्चों की पढ़ाई को लेकर इस प्रकार की समस्या एक चुनौती बनी हुई है। एक ऐसी चुनौती, जिसे पार पाने के साधन क्या हैं, हमें पता नही है। हर अभिभावक के सामने कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर ढूंढना आसान नही है। केवल स्कूल की पढ़ाई के बल पर बच्चे इम्तहान पास नहीं कर सकते। खुद रोज पढ़ाये तो डर यह है कि बच्चे पूरी तरह मम्मी-पापा के ऊपर निर्भर हो कर न रह जाये। फिर हर अभिभावक बिना प्रशिक्षण पाये अच्छी मां या अच्छा पिता तो बन सकता है लेकिन एक अच्छा अध्यापक बनने के लिए प्रशिक्षण जरूरी होता है।
मुझे एक घटना याद आ रही है हमारे पड़ोस में एक दंपती स्थानांतरित हो कर आये। उनका एक लड़का था, उसे स्थानीय स्कूल में दाखिल करा दिया, बच्चे की सजग, पढ़ी-लिखी आधुनिका युवा मां रोज नन्हे बेटे के स्कूल से आते ही उसका बस्ता खोलती और उसे कुछ खिलाने पिलाने के बाद बैठ जाती होम वर्क कराने। एक हता ही हुआ था कि एक दिन शाम को उसके बेटे के स्कूल की टीचर उनके घर पहुंच गयी। बिना कोई भूमिका बांधे वे पूछने लगी ``क्या आप अपने बेटे को रोज होमवर्क कराती हैं ?´´ ``जी हां´´ मुस्करा कर सगर्व कहा उन्होंने उन्हें आशा थी की टीचर उनकी जिम्मेदारी के अहसास की प्रशंसा करेगी, लेकिन हुआ इसके विपरीत। टीचर बड़ी गंभीरता से कहने लगी- ``देखिए´´ छोटे बच्चों को पढ़ाना हमारा काम है। हमें इसके लिए ट्रेनिंग दी जाती है। गलत तरीके से पढ़ाने का नतीजा जानती हैं आप ? आपका बच्चा सदा के लिए किताबों से चिढ़ सकता है। उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति नष्ट हो सकती है। उसकी प्रतिभा कुंठित हो सकती है। आपका कर्तव्य केवल इतना है कि आप निश्चित समय पर बेटे को पढ़ने के लिए अवश्य बैठा दें। उसकी पढ़ाई में हस्तक्षेप न करें, यदि उसे कोई कठिनाई हो तो उसे दूर करने में सहायता अवश्य करें।´´
उक्त घटना ने मुझे प्रभावित किया और मैं इस विषय पर विचार करने लगा। आजकल स्कूल विशेषकर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई उनके ऊपर और उनके मां-बाप पर एक बोझ है, जिसे कम करने की जिम्मेदारी कम-से-कम अभी तो अभिभावक के हिस्से में आती है। यहां विचार करने की बात यह है कि आखिर ये समस्याएं बनती क्यों हैं ?
बच्चों का पाठ्यक्रम जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से कक्षाओं में बच्चों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन इन दोनों में तालमेल बैठाने के लिए हर टीचर को प्रशिक्षा प्राप्त नहीं हो पाता। कोर्स खत्म करने को ही अधिक महत्व दिया जाता है। बच्चों ने विषय को समझ लिया या नहीं, उसका अभ्यास हुआ या नहीं, इस विषय पर ध्यान नहीं दिया जाता। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को दाखिला दिलाने की होड़ इसलिए बढ़ती जा रही है, क्योंकि इन्हीं स्कूलों से पढ़े बच्चे जीवन में अधिक सफल होते नजर आते हैं। अंग्रेजी माध्यम होने के कारण हर बच्चे पर दोहरा बोझ होता है- एक तो नयी भाषा सीखने और सीख कर उसे लिखने का। इसमें मां-बांप को पढ़ाना आवश्यक हो जाता है।
बच्चों को पढ़ाते वक्त अपना बौिद्धक स्तर बच्चों से ज्यादा न रखें। अगर आप उच्च स्तर से बच्चों की कठिनाइयों को दूर करने लगेंगे, तो वह गड़बड़ा जायेगा। अत: सावधानी रखें। पढ़ाते समय बच्चे से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछे- आज क्या पढ़ाया गया स्कूल में, उसे कौन सा पाठ या कौन सी बात समझ में नहीं आयी। इसके साथ-साथ यह भी जानने की कोशिश करें कि किसी विषय को नहीं समझ पाने के पीछे कुछ भावनात्मक कारण तो नहीं है ? कई बार भावनात्मक कारणों से भी बच्चे पढ़ने से कतराने लगते हैं। एक बार मेरी बिटिया तृप्ति गुस्से में अपने विज्ञान टीचर को कोसते हुए कह रही लगी- ``पता नही ऐसे टीचर को स्कूल में क्यों रखा जाता है? भले मैं कितना भी अच्छा पढ़-लिख लूं ,मगर परीक्षा में उनकी बेटी से कम ही नंबर मिलते हैं। इससे पढने को मन नही करता ...`` मुझे उसकी बातों ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया। मैंने उसके स्कूल के प्रधानाचार्य से मिलकर वस्तुस्थिति पर बात की। प्रधानाचार्य ने दोनों बच्चों की कापी स्वयं चेक की और इस बार तृप्ति को सफलता मिली। यानी ऐसी समस्याओं के लिए बच्चों के टीचर और उनके प्रधानाचार्य से मिलते रहना चाहिए।
बच्चों को नियमित रूप से पढ़ाना चाहिए इससे वह अपने पाठ को अच्छे से समझेगा। मगर ऐसा कभी न करें जो ज्यादतीपूर्ण और बच्चे के अनुकूल न हो। ऐसे अभिभावक बच्चों को ढंग से समझाने के बजाय गुस्सा होकर मारने-पीटने लगते हैं। जिससे बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता और बच्चे की प्रतिभा कुंठित होने लगती है। अत: पढ़ाई का समय निर्धारित करते समय बच्चे की रूचि का भी ध्यान रखें। बच्चों को प्यार से पढ़ाना चाहिए। आपने यदि डांटते हुए पढ़ाना शुरू किया, तो बच्चे को आपके पास बैठने में डर लगेगा, वह सहमा रहेगा। खुलकर अपनी कठिनाइयों को बता नहीं पायेगा। इसी प्रकार यदि किसी कारण से आपका मूड ठीक नहीं है, तो उस दिन बच्चे को न पढ़ायें। अगर आप चिड़चिड़े मन से पढ़ाने लगेंगे, तो आपके मन की सारी खीज बेकसूर बच्चे पर उतरेगी।
बच्चे के मनोबल को बनाये रखने के लिए प्रोत्साहन जरूरी है। इसलिए कठिन पाठ पढ़ाते समय उससे कहिए कि कठिन पाठ को समझने में थोड़ी कठिनाई तो होती ही है। अत: घबराने के बजाय मन लगाओ, सब समझ में आ जायेगा। आपके इस प्रकार धीरज बांधने से उसका मनोबल बना रहेगा। कुछ मांएं ऐसे समय में अपनी शान बघारने लगती हैं। पिछले दिनों ऐसी ही एक महिला से मेरी मुलाकात हुई, जो अपने बच्चे को पढ़ाते समय हमेशा कहती थीं- ``मैं तो हमेशा फस्र्ट आती थी। कोई भी पाठ एक बार में ही समझ में आ जाता था और एक तू है, एकदम बुद्धू।`` उनके लगातार इस प्रकार कहते रहने से उसकी बच्ची का आत्मविश्वास डगमगा गया।
बच्चों को पढ़ाते समय कभी-कभी उनका दोस्त बन जाइए। आपको भी आनंद आयेगा और बच्चों को भी। कल्याणी यही करती हैं। बाजार से विभिन्न पशु-पक्षियों, फूलों, ए.बी.सी.डी. और गिनती का चार्ट और नक्शा ला कर उन्होंने एक कमरे में टांग दिया है। जब भी खाली समय मिलता है, बच्चों की रूचि के अनुसार पढ़ा देती हैं। तृप्ति और टीसू इसे एक खेल समझ कर पढ़ते रहते हैं।
एन.सी.इ.आर.टी. के चाइल्ड स्टडी यूनिट के प्रोफेसर उपदेश बेवली का कहना है कि ``हमारी शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि हम सिर्फ अंतिम लक्ष्य की प्रिाप्त को ही महत्व देते हैं, शिक्षण विधि को नही´´ आवश्यकता इस बात की है कि हम सही शिक्षण विधि अपनायें। अधिकांश अभिभावक बच्चों को गलत ढंग से पढ़ाते है, जिससे बच्चा बिना समझे विषय को रटने की कोशिश करता है। इससे बाद में पढ़ने के प्रति अरूचि पैदा होने लगती है। बच्चों को प्रारंभिक दिनों में प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा सिखाना चाहिए जो कुछ भी सिखाये खेल-खेल में सिखायें ताकि उसे समझकर सीखने का अवसर मिले। अपने आस-पास के वातावरण में ही उसे बहुत सी वस्तुएं दिखा कर तमाम बातें समझायी जा सकती है। इससे बच्चे की चिंतन शक्ति का विकास होता है। अभिभावकों को चाहिए कि घर में इस तरह वातावरण बनायें, जिससे बच्चे की पढ़ने में रूचि बढ़े। इसके लिए प्रशंसा व प्रोत्साहन से बढ़ कर कोई उपाय नही है।

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