रविवार, 5 फ़रवरी 2023

राजिम मेला के अवसर पर : धार्मिक आस्था का केंद्र राजिम

 राजिम मेला के अवसर पर

धार्मिक आस्था का केन्द्र राजिम

प्रो. अश्विनी केशरवानी

महानदी, सोढुल और पैरी नदी के संगम के पूर्व दिशा में बसा राजिम प्राचीन काल से छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दक्षिण कोशल में विख्यात् राजनीतिक तथा सांस्कृतिक धारा से सदैव सामंजस्य बनाये रखने वाला यह ऐतिहासिक नगरी रही है। यह नगर 20.58 डिग्री उत्तरी अक्षांश एवं 81.35 डिग्री पूर्वो देशांश पर स्थित है। रायपुर जिला में स्थित यह एक पौराणिक, प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं कला को अमूल्य धरोहरों को समेटे इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और कलानुरागियों के लिये आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। रायपुर जिला मुख्यालय से दक्षिण-पूर्वी दिशा में 50 कि.मी. की दूरी पर राजिम स्थित है। मंदिरों को इस प्राचीन नगरी की सीमा का निर्धारण दक्षिण पश्चिम में क्रमशः पैरी और महानदी से होती है। भूतेश्वर महादेव और पंचेश्वर महादेव के मंदिरों तक पैरी नदी की पृथक सत्ता प्रत्यक्ष देखने को मिलती है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक उपलब्धियों की उपादेयता सर्वमान्य तथ्य है। फलतः वे स्थान जहां से पुरातात्विक सामाग्रियां प्राप्त होती है, वह इतिहास एवं संस्कृति के अध्येताओं तथा अनुसंधान कर्ताओं  के लिये सहज आकर्षण के केन्द्र हो जाते हैं। इस दृष्टि से छत्तीसगढ़ में ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व राजिम को प्राप्त हैं वह स्थान किसी दूसरे स्थान को नहीं है। यह एक ऐसा स्थान है। जहां से प्राप्त सामाग्रियों का काल किसी विशेष युग से न होकर भिन्न-भिन्न कालों से है और उनका विषय राजनीतिक और सांस्कृतिक उभय प्रकृति का है और इतिहास निर्माण के साधन के रूप में उसका महत्व अपरिजात्य सा है। राजिम से लगे पितईबंध नामक ग्राम से प्राप्त मुद्रा से पहली बार ‘‘क्रमादित्य’’ नामक अज्ञात राजा को ऐतिहासिकता प्रकाश में आयी हैं साथी ही महेन्द्रादित्य के साथ उसके पारिवारिक संबंध का होना भी प्रमाणित हुआ है। महाशिव तीवरदेव का जो ताम्रपत्र राजिम से प्राप्त हुआ है। उससे उसके साम्राज्य  सीमा के निर्धारण में सहायता मिलती हैं विलासतुंग के नल वंश के इतिवृत्ति के ज्ञान का एक मात्र साधन राजीव लोचन मंदिर से प्रापत शिलालेख है। रतनपुर के कलचुरी नरेश जाजल्लदेव प्रथम एवं रत्नदेव द्वितीय के विजय का उल्लेख उसके सामंत जगपालदेव के राजीव लोचन मंदिर से प्राप्त अन्य शिलालेखों में हुआ है जिसके संबंध में अन्य अभिलेखों में कोई जानकारी नहीं मिलती। यहां के मंदिर और मूर्तियां लोगों की धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं इसके साथ ही भारतीय स्थापत्यकला एवं मूर्तिकला के इतिहास में छत्तीसगढ़ अंचल के ऐश्वर्यशाली योगदान को लिपिबद्ध करते समय अपने लिये विशिष्ट स्थान की पात्रता रखने वाला उदाहरण है। सर्वेक्षण में यहां से बहुत अधिक मात्रा में मृत्भांड के अवशेष प्राप्त हुये है। इसके आधार पर यहां के सांस्कृतिक अनुक्रम का अनुमानित समय निर्धारित हो सका हैं इन मृण्मय अवशेषों के अध्ययन से ही अब यहां पल्लवित संस्कृति का प्रारंभ चाल्कोलिथिक युग में तय किया है। 

सांस्कृतिक केन्द्र:- राजिम के इतिहास की अंतः प्रकृति राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। इसके उन्नयन में राजवंशों का ऐश्वर्यशाली एवं विलासितापूर्ण जीवन किसी भी युग में एकांकी रूप से गतिमान दिखाई नहीं देता। यहां का प्राचीन सांस्कृतिक कलेवर मूलतः लोकजीवन की विविध उपलब्धियों द्वारा अभिषिक्त रहा हैं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर हम राजिम के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का इस अंचल के अन्य स्थानों सिरपुर, मल्हार, आरंग, रतनपुर, खरौद और शिवरीनारायण आदि से करने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न युगों में इन नगरों के विकास के मूल में जनता की आकांक्षाएं एवं अभिलाषाएं ही प्रमुख रूप से क्रियाशील रही है। जन आकाक्षाओं को तुष्ट करने के उद्देश्य से अथवा अपनी वैयक्तिक सांस्कृतिक उपलब्धिओं को जन जन तक पहुुंचाने की अभिलाषा से शासक वर्ग का भी प्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त होता रहा है। इस तरह राजिम को प्राचीन, सांस्कृतिक उपलब्धियों का सामान्य जन जीवन से निकट का संबंध रहा है। इसके विपरित अन्य स्थानों के उत्कर्ष में यथेष्ट सीमा तक राजनीतिक आधार ही कारणभूत रहा हैं इसकी पुष्टि के लिये हम सिरपुर को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं यह प्राचीन दक्षिण कोशल के दो प्रमुख राजवंशों-शरभपुरियों एवं सोमावंशियों की राजधानी रही है। यहां के विकास में शासकों की वैयक्तिक भावनाओं, अभिरूचियों एवं राजत्वकाल की विशिष्ट परिस्थितियों का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा हैं यह सर्वमान्य है कि विशुद्ध राजनीतिक प्रश्रय द्वारा पोषित एवं सम्बंधित होने के कारण जो शताब्दियों तक ऐश्वर्य एवं समृद्धि की देवी का निवास स्थान रहा है, उसे अपने आश्रयदाता के पतन के साथ ही श्रीहीन होना पड़ा जो कभी अपने ऐश्वर्य एवं समृद्धि के कारण ‘‘श्रीपुर’’ नाम को सार्थक करता था, वही आज दुर्गम वन विधियों से आवृत, उदास, क्लांत, शोभाहीन एवं उपेक्षित छोटा सा ग्राम मात्र रह गया है। यही स्थिति रतनपुर, मल्हार, खरौद और शिवरीनारायण आदि को भी है।

यद्यपि राजिम अपने सुदीर्घ ऐतिहासिक जीवन में कभी उत्कर्ष का सुख  भोगा है, तो कभी अपकर्ष की पीड़ा भी झेला है। परन्तु किसी भी युग में धार्मिक एवं सांस्कृतिक भावभूति पर अवलम्बित जन आस्था का सम्बल मिलने से इसके विकास की संघ प्रवाहमान धारा को पूर्णतः अवरूद्ध नहीं किया जा सका हैं युग विशेष की बदलती मान्यताओं एवं परिस्थितयों के सम्यक प्रीााव द्वारा नियंत्रित परम्परा तथा आस्था को सदैव प्रश्रय देने वाली यह ऐतिहासिक नगरी छत्तीसगढ़ के प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक ही सांस्कृतिक उपलब्धियों से इेतिहासकारों, पुरातत्वविदों एवं जिज्ञासुओं को परिचित कराने में समर्थ है। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि राजिम का ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टि से अध्ययन प्राचीन दक्षिण कोशल के सांस्कृतिक इतिहास के सम्य ज्ञान के लिये आवश्यक है।

राजिम नाम को सार्थकता :- राजिम नाम को सार्थकता के लिये जनश्रुतियों का सहारा लिया जा सकता है। जनश्रुति से पता चलता है कि राजिम नामक एक तेलिन के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि एक समय जब राजिम तेल बेचने जा रही थी तो वह रास्ते में पड़े एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ी जिससे टोकरी में रखा तेल गिर गया। तेल के गिर जाने से वह अपने सास-ससुर से मिलने वाली प्रताड़ना की कल्पना मात्र से भयभीत होकर विलाप करने लगी और ईश्वर से उनसे रक्षा करने की प्रार्थना करने लगी। कुछ देर रोने के बाद अपने को संयत करके घर लौटने के लिये जब वह टोकरी को उठाने लगी तब तेल पात्र को भरा पाकर चकित हो गयी। फिर वह खुशी खुशी पास के गांव में तेल बेचने गयी वहां सुबह से शाम तक तेल बेचती रही लेकिन तेल पात्र खाली नहीं हुआ। इससे इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। प्रतिदिन की तुलना मे अधिक पैसा कमाने के बावजूद तेल पात्र को तेल से भरा पाकर खुशी से वह घर लौटी। लेकिन घर में उसकी बतायी बातों की किसी ने विश्वास नहीं किया बल्कि उसको पुष्टि के लिये दूसरे दिन उसी जगह से गुजर कर पास के गांवों में तेल बेचने जाते हैं लेकिन तेल पात्र में एक बूंद तेल कम नहीं हुआ जिससे उन्हे बहू की बातों का विश्वास हो गया। बाद में राजिम को एक रात स्वप्नादेश हुआ कि उस स्थान में दबे देव प्रतिमा को निकालकर प्रतिष्ठित करो। निर्दिष्ट स्थान की खुदाई करने पर एक श्यामवर्ण विष्णु भगवान की चतुर्भुजी प्रतिमा मिली। उस प्रतिमा को श्रद्धा पूर्वक घर लाकर उसकी पूजा अर्चना करने लगे। इसी समय वहां के राजा जगपालदेव को स्वप्नादेश हुआ कि लोकहित में वहां एक मंदिर का निर्माण कराकर राजिम तेलिन के घर स्थित प्रतिमा को उसमें प्रतिष्ठित करे। उन्होंने इस आदेश का श्रद्धा पूर्वक पालन करते हुए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और राजिम तेलिन के घर जाकर उस मूर्ति को मंदिर में प्रतिष्ठित करने हेतु देने को कहा। तब राजिम उस मूर्ति को सशर्त कि भगवान के नाम के साथ उसका भी नाम जोड़ा जाये, देने को राजी हो गयी। इस प्रकार मंदिर का नाम ‘‘राजिम-लोचन’’ हुआ जो आग्र चलकर ‘‘राजीव लोचन’’ कहलाने लगा।

सामान्यता विद्वानों ने इस जनश्रुति को पूर्ण सत्य नहीं माना है लेकिन इससे इंकार भी नहीं किया है। सत्यांश की पुष्टि के लिये दो तथ्य प्रस्तुत किये जाते है:-

1 उक्त कहानी में उल्लेखित राजा जगपाल को ऐतिहासिक पुरूष माना जा सकता हैं और 

2 उनकों जगपालदेव नाम उस राजा के साथ स्थापित किया जा सकता है। जिसका शिलालेख राजीव लोचन मंदिर की पाश्र्व भित्ति में लगा हुआ है।

3. राजीव लोचन मंदिर के सामने राजेश्वर तथा दानेश्वर मंदिर के पीछे जो लेकिन मंदिर के नाम से देव गृह है वह राजिम तेलिन संबंधी जनश्रुति को प्रमाणित करता है इस मंदिर के गर्भगृह में पूजार्थ एक शिलापट्ट ऊंची वेदी पर पृष्ठभूमि से लगा हुआ हैं इसके सामने उपरी भाग पर खुली हथेली, सूर्य, चुद्र और पूर्ण कुुंभ की आकृति विद्यमान है, नीचे एक पुरूष और स्त्री की सम्मुखाभिमुख प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में स्थित है। इसके दोनों पाश्र्व में एक-एक परिचारिका की मूर्ति स्थित है। शिलापट्ट के मध्य जुते बैलयुक्त कोल्हू का शिल्पांकन है।

रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद रायबहादुर हीरालाल ने जुते बैल युक्त कोल्हू को राजिम तेलिन की वंश परम्परा से चले आने वाले व्यवसाय की पतीकात्मक अभिव्यक्ति बताया है यह शिलापट्ट सती स्तम्भ कहलाता है। इसे आधार मानकर उन्होंने यह मत व्यक्त किया है कि यदि राजिम तेलिन से संबंधित जनश्रुति के मूल में सत्यांश है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अपने अपराध देव राजीव लोचन के सामने सती हुई थी परन्तु इसमें सत्यांश किस सीमा तक है तथा उसे कहां तक विश्वास किया जा सकता है यह निर्णय कर पाना कठिन है सती स्तम्भ के बारे मे विचार करने पर अज्ञान और माया के वशीभूत जीव की दशा का चित्रण कोल्हू और बैल को मानकर किया गया है और धर्माचरण से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, इस शाश्वत संदेश को अभिव्यक्त करने का उपक्रम इस पीठिका पर अंकित है, ऐसा प्रतीत होता है। परन्तु गहराई में जाने पर ही इसके गहन भावों और दार्शनिक तथ्यों को जान पाते है।

राजिम नाम के संबंध में एक दूसरी जनश्रुति भी प्रचलित है। इसका उल्लेख सर रिचर्ड जेकिंस ने एशियाटिक रिसर्चेज में किया है। उसके अनुसार राजिम श्रीराम के समकालीन राजीवनयन नाम किसी राजा की राजधानी थी। राजा राजीव नयन ने श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को पकड़कर महानदी के तट पर निवास कर रहे कंदर्मक ऋषि को सौंप दिया। घोड़े की रक्षा कर रहे शत्रुघन जब ऋषि कंदर्मक से अश्वमेद्य यज्ञ का घोड़ा को मांगा लेकिन ऋषि के मना करने पर शत्रुघन के आक्रमण कर दिया और ऋषि के क्रोधाग्नि से सेना सहित शत्रुघन मारे गये। अश्वमेघ यज्ञ की सफलता के लिये स्वयं श्रीराम को यहां आना पड़ा था। यहां श्रीराम के आने पर राजा राजीव नयन बिना युद्ध किये उनकी अधीनता स्वीकार कर ली। ऋषि कंदर्मक भी श्रीराम की विनती करने पर शत्रुघन सहित सेना को जीवित कर दिये। तब श्रीराम यहां अपना अस्तित्व ‘‘राजीव लोचन’’ के रूप में छोड़ते गये। आज भी यहां श्रीराम की मूर्ति प्रतिष्ठित है।

धर्मशास्त्र में व्याख्या :- भारतीय प्रतीक विज्ञान में वृष का संबंध धर्म से स्थापित किया गया है निरूवत में ब्रह्म के यज्ञ पुरूष रूप (धर्म) की कल्पना वृषभ रूप में की गयी है। श्रीमद् भागवत में धर्म के वृत्त रूप का उल्लेख करते हुये तप, ,शौच, ,दया और सत्य को उसका चार पैर बताया गया है। स्कंद पुराण में विष्णु के वृषभ रूप में अवतार लेने का वर्णन हैं योग वशिष्ठ में ऊखल को काली की आकृति कहा गया हैं काली शिव शक्ति का नाम है। कोल्हू का अधोभाग ऊखल का ही दूसरा रूप है। शक्ति तत्व के अनुरूप शिव-शक्ति की भी स्थाणु रूप में कल्पना की गयी है। महाभारत के अनुशासन पर्व में कूटस्थ लिंग को स्थाणु कहा गया है। कोल्हू का ललाट भाग स्थाणु है। इस तरह सम्पूर्ण कोल्हू लिंग और वेदी का एक स्वरूप होने से अर्द्ध नारीश्वर का प्रतीक है। यह अर्द्ध नारीश्वर रूप शिव-शक्ति सामरस का बोधक है जो सृष्टि का मूल है कोल्हू के वेदी अंग को योनी भी कह सकते हैं। शास्त्रकारों ने भी योनि को प्रकृति तथा लिंग को पुरूष माना हैं ‘‘लिंड.म पुरूष इत्युक्तोयोनिस्तु प्रकृतिः स्मृताः।’’ शिव पुराण के अंतर्गत वायु संहिता में भी शिव पवरमेशान को पुरूष और परमेश्वरी को प्रकृति कहा गया हैं सारण्य मतानुसार जड़ प्रकृति में चेतन पुरूष के संसर्ग से उत्पन्न संक्षोभ सृष्टि का कारण है। कोल्हू के अधोभाग अर्थात् वेदांे, योनि अथवा प्रकृति को उपर के ललाट अर्थात स्थाणु लिंग या पुरूष संसर्ग स्थिर रखने वाले तथा गति उत्पन्न करने वाला रज्जु काल सर्प का प्रतीक है। इस तरह कोल्हू चराचर जगत का और उसमें जूता बैल धर्म का सूचक कहा जा सकता है तथा इस रूपांकन का तात्विक भाव ‘‘धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा’’ को अभिव्यक्त करता है। अतः ऐसी स्थिति में कोल्हू एवं बैल को व्यवसाय का प्रतीक कहना युक्ति संगत नहीं होगा। इस प्रकार का दूसरा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जिससे यह स्वीकार किया जा सके कि सती स्तम्भों पर सती नगरी के व्यवसाय आदि को प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करने की परम्परा रही हो। 

कलचुरी कालीन राजिम :- राजीव लोचन मंदिर के महामंडप को पाश्र्व भित्ति पर कलचुरि संवत् 896 का एक शिलालेख है जिसे रतनपुर के कलचुरी नरेशों के सामंत जगपालदेव ने उत्कीर्ण कराया था। इस अभिलेख में ंजगपालदेव के वंश का नाम ‘‘राजमाल’’ उल्लेखित है। कनिंघम ने राजमाल वंश नाम से ही ‘‘राजम-राजिम’’ नाम की उत्पत्ति मानी है। यद्यपि राजमाल से राजिम नामकरण का प्रचलन संभव प्रतीत होता है परन्तु शब्द साम्य के आधार पर इस अनुमान को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता । अधिकांश विद्वान ‘‘राजिम’’ को ‘‘राजीव’’ का विकृत रूप मानते है। इस संदर्भ में वे ‘‘राजीव लोचन’’ से भगवान विष्णु के एक विरूद का आश्य स्वीकार करते हैं इसकी प्रमाणिकता के लिये वहां की प्रसिद्ध विष्णु की प्रतिमा को प्रस्तुत किया जा सकता है।

गुप्त कालीन मूर्तिकला का केन्द्र :- राजीव लोचन मंदिर पंचायत शैली का हैं मुख्य मंदिर ऊँचे विस्तृत चबुतरे पर बनाया गया है। उसके चारों ओर चार देवलिकाएं अर्थात छोटे मंदिर बनाए गये है। मुख्य मंदिर के तीन भाग है मंडप और दक्षिण-पश्चिम छोर से सीढ़ियां बनी है जिसमें चढ़कर मंदिर में प्रवेश किया जा सकता हैं मंडप के बीचोबिच स्तम्भों की दो पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में छः स्तम्भ के नीचे का भाग सपाट है जबकि उपरी भाग में गंगा-यमुना, वराह, नृसिंग,सूर्य और दुर्गा की देव प्रतिमाएं अंकित हैं गर्भगृह में भगवान विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा है वे अपने चारों हाथ में शंख, चक्र.,पद्म और गदा धारण किये हुये है।

राजिम को अधिकांश मूर्तियों में त्रिभंग अंगयष्टि के रूपायन द्वारा दैहिक सौंदर्य में लयात्मकता, कोमलता तथा रसात्मकता की प्रतिष्ठा की गयी हैं यहां की कुछ मूर्तियों में विशेष प्रयोजन की अभिव्यक्ति के लिये यदि एक भंग अथवा अतिभंग मुद्रा का आश्रय लिया गया है तो ऐसे उदाहरणों में आंगिक लयात्मकता, कोमलता, सुडौलता आदि को पूर्ण मनोयोग के साथ प्रस्तुत किया गया है। यहां कि अनेक मूर्तियों दैहिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति के लिये रूपमंडन, सुललित अंग विन्यास, अंग विच्छेप तथा भाव भंगिमा के निर्देशन में मूर्तिकारों ने आक्रामक भाव का चयन किया है। इस तरह यहां शिल्पियों ने ‘‘रूप पापं वृत्तये न’’ उक्ति को बड़ी चतुराई और उदारता के साथ प्रस्तुत किया हैं इन मूर्तियों में श्रृंगार और अध्यात्मिकता का मनोरम समन्वय है यही इनके चिरत्तर रसात्मकता का आधार है। गुप्त कालीन तथा पूर्व मध्यकालीन परम्परा में हम यहां की मूर्तियों को अधोवस्त्र धारण किये जाते हैं नारी मूर्तियों में कटि के उपर के अंग को ढकने के लिये उत्तरीय अथवा स्तनोत्तरीय के रूप में प्रयोग किये जाने वाले वस्त्र भी पाते है जिसके छोर बड़े कलात्मक ढंग से लटकते दिखाये गये हैं यहां की मूर्तियों में विविध अलंकरणों का समायोजन गुप्त परम्परा तथा पूर्व मध्यकालीन परम्परा का है। डाॅ. विष्णु सिंह ठाकुर राजिम के मंदिरों के शिल्प के संबंध में लिखते हैं - ‘‘प्राचीन कलाकृतियां जहां एक ओर भौतिक जीवन के हर्ष-विषाद के क्षणों को सुख-दुख की अनुभूतियों को शील, संयम आदि भौतिक गुणों तथा समृद्धि एवं ऐश्वर्य को प्रस्तुत करती है, वही दूसरी ओर उनके प्रति कलात्मकता में अध्यात्म का स्वर सद्यः मुखरित रहता है। यह दूसरा पक्ष ही भारतीय कला का प्राण बिन्दु रहा है।’’

‘‘राजिम माहात्म्य’’ में इसे ‘‘पद्म क्षेत्र’’ कहा गया है। इसमे आंचलिक विश्वास एवं धार्मिक का पुट है। सृष्टि के आरंभ में भागवान विष्णु के नाभि कमल की एक पंखुड़ी पृथ्वी पर गिरी पड़ी। इसी कमल दल से ढका भूभाग कालान्तर में ‘‘पद्म क्षेत्र’’ के नाम से जाना गया। कुलेश्वर महादेव (उत्पलेश्वर लिंग) को केन्द्र मानकर चम्पेश्वर, बावनेश्वर, फिंगेश्वर तथा पटेश्वर-इन पांचों शिव लिंगों की ‘‘प्रदक्षिणा’’ को पंच कोशी यात्रा कहते है। चारों दिशाओं में स्थित धाम और गुप्त तीर्थधाम शिवरीनारायण के बाद राजिम का दर्शन साक्षी गोपाल के रूप में किया जाता हैं माघ पूर्णिमा को यहां मेला लगता है जो छत्तीसगढ़ के प्रमुख मेले में से एक है।


 प्रो. अश्विनी केशरवानी

‘‘राघव‘‘, डागा कालोनी,

चाम्पा 495671 (छत्तीसगढ़)



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